होते,
तो 82
साल के
होते
सुनील यादव
की क़लम से
‘शानी’ भाईजान आज आप होते, तो 82 साल के होते। 16 मई, 1933 को जगदलपुर में आपका जन्म हुआ था। देश के सबसे बड़े जिले बस्तर, जो तब एक रियासत हुआ करता था। और जगदलपुर उसकी राजधानी। अत्यंत पिछड़ा हुआ, रायपुर से लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर। यातायात के साधनों से कटा हुआ, खनिज संपदा से भरपूर ‘जगदलपुर।’ जिसके बारे में आपने लिखा है, “सुंदर-असुंदर पहाड़ियों, चित्र शलभी- पंखों से सजी नशीली घाटियों और अंग में केवड़ई गोराई बांधे, दूध के उफान से उजले, तपस्वी से साधक और एकनिष्ठ और ऋषिकन्या के पाजेब की सुकुमार गूँज में मुखरित झरनों से घिरा एक छोटा सा शहर- जगदलपुर।” शानी भाईजान आपकी इंद्रावती नदी जगदलपुर को आगोश में लेकर आज भी बहती है, पर अब उसके चाल में वह मदहोशी नहीं रही, जिसमें आप घंटों डूबा रहा करते थे। अब उसके पानी का रंग लाल हो चुका है और आपके ‘मोती तालाब’ का ‘काला जल’ और भी काला । आपके अपने लोगों ने आज हथियार उठा लिए हैं, एक अघोषित जंग चल रही है।
इसका अंदेशा
तो आपको बहुत पहले हो चुका था,
शानी
भाईजान !
तभी तो
आपने अपने उपन्यास ‘साँप और
सीढ़ी’ तथा अपने प्रख्यात
संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’
में इसके संकेत दे दिये थे।
आपने ‘शाल वनों के द्वीप’ में
एक जगह लिखा है-
“सुना
है यह डाही खेती (अबूझमाड़
के पहाड़ी माड़ियों की खेती की
एक प्रणाली जिसमें जंगल जला
कर कुटकी और दाल बोये जाते
हैं)
सरकार
कानूनन बंद करने जा रही है,
पटेल(अबूझमाड़
का एक आदिवासी)
को सुनाते
हुए मैंने(शानी)
एड (एक
विदेशी शोधकर्ता )
से कहा।’
‘क्यों?’
‘ख्याल
है कि इसमें काफी जंगल बरबाद
होते जा रहे हैं’ ‘डाही खेती
क्या है?’
पटेल ने
पूछा। ‘यही जो तुम लोग जंगल
जलाकर करते हो।’ ‘पटेल जैसे
मेरी नासमझी की बात पर हँसने
लगा। बोला,
‘सरकार
कैसे बंद कर सकती है?’
‘क्यों,
जब कानून
ही बन जाय तो क्या करोगे?’
‘यहाँ
मानेगा कौन?’
पटेल ने
मुस्कराकर कहा,’
वही तो
हमारा खाना-पीना
है......।’
कानून न मानने की बात जैसी
दृढ़ता से पटेल ने कही,
उससे
चकित होकर मैं ‘एड’ की ओर देखने
लगा। डाही खेती सदियों पुरानी
उनकी परंपरा है,
जिसे
एकाएक तोड़ कर बदल देना आसान
नहीं । सचमुच,क्या
होगा यदि ऐसा कानून ही बन जाय?
क्या
किसी सामूहिक विरोध की संभावना
हो सकती है ?
क्या यह
हो सकता है कि..........।”
शानी भाईजान,
आप जिस
बात को कहते-कहते
रुक गए थे,
आज वह सच
साबित हो गयी । आपका दंडकारण्य
जल रहा है शानी भाईजान !
आपकी वह
सब संभावनाएं सच हो गयीं,
जो आपने
अपने उपन्यास,
कहानियों
तथा संस्मरणों में व्यक्त की
थीं। आप तो उसी बस्तर के थे
शानी भाईजान!
दंडकारण्य
क्यों जल रहा है?
इसकी
खोजबीन में कोई आपके पास क्यों
नहीं आया?
क्योंकि
आपके पास उसका जवाब था,
शायद कोई
इसका जवाब चाहता ही नहीं!
आप
भारत-पाकिस्तान
के युद्ध के दौरान बहुत तनाव
में थे,
‘युद्ध’
कहानी पढ़ते हुए मैंने समझा
कि आपकी नसें क्यों फटी जा रही
थीं। शानी भाईजान आप दिखावे
के सेकुलिरिज़्म से क्यों इतना
चिढ़ते थे,
उसको मैं
तब समझ पाया जब आप राही मासूम
रज़ा जी से पूछ रहे थे,
“मासूम
भाई,
महाभारत
के लेखक आप क्योंकर हुए और
भारत के लेखक क्यों नहीं?
कैसा लगा
होगा जब महाभारत के साथ किसी
मुसलमान का नाम जुड़ते ही
आपत्तियां उठाई गयीं और आपने
अपनी प्रतिभा से उसे कीर्ति
के शिखर पर पहुंचा दिया तो वे
क़सीदे पढ़ने लगे?
कैसा
लगा होगा आपको जब तारीफ़ के
तोहफ़े के बहाने किसी ने कसकर
तीर मारा होगा-
इन हरिजनन
मुसलमानन पे कोटिन हिंदू
वारिए.......।”
आप अपनों के बीच भुला दिये गए शानी भाईजान ! आपके उपन्यास ‘काला जल’ को लेकर दंभ भरने वाली आपकी साहित्यिक बिरादरी ने भी आपको भुला दिया! अभी कुछ दिन पहले आपके एक अत्यंत प्रिय मित्र जो कहते रहे कि ‘डरता कौन है शानी से!’ वहीं आपके ही क्षेत्र के एक तरुण रचनाकर के बहस के केंद्र में आपके बस्तर के लोग थे । पर आप उस बहस में कहीं नहीं थे। अरुंधति राय, गौतम नवलखा, वैरियर एल्विन, श्यामाचरण दुबे, डॉक्टर विनायक सेन इत्यादि के लेखन और कार्यो की इस बहस में लगातार चर्चा हुई। इन लोगों की चर्चा होनी भी चाहिए क्योंकि इन लोगों ने महत्वपूर्ण काम किया है, पर आपका एक बार भी जिक्र तक नहीं हुआ। क्या आपका ‘शाल वनों का द्वीप’ किसी भी एंथ्रोपोलिजकल शोध से कम है? जिसके बारे में एडवर्ड जे. जे. ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि “शानी की यह रचना शायद उपन्यास नहीं, एक अत्यंत सूक्ष्म संवेदना युक्त सृजनात्मक विवरण है, जो एक अर्थ में भले ही समाजविज्ञान न हो लेकिन दूसरे अर्थ में यह समाज विज्ञान से आगे की रचना है ।” शानी भाईजान ! आपको सिर्फ ‘काला जल’ उपन्यास के लेखक के रूप में ही याद क्यों किया जाता है ? आपके संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ जैसा संस्मरण हिंदी में दूसरा कौन है ? फिर भी हिंदी साहित्य के इतिहास की किताबों से यह गायब क्यों है ? क्या ‘काला जल’ साहित्य अकादेमी पुरस्कार के लायक रचना नहीं थी ? चलिये मैं मानता हूँ कि राही मासूम रज़ा के ‘आधागांव’ को साहित्य अकादेमी इसलिए नहीं दिया गया कि उसमें बेशुमार गालियाँ(?) थी, पर काला जल में क्या था ? कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनके जवाब सबको पता होता है शानी भाईजान !
कभी ग्वालियर
में अपने लिए मकान ढूँढते हुए
आपको अपनी अस्मिता का बोध हो
आया था। उस समय आप हिंदुस्तान
के सबसे बड़े सच का सामना कर
रहे थे,
जब मस्जिद
से सटे आपके मकान के सामने
मुसलमान भाईयों ने गाय का
गोश्त फेंक दिया था। क्योंकि
वे आपको शानी नहीं बल्कि कोई
पंजाबी साहनी समझे थे। पर शानी
भाईजान !
मेरे इस
छोटे से जीवन में ही,
साहित्य
के क्षेत्र में शोध करने वाले
बहुत लोग ऐसे मिले हैं,
जो ‘शानी’
नाम लेते ही ‘भीष्म साहनी’
ही समझते हैं। और अंत में
जानिसार अख्तर की ये दो पंक्तियाँ
जिसे आप अक्सर गुनगुनाया करते
थे:
और तो मुझको मिला क्या मिरी मेहनत का सिला,चंद सिक्के हैं मेरे हाथ में छालों के सिवा।
(लेखक-परिचय:
जन्म :
29 दिसंबर
1984
को ग्राम करकपुर, गाजीपुर
(उ
प्र )
में
शिक्षा :
आदर्श
इंटर कॉलेज गाजीपुर से अरभिक
शिक्षा,
इलाहाबाद
विश्वविद्यालय
से बीए और एमए। महात्मा गांधी
अंतर्राष्ट्रीय
हिन्दी
विश्वविद्यालय से पी-एच
डी की उपाधि (2013)(कंप्लीट
है पर उपाधि
अभी मिली नहीं
है )
सृजन :
पहल जैसी
अहम पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। समसामयिक
सृजन पत्रिका के लोक विशेषांक
का संयोजन।
संप्रति :
इलाहाबाद
में रहते हुए स्वतंत्र लेखन
व शोध कार्य में सक्रिय
संपर्क :
sunilrza@gmail.com)