बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

चुप होंगे साहित्यकार-कवि


टिटिहरी गाएगी मृत्युराग













अदनान कफ़ील की कविताएं

आताताई

सुनो साथी !
उस दिन की कल्पना करो
जब आएगा आताताई
अपने लश्कर के साथ
इन मक्खन-सी मुलायम
सड़कों को रौंदते हुए
कुचलते हुए हरी दूब को।
उस दिन तुम्हारे चौपाल पर धूल उड़ेगी
कबूतर दुबक जायेंगे
अपने दड़बों में
टिटिहरी गाएगी मृत्युराग
उस दिन सूरज नहीं खिलेगा आकाश में
बल्कि दूर क्षितिज के उस पार
किसी अज्ञात कोने में
सहमा दुबक जायेगा।
रहट ख़ामोश होगी
बेज़ुबान होगी बुलबुल

लेखक चुप होंगे
चुप होंगे साहित्यकार-कवि
जो नहीं होंगे चुप उनके ज़ुबान खेंच लिए जायेंगे
अखबार के पन्ने स्याह होंगे
आतताई के स्वागत गीतों से
उनमें दर्ज होंगी आततायी की जीवनी
उससे सम्बंधित छोटी-छोटी बातें
मसलन उसके मूंछों की लम्बाई-चौड़ाई वगैरह-वगैरह

साथी ! उस दौर में वो कलम घसीट बड़े साहित्यकार-पत्रकार कहलायेंगे
जो बैठे होंगे साहिब की गोद में
उस दौर में बनेंगे बड़े-बड़े पुल, मेट्रो-रेल
बड़ी प्रगति होगी
लेकिन रघुआ फिर भी मैला ही उठाएगा
कल्लन मियाँ चाय ही बेचेंगे।

सड़कें रगड़-रगड़ कर चमकाई जाएँगी
जिसपर चलेगा आततायी अपने लश्कर के साथ
उसकी भावनाहीन आँखें तनी होंगी अभिमान से
उसके चेहरे पर बिखरी होगी
विजयी कुटिल मुस्कान

आततायी होगा उस दौर का अकेला तानाशाह
साथी उस दौर में हमें तय करनी होगी अपनी भूमिका
कि हम कैसे जीना पसंद करेंगे
अँधेरे के अधीन होकर
या फिर
अपने कलम को तलवार
और अपनी हड्डियों को मशाल बना कर. 

झूठों के शिलालेख

वो लिखेंगे झूठ
शिला-खण्डों पर
ताकि सभ्यता के
समाप्त हो जाने के बाद भी
बचा रह जाये
उनका झूठा-सच
लेकिन साथी
हम लिखेंगे सच
चाहे रेत ही क्यूँ न हो अपने पास
साथी हम बोलेंगे सच
तब तक
जबतक कि
हमारी ज़ुबाने नहीं काट ली जातीं।

एक कवि का डर
मैं मौत से ख़ायफ़ नहीं होता
न ही मुझे डर लगता है
किसी भूत-पिशाच-प्रेतात्मा से
लेकिन मैं डरता हूँ
वक़्त के
अंतहीन-संकरे-घुप्प-सुरंग से
डर लगता है मुझे
इतिहास की डरावनी आँखों से
डरता हूँ मैं कभी-कभी अपने ही हाथों से
कभी-कभी मैं अपने आप से
बहुत डरता हूँ साथी...

पिपासा

जब भी तुम्हें
अपनी इन आँखों से देखता हूँ
हर दफ़ा
थोड़ा ही देख पाता हूँ
और तुम्हें
सम्पूर्णता में देखने की तृष्णा
और बढ़ जाती है
मैं इन कंचे-सी अपनी आँखों को
अब और नहीं पहनना चाहता
मैं तुम्हें
एक अंधे की आंख से
देखना चाहता हूँ ...

साथी से

ये चराग़ बुझा दो
मैं तुम्हें अँधेरे में देखना
ज्यादा पसंद करता हूँ
क्यूंकि
अँधेरे में
मेरे अन्दर का आदमी
तुम्हें
एक आदमी की तरह देखता है
एक औरत की तरह नहीं...

देह से परे

तुम्हें हर दफा
एक देह की तरह देखा गया
कभी तुम्हें किसी मूर्ति में जकड़ा गया
तो कभी तुम्हें
किसी पेंटिंग में बंद कर
लटकाया गया
किसी दीवार से
सबने तुम्हारे आरिज़ के रंग और सुडौलता
के क़सीदे पढ़े
लेकिन किसी ने नहीं देखी
तुम्हारी पनीली आँखें
तुम्हें घुटते हुए किसी ने नहीं पाया
लेकिन मैं तुम्हारे अस्तित्व को
समग्रता में देखता हूँ
तुम्हारी कठिनाइयों, संवेदनाओं और
संघर्षों का इकलौता गवाह हूँ मैं
मैं तुम्हें एक देह की तरह नहीं
एक जीते जागते इंसान की तरह देखता हूँ .....

मैं अब सोना चाहता हूँ

मेरा सिर अनिर्वचनीय बोझ से
दुःख रहा है साथी
मेरी जिह्वा में
बहुत ऐठन है
मेरी आँखों का तेल
चूक गया है
लम्बे सफ़र के बाद
अब मैं दो घड़ी
सोना चाहता हूँ साथी ...

सोता हुआ आदमी

सोता हुआ आदमी
झूठ नहीं बोलता
सोता हुआ आदमी
गाली नहीं देता
सोता हुआ आदमी
किसी का क़त्ल नहीं करता
न ही सोते हुए रचता है साज़िशें
सोता हुआ आदमी मुखौटा भी नहीं लगाता
सोते हुए आदमी, आदमी होता है.

मैं लिखूंगा एक कविता मेरी जान

मैं लिखूंगा एक कविता मेरी जान
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए
जिसमें करूँगा ज़िक्र तितलियों का
मधुमक्खियों का, चींटियों का.
गुलाब, चमेली के फूलों और अमलतास के पत्तों का
उसमें करूँगा ज़िक्र तुम्हारी भिन्न-भिन्न मुद्राओं का
मापूंगा तुम्हारी हँसी को अपनी कविता के स्केल से
और खींचूंगा वैसी सैकड़ों हंसी
और बिखरा दूंगा तुम्हारे चारों ओर
चाँद से थोड़ी चांदनी उधार मांग लूँगा
और बुनूँगा उससे एक चमकदार शॉल तुम्हारे लिए
तारों से थोड़ी टिमटिमाहट चुरा लूँगा
और तुम्हारी नाक की लौंग में नग की जगह भर दूंगा

हाँ मेरी जान मैं लिखूंगा एक कविता
एक ऐसी कविता जिसमें दर्ज होगा
तुम्हारा गुनगुना स्पर्श
तुम्हारा मुलायम-गीला-चुम्बन
जिसमें दर्ज होगी तुम्हारे गालों की लालिमा
तुम्हारे गुलाबी होंठ
तुम्हारी रूबी और नीलम सी आँखें

हाँ मेरी जान मैं लिखूंगा एक कविता
ऐसी कविता जिसमें इन सबका ज़िक्र होगा
लेकिन न होगा तो सिर्फ मेरा
क्यूंकि तब मैं 'मैं' नहीं रहूँगा
'तुम' हो जाऊंगा.
तब तुम मुझे ख़ुद में तलाशना.....

शैतान

अब वो काले कपड़े नहीं पहनता
क्यूंकि तांडव का कोई ख़ास रंग नहीं होता
ये काला भी हो सकता है और लाल भी
भगवा भी और हरा भी.

अब वो आँखों में सुरमा भी नहीं लगाता
अब वो हवा में लहराता हुआ भी नहीं आता
ना हीं अब उसकी आँखें सुर्ख और डरावनी दिखतीं हैं
वो अब पहले की तरह चीख़-चीख़कर भी नहीं हँसता
ना हीं उसके लम्बे बिखरे बाल होते हैं अब.

क्यूंकि इस दौर का शैतान
इंसान की खाल में खुलेआम घूमता है
वो रहता है हमारे जैसे घरों में
खाता है हमारे जैसे भोजन
घूमता है टहलता है
ठीक हमारी ही तरह सड़कों पर
और मज़ा तो ये
कि वो अखबार में भी छपता है
टी.वी. में भी आता है.

लेकिन अब उसे कोई शैतान नहीं कहता
क्यूंकि उसके साथ जुड़ी होती हैं जनभावनाएँ
लोग उसे "सेवियर" समझते हैं
और अब अदालतें भी कहाँ
सच और झूठ पर फैसले देतीं हैं साथी ?
अब तो गवाह और सबूत एक तरफ़
और सामूहिक जनभावनाएँ दूसरी तरफ.

अब इस अल्ट्रा मॉडर्न शैतान की शैतानियाँ
नादानियाँ कही जाती हैं
क्रिया-प्रतिक्रिया कही जातीं हैं.

इस दौर का शैतान बेहद ख़तरनाक है
क्यूंकि अब उसकी कोई ख़ास शक्ल नहीं होती
वो पल-पल भेस बदले है साथी
वो तेरे और मेरे अन्दर भी
आकर पनाह लेता है कभी-कभी
अब ज़रूरत इस बात की है
कि हम अपने इंसानी वजूद को बचाने के लिए
छेड़ें इस शैतान के साथ
एक आख़िरी जिहाद
एक आख़िरी जंग
इससे पहले की बहुत देर हो जाए..


(कवि-परिचय:
 जन्म: ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में जुलाई  30, 1994
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में स्नातक
संप्रति: दिल्ली रहकर अध्ययन और स्वतंत्र लेखन 
सृजन: बचपन से ही शायरी और कविता, छिटपुट प्रकाशन
संपर्क: thisadnan@gmail.com )

हमज़बान पर अदनान  की और कविताएं




Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

4 comments: on "चुप होंगे साहित्यकार-कवि "

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

बहुत बढ़िया कविताएं पढ़ने को मिलीं।

mukti ने कहा…

अदनान की कविताएँ फेसबुक पर पढ़ती रही हूँ. यहाँ एक साथ इतनी कविताएँ पढ़कर बहुत अच्छा लगा. अदनान की कविताओं में सच्चाई होती है, और सच्चाई को व्यक्त करने की बेचैनी भी.

bhavpreetanand ने कहा…

कविताएं अच्छी हैं। पढ़ना सुखद अनुभूति देती है। पर भाई चीजों को और परिपक्व होने की आवश्यकता है। आप कवि हो। चाहो तो सिगरेट की डिब्बी पर भी दस लाइन लिख सकते है। पर मैं जो आपसे कहना चाहता हूं वह है, चीजों को बाध्यकारी होने दें। ठीक जैसे हम सबों को सिरदर्द होता है। हम सहते हैं। हम जानते हैं कि दर्द है। पर जब तक वह अित नहीं होता, हम दवा नहीं लेते हैं। स्वभाव के अनुरूप टालते रहते हैं। कविता उसी दवा लेने की बिंदु से शुरू होने चाहिए। मन-मस्तिष्क के लिए बाध्यकारी। मैं जानता हूं यह बातें आप भी जानते होंगे। और शायद इसे अपनाते भी होंगे।

anwar suhail ने कहा…

हिन्दुस्तानी जुबान की बेहतरीन कविताएँ...एक नई आवाज़, नये मुहावरे, नया तेवर...सब कुछ बेहद असरदार..मुबारक अदनान भाई और shahroz भाई

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)