दिल्ली में बस कुछ नहीं, आप ही आप
भवप्रीतानंद की क़लम से
देश में परंपरागत पार्टियों के लिए यह बहुमत सुधरकर सलीके से काम करने का संकेत दे रहा है। परंपरागत पार्टियां मतलब भाजपा और कांग्रेस को अपनी बैठकों में इस बात पर निश्चित मंथन करना चाहिए कि वह कौन-सा आंतरिक फोर्स काम कर रहा था, जो आप को लोगों ने इकतरफा वोट दे डाले। भ्रष्टाचार से मुक्ति हर आमोखास चाहता है। यह एक बहुत बड़ा मुद्दा तो है ही। दिल्ली में लोकल समस्या बिजली-पानी से जुड़ी है। इस संबंध में केजरीवाल की पिछली पचास दिनों की सरकार ने बहुत ठोस कदम उठाए थे। उस ठोस कदम का फायदा भी लोगों मिलने लगा था। इसके अलावा दिल्ली में एक प्रमुख समस्या कच्ची बस्ती की मान्यता से जुड़ी हुई है। उसके नियमन के लिए भी आप ने नीतिगत आश्वासन दिया था। ये कुछ ऐसे तत्व हैं, जो लोगों को आप के करीब ले आई। खासकर कच्ची बस्ती के नियमन से जुड़े मुद्दे ने निम्र मध्यमवर्गीय परिवार को आप के करीब ला दिया। इसके बरक्स भाजपा और कांग्रेस के वादे सिर्फ कोरे वादे ही लगते हैं। दोनों पार्टियां चुनाव के समय किए गए वादे को सत्ता मिलने के बाद लगभग भूल जाती हैं। फिर उन्हें उन लोगों की फिक्र ही नहीं रहती, जिसने उन्हें सत्ता दी है। यह जो ट्रेंड पारंपरिक पार्टियों में है, वादों से मुकरने का, इसके टूटने की दिन अब आ चुके हैं। अगर इस मिथ को इन पार्टियों ने नहीं तोड़ा तो उनका नामलेवा भी कोई नहीं रह जाएगा। जैसा कि अभी कांग्रेस की गत हुई है। लोकल मीडिया में एक जुमला खूब चला है कि भाजपा का भी यारो अजीब गम है। पहले चार कम थे...अब चार से भी कम है।
दिल्ली का विधानसभा चुनाव परिणाम है, इसलिए इसके राष्ट्रीय अर्थ भी निकाले जाते हैं। भाजपा में मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने कई चुनाव जीते हैं। दिल्ली में उन्हें मुंह की खानी पड़ी है। इसलिए कोई इसे दिल्ली भाजपा की हार या दिल्ली भाजपा की रणनीतिक असफलता मानने को भी तैयार नहीं है। खासकर तब जब भाजपा ने दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के लिए हैलीकॉप्टर लेंडिंग की तरह किरण बेदी को उतारा। दिल्ली में किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर उतारने के बाद से ही भाजपा कार्यकर्ताओं में नाखुशी थी। खासकर किरण बेदी की कार्यशैली को लेकर। वह भाजपा या संघ की बातों को तवज्जो ही नहीं दे रही थीं। किरण बेदी का प्रशासनिक कार्यकलाप उन्हें राजनीति में कभी सहजता से लोगों से रूबरू नहीं होने देगा, इसे दिल्ली की चुनाव ने साफ कर दिया है। अमित शाह ने मुखमंत्री पद के लिए किरण बेदी को इसलिए प्राथमिकता दी कि वह साफ छवि की हैं। भ्रष्टाचार से मुक्ति की बात केजरीवाल के बरक्स वही करेंगी तो दिल्ली की जनता में अच्छा संदेश जाएगा। फिर मोदी की चार-पांच सभाएं कराकर दिल्ली के किले में भी घुस जाया जाएगा। लेकिन यह सब दांव उलट पड़े। सबसे पहले संघ और पार्टी कार्यकर्ताओं में किरण बेदी को लेकर उपेक्षा का भाव पनपा। जो ठीक चुनाव के पहले स्पष्ट रूप से दिखाई देना शुरू हो गया था। दूसरा, जो सबसे खतरनाक ट्रेंड दिखाई दिया वह यह है कि पार्टी में वर्षों समय खपाने के बाद अगर बाहर से मुख्यमंत्री पद के लिए किसी को बिठा दिया जाता है तो पार्टी में उपेक्षा का वातावरण पसर जाता है। यही बेदी के साथ हुआ। हार के बाद उनका पहला स्टेटमेंट देखिए, मैं हारी नहीं हूं। हार के बारे में जानना है तो भाजपा से पूछो। सोचिए, जिस प्रशासनिक अधिकारी कम नेता को आपने मुख्यमंत्री पद के लिए चुना वह पूरी पार्टी को ही कटघरे में खड़ा कर रही है। भाजपा यही भूल पश्चिम बंगाल में क्रिकेटर सौरभ गांगुली को पार्टी में लाकर करना चाहती है। वो तो सौरभ ही बार-बार कन्नी काट रहे हैं। कुल मिलाकर अपने पार्टी में तपे नेता में से ही किसी एक को चुनकर उसे प्रोजेक्ट किया जाए तो अधिक अच्छा है। किरण बेदी वाला प्रयोग भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए एक सबक से कम नहीं है।
(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
चित्र: गूगल से साभार |
भवप्रीतानंद की क़लम से
अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिले असाधारण बहुमत पर अचंभित हैं, और कह रहे हैं, यह बहुमत डरानेवाला है। आप कार्यकर्ताओं को चेता रहे हैं, अधिक अहंकार मत पालो नहीं तो पांच साल बाद हमारी हालत भी भाजपा-कांग्रेस की तरह हो जाएगी। जीत के बाद यह दो बातें वही व्यक्ति कह सकता है जो चीजों को सही तरीके से देखने का आदी है। जो यह कह सकता है, मैंने पिछली बार गलती की। मुझे दिल्ली में सरकार नहीं गिरानी चाहिए। अबकी मौका मिला तो ऐसा नहीं करूंगा। यह सादगी लोगों के दिलों में सीधे उतरती है। और उतरी भी। दिल्ली की जनता ने दिल खोलकर आप को ७० विधानसभा सीट में से ६७ सीट दे दिए।
देश में परंपरागत पार्टियों के लिए यह बहुमत सुधरकर सलीके से काम करने का संकेत दे रहा है। परंपरागत पार्टियां मतलब भाजपा और कांग्रेस को अपनी बैठकों में इस बात पर निश्चित मंथन करना चाहिए कि वह कौन-सा आंतरिक फोर्स काम कर रहा था, जो आप को लोगों ने इकतरफा वोट दे डाले। भ्रष्टाचार से मुक्ति हर आमोखास चाहता है। यह एक बहुत बड़ा मुद्दा तो है ही। दिल्ली में लोकल समस्या बिजली-पानी से जुड़ी है। इस संबंध में केजरीवाल की पिछली पचास दिनों की सरकार ने बहुत ठोस कदम उठाए थे। उस ठोस कदम का फायदा भी लोगों मिलने लगा था। इसके अलावा दिल्ली में एक प्रमुख समस्या कच्ची बस्ती की मान्यता से जुड़ी हुई है। उसके नियमन के लिए भी आप ने नीतिगत आश्वासन दिया था। ये कुछ ऐसे तत्व हैं, जो लोगों को आप के करीब ले आई। खासकर कच्ची बस्ती के नियमन से जुड़े मुद्दे ने निम्र मध्यमवर्गीय परिवार को आप के करीब ला दिया। इसके बरक्स भाजपा और कांग्रेस के वादे सिर्फ कोरे वादे ही लगते हैं। दोनों पार्टियां चुनाव के समय किए गए वादे को सत्ता मिलने के बाद लगभग भूल जाती हैं। फिर उन्हें उन लोगों की फिक्र ही नहीं रहती, जिसने उन्हें सत्ता दी है। यह जो ट्रेंड पारंपरिक पार्टियों में है, वादों से मुकरने का, इसके टूटने की दिन अब आ चुके हैं। अगर इस मिथ को इन पार्टियों ने नहीं तोड़ा तो उनका नामलेवा भी कोई नहीं रह जाएगा। जैसा कि अभी कांग्रेस की गत हुई है। लोकल मीडिया में एक जुमला खूब चला है कि भाजपा का भी यारो अजीब गम है। पहले चार कम थे...अब चार से भी कम है।
दिल्ली का विधानसभा चुनाव परिणाम है, इसलिए इसके राष्ट्रीय अर्थ भी निकाले जाते हैं। भाजपा में मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने कई चुनाव जीते हैं। दिल्ली में उन्हें मुंह की खानी पड़ी है। इसलिए कोई इसे दिल्ली भाजपा की हार या दिल्ली भाजपा की रणनीतिक असफलता मानने को भी तैयार नहीं है। खासकर तब जब भाजपा ने दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के लिए हैलीकॉप्टर लेंडिंग की तरह किरण बेदी को उतारा। दिल्ली में किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर उतारने के बाद से ही भाजपा कार्यकर्ताओं में नाखुशी थी। खासकर किरण बेदी की कार्यशैली को लेकर। वह भाजपा या संघ की बातों को तवज्जो ही नहीं दे रही थीं। किरण बेदी का प्रशासनिक कार्यकलाप उन्हें राजनीति में कभी सहजता से लोगों से रूबरू नहीं होने देगा, इसे दिल्ली की चुनाव ने साफ कर दिया है। अमित शाह ने मुखमंत्री पद के लिए किरण बेदी को इसलिए प्राथमिकता दी कि वह साफ छवि की हैं। भ्रष्टाचार से मुक्ति की बात केजरीवाल के बरक्स वही करेंगी तो दिल्ली की जनता में अच्छा संदेश जाएगा। फिर मोदी की चार-पांच सभाएं कराकर दिल्ली के किले में भी घुस जाया जाएगा। लेकिन यह सब दांव उलट पड़े। सबसे पहले संघ और पार्टी कार्यकर्ताओं में किरण बेदी को लेकर उपेक्षा का भाव पनपा। जो ठीक चुनाव के पहले स्पष्ट रूप से दिखाई देना शुरू हो गया था। दूसरा, जो सबसे खतरनाक ट्रेंड दिखाई दिया वह यह है कि पार्टी में वर्षों समय खपाने के बाद अगर बाहर से मुख्यमंत्री पद के लिए किसी को बिठा दिया जाता है तो पार्टी में उपेक्षा का वातावरण पसर जाता है। यही बेदी के साथ हुआ। हार के बाद उनका पहला स्टेटमेंट देखिए, मैं हारी नहीं हूं। हार के बारे में जानना है तो भाजपा से पूछो। सोचिए, जिस प्रशासनिक अधिकारी कम नेता को आपने मुख्यमंत्री पद के लिए चुना वह पूरी पार्टी को ही कटघरे में खड़ा कर रही है। भाजपा यही भूल पश्चिम बंगाल में क्रिकेटर सौरभ गांगुली को पार्टी में लाकर करना चाहती है। वो तो सौरभ ही बार-बार कन्नी काट रहे हैं। कुल मिलाकर अपने पार्टी में तपे नेता में से ही किसी एक को चुनकर उसे प्रोजेक्ट किया जाए तो अधिक अच्छा है। किरण बेदी वाला प्रयोग भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए एक सबक से कम नहीं है।
केंद्र में सत्ता में आने के बाद से भाजपा ने कुछ ऐसे कदम उठाए हैं जिसने दिल्ली चुनाव पर बुरा असर डाला है। इसमें पहला है, धर्म परिवर्तन कर घर वापसी वाली मुहिम। संघ के नेताओं को अब तो ऐसा लग रहा है, जैसे लाइसेंस मिल गया है। कुछ सांसद तो मुंहफट हो चुके हैं। हिंदुओं को अधिक बच्चे पैदा करने के सार्वजनिक बयान ऐसे दे रहे हैं, जैसे वह उनका निजी मसला है। ऐसे बयान अगर थोक के भाव में आते रहेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब भाजपा मूल मुद्दे से भटक जाएगी और देश में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ जाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा जब इस ओर इंगित करते हैं तो बुरा लगता है क्योंकि यह हमारा नितांत निजी मामला है। पर मामला निजी तभी तक रहता है, जब हम चीजों को निजी रहने देते हैं। बेलगाम होकर जहां-तहां घर वापसी के स्टेटमेंट देने से चीजों निजी नहीं रह पाएंगी। दिल्ली की जनता ने इसके विरोध में भी अपना वोट दिया है। नहीं तो दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में साक्षी महाराज ने माहौल तो बिगाड़ ही दिया था।एक अन्य बात मोदी के पर्सनल व्यक्तित्व से जुड़ी है। वह जब सोने के तार से अपना नाम गुदवाई शेरवानी पहनते हैं और मीडिया में यह बात उछलती है कि मोदी नेदस लाख की ड्रेस पहनी है, तो इसकी कोई सार्थक छाप जनता पर नहीं जाती। मोदी से अधिक मोदी का पहनावा समाचार का विषय वस्तु बने तो इसमें भविष्य के खतरनाक संकेत छिपे हैं। दूसरी बात, अपने विचार या किसी मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया ट्विट करने के स्थान पर पत्रकारों से मिलिए। धर्म परिवर्तन, घर वापसी ऐसे मुद्दे हैं जिसपर लोग प्रधानमंत्री की राय जानता चाहते हैं। उनकी प्रतिक्रिया से लोगों में उनसे प्यार या उपेक्षा जन्म लेगी। इस मामले में मोदी तो मनमोहन सिंह से भी आगे हैं। वह मीडिया से मिलना ही नहीं चाहते हैं। जनता को अपने सामने सरकार की स्थिति स्पष्ट ही नहीं करना चाहते हैं। हर उस मुद्दे पर, जो राष्ट्रीय स्तर पर असर डालती है उसपर मोदी की या फिर स्पोक्स पर्सन की सफाई (जवाब) आनी चाहिए। मोदी की कई मुद्दों पर अस्पष्टता ने भी दिल्ली में भाजपा के वोट काटे ही होंगे।
दिल्ली चुनाव परिणाम ने स्पष्ट संकेत दिया है जो कहो, उसे करो। जो करो उसके बारे में बताओ। जो बताओ वह तथ्यहीन नहीं हो। यानी प्रशासक और उसको चुनने वाली जनता के बीच कोई बिचौलिया नहीं हो।
.............................
(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
0 comments: on " दिल में उतरी अरविंद की सादगी "
एक टिप्पणी भेजें
रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी