समस्याओं को समग्रता में डायग्नोस करता उपन्यास
गुंजेश की क़लम से
हम अपनी पीढ़ी में अंतिम इतिहास नहीं लिख सकते, लेकिन हम परंपरागत इतिहास को रद्द कर सकते हैं और इन दोनों के बीच प्रगति के उस बिंदु को दिखा सकते हैं, जहां हम पहुंचे हैं। सभी सूचनाएं हमारी मुट्ठी में है और हर समस्या समाधान के लिए पक चुकी है। -ऐक्टन
एलोपैथ में अक्सर होता है कि कान की बीमारी के इलाज के लिए नाक में दवाई दी जाती है। साहित्य रचना बीमारी का इलाज भले ही न हो, लेकिन उसको डायग्नोस करने का एक तरीका तो जरूर है। विनोद कुमार रचित रेड जोन, ऐसा ही एक उपन्यास है जो हमारे आसपास मौजूद समाजों (दल, वर्ग, जाति, राष्ट्र, या जो भी नाम हम देना चाहें) में समाधान के लिए पक चुकी समस्याओं को समग्रता में डायग्नोस करता है। रेड जोन, में सिर्फ रेड जोन की बात नहीं है बल्कि यह पूरे झारखंड और उसके बनने के क्रम में यहां की समाजिक हलचलों का दस्तावेज है। खुद लेखक इस बारे में लिखते हैं ""सच पूरा का पूरा देखना तो कठिन है ही, लिखना और भी ज्यादा कठिन। कुछ यथार्थ और कल्पनाओं को जोड़ कर यह रचना बनी है। मौजूदा राजनीति, राजनेताओं, पत्रकारों के ब्योरे में यथार्थ का अंश ज्यादा है। झारखंड को लाल रंग देती भूमिगत गतिविधियों और प्रवृत्तियों में कल्पना का अंश ज्यादा।'' (दो शब्द)
रेड जोन में दर्ज समय झारखंड अलग राज्य बनाने की मांग से लेकर अलग राज्य बनने के कुछ बाद तक का है। पहली नजर में उपन्यास का नायक मानव दिखता है जो कि लौहनगरी में राजधानी से निकलने वाले एक अखबार का स्टॉफ रिपोर्टर है। लेकिन पाठ खत्म होते ही यह सवाल उठता है कि क्या वाकई मानव उपन्यास का नायक है? या वह उस दिक (स्पेस) में जिसमें उपन्यास रचा गया है, के काल (टाइम) का प्रतिक है। जिसमें सब कुछ घटित हो रहा है। लेकिन उन तमाम घटनाओं पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। वह सिर्फ मौजूद है और कई बार तो पीड़ित भी।
उपन्यास अपने आधे हिस्से में जिस सवाल को प्रमुखता से उठाता है वह है ""... अब देखिए न, इस लौह कारखाना के चलते इस औद्योगिक शहर के रूप में झारखंड में समृद्धि का एक द्वीप जरूर बन गया है लेकिन यहां के आदिवासियों और मूलवासियों को क्या मिला?''
सुप्रसिद्ध आलोचक वीर भारत तलवार ने अपने किसी लेख में शिबू सोरेन का जिक्र करते हुए लिखा था कि कभी सोचा था की उन पर किताब लिखूंगा लेकिन अब स्थितियां काफी बदल गईं हैं। रेड जोन में गुरुजी की कहानी शिबू सोरेन की उन्हीं बदली हुई स्थितियों का बयान है। गुरुजी, बाटूल, मुक्ति मोर्चा, मंडल जी, विस्थापन की राजनीति। भाजपा, दादा, बिहार, वनांचल की मांग। दुर्गा, कालीचरण, तेज सिंह, लेवाटांड़, पछियाहा राजनीति, दारोगा, बंदूक और उसकी नली से निकलने वाली सत्ता का स्वप्न। दो अन्य नेता एके राय और महेंद्र सिंह। इन सब से गुजरने वाला मानव, मानव पर नजर रखने वाला उसका अखबार और अखबार के संपादक हर्षवर्द्धनजी।
क्या हम यह मान सकते हैं कि ऐतिहासिक समस्याएं हमेशा व्यक्तिगत व्यवहार और व्यक्तिगत सनक की समस्या होती है। चाहे वह अलग राज्य को लेकर चला आंदोलन हो या फिर राज्य बनने के बाद सत्ता हासिल करने की राजनीति, इत्तिफाक से झारखंड में हमेशा व्यक्तियों के इर्दगिर्द ही नाचती रही है। "" इसके अलावा झारखंडी समाज में एक और द्वंद्व है, वह है बाहरी और भीतरी का। कॉमरेड राय ने इस विभाजन- रेखा को एक दशक पहले बहुत गहरा कर दिया था।'' (पृष्ठ सं. : 121) में लेखक व्यक्ति आधारित राजनीति के साथ-साथ नेताओं के व्यक्तिवादी होने पर भी टिप्पणी कर रहा है। मानव खुद जेपी आंदोलन से निकल कर पत्रकारिता के क्षेत्र में अाया है और जन आंदोलनों की ओर सहानुभूति रखता है। लेकिन यह मानव का जेपी आंदोलन के मोह से निकला हुआ मन है या पत्रकारिता में रम चुका वस्तुनिष्ठ दिमाग कि वह किसी भी व्यक्ति पर चाहे वह गुरुजी हों, एके राय हों, दादा हों या महेंद्र सिंह हों पूरी तरह भरोसा नहीं करता। वास्तव में यही उपन्यास के पूरे क्राफ्ट की विशेषता और सफलता है कि वह किसी को हीरो नहीं बनाता। वरना हाल के दिनों में आदिवासियों और जन आंदोलनों के हीरो गढ़ने की जो परंपरा चल निकली है वह इतिहास दृष्टि में बहुत अधिक गलतियां और भ्रम पैदा कर रही हैं।
कालीचरण और दुर्गा
दो आदिवासी चरित्र उभर कर सामने आए हैं। कालिचरण बरास्ते गुरुजी वामपंथ और फिर माओवाद की शरण में चला जाता है। दुर्गा पर समय की नजर कुछ ऐसी पड़ी है कि उसे यकीन होने लगा है कि सत्ता बंदूक के रास्ते से ही मिल सकती है। कालीचरण तो पहले से ही हिंसा के मार्ग के पक्ष में नहीं था।
लंबी बहसों और हत्याओं के एक सिलसिले के बाद दुर्गा को भी लगने लगता है कि ""लड़ें-मरें हम और निर्णय कोई और ले। हमारे यहां ऐसा नहीं होता।.....
हमारे यहां नहीं होता माने हमारे समाज में नहीं होता। आदिवासी समाज में नहीं होता।'' (पृष्ठ सं. 334) दरअसल झारखंड की विडंबना यही रही कि "" आम झारखंडी नेता समाजवादी आंदोलन मुखी नहीं है और जो लोग आंदोलन में हैं वे झारखंडी नहीं हैं।'' (पृष्ठ सं. 372) और इन सब स्थितियों में कई कालीचरण और दुर्गा बनते जा रहे हैं। जो अपनी समाज की तरह "राज्य' की तलाश में एक खेमे से दूसरे खेमे में जाते हैं और हर जगह से ठगे से लौटते हैं।
यह कहने में कोई संकाेच नहीं है कि लेखक ने वो सारे खतरे उठाए जो इस उपन्यास को व्यक्तिवादी और सेंसेशनल बना सकता था और लेखक उन सब खतरों के बीच से समाज में फैले कमिटमेंट की कमी को दर्ज करने में भी कामयाब हुआ। चाहे वह पत्रकारिता से जुड़े मानव के अपने सवाल हों या फिर राजनीतिक हलकों से जिंदा नजिरों को उठाना। वीर भारत तलवार ने फ्लैप पर सटीक ही लिखा है कि लेखक के जवाबों से कोई सहमत या असहमत हो सकता है लेकिन उसकी ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता। अंत में सिर्फ इतना ही कि यह न केवल एक राजनीतिक उपन्यास है बल्कि पिछले कुछ समय का एक महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट भी है।
पुस्तक : रेड ज़ोन
लेखक : विनोद कुमार
प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली
कीमत : 395
पृष्ठ : 400
दैनिक भास्कर के झारखंड संस्करणों में 12 फरवरी 2014 को प्रकाशित
(रचनाकार -परिचय:
जन्म: बिहार झरखंड के एक अनाम से गाँव में 9 जुलाई 1989 को
शिक्षा: वाणिज्य में स्नातक और जनसंचार में स्नातकोत्तर महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा से
सृजन: अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं व वर्चुअल स्पेस में लेख, रपट, कहानी, कविता
संप्रति: भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क: gunjeshkcc@gmail.com )
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