बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

समय की बेचैनियों से बनीं शाहनाज़ की कविताएँ
















राजेश जोशी की क़लम से
आँसुओं से भीगी ताज़ा लहू में डूबी कविता
लिखती हूँ काट देती हूँ फिर लिखती हूँ !

शाहनाज़ की ये कविताएँ गुस्से , खीज , गहरी करूणा ,स्मृतियों और हमारे समय की
बेचैनियों से बनी कविताएँ हैं। इनमें गहरी हताशा का स्वर है तो कहीं उसी के बीच से कौंधती उम्मीद की रौशनी भी मौजूद है। यहाँ रौशनी की एक बूंद को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने का खेल है तो यह प्रश्न भी कि आज़ाद चीजों को कै़द करने का ऐसा खेल क्यों होता है। यहाँ कभी न लौट सकने वाले बचपन की स्मृतियाँ है और यह दुख भी कि उस समय जब घर में सब होते थे मतलब दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े पापा , चाचा, मामी , ख़ाला उस संयुक्त परिवार के हम आख़री गवाह है। तेजी से बदल रहे शहर, रिश्ते और गुम हो रही चीजें और चिट्ठियाँ हैं,  जिनका शायद कुछ आँखों को अभी भी इंतज़ार है। यह कविताएँ अपनी बात कहने के लिये किसी कविताई कौतुक, अलंकारिकता या भाषायी बंतुपन का आसरा नहीं ढूंढती। इनमें हिन्दी उर्दू की मिली-जुली जबान का वह स्वाद है जो शाहनाज़ को अपने शहर की बोलचाल से प्राप्त हुआ है । शाहनाज़ के पाँव अपनी ज़मीन को पहचानते हैं और अपने आसमान को भी ।
ये कविताएँ उन दृश्यों को सामने रखती है जो अतिपरिचित हैं, सबके देखेभाले हैं और शायद इसीलिए रचना में वो हमसे अक्सर अदेखे रह जाते हैं । वो हमारे एकदम आसपास बिखरे जीवन के दृश्य है। इनमें आँसू भी है और लहू भी। ये कविताएँ जीवन के बहुत ज़रूरी सवालों को बेलाग ढंग से और बेख़ौफ़ होकर उठाती है। इसमें किसी तरह का संकोच या हकलाहट नहीं। पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री की अस्मिता से जुड़े सवाल हों या अल्पसंख्यक समुदाय और तथाकथित सेक्यूलर राजनीति के कारनामे, कहीं भी शाहनाज़ विमर्श के सीमित दायरों में अपने को कैद नहीं रखती , वह उससे बाहर आकर उन सच्चाइयों को वर्गीय राजनीतिक समझ के साथ देखने की कोशिश करती हैं। इसलिए उसकी दृष्टि बहुत हद तक अस्मिताविमर्शवादियों से अलग भी है ।
हमारे समय की राजनीति जिसे हमेशा ही सिर्फ चुनाव के समय ही हाशिये से बाहर के लोग याद आते हैं पर ये कविताएँ विचलित कर देने वाले सवाल खड़े करती हैं। हमारे आसपास बिखरी सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक विद्रूपताएँ इन कविताओं की उठी हुई उंगली की जद में हैं। यह ऐसी राजनीति है जिसे जब वोट मांगना होता है तब ही वह नाक पर रूमाल रखकर मुसलमानों के मोहल्ले में प्रवेश करती है । जहाँ जख़्मों से चूर ज़िन्दगी ख़ून सी छलकती है । यह एक ऐसा जीवन है जो स्टिललाइफ़ की तरह पिछले साठ सालों में ठहर-सा गया है । जिसे किसी न किसी बहाने से सरकारें बार बार भूल जाती हैं । आलोचना की सुई किसी एक ही तरफ ठहरी हुई नहीं है । इसी तरह उम्र बीस साल कविता में वह कहती है-

तुम्हारा परिचय भी हुआ होगा
हिंसा ,उत्पीड़न ,यातना ,अपमान जैसे शब्दों से
मौलवियों और उलेमाओं की इस दुनिया में
रोने पर पाबन्दी है और ज़ोर से हँसना मना है
तबलीग करने वाले सिर्फ फ़र्ज़ बताते हैं
और हक़ सिर्फ़ किताबों में लिखे जाते हैं ।
शाहनाज़ का यह पहला कविता संग्रह है। एक नये कवि को पढ़ते हुए पाठक यही ढूंढता है कि उसमें नया क्या है और कितना चौकन्ना है वह अपने समय और आसपास के जीवन को देखने, जानने बूझने के लिये। शाहनाज़ की ये कविताएँ अपने आसपास के प्रति सजग भी हैं और इनमें कई अलक्षित कोनों में झाकने और चीजों को नये तरह से देखने और कहने का कौशल भी है। इन कविताओं से किसी हिस्से को अलग करके उद्धृत करना मुश्किल है। वस्तुतः ये कविताएँ एक मुकम्मिल इकाई की तरह हैं। इसलिए उन्हें हिस्सों में नहीं पढ़ा जा सकता। कई बार तो किसी पंक्ति या पंक्तियों को अलग करके रखने में यह भी डर होता है कि संदर्भ से कट जाने पर उनका अर्थ ही न बदल जाये ।
शाहनाज़ सोचती है कि इन वर्कों पर कुछ और भी लिखा जा सकता था। जैसे:

एक सफ़र का क़िस्सा
जंग की भयावहता
डरावनी यादें
चूल्हे की आग ,छीनी गई रोटी
झील में उभरता सूरज
अकेली शाम की खामोशी
या तुम्हारी काली आँखें

पर आँसू और खुशी , गुस्से और नफ़रत , तकलीफ़ें और मोहब्बत लिखते हुए उसे लगता है कि ऐसा लिखना-कुछ ऐसा ही जैसे लिखना / खुद को बचाये रखने का रास्ता हो।
 

मुझे पूरा विश्वास है कि इस संग्रह को पढ़ने के बाद आप विचलित हुए बिना नहीं रह सकते और इस संग्रह की अनेक कविताएँ और अनेक पंक्तियाँ आपके मन में उतरकर आपकी स्मृति का हिस्सा हो जायेंगी ।


दख़ल से प्रकाशित शहनाज़ के कविता-संग्रह दृश्य के बाहर की भूमिका


शहनाज़ इमरानी की कविताएं पढ़ें



(लेखक-परिचय:
जन्म: 18 जुलाई 1946 को नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश में
प्रमुख कृतियाँ :     कविता-संग्रह- समरगाथा (लम्बी कविता), एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, नेपथ्य में हँसी और दो पंक्तियों के बीच, दो कहानी संग्रह - सोमवार और अन्य कहानियाँ, कपिल का पेड़, तीन नाटक - जादू जंगल, अच्छे आदमी, टंकारा का गाना। इसके अतिरिक्त आलोचनात्मक टिप्पणियों की किताब - एक कवि की नोटबुक, पतलून पहना आदमी (मायकोवस्की की कविताओं का अनुवाद), धरती का कल्पतरु(भृतहरि की कविताओं का अनुवाद)
कुछ लघु फिल्मों के लिए पटकथा लेखन भी
सम्मान : शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, मध्य प्रदेश सरकार का शिखर सम्मान और माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार के साथ साहित्य अकादमी पुरस्कार  से विभूषित। )

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हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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