बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

धुलवा दिया सोफ़ा कि घर में अकर्मण्यता की खटमल न फैल जाए




मुनीश्वर बाबू अपनी लाडली बिटिया प्रीति (लेखिका) के साथ



आज़ादी के योद्धा मुनीश्वर बाबू  उर्फ़ तेगवा बहादुर को यूँ याद किया बेटी ने

प्रीति सिंह की क़लम से

मॉर्निंग वॉक से लौटने के बाद वो उदास होकर बैठ गए थे. उनकी आंखों में आंसू थे। घर में सभी उनकी इस हालत को देखकर परेशान हो गए और कारण जानना चाहा तो उनका दुख जुबान के रास्ते निकल गया। उन्हीं के शब्दों में “आज सुबह जब मैं मॉर्निंग वॉक के लिए निकला तो दो बच्चियों को कूड़ा में से खाना चुनते देखा। ये देखकर मुझे कैसा महसूस हुआ ये शब्दों में बताना नामुमकिन है। मेरे रोंगटे खड़े हो गए और लगा जैसे दिल पर किसी ने भारी पत्थर रख दिया हो। मैंने दोनों को पास बुलाया और एक मिठाई दुकानदार से कुछ रुपये उधार लेकर उसे दिए।“  बेहद गमगीन आवाज में उन्होंने कहा कि आज महसूस हो रहा है कि हमलोग हार गए। हमने अंग्रेजों से लड़ाई लड़कर जो स्वतंत्रता हासिल की थी। आज वो बेमानी साबित हो गई है। जीवन के अंतिम क्षण तक उनकी यही सोच थी कि देश अपने उद्देश्य से भटक गया है और गलत रास्ते पर चल रहा है। ये कसक वो अपने दिल में लिए हमेशा के लिए हमलोगों से दूर चले गए। बात समाजवादी नेता,स्वतंत्रता सेनानी और बिहार सरकार में मंत्री रहे मुनीश्वर प्रसाद  सिंह यानी मेरे पिताश्री की. जिन्हें हम बाबुजी बुलाते थे. 

ऐसा कुछ नहीं जिसे लिखा जाए

सांवला रंग, ऊंची छाती, चेहरे पर कोमल मुस्कान और हृदय में दृढ़ विश्वास। ये तस्वीर है मेरे बाबुजी की। उनको गये हुए एक साल हो गए। लेकिन आज भी ऐसा लगता है मानो वो कहीं आस-पास ही हों। कभी उदास होती हूं तो यूं लगता है जैसे वो मुझे मुस्कुराने को कह रहे हों, खुशी में भी वो कहीं पास नजर आते हैं तो संघर्षों के लंबे साये में थक कर नहीं रुकने की सलाह देते हैं। मेरे बाबुजी सिद्धांतों और नैतिकता को अपनी जिंदगी में उतारने वाले महान योद्धा। उन्होंने जीवन में न जाने कितना संघर्ष किया। लेकिन कभी न तो हार मानी और न ही मायूस हुए। आज भी याद है हमारे एक मुंहबोले मामाजी (जो कभी दूरदर्शन के निदेशक थे और आज बिहार राज्य सूचना आयुक्त के पद को सुशोभित कर रहे हैं)  ने मेरे बाबुजी से अपनी आत्मकथा लिखने को कहा। इस पर बड़ी मासूमियत से बाबुजी बोले “मेरी जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं जिसे लिखा जाये। हर आम इंसान की तरह मैंने भी संघर्ष किया। इसमें आत्मकथा लिखने वाली कोई बात नहीं।“ ताज्जुब होता है आज भी इस दुनिया में इस तरह के व्यक्ति होते हैं जो अपने संघर्षों के जरिये लाईम-लाईट में आने की बजाय किसी कोने में रहना ही बेहतर समझते हैं।  आज जब राजनेता हर दिन झूठ की खेती करते हैं। अखबारों में उनके बयान बढ़-चढ़कर आते हैं। उस वक्त एक बार फिर मुझे अपने बाबुजी याद आते हैं। बिहार के बड़े राजनेताओं में शामिल होने के बावजूद उन्होंने खुद को हमेशा ओछी राजनीति से दूर ही रखा। किसी भी काम को उन्होंने खुद के लिए नहीं बल्कि समाज के हित के लिए किया।
याद आता है मुझे साल 1995 का वक्त। उस साल विधानसभा चुनाव वो हार गए थे। इसी दरम्यान उनसे मिलने इनकम टैक्स के एक बड़े ऑफिसर (जो बाबुजी के पुराने परिचित थे) आये। उनके साथ एक और साहब थे। उनका कुछ काम था। बाबुजी ने कहा मैं प्रयत्न करुंगा। उन्होंने एक ब्रीफकेस आगे करते हुए कहा कि इसमें 50 हजार रुपये हैं। बाकी जितने रुपये आप कहेंगे मैं दूंगा। इतना सुनना था कि बाबुजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने उन साहब के साथ-साथ अपने परिचितको भी खूब डांटा। अपनी नाराजगी जताने के बाद उन्होंने उनलोगों को चाय-नाश्ता कराकर विदा कराया। उनके जाने के बाद बाबुजी बहुत देर तक खिन्न रहे। मुझे बुलाया और सोफा का कवर खोलने को कहा। मैंने पूछा क्यों तो उन्होंने कहा कि अकर्मण्य लोग आकर बैठ गए थे। इसे धो दो नहीं तो इसमें जो अकर्मण्यता आ गई है वो तुम सबके भीतर चली जाएगी। उस वक्त मुझे उनकी बातों पर बहुत हंसी आई थी। मैंने सोचा था क्या ऐसा भी होता है? लेकिन आज लगता है कितने सरल शब्दों में कितनी बड़ी बात बता गए थे वो। एक ईमानदार पिता होने के नाते वो नहीं चाहते थे कि उनके बच्चों में वो अकर्मण्यता आये जो दूसरे लोगों में मौजूद है।

देशभक्त की गर्वीली गरीबी

यादों के पन्ने पलटते हुए कई स्मृतियां जेहन में कौंध जाती है। लगता है जैसे बाबुजी मेरे आस-पास कहीं खड़े हों और मुझे देख रहे हों। आज भी याद है घोर बीमारी की अवस्था में जब वो बिस्तर पर पड़े रहते थे तब भी उनकी आंखों से मेरे चेहरे का भाव नहीं छुपता था। जो मेरे अंदर था वो शायद सब पढ़ लेते थे। तभी तो कोई जाने ना जाने वो सब जान लेते थे और मुझे बुलाकर अपनी परेशानी बताने को कहते थे। मेरे बताने पर वो सही सलाह देते थे और नहीं बताने पर समझाते थे। उन्होंने हमेशा मुझे राय दी कि बेटा तुम बहुत संवेदनशील हो। अपनी संवेदनशीलता को थोड़ा कम करो। वर्ना जिंदगी में छोटी-छोटी बातें बहुत तकलीफ देगी। हर लड़की के लिए उसके पिता रोल मॉडल होते हैं। मेरे लिए भी मेरे बाबुजी रोल मॉडल हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो त्याग, संघर्ष और तपस्या की है वो मामूली नहीं है। मेरी मां अक्सर एक कहानी सुनाती थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जब वो जेल में थे तो मां उनसे मिलने गईं। घर की आर्थिक हालत खराब होने की बात कही। इस पर बाबुजी ने बड़ी शांति से कहा घर जाकर एक जहर की शीशी मंगा लेना। खुद भी खा लेना और बच्चों को भी खिला देना। लेकिन फिर कभी मेरे सामने घर की मजबूरियां मत बताना। नहीं तो शायद मैं कमजोर पड़ जाऊंगा। इस दिन के बाद सारी जिंदगी मेरी मां ने कभी घर की मजबूरियों के बारे में बाबुजी को नहीं बताया। आजीवन मां बाबुजी के जीवन में एक ऐसे मजबूत स्तंभ के रुप में रही जिसके बल पर उन्होंने जीवन की बड़ी-से-बड़ी लड़ाईयां लड़ीं और जीती।

धार्मिक थे पर मंदिर से परहेज़

जब उनके खाली बिस्तर को आज देखती हूं तो दिल में कचोट उठती है। कभी इस बिस्तर पर मेरे बाबुजी सोया करते थे। उस वक्त उस पर कोई और नहीं बैठ सकता था। बिना नहाये वो खुद भी अपने बिस्तर पर नहीं बैठते थे। दिन में कम-से-कम वो तीन बार नहाया करते थे। ठंड की सर्द रात हो या भयंकर गर्मी की रात उनका ये नियम आखिर तक नहीं टूटा। तब भी नहीं जब वो बिस्तर पर गिर गए। कितनी भी ठंड हो, वो कितने भी बीमार हों। लेकिन नहाना उनकी आदत में शुमार था। बिना नहाये वो अपने बिस्तर पर नहीं जाते थे। तबियत खराब होने पर जब दीदी और भईया उन्हें नहाने से मना कर देते थे तो वो बच्चों की तरह नाराज होकर बात नहीं करते थे और फीडिंग लेने से भी इनकार कर देते थे। मजबूरन घरवालों को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ता था। नहाने के बाद वो बिस्तर पर बैठकर आधे-एक घंटे तक मंत्र पढ़ते थे। मैंने कभी भी उन्हें मंदिर में या घर में धूप-दीप दिखाकर पूजा करते नहीं देखा। उनके लिए कुछ मंत्रों का जाप और पूर्वजों को हर दिन याद करना ही कर्मकांड था। हर दिन वो नहाने के बाद अपने सारे पूर्वजों को जल भी अर्पण करते थे और ये नियम आजीवन वो निभाते रहे।

खाने से ज्यादा खिलाने के शौक़ीन

अपने दादाजी से मेरे बाबुजी का खास लगाव था। वो कहते थे मैं अपने माता-पिता से ज्यादा अपने दादा-दादी के करीब रहा हूं। छुट्टियों में भी वो दादी के साथ उनके मायके जाया करते थे। घर में सबसे बड़े होने की वजह से उनसे दादा-दादी,चाचा-चाची सबका खास लगाव था। सुबह 4 बजे उनके दादाजी बाबुजी को उठा देते थे। इसके बाद स्नान कर वो गीता का पाठ करते थे और फिर अपनी पढ़ाई में लग जाते थे। आज जब भी किसी अवसर पर घर में कुछ अच्छा खाना बनता है तो एकबारगी बाबुजी का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है। खाने-पीने और खिलाने के बेहद शौकीन मेरे बाबुजी को ईश्वर ने न जाने किस बात की सजा दी कि आखिरी तीन साल उन्हें कुछ भी खाने के लिए मन मसोस कर रह जाना पड़ा। पार्किंसन की बीमारी पकड़ में आने पर एम्स के डॉक्टरों ने उन्हें ट्यूब के सहारे फीडिंग देने को कहा। फीडिंग के लिए मटेरियल एम्स से ही आता था। जिसे मेरे चाचा का बेटा वहां से भेजता था। कई बार कुछ खाने की इच्छा होने पर बाबुजी थोड़ा सा खाने को मांगते थे। एक-दो बारे दीदी ने उन्हें खिलाने की कोशिश की तो उनकी तबियत बिगड़ गई। डॉक्टर ने बाबुजी की सेहत के लिए मुंह से खिलाने से सख्त मना किया। जिसके बाद दीदी उनके खाने की मांग पर रोती हुई किसी कमरे में छुप कर बैठ जाती थी। बाद में बाबुजी ने भी बात मान ली और खाने की जिद छोड़ दी। लेकिन इसके बाद भी हर आने-जाने वाले के खाने को लेकर वो बहुत परेशान रहते थे और बार-बार मेहमानों को बिना खाये न जाने का निवेदन करते थे। 

तब भगवान से हुई नाराज़

एक घटना बरबस याद आ रही है। लिखते वक्त भावुक हो गई हूं। आंखों में आंसू आ गए हैं। धीरे-धीरे पार्किंसन रोग का असर बाबुजी पर असर डाल रहा था। वो दीपावली की रात थी। अमूमन हर दीपावली मैं ही अपने घर में पूजा करती हूं। उस दिन भी पूजा करने के बाद मैंने सबको प्रसाद बांटा। दीदी से पूछकर बाबुजी को मैं थोड़ा सा प्रसाद खिलाने लगी। इसी दौरान उनको पता नहीं चला और मेरी ऊंगली उनके दांतों के नीचे दब गई। मैं रोने लगी। बाबुजी कुछ नहीं समझे। मेरी आवाज सुनकर दीदी और भईया आये और बाबुजी का मुंह खोलकर मेरी ऊंगली बाहर निकाली। बाबुजी को बाद में बात समझ आई तो उन्हें बहुत बुरा लगा और उन्होंने मुझसे बहुत माफी मांगी। मुझे और भी रोना आने लगा। उस दिन लोगों ने समझा कि मैं ऊंगली दबने से रो रही थी। लेकिन आज मैं अपने दिल की बात बता रही हूं मैं अपने बाबुजी की हालत देखकर रो रही थी। मुझे दुख इसका था कि उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है? उन्होंने भला किसका क्या बिगाड़ा था? भगवान से उस दिन मैं बहुत नाराज हुई और पूछा कि क्या अच्छे लोगों के साथ हमेशा बुरा होता है? तो फिर अच्छा बनकर फायदा क्या है?

मनुष्य होकर कैसे परोपकार करना छोड़ दूं?

कई बार जब अपने किसी विरोधी का काम वो करवाते थे या जिसने उन्हें चोट और दुख पहुंचाया था। वैसे लोगों की वो फिक्र करते थे तो अक्सर मैं उनसे पूछती थी कि बुरे लोगों के साथ अच्छाई करके क्या फायदा? तब मेरे बाबुजी बहुत प्यार से मुझे एक कहानी सुनाते थे। वो कहते थे- एक ऋषि थे। वो गंगा में स्नान कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक बिच्छू पानी की तेज धारा में बहा चला जा रहा है। उन्होंने उसे हाथ में उठाटक किनारे पर रखने की कोशिश की। लेकिन इतने में बिच्छू ने ऋषि को डंक मार दिया। डंक के दर्द से ऋषि का हाथ हिला और बिच्छू फिर पानी में जा गिरा। बिच्छू को डूबते देख ऋषि ने फिर से उसे उठाया। इस बार फिर बिच्छू ने ऋषि को डंक मार दिया। फिर बिच्छू उनके हाथ से छूट गया। लेकिन ऋषि ने हार नहीं मानी और तीसरी बार बिच्छू को उठाकर किनारे पर रख दिया। ये दृश्य देख रहे वहां मौजूद लोगों ने ऋषि को पागल करार दिया। तब ऋषि ने कहा कि जब बिच्छू जैसा एक साधारण कीड़ा अपना जन्मजात स्वभाव डंक मारना नहीं छोड़ता तो फिर मैं मनुष्य होकर कैसे परोपकार करना छोड़ दूं?  उनकी ये बात कई बार मुझे अच्छी नहीं लगती थी। इसी की वजह से बाबुजी को अपनों के धोखे खाने पड़े.   इसी वजह से आज मुझे भी कई बार चोट लगी है। लेकिन उनको खोने के बाद उनका मोल ज्यादा जान पाई हूं मैं।
बेख़ौफ़ होकर सच कहो

दूसरों की मदद करना उनके स्वभाव का एक अंग था। जो हमेशा हर विरोध के बाद भी उन्होंने नहीं छोड़ी। कई बार तो उनकी इस आदत से घरवाले परेशान हो जाते थे और कई बार उनके अपने समर्थक भी नाराज हो जाते थे। लेकिन बाबुजी हमेशा यही कहते थे कि एक इंसान के लिए मानवता पहली शर्त है और जब कोई मदद मांगे तो कभी किसी को न नहीं कहना चाहिए। अपनी पूरी कोशिश से मांगने वाले की मदद करनी चाहिए। अच्छे-बुरे का फल ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। वो ही हर चीज का फैसला करेंगे। ऐसे थे मेरे बाबुजी। जितना लिखूं उतना कम है। आज तक उके जैसा दूसरा कोई इंसान मुझे नहीं मिला। निष्पाप, निष्कलंक। जिनके अंदर कोई भी छल, कोई भी पाप नहीं था। आमतौर पर लड़कियों के लिए कहा जाता है कि वो गंगा की तरह निष्पाप हैं। लेकिन मैं अपने बाबुजी के लिए इस बात को गर्व से कह सकती हूं कि वो गंगा की तरह साफ दिल वाले, सादगी पसंद, ईमानदार व्यक्ति थे। लेकिन जितनी सादगी थी उनके अंदर उतना ही सच बोलने का माद्दा था। वो अक्सर हमें भी समझाते थे कि कभी भी किसी भी इंसान से सच बोलने से पीछे मत रहो। भले ही वो कितना भी पावरफुल इंसान रहे। बेखौफ होकर सच कहो और उसके मुंह पर कहो।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल एक संस्थान में कंटेंट डेवलपर और  आकाशवाणी में नैमित्तिक उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)





    
        

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1 comments: on "धुलवा दिया सोफ़ा कि घर में अकर्मण्यता की खटमल न फैल जाए"

Noorul Hoda ने कहा…

http://nurulkinautanki.blogspot.in/2015/01/260914.html

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