बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

अन्याय के ख़िलाफ़


 










शहनाज़ इमरानी की कविताएं

जंग अधूरी रह जाती है

कितना आसान है आगे बढ़ना
अगर सामने रास्ते है
मगर रास्ते सब के लिये कहाँ होते हैं
बाहर का सन्नाटा और अन्दर की खलबली में
कुछ लोग चुनौती को स्वीकारते है
खेतों, कारखानों में कई करोड़
किसान और मज़दूर
कई करोड़ बेरोज़गार युवा
जिनकी कोशिश जारी है
एक सम्पादक लिखता है
विद्रोह न्यायसंगत है
अन्याय के ख़िलाफ़
एक चित्रकार चित्रित करता है
किसान की खुदकशी
एक कवि लिखता है
धर्म के ठेकेदारों के षड्यंत्रों के विरुद्ध
कुछ लोग ढूँढ़ते हैं मसीहा
विचारहीन सम्मोहित भीड़ चल पड़ती है पीछे-पीछे
यह सिर्फ़ ज़बानी वादों का ज़माना है
ज़बान में बहुत ताक़त
कान तक पहुंची बात
क़लम से ज़्यादा असरदार है
जंग अधूरी रह जाती है
किसी और समय में कोई दूसरे
हथियारों के साथ पूरी होने के लिए।

रोज़ बदलती है तारीखें

कई सवाल हैं
कब ,क्यों , कैसे और किसलिए
सवाल जो कभी ख़त्म नही होते
हर आदमी अपने
सवालों के बोझ से दबा हुआ
रोज़ बदलती है तारीखें
बदलती हैं शताब्दियाँ
नहीं बदलते हैं सवाल
नहीं मिलते है जवाब
इतिहास में क़िस्से है राजाओं के
जंग और जीत के उत्थान और पतन के
कहाँ दर्ज है इतिहास भूख का, ग़रीबी का?
जिन्होंने बनाये क़िले और मक़बरे
मंदिरों और मस्जिदों को
उन हुनरमंद हाथों का, उन उँगलियों का?


मेरा शहर भोपाल

 शहर में भीड़ है
शहर में शोर है
शहर को खूबसूरत बनाया जा रहा है
पूंजीपतियों के सेवा ली जा रही है
ऊँचे वेतन और विशेषाधिकार
रिश्वत ,दलाली और कमीशन की मोटी रक़म
रौशनियों में डूबा शहर
जिसकी रात अब जागती है देर तक
फिर भी इसमें खुले आम लूटा जाता है इंसान
भीड़ में कोई पहचानी आवाज़ नहीं रोकती अब
सब कुछ समतल होता जाता है
मर चुकी संवेदनाओं दे साथ जीने लगा है शहर
अब बहुत तेज़ दौड़ने लगा है मेंरा शहर।

 
आत्महत्या

मुझे मालूम है
आत्महत्या पलायन है
मुझे मालूम है
मेरी चीख़ को तुम
चीखने का अभ्यास समझोगे
तुम्हारे लिए यह आशचर्य पैदा करने वाला तथ्य है
अपनी मुक्ति का भ्रम पालती रही हूँ झूठ ही
इस तरह तो कभी चुप्पी नहीं थी
निस्तब्धता तो ऐसी नहीं थी
काटती हूँ चिकोटी अपने आपको
पता नहीं इस प्रस्ताव पर सहमति हो या नहीं
पर नब्ज़ काट लेने दो मुझे
सरकारी तफ्तीशों में मेरी आत्महत्या
एक नैसर्गिक मौत मान ली जाएगी
कोई भी मृत्यु नैसर्गिक नहीं होती
घटना अगर स्मृति नहीं बनती
तो सिर्फ हादसा बन जाती है।

 इस जंग में

 लहू तपती रेत में जज़्ब हो गया
कुछ जीते जी मर गए
और कुछ को मार डाला गया

हड्डियां पत्थरों में मिलती जाती
धरती का तापमान बदल रहा
जिस्मों से लहू उबल रहा
दुनियां और देश की राजनीति में
हर पल इंसान मर रहा
कत्लगाह-ए-शहर में
आदम-ओ-हव्वा की औलादें
लहू में लथ-पथ

वे जिस्म जिनमें
ज़िन्दगी जीने का लालच था
ज़मींदोज़ हो गये
नफरत और जंग की हवा में
हज़ारों बेक़सूर मारे गए
जो बे-ख़ता वार करते हैं
लोगों को बग़ावत के लिए तैयार करते हैं

फैल रहा वहशत का जंगल
कोई नहीं है आग बुझाने वाला
जब वक़्त का फ़ैसला होगा
ज़ुल्म आखिरकार हद में आएगा
मज़हब और अक़ीदों के फ़लीते में
विस्फोट किया जा सकता है
तो लहू की आखरी बूँद को भी
आत्मा में बदला जा सकता है

हम लाश उठाने वाले लोग
हम कांधा देने वाले लोग
हमें भी तो लाशों के ढ़ेरो पर
एक लफ्ज़ नदामत लिखना है
इंसान के लिए इस ज़मीं पर
बाक़ी है मोहब्बत लिखना है।

 सभी नहीं जानते मौत के बारे में

फूल नहीं जानते मौत के बारे में
कौन ख़ामोश है कौन रो रहा है
वो तो मुस्कुराते रहते हैं
मछलियाँ नहीं जानतीं
समुन्द्र में कितने आँसू शामिल है
वो तैरती हैं बिना किसी वजह के
दरख़्त, परिंदे शायद जानते हों
जानती है हवा
चिताएँ जलती हैं रोज़ न जाने कितनी
जानती है ज़मीन
दफ़नाये जाते हैं हर पल ज़िस्म इसमें 
अब वयवस्था हुई जंगल और क़ानून बन्दूक़
मरने वाले की चीखों से
बहरे हुए हैं कान छिन गई हैं आवाज़ें

उफ़्फ़ के शब्द गले में ही अटके गए
ऐसी ही होती हैं सुबहें ऐसी ही हैं शामें
हम जानते हैं मौत को
जो आ जायेगी कभी भी
बिना बताये ख़ामोशी से।

पुराना डाकख़ाना

चौड़ी सड़कों में दबे
पानी के बाँध में समा गए
शहर की तरह एक दिन तुम भी
तमाम मुर्दा चीज़ों में शुमार हो जाओगे
वक़्त की चाबूक से छिल गई है राब्ते की पीठ
कुछ शब्दों को नकार दिया है
कुछ पुराने पड़ गए शब्दों को
मिट्टी में दबा दिया है
उखड़ी सड़क, झाड़-झंखाड़
और अकेले खड़े तुम
रोज़ अंदर-ही-अंदर का
खालीपन गहरा होता जाता है
पुराने धूल भरे कार्ड
पत्रिकायें, बेनाम चिट्ठियां
जाने कहाँ-कहाँ भटकी हैं
कुछ आँखें धुंधला गयी होंगी इंतज़ार में
कुछ आँखों से बहता होगा काजल
कुछ आँखें को आज भी इंतज़ार है
गुम हुई चिट्ठियों के मिलने का।

बातों के छोटे-छोटे टुकड़ों में

बहुत कुछ है
और बहुत कुछ नहीं है के बीच
बहुत सारी बेवकूफ़ियों के बाद भी
बची रहती है समझदारी
जैसे कुछ चीज़ों में
बचा रह जाता है अपनापन
अलमारी में रखा छोटा सा पर्स
पुरानी डायरी में
कविता की दो चार पंक्तियाँ
बातों के छोटे-छोटे टुकड़ों में
छुपी रहती है एक दुनियां
ज़िन्दगी में फ़ैला दर्द
जो तुम्हारी बातों में खो गया
मेरी सपाट दुनियां में
तुम्हारा होना
दिल से दिमाग़ के रास्ते पर
भटक जाती हूँ कई बार
लिखना चाहती हूँ एक कविता
प्यार, मौसम, बारिश, धूप, चाँद
सब कुछ होते हुए भी
न होने की आवाज़।

एक रात

सर्दी की रात में सहमा-सहमा पानी बरसता है
हवा दरख्तों को हलके से छू कर गुज़रती है
कुछ दैर शोर मचाते है पत्ते
करवट दर करवट वक़्त गुजरता है
रात के चहरे पर
खाली आँखों के दो कटोरे
दीवारों से फिसलते हुए
फर्श पर आ गिरते हैं
नींद बे आवाज़ आ कर कहती है
सोना नहीं है क्या ?


(रचनाकार-परिचय :
जन्म: भोपाल में
शिक्षा:  पुरातत्व  विज्ञानं (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। काव्य-संग्रह जल्द 
संप्रति: भोपाल में अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com  )


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2 comments: on "अन्याय के ख़िलाफ़"

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

शहरोज़ साहब आपके कहने के मुताबक नये साल में , लिखना शुरू कर दिया है। आपकी शुक्रगुज़ार हूँ।

شہروز ने कहा…

ज़र्रा नवाज़ी आपकी! आप खूब लिखें, यही तमन्ना है

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
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- अल्लामा जमील मज़हरी

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