वाया रंग लाल के प्रेमिल क्षण
सैयद
शहरोज़ क़मर की क़लम से
हमें
हमारे बचपन से जुड़ी हर
चीज़
से दूर ले जाया गया
हमें
हमारी गलियों पटियों
और
महफ़िलों से
बाहर
ले जाया गया
बहुत
टुच्ची ज़रूरतों के
बदले
छीना गया हमसे
इतना
सारा सब-कुछ!
किसी
को बताएं तो कहेगा
व्यर्थ
ही भावुक हो रहे हो तुम
इसमें
तो ऐसा ख़ास कुछ भी नहीं
जगहों
से प्यारा करने का रिवाज तो
कब
का ख़त्म हो चुका!
-राजेश
जोशी की एक कविता का अंश
लेकिन
जब रिटायर्ड अडिश्नल मजिस्ट्रेट
काजी हसन साहब का काजी हाउस
से जनाजा उठा, तो
हजारों की भीड़ देखते-देखते
जुट गई। जबकि नौकरी के सबब
उन्हें बिहार के कई शहरों में
रहना पड़ा था। शेरघाटी आना-जाना
भी बहुधा कम होता था। तब जूनियर
इंजीनियर खलीक साहब ने कहा
था कि उनकी भी तमन्ना है कि
उन्हें भी अपने ही घर-गांव
में दफ्न किया जाए। दिल्ली
जो इक शहर है आलम में इंतिखाब
शीर्षक लेख में मशहूर अंग्रेजी
लेखक खुशवंत सिंह ने लिखा है
कि अपने शहर को कौन प्यार नहीं
करता? आखिर
जिस शहर में आप जन्मते और बड़े
होते हैं, उससे
लगाव हो ही सकता है। लेकिन
कितने लोग होते हैं, जो
उस शहर के बीते कल को जानते
हैं। दरअसल, बीते
कल की जानकारी से शहर और लोगों
के बीच का रिश्ता मजबूत होता
है। सन् 1992की
गर्मियों में जब मुझे पसीने
से लथपथ इमरान अली मिले,
कहा कि भाई
नेहरु युवा केंद्र की एक
स्मारिका निकाल रहा हूं।कुछ
रचनाएं दो। शेरघाटी पर केंद्रित
करने का प्रयास है। तब भी लगा
था कि रिश्ता जड़ों से छूटता
नहीं। शिक्षा और रोजगार के
कारण देश के कई राज्यों और
शहरों में डोलता रहा हूं। इस
दरम्यान कुछ किताबें भी प्रकाशित
हुईं। कई पत्र-पत्रिकाओं
और प्रकाशनों में ऊर्जा खपाई।
पर आज भी मेरी कहानियां शेरघाटी
की जमीन पर ही खड़ी होती हैं।
तब दिल्ली में था। एक ईद पर घर
आया, तो
गुरुवर नमर्देश्वर पाठक के
स्नेहिल कंधों ने हौले से
थपथपाया, मेरी
पुस्तक कब आएगी। बाबा,
जब आप चाहें,
मैं तो यही
चाहता हूं कि जल्द आ जाए। बोले,
इसे तुम संपादित
करोगे। इसके बाद सारी सामग्री
मुझे सौंप दी। ये अदब से अदब
का रिश्ता ही नहीं, मिट्टी
की ललक रही कि इंकार न कर सका।
दिल्ली पहुंच जब उनकी पांड़ुलिपि
तैयार करने में था कि दैनिक
भास्कर के रांची संस्करण से
मेरा बुलावा आ गया। अम्मी पास
थीं, बोलीं,
बेटा बहुत हो
गया परदेस, अब
घर चलो। फिर 6 सितंबर
2010 को
रांची आ गया। बाबा की किताब
प्रकाशक के यहां रह गई। उसके
नखरे माशा अल्लाह। पर मोहब्बत
शय है आखिर वतन की कि तमाम
मुश्किलों के दोबारा कविताओं
का चयन किया। पिछले साल उनका
कविता-संग्रह
जिंदगी पोर-पोर
उन्हें समर्पित कर दिया। इसकी
प्रतियां उन्हें देते समय
भाई इमरान बोले, रंगलाल
हाईस्कूल स्थापना के सौ साल
पूरे करने जा रहा है। इसपर
बाबा, अनुपम,
इमरान और मेरी
सहमति बनी कि शताब्दी समारोह
में क्यों न इसका विमोचन कराया
जाए। बाबा स्कूल के शिक्षक
ही नहीं, प्राचार्य
तक रहे।
इसके बाद लगातार इमरान
के फोन आते रहे कि यार समारोह
को लेकर शहर बड़ा उदासीन है।
लेकिन पिछले दिनों हमारे युवा
विधायक व बिहार के पंचायती
राज्य मंत्री विनोद प्रसाद
यादव की फेस बुक वाल पर समारोह
को लेकर हुई बैठक की तस्वीरें
दिखीं, तो
सूरज की तरह रंग लाल सामने आ
गया। इसी रंग ने तो हमेशा उष्मा
और ऊर्जा दी है। तब वेदनारायण
सिंह यानी वेदनारायण बाबू
हेड मास्टर थे। अचानक एक दोपहर
हमारी नौवीं की क्लास में आ
धमके। उनकी बहुत दहशत थी। तब
यही समझते थे। अब इसे सम्मान
कहता हूं। वेदनारायण बाबू
बोले, बच्चो
कुछ भी पूछो। और किसी से कभी
घबराओं नहीं। लेकिन यह भी कहा,
सवाल करना बहुत
सरल होता है, जवाब
देना कठिन। उनसे ग्रहण किया
आत्मविश्वास, तो
मेरी पहली लघु कथा के संशोधक
गुरुवर पाठक जी की सहजता,
सिराज सर से
मिली बेतकल्लुफी, मौलाना
फकरू की बेबाकी और नसीम सर से
हासिल तीक्ष्णता ने पल-पल
मेरे होने को सार्थक किया है।
इसके अलावा शायद ही कोई होगा
जिसे शशिनाथ सर का गामा-बीटा,
तो गोपी बाबू
की अंग्रेजी का ठेठ देशज लहजा
याद न हो। गर रामअवतार बाबू
न होते, तो
मुझ जैसे डेढ़-पसली
को कौन एनसीसी में लेता। लेकिन
जब हमलोगों की टीम पुराने
कोल्ड स्टोरेज के पास मोरहर
नदी किनारे फायरिंग के लिए
पहुंची, तो
दस में से नौ फायरिंग निशाने
पर का कमाल इसी नाजुक कंधे का
रहा था।
स्कूल
की स्मारिका के प्रकाशन पर
रंग लाल बार-बार
प्रेमिल कर रहा है। भूलते-भागते
उन क्षणों की स्मृतियों में
लाल रंग के क्रोध और आवेश का
मानो लोप ही हो गया हो। कभी
स्कूल की लाइब्रेरी, तो
कभी आंगन की तुलसी। बुलाती
है बार-बार।
उसी तुलसी के पास पहली बार
मैंने अंग्रेजी में बिदाई
संदेश पढ़ा था, पायजामें
में घुसी टांग लगातार कांप
रही थी। इसी स्कूल का छात्र
होने के नाते ट्रेनिंग कॉलेज
में आयोजित अनुमंडल युवा उत्सव
में भाषण देकर अव्वल आया था।
स्कूल में होनेवाली मिलाद की
शीरनी, तो
सरस्वती पूजा के प्रसाद की
मिठास अब कहां मिलेगी। दरअसल
यह मिठास मेरे शहर की हर गली-कूचे
में है। मस्जिद की अजान से
हटिया मोहल्ला में पौ फटती
है, तो
लोदी शहीद में मंदिर की घंटियों
के साथ ही उजास फैलता है। वैदिक
काल में भी हमारे शहर का ज़िक्र
मिलता है, ऐसा
कुछ लोग मानते हैं। वहीं गढ़
के अवशेष आदिवासी मुंडाओं के
अतीत बनकर खड़े हैं। एतिहासिक
सन्दर्भ मुग़ल काल के अवश्य
मिलते हैं। किंवदंती है कि
शेरशाह ने यहाँ एक वार से शेर
के दो टुकड़े किए थे। जंगलों
और टापुओं से घिरे इस इलाके
को तभी से शेरघाटी कहा जाने
लगा। शेरशाह ने यहाँ कई मस्जिदें
, जेल ,
कचहरी और सराय
भी बनवाया था। लेकिन जिस एन.एच-2
पर यह स्थित
है। इसे पांच साल पहले तक जीटी
रोड या शेरशाह सूरी मार्ग कहा
जाता रहा है। पेशावर से कोलकता
तक इसे शेरशाह सूरी ने बनवाया
था। तब शेरघाटी मगध संभाग का
मुख्यालय था। संभवता बिहार-विभाजन
तक यही दशा रही। कालांतर में
धीरे-धीरे
ये ब्लाक बनकर रह गया। 1983में
इसे अनुमंडल बनाया गया। जिला
बनाने के लिए आंदोलन भी होते
रहे हैं। मुस्लिम संतों और
विद्वानों की ये स्थली रही
है। वहीं प्राचीन शिवालयों
से मुखरित ऋचाएं इसके सांस्कृतिक
और आद्यात्मिक कथा को दुहराती
रहती हैं। 1857 के
पहले विद्रोह से गाँधी जी के
'42 के
असहयोग आन्दोलन में इलाके के
लोगों ने अपनी कुर्बानियां
दी हैं।
( रंग लाल हाई स्कूल, शेरघाटी के साल पूरे होने पर प्रकाशित स्मारिका में )
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