बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

41 अनाम शवों की अंत्येष्टि में रो पड़ा रांची का जुमार पुल भी

संवेदनाएं शेष हैं अभी
















शहरोज़ जुमार पुल

तब अंग्रेजों का समय था। आवागमन भी कम था। तभी जुमार नदी को पार करने के लिए मेसरा के पास मुझे(जुमार पुल)बनाया गया। जब  घोड़ों पर सवार आजादी के दीवाने की टोलियां इधर से गुजरती थीं, तो मेरी छाती चौड़ी हो जाया करती थी। रविवार को जब मुर्दा कल्याण समिति, हजारीबाग के मोहम्मद खालिद और मुक्ति रांची के प्रवीण लोहिया की टीम पहुंची, तो छाती फिर चौड़ी हो गई। लगा शहीद उमराव टिकैत और शहीद शेख भिखारी की टोली आई हो। देश के उन बांकुरों ने जहां विदेशी शासन से मुक्ति दी और कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। वहीं इन युवाओं ने आज अनाम 41 शवों की अंत्येष्टि कर उनकी  आत्माओं को मुक्ति दी। इनमें दो महिलाओं के शव भी थे। पुलकित मैं तब भी हुआ था, जब सितंबर 2010 में खालिद व तापस ने मिलकर पचास अनाम शवों का एक साथ अंतिम संस्कार किया था। लेकिन तब सिर्फ हजारीबाग के नेक लोग थे, आज रांची के युवाओं की संवेदनशीलता उनके इंसानी जज्बे से लबरेज थी।

शोक में गिरे पेड़ों के पत्ते
 
 सुबह ही मुर्दा कल्याण समिति की टीम हजारीबाग से रिम्स, रांची पहुंच गई थी। जाति, धर्म और संप्रदाय के दायरे को लांघ कर मुर्दाघर में शवों को बाहर निकालने के लिए खालिद, डॉ. राजेंद्र हाजरा, मुकेश, रोहित, धनंजय व गौतम आदि आगे आए। रिम्स के किसी कर्मचारी के नहीं रहने और बिजली के अभाव ने भी इनके दायित्व निर्वहन में कमी न आने दी। कटे-छंटे मुर्दा जिस्मों में रसायनिक लेप लगाया गया। सभी शवों को पैक किया गया। वहीं इनकी मदद कर माला पांडेय, रचना बाड़ा और राखी कुमारी ने ममत्व को चरितार्थ किया। कई वाहनों पर 41 अनाम लाशों को लेकर जब टीम दिन के 1:45 बजे श्मसान घाट पहुंची, तो हमारी आंखें नम हो गईं। वहीं आसपास के पेड़ों से झर-झर पत्ते गिरने लगे। नदी का पानी भी कल-कल करने लगा।

नहीं पहुंचा कोई सरकारी नुमाइंदा
इधर,  प्रवीण लोहिया,अमरजीत गिरधर, आशीष भाटिया, दीपक लोहिया, पंकज चौधरी, परमजीत सिंह टिकु और हरीश नागपाल आदि मुक्ति के ढेरों सदस्य पहले ही चिता के लिए एक 407 और दो ट्रैक्टर से लकड़ी और तेल ,धूप आदि अन्य सामान के साथ घाट पर तैयार थे। शव यात्रा के पहुंचते ही सभी ने जनाजे को वाहन से उतारा। अरविंद, निजाम, तापस आदि ने चिता सजाई। शवों को उसपर लिटाने के बाद सभी ने पुष्पांजलि अर्पित की। चिता की परिक्रमा के बाद सुनील, फिरोज व मेराज ने इन्हें मुखाग्नि दी, तो सभी आंखें डबडबा गईं। ये सभी शव उनके थे, जो अलग-अलग हादसों में मारे गए। वे कहां के थे। किन-किन गांव-शहरों में उनका बचपन मुस्कुराया, जवानी की उमंग ने कहां अंगड़ाई ली, तो मौत उन्हें कहां से कहां ले आई। ये कोई नहीं जानता। कहीं उनके भाई इन्हें ढूंढ रहे होंगे, तो कहीं उनके मां-पिता की आंखें इंतजार में पत्थर हो चुकी होंगी। कोई मासूम पापा-पापा की रट लगाए रोज मां की गोद में सो जाता होगा। प्रशासन ने उनके दाह-संस्कार की अनुमति जरूर दी, पर उसका कोई प्रतिनिधि उन्हें नमन करने तक नहीं पहुंचा।


भास्कर झारखंड के 22 दिसंबर 2014 के अंक में प्रकाशित
 
   

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