बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

महज़ इक सुख़नवर का जाना नहीं कलीम



 










कलीम आजिज़ एक गुमनाम शायर का फ़साना

सिद्धान्त मोहन की क़लम से
कलीम आजिज़, यानी वह शख्स जो मीर की रवायत को अब तक बनाए रखे हुए था, हमें और उर्दू शायरी छोड़ चले गए. यह छोड़कर जाना सिर्फ़ एक सुखनवर के गुज़र जाने का होता तो कोई बात भी थी, लेकिन यह जाना पूरी उर्दू शायरी और उससे कमोबेश हर हाल में प्रभावित रहने वाली हिन्दी कविता के एक बड़े अध्याय का जाना था. आपातकाल के वक्त इंदिरा गांधी के लिए कलीम साहब ने कहा था:
रखना है कहीं तो पाँव तो रखो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया तो इतराए चलो हो.
और
दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो

और इसी के साथ कलीम साहब की शायरी के सियासी लहजे को भी वह मक़ाम मिला, जो आज हम सबके सामने है. बात ज़ाहिर करने के लिए मीर की पूरी परम्परा को अख्तियार करते हुए कलीम आजिज़ ने अपने अंदाज़-ए-बयां को फ़िर भी पूरी मकबूलियत दी
.
हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा-ए-सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो

इसके साथ-साथ कलीम आजिज़ ने हरेक सामाजिक पहलू को अपनी शायरी में समेटने का बीड़ा उठाया. चाहे इश्क करना हो या क़ाफिर साबित होना हो, कहीं भी कलीम साहब ने भाषा और लहज़े को मुक़म्मिल बनाए रखा. किसी भी स्थिति को साफ़ और ज़ाहिर तरीकों से सामने रखने के लिए जो अंदाज़ कलीम आजिज़ ने अख्तियार किया था, वह आज भी प्रासंगिक और पूरे वजूद में बना हुआ है.
अंदर हड्डी-हड्डी सुलगे बाहर नज़र न आए
बहुत कम कवियों और शाइरों के साथ ऐसा होता आया है कि उनकी ही किसी नज़्म, शेर या कविता के साथ ही उनका व्यक्तित्व या उनके जाने को बयां किया जा सके. उन बेहद कम लोगों की फ़ेहरिस्त में कलीम आजिज़ का नाम गिना जा रहा है.
दर्द का इक संसार पुकारे, खींचे और बुलाए
लोग कहे हैं ठहरो-ठहरो ठहरा कैसे जाए
ऐसा कम हुआ है कि किसी शायर की मौत पर सियासतदार ने अपना गम ज़ाहिर किया हो. अपनी राजनीतिक विषमताओं से दो-चार हो रहे राज्य बिहार के नेता नीतीश कुमार ने कहा, ‘बिहार में हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद का बड़ा पैरोकार हमारे बीच से चला गया है. कलीम साहब के जाने से उर्दू अदीब का एक बड़ा सितारा बुझ गया.’
बिहार में क़ाबिज़ रंगकर्मी हृषिकेश सुलभ कहते हैं, ‘पोएट(शायर) दो तरह के होते हैं – एक सिर्फ़ पोएट और दूसरे पोएट ऑफ़ पोएट्स. कलीम आजिज़ दूसरे किस्म के शायर थे. उन्होंने शायरी और जीवन के कई दौर देखे थे. अज़ीमाबाद की शायरी के वे बड़े नामों में शुमार थे.’
शायरी में पसरे पॉपुलर कल्चर के बारे में बात करने पर सुलभ कहते हैं, ‘जिस तरह यह ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह अच्छा हो, इसलिए यह भी ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह ख़राब भी हो. कलीम आजिज़ की लोकप्रियता के अपने मानी थे. वे बशीर बद्र व निदा फाज़ली तरह नहीं थे, इसका मतलब यह नहीं कि उनकी शायरी कमज़ोर थी. वे गंभीर थे, जब वे पढ़ना शुरू करते थे तो हर कोई शान्त होकर उन्हें सुनता था. उनके आगे-पीछे कोई नहीं होता था. उन्होंने शायरी के मेआर को बनाए रखा था.’
हिन्दी कवि और आलोचक असद ज़ैदी कहते हैं, ‘मुझे आज से क़रीब 40 साल पहले एक मित्र ने कलीम साहब की गज़ल पढ़ाई थी. उस समय मेरा परिचय आजिज़ की शायरी से हुआ था. मैं कहूँगा कि मीर के लहज़े और डिक्शन को पूरी मजबूती के साथ पकड़ने वाले शायर आजिज़ साहब थे.’ असद ज़ैदी आगे कहते हैं, ‘विभाजन के दौरान कलीम आजिज़ के समूचे परिवार का ख़ात्मा कर दिया गया था. हमें और आपको पता है कि इसके क़त्ल-ए-आम के पीछे कौन था? आजिज़ साहब को भी पता था. लेकिन यह अचरज का विषय है कि इन सबके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई और नौकरी का रास्ता बुलंद किया.’ गुमनामी के बारे में बात करते हुए असद ज़ैदी कहते हैं, ‘बिहार के बाहर मुट्ठीभर पाठक ही हैं, जो आजिज़ साहब को पढ़ते-जानते हैं. उर्दू शायरी के चुनिन्दा नाम ही सभी को पता हैं. लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि गंभीरता और ख़ामोशी के साथ शायरी करने वाला शायर कलीम आजिज़ है.’
साफ़ है कि हिन्दी के कल्चर में जिस तरह केवल चुनिन्दा शाइरों का नाम प्रचलन में रहा, उसका शिकार कलीम आजिज़ की शख्सियत भी हुई. उन्हें हिन्दी पट्टी के पाठकों ने नहीं पढ़ा. युवाओं में उनकी उपस्थिति बिलकुल गायब थी. युवाओं के पास ग़ालिब, मीर और फैज़ सरीखे बड़े नाम तो थे लेकिन इन नामों से नया परिष्कार क्या हुआ, बेहद कम लोगों को मालूम है.
और चलते-चलते कलीम आजिज़ की एक गज़ल...
इस नाज़ से अंदाज़ से तुम हाय चलो हो
रोज़ एक गज़ल हम से कहलवाए चले हो
रखना है कहीं पांव तो रखो हो कहीं पांव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चले हो
दीवाना-ए-गुल क़ैदी ए ज़ंजीर हैं और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाए चले हो
ज़ुल्फों की तो फ़ितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे
ज़ुल्फों से ज़ियादा तुम्हों बलखाये चले हो
मय में कोई ख़ामी है न सागर में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चले हो
हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाए चले हो
वो शोख सितमगर तो सितम ढाए चले हैं
तुम हो कलीम अपनी गज़ल गाये चले हो

(साभार TwoCircles.net )

इंक़लाबी शायर कलीम आजिज़ की ग़ज़लें पढ़ें










(लेखक-परिचय:
जन्म : बनारस में
शिक्षा : बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय से
सृजन: लेख और कविताएं प्रकाशित
संप्रति : वेब पत्रिका फर्स्ट फ्रंट का संपादन और स्वतंत्र लेखन
ब्लॉग: बुद्धू-बक्सा
संपर्क : sidaurche@gmail.com)





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- अल्लामा जमील मज़हरी

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