बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

‘मुर्दहिया’ के बहाने लोक-चिंता

ज़मीन की अतल गहराईयों में धँसी थी जिसकी जड़े






 






सुनील यादव  की क़लम से

मुर्दहिया तद्भव में छप रही थी उससे पहले मैं प्रो. तुलसी राम को बहुत कम जानता था, अगर जानता था तो गोरख पाण्डेय पर उनके अविस्मरणीय और जीवंत सस्मरणों  के लिए. अद्भुत यदाश्त थी इस व्यक्ति के पास, बनारस से लेकर जेएनयू तक के गोरख से जुड़े किस्से जब वे सुनाते थे तो एक छवि बनती जाती थी गोरख की और साथ में तुलसी राम जी की भी.  हालांकि बाद में उन्होने अपनी आत्मकथा मणिकर्णिका में उसे लिखा भी । मुर्दहिया को तद्भव में पढ़ने के बाद उसकी फोटो कॉपी के साथ मैं प्रो. तुलसी राम के गाँव धरमपुर पहुंचा.  धरमपुर मेरे गाँव से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। वहाँ पहुँचकर यह अहसास हुआ कि कुछ नहीं बदला है, मैं उसी मुर्दहिया में खड़ा हूँ.  यह मुर्दहिया सिर्फ धरमपुर में ही नहीं है यह मुर्दहिया पूर्वी उत्तरप्रदेश के हर गाँव में है। अन्य गांवो की तरह दक्खिन टोला मेरे गाँव में भी है जिसे लोग ‘चमरौटी’ कहते हैं, यह ‘चमरौटी’ उसी तरह नहीं है, जिस तरह अहिराना, कोइराना, साहबाना या कनुवाना है, यह चमरौटी एक पूरवा का नाम नहीं है बल्कि एक घृणा का नाम है, यह एक तरह की गाली है, जो इसमें रहने वालों की आत्मा को हर रोज छलनी करती रहती है । मुर्दहिया इसी दक्खिन टोले का मर्मांतक दास्तावेज है । यह अकारण नहीं है कि तुलसीराम अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ नाम से लिखते हैं.  हिंदू समाज में जो स्थान मणिकर्णिका का है वही स्थान उनके गाँव धरमपुर की दलित बस्ती का मुर्दहिया से है। वे लिखते भी हैं कि “उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक मुर्दहिया ही होता।”
    
युवा कथाकार और पत्रकार अनिल यादव उनके संदर्भ में बिलकुल सटीक लिखते है कि “वे लंबे समय तक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफेसर रहे। लेकिन कभी उस फर्मे में फ़िट नहीं बैठे जिसमें सगर्व समा जाने के बाद जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के ज़्यादातर अध्यापक चमकीले प्लास्टिक के बने ज्ञानी लगने लगते हैं। उन्हें देखकर हमेशा मुझे उस धातु की महीन झंकार सुनाई देती थी जिसके कारण भुखमरी, जातीय प्रताड़ना का शिकार, सामंती पुरबिया समाज में दुर्भाग्य का प्रतीक वह चेचकरू, डेढ़ आंख वाला दलित लड़का घर से भागकर न जाने कैसे अकादमियों में तराश कर जड़ों से काट दिए गए प्रोफेसरों की दुनिया में चला आया था। अपमान से कुंठित होने के बजाय पानी की तरह चलते जाने का जज़्बा उन्हें बहुतों के दिलों में उतार गया था। तुलसी राम ने दिखाया कि दलित सिर्फ बिसूरते नहीं हैं, उनकी भी आत्मसम्मान की रक्षा के लिए लड़ने की परंपरा है, अपने हथियार हैं।”(कबाड़खाना ब्लॉग पर)
    प्रख्यात दलित चिंतक प्रो. तुलसी राम के चिंतन पर बहुत कुछ लिखा गया है उसे मैं छोड़ रहा हूँ, मैं उनके एक बिलकुल अलग रूप को आपके सामने रखने जा रहा हूँ, वह है उनकी ‘लोक चिंता’। इनकी चर्चित आत्मकथा मुर्दहिया लोक-चेतना से सराबोर है। इस आत्मकथा ने आत्मकथा के लगभग सारे प्रतिमानों के साथ सिद्धांतों को भी ध्वस्त कर दिया । जहाँ परंपरागत आत्मकथाओं में लेखक ‘मैं’ से ‘समाज की ओर जाता है। वही इस आत्मकथा में लेखक अपने समाज की पूरी सांस्कृतिक प्रक्रिया से गुजरते हुए ‘अपने’ तक आता है। इसमें लेखक अपने समाज का जिस तरह समाजशास्त्रीय आख्यान प्रस्तुत करता है,  वह किसी भी समाज के अध्ययन के लिए समाजशास्त्रियों को चुनौती है। अपने समाज के जीवन स्तर के एक-एक तत्व की बेबाक प्रस्तुति है ‘मुर्दहिया’। इसमें लोक की तमाम रीति-रिवाज, परंपराएँ, लुप्त होते संस्कार, गीत तथा जातियों के साथ अपने भाषा के लुप्त होते शब्दों को बचा लेने की जोरदार मुहिम है। इसमें ‘लोक’ और ‘लेखक’ एक-दूसरे के सहचर बनकर चलते हैं। प्रो. तुलसीराम ने लिखा है कि ‘‘मेरे जैसा कोई अदना जब भी पैदा होता है। वह अपने इर्द-गिर्द घूमते लोक-जीवन का हिस्सा बन ही जाता है। यही कारण था कि लोकजीवन हमेशा मेरा पीछा करता रहा।”1

आज जिस तरह बाज़ारीकरण ने गाँवों को अपने चपेट में लिया है। गाँवों की सामूहिकता नष्ट-भ्रष्ट हो गई है। कई लोक-कलाएँ लुप्त होती जा रही हैं और कितनी तो नष्ट हो गई है। इसके बारे में ‘मुर्दहिया’ में प्रो. तुलसीराम लिखते हैं कि ”शादी विवाहों के इन अवसरों पर भांड़-मंडलियों या नौटंकियों का आयोजन दलितों के बीच आम बात थी। इन अत्यंत आकर्षक मंडलियों या नौटंकियों में नाटक से लेकर गायक, तबलची, अभिनेता, स्वांग आदि कोई प्रोफेशनल व्यक्ति नहीं बल्कि वही अधपेटवा गुजारा करने वाले हरवाहे हुआ करते थे।”2 वास्तव में लोक कलाकार बनने के पीछे भूख के अर्थशास्त्र को रेखांकित करना, उसके नष्ट होने के कारणों तक पहुँचने का रास्ता भी दिखाता है। बाज़ारवाद के दबाव के बीच ‘थियेटर’ तक दम तोड़ने लगे हैं तो ये लोक कलाएँ कैसे ठहर पाती। आज लोक कलाकारों की स्थितियाँ आत्महत्या तक पहुँच चुकी है। यह भूख के अर्थशास्त्र से ही समझा जा सकता है।
    “लोक कला मंडलियों में लैला-मजनूँ, शीरी-फरहाद, सुल्ताना डाकू आदि जैसे नाटकों का मंचन भी दलित कलाकार आकर्षक ढंग से करते थे। इन सभी नाटकों का अंत एक विचित्र समापन शैली में होता था।... इस कड़ी में बरात प्रस्थान के समय एक खास किस्म का नृत्य किया जाता था, जिसे ‘दुक्कड़’ कहते थे। यह बहुत शक्तिशाली नृत्य होता था। इसमें सिर्फ दो कलाकार एक दफलावादक तथा दूसरा दुक्कड़ची नर्तक हाता था, दफले की जोरदार लक्कड़ ध्वनि पर नाचने वाला व्यक्ति गोलाकार आवृत्ति में नाचते हुए तरह-तरह की कलाबाजियाँ दिखाता रहता था। इन कलाबाजियों में उसका मुकाबला तबलची स्वयं करता था।.... ऐसे ही एक नाच हुआ करता था ‘हूड़क’ की ध्वनि पर ‘कहंरउवा’। हूड़क डमरू की आकृति वाला उससे काफी बड़ा वाद्य होता था, जिसे कलाकार अपनी बांह के नीचे कांख में दबा लेता था तथा उसे अपनी कुहनी से बजाता था। यह बड़ा गजब का वाद्य होता था, जिससे बहुत सुरीली ‘केहुरवा’ शैली में आवाज निकलती थी। वाद्यक स्वयं जो कुछ गाता था, उसके बीच-बीच में ‘दहि दहि दे-दहि दहि दे’ नामक तकियाकलाम भी ठोंक देता था।... आज के जमाने में तो वे सम्भवतः विलुप्त ही हो गए हैं।... एक रोचक बात यह थी कि इस तरह की सारी लोककलाएँ सिर्फ दलितों के बीच ही केंद्रित थीं। सवर्ण जातियों में किसी तरह की लोककला मौजूद नहीं होती थी। शायद यही कारण था जिसके चलते इन कलाओं के साथ जाति सूचक विशेषण जुड़ गए थे जैसे-चमरउवा नाच, या गाना, धोबियउवा नाच कहैरउवा धुन, गोड़इता नाच (हूड़क के साथ) आदि।”3
इन लोक कलाओं के बाद लोकगीतों पर आते हैं। लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता संप्रेषीकरण की होती है। लगभग हर प्रकार के उत्सव तथा श्रम के अलग-अलग गीत लोक में प्रचलित थे, जिनका सौंदर्यबोध अभिजात साहित्य के सौंदर्यबोध से एकदम भिन्न होता है। “धान की रोपनी करती हुई दलित मजदूरिनें हमेशा एक लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ दिन भर गाती रहतीं थीं, जो इस प्रकार थीं, अरे रामा परि गय, बलुआ रेत, चलब हम कइसे ऐ हरी।’  इसी तरह जब मजदूरिनें पूर तथा घर्रा के दौरान मोट छिनते हुए कुँए से पानी निकालतीं तो दलित मजदूर एक लोकगीत गाते:
ऊँचे-ऊँचे कुअना क नीची बा जगतिया रामा
निहुर के पनिया भरै, हइ रे साँवर गोरिया
पनिया भरत कै हिन कर झुमका हेरैले रामा
रोवत घरवां आवै ले रे सावर गोरिया।
पनिया भरत के हिन कर टीकवा हेरैले रामा
रोवत घरवा आवै ले रे सांवर गोरिया।”4

इस प्रकार औरत के सारे आभूषणों के कुएँ में गुम हो जाने का वर्णन हो जाता था। यह आभूषण औरतों के मन की कल्पना हुआ करते थे और ये गीत के माध्यम से कुछ देर ही सही कल्पना में जी कर खुश हो लिया करती थीं। “इस प्रकार श्रम के अनेक सौंदर्य गीत भुखमरी के शिकार दलित के जीवन के अभिन्न अंग थे, जो किसी कालिदास या जयदेव के बस की बात नहीं थी।”5  “इसी तरह बालविवाह जैसी कुरीतियों पर तीखी टिप्पणियाँ, जो नंगी सच्चाइयों का पर्दाफाश कर देने वाली होती थीं......इस पर विरहा शैली में बड़ा लोकप्रिय गीत गाया जाता था, जिसकी इन पंक्तियों में गूढ़ रहस्य छिपे रहते थे, जैसे- बाबा विदा करौ लं लरिका क मेहरिया रहरिया में बाजै घुंघरू।”6
    “उपरोक्त पंक्तियों में छिपा हुआ रहस्य यह है कि बाल-विवाह से उत्पन्न कुरीति के कारण बालक दूल्हे की जवान पत्नी को उसका ससुर अरहर और सनई की संयुक्त खड़ी फसल के बीच से जाने वाले रास्ते से विदा कराकर ले जा रहा है। अतः सामाजिक रूप से अमान्य व्यवहार के स्पर्श से गहन फसल के बीच सनई के पौधों से घुंघरू की गूंजती आवाजों से सारा रहस्य उजागर हो जाता है। ‘गीत गोविन्दम’ में जयदेव द्वारा वर्णित कृष्ण के शारीरिक स्पर्श से राधा के पैरों में बंधी पायल के खनक जाने से जो रहस्य खुल जाता है, उससे कहीं ज्यादा सौंदर्यशास्त्रीय रहस्य इन लोकगीतों में मिलता है।”7
 
ऐसे ही लोक के तमाम विषयों एवं उत्सवों पर लोकगीतों की भरमार थी, जो आज लुप्त होती जा रही है। पूरे लोक के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परंपरा को अपने अंदर समेटे ये लोकगीत आज लोक से बिसर गये हैं। गाँवों में बच्चों को बहलाने के लिए काव्यमय कहानियाँ गाई जाती थीं जैसे,  ‘‘राजा रानी आवैली, पोखरा खनावैली, पोखरा के तीरे-तीरे इमिली लगावैली, इमिली के खोढ़रा में बत्तीस अंडा, रामचंद्र, फटकारै डंडा, डंडा गयल रेत में-मछरी के पेट में, कौआ कहे काँव-काँव, बिलार कहै झपटो-आ लगड़ी क टांग धइके रहरी में पटको रहरी में पटको।”8  इसी तरह एक अन्य लघुकथा गाई जाती थी, जो इस प्रकार है-  “कड़ा-कड़ा कौआ, नेपाल क बेटउवा, नेपाल गइलै डिल्ली, उठाइके लिअउलै पिल्ली, खेलावा हो कौआ, खेलावा हो कौवा।”9
आज न तो ऐसे काव्यमय कहानी गाकर बहलाने वाला बचा है और ना ही कोई इसे सुनने वाला। पर इन काव्यमय कहानियों का बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक पक्ष होता था, जो बच्चों में जिज्ञासु होने की प्रवृत्ति को पैदा करता था।
प्रो. तुलसी राम ने अपने इस आत्मकथा में बच्चों के उन तमाम खेलों का विस्तार से वर्णन करते हैं जो आज क्रिकेट के चकाचैंध में गायब हो गए हैं। ‘अक्का-बक्का’’’10 से लेकर ‘लखनी’ तथा ‘ओल्हवा के पाती’ तक के खेलों का परिचय ‘मुर्दहिया’ में मिलता है। ‘लखनी’ और ‘ओल्हापाती’ खेल में “एक-दो फिट पतली लकड़ी पेड़ के नीचे रख दी जाती, फिर एक लड़का पेड़ से कूदकर उस लकड़ी जिसे ‘लखनी’ कहा जाता था, को उठाकर अपनी एक टांग ऊपर करके उसके नीचे से फेंककर पेड़ पर पुनः चढ़ जाता था। जहाँ लखनी गिरती थी, पेड़ के नीचे खड़ा दूसरा लड़का उसे उठाकर दौड़ता हुआ पुनः पेड़ के नीचे आकर उसी लखनी से पहले वाले को जमीन से ऊपर कूदकर छूने की कोशिश करता, वह भी सिर्फ एक बार में। यदि उसे छू लिया तो पेड़ चढ़े लड़के को मान लिया जाता कि वह अब ‘मर’ चुका है, इसलिए वह खेल से बाहर हो जाता था फिर लखनी से छूने वाला लड़का विजेता हो जाता। इस ‘मरे’ हुए लड़के को पेड़ के नीचे खड़े होना पड़ता तथा विजेता पेड़ पर चढ़ जाता और खेल की वही प्रक्रिया दोहराई जाती।”11
विवाह के दौरान दीवारों पर ‘कोहबर’ कलाकृतियाँ बनाने की परंपरा थी। “दीवार पर गेरू तथा हल्दी से जो पेंटिंग की जाती थी, उसे कोहबर कहा जाता था। ऐसी कलाकृतियों में केले का पेड़, हाथी, घोड़े, औरत, धनुषवाण आदि शामिल होते थे। एक विशेष बात यह थी कि इन कोहबर कलाकृतियों का प्रचलन सवर्ण जातियों में नहीं था। इन परंपराओं से जाहिर होता है कि सदियों से चला आ रहा दलितों का यह बहिष्कृत समुदाय एक अलौकिक कला एवं संगीत का न सिर्फ संरक्षक रहा, बल्कि उसका वाहक भी है। अशिक्षा के कारण लिपि का ज्ञान न होने के कारण दलित लोग संभवतः भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अभिव्यक्ति के लिए कोहबर पेंटिग का सहारा लिया था।”12
बाजारवाद की मार सबसे ज्यादा लोक में उन लोगों पर पड़ी जो गांवों में घूम-घूम कर सामान बेचा करते थे। जैसे “हिंगुहारा’ हिंग बेचने वाला, ‘पटहारा’ जो शीशा, कंघी, सुई-डोरा, टिकुली इत्यादी चीज़ बेचता था, ‘चुड़िहारा’ जो चूड़ियाँ बेचता था। ‘कपड़हारा’ जो कपड़ा बेचता था।”13 यह सब आज लोक से गायब हैं और बाजार लोक में अंदर तक घुस आया है। ऐसे ही ‘डोम’ जो टोकरी चंगेरी, छिट्टा, दउरी इत्यादि बनाते थे, धोबी जो कपड़ा धोते थे, ‘कुम्हार’ जो वर्तन बनाते थे, ‘नाई’ इत्यादि व्यवसायिक जातियाँ आज लोक से विलुप्त हो रही है। मुर्दहिया में इनके चिंता से रूबरू होने का प्रयास दिखता है।
प्रो. तुलसी राम ने अपने दादी के माध्यम से अनेक दवाओं की चर्चा करते हैं, जो लोक में ‘खरबिरिया’ दवाएँ के नाम से जानी जाती हैं, जैसे- “दाल चीनी तथा बांस का सींका पीसकर ललाट पर लगाने से सिरदर्द बंद हो जाता था।”14 पेचिश की बीमारी के लिए “अमरूद या अमलताश की पत्ती पीसकर छानने के बाद उसके रस को पिलाया जाता।”15 खुजली ठीक करने के लिए ‘‘भंगरैया नामक पौधे की पत्तियाँ पीसकर छोपने से खुजली ठीक हो जाती है।”16 फोड़े फुंसी के ऊपर “अकोल्ह के पत्ते पर मदार का दूध पोतकर चिपकाने से वह ठीक हो जाते।”17 इस प्रकार के अनेकों दवाएँ लोक में उपलब्ध थीं, जिनका उपयोग किया जाता था।
‘मुर्दहिया’ के बहाने लोक के पुर्नसृजन का प्रयास प्रो. तुलसी राम करते हैं, उनकी नजर लोक के उन सब चीजों तक जाती है, जो आज विलुप्त हो गये हैं या होने के कगार पर हैं। वे विस्तार से उन चीजों को फिर से संजोते हैं। खेती के उपकरणों से लेकर सिंचाई के साधनों तक जिनका प्रयोग पहले से होता था, का विस्तार से वर्णन यहाँ मिलता है। लोक की तमाम प्रकार की कुरीतियों की समाजशास्त्रीय आधारों की चर्चा भी यहाँ मिलती है, जिसमें एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिखता है।
लोकोक्तियों तथा लोक के उन शब्दों को जिनका प्रयोग आज होना बंद हो गया है, उन्हें वे पुर्नव्याख्यायित करते हैं। लोक का पूरा संस्कार ‘मुर्दहिया’ में जीवित हो उठता है। यही इसकी विशेषता भी है। लेखक लोक से किस तरह संपृक्त है इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है “चरवाही के दौरान हम किसी के खेत से पकी-पकी धान की बालियाँ पांग कर लाते और गमछा बिछाकर उन्हें लाठी के हूरे से मूसल की तरह कूच-कूच कर चावल बना देते। इस थोड़े से चावल को हम आग जलाकर छोटी सी मिट्टी की भरूकी में पकाते तथा वहीं किसी की बकरी को दूहकर पलाश के पत्ते के दोने में दूध निकालते। बकरी के इस कच्चे दूध में सिंघोर की पत्ती के तोड़ने से निकलते द्रव की एक-दो बूँद मिला दिया जाता, जिससे तत्काल दहीं जम जाती थी। भरूकी में ही मटर की दाल पकाई जाती, जिसमें पलाश का पत्ता डाल देने से वह तुरंत गल जाती थी।”18 

तत्काल दही जमाने तथा तुरंत दाल गलाने का उपाय लोक में ही मिल सकता है। यही लोक की ताकत है, जिसका अहसास मुर्दहिया से गुजरते हुए बार-बार होता रहता है।
    अंत में प्रो तुलसी राम के लिए यह कह सकते हैं कि जमीन की अतल गहराईयों में धँसी थी जिसकी जड़े वह बरगद इतनी जल्दी ढह जाएगा ऐसी आशा न थी ।


संदर्भ:
1.    मुर्दहिया (आत्मकथा प्रथम खण्ड) प्रथम संस्करण-2010) - प्रो.
तुलसीराम,     राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ - 5
2.    वही पृष्ठ - 106
3.    वही पृष्ठ - 107-108
4.    वही पृष्ठ - 67
5.    वही पृष्ठ - 67
6.    वही पृष्ठ - 106
7.    वही पृष्ठ - 107
8.    वही पृष्ठ - 28
9.    वही पृष्ठ - 28
10.    वही पृष्ठ - 29
11.    वही पृष्ठ - 43
12.    वही पृष्ठ - 105
13.    वही पृष्ठ - 33
14.    वही पृष्ठ - 49
15.    वही पृष्ठ - 62
16.    वही पृष्ठ - 62
17.    वही पृष्ठ - 62
18.    वही पृष्ठ – 145



(लेखक-परिचय:
जन्म: 29 दिसंबर 1984 को ग्राम- करकपुर , पोस्ट अलावलपुर, गाजीपुर (उ प्र ) में
शिक्षा: आदर्श इंटर कॉलेज गाजीपुर से आरंभिक शिक्षा,  इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद से बीए और एमए, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से पी-एचडी कंप्लीट, उपाधि प्रतिरक्षा रत
सृजन : पहल जैसी अहम पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित.
‘समसामयिक सृजन’ पत्रिका के  लोक विशेषांक का संयोजन
संप्रति:   स्वतंत्र लेखन और शोध कार्य में सक्रिय
संपर्क: sunilrza@gmail.com)

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