चित्र: गूगल से साभार |
बिहार के सुशासन को चुनौती देते कुछ तत्व
भवप्रीतानंद की क़लम से
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी को अपना नेता चुनने में कोई खास परेशानी नहीं हुई थी। दल की एकता और गांधी परिवार की आशक्ति ने एकमत से राजीव गांधी को नेता चुन लिया। लालू यादव के लिए भी चारा घोटाला में फंसने के बाद मुख्यमंत्री के पद पर बने रहना असंभव हो गया था, तो पार्टी में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए कोई और नहीं सूझा, पत्नी राबड़ी के अलावा। इससे न सिर्फ वह पार्टी पर कमांड रख सके, बल्कि सत्ता में भी छाया प्रशासक की भूमिका निभाते रहे। नीतीश कुमार के पास शायद ऐसा कोई नहीं था। इसलिए उन्होंने महादलित जीतनराम मांझी को चुना। नीतीश ऊपर के दोनों दोनों उदाहरण से थोड़ा अलग इसलिए हैं कि उन्होंने सत्ता लोकसभा में बिहार में मिली करारी हार के कारण छोड़ी थी। कमान जीतनराम मांझी को यह सोचकर दी थी, कि वह उसी कार्य परंपरा को बनाए रखेंगे, जो वह आठ वर्षों से बनाए रखे थे। इससे नीतीश ने जनता के सामने यह साबित करने का प्रयास किया कि हार के बाद उन्होंने सत्ता में बने रहने का आधिकार खो दिया है।
आम आदमी पार्टी फिर से जब दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई है, तो पार्टियों को दो खेमे में बांटकर देखने का चलन शुरू हुआ है। एक परंपरागत पार्टी का खेमा बना है जो वर्षों से राजनीति कर रहा है और नाम अलग-अलग होने के बाद भी चारित्रिक रूप से दोनों एक हैं। मतलब दोनों में दागी नेताओं की कमी नहीं है। दोनों के पास काले धन हैं। सत्ता में जो रहता है, वह इन दागी नेताओं से परहेज नहीं करता है। या फिर सत्ता में रहकर भी जो अलोकतांत्रिक फैसले लेता से उसपर तुरंत कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, जब तक की पानी सिर के ऊपर ने न गुजर जाए।
इन्हीं परंपरागत राजनीतिक दलों में से कई नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने विकास को एक नया आयाम दिया है। ओडिशा, छत्तीसगढ़, एमपी में वर्षों से परंपरागत पार्टी के नेताओं ने लीक से हटकर काम करके दिखाया, तो लोग उन्हें सत्ता में बनाए हुए है। बिहार के नीतीश कुमार भी ऐसे सीएम की केटगरी में देखे जाते हैं जो विकास की राजनीति करते हैं। काम के बल पर वोट मांगते हैं और जातीय गणित के जोड़-तोड़ में लिप्त रहने वाला राज्य भी उन्हें सत्ता में बनाए रखता है।
नीतीश ने भाजपा से नाता तोडऩे के बाद जो राजनीति की है, वह कई शंकाओं को जन्म देती है। लालू यादव से हाथ मिलाकर उन्होंने जातीय गणित को दुरुस्त करने की भले कोशिश की हो, पर जिस दम पर उनकी राजनीतिक शख्सियत बनी थी, उसपर सवालिया निशान लग गया है। यह चुभने वाली बात है। जदयू और नीतीश नरेंद्र मोदी की अखिल भारतीय स्वीकृति को नहीं आत्मसात कर पाए, यह बात अपने-आप में और अपनी जगह ठीक हो सकती है। पर जदयू-शरद यादव-नीतीश कुमार इसके काट के लिए लालू यादव को गले लगाते हैं, यह बात कुछ हजम नहीं हो रही है।
लोकसभा चुनाव में हार के बाद भी नीतीश बिहार की सत्ता में बने रहते, तो लोगों में कोई बहुत गलत संदेश नहीं जाता। खासकर तब जब कि उन्होंने आठ वर्ष राज कर लिया था और बिहार में विकास की स्थिति को गतिशील बना दिया था। २०१५ अंत में जब वह जनता के सामने रिपोर्ट कार्ड लेकर जाते, तो शायद उनकी स्थिति भाजपा और राजद से बेहतर ही होती। पर जीतनराम मांझी के बेसुरा होने के बाद और लालू यादव को गले लगाने के बाद नीतीश उस रिपोर्ट कार्ड को बहुत अधिकार के साथ प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं हो पाएंगे, जिसे वह सुशासन कहते हैं। जीतनराम मांझी ने नीतीश की छवि सत्ता लोलुप की बना दी है। शायद इसी कारण वह जीतनराम मांझी के चुनाव को अपनी बड़ी भूल मान रहे हैं। पर अगर बिहार की जनता विकास की राजनीति को मानक मानकर वोटे देती है तो जीतनराम मांझी से अधिक खतरनाक उनका लालू यादव से गठबंधन वाला दांव रहेगा। लालू यादव ने सत्ता में आने के बाद से वहां बने रहने के लिए उसका जितना गलत इस्तेमाल करना था, किया था। उन्होंने बिहार में चुनाव का मखौल बनाकर रख दिया था। जिस सुशासन को नीतीश अपना गहना मानते हैं, क्या उनके साथी लालू यादव भी उसे इसी रूप में देखते हैं। यह प्रश्न इसलिए लाजिमी है क्योंकि लालू यादव को लठैती की भाषा समझ में आती है। वह चीजों को व्यवस्थित तरीके से देख ही नहीं सकते। बिहार में विकास के ग्रिप में आई जनता लालू यादव को सिरे से नकारती है। क्योंकि उन्होंने अपने कर्मों का कोई प्रायश्चित नहीं किया है। उन्होंने कुछ ऐसा कर नहीं दिखाया है जिससे कि बिहार की जनता समझे कि चलो अब लालू यादव को सद्बुद्धि आई। ऐसी स्थिति में नीतीश का लालू के गले लगना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि मिलकर अगर उन्हें सत्ता मिलती है तो नीतीश के सुशासन के रथ में पहिए सुरक्षित रह भी पाएंगे-इसमें शक है।दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद जीतनराम मांझी नामक वायरस से नीतीश को आने वाले सप्ताह में मुक्ति मिल सकती है। पर मांझी के वायरस ने नीतीश को सताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। १६ फरवरी को जब हाईकोर्ट ने जीतनराम मांझी के थोक में लिए गए फैसले पर रोक लगाई तो पहली बार उनके चेहरे पर हार का डर दिखने लगा। दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद से भाजपा भी बहुत उत्सुक होकर माझी के साथ नहीं चल रही है। नीतीश के दूसरी बार विधायक दल के नेता चुने जाने के बाद सत्ता पाने के लिए जो हड़बड़ाहट दिखा रहे हैं वह उनके व्यक्तित्व के इतर है। पर बात सिर्फ फिर से सीएम बन जाने की नहीं है। बात है साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव की है। वह क्या लालू यादव को साथ लेकर चुनाव जीता जा सकता है।
आप ने हर परंपरागत पार्टियों के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। उसके सुशासन की परिभाषा नीतीश कुमार से भी अलग है। अगर पूरे देश की जनता ऐसे ही मानक को प्रतिमान मानकर लोगों को चुनती है तो लालू से गठबंधन नीतीश के लिए गले की फांस बन जाएगी। नीतीश जब फिर से सीएम बनेंगे तो उन्हें बहुत संभलकर कदम रखने होंगे। लालू यादव से हुए गठबंधन को अवसरवादी नहीं बताकर उसकी स्पष्टता की व्याख्या जनता के समझ प्रस्तुत करना पड़ेगा। यह चुनौती कई मायनों में अधिक जटिल है। जातीय गणित बिहार की राजनीति में अहम है। बिहार क्या पूरे देश की राजनीति में अहम है। पर लोग अब इससे परे भी देखने लगे हैं। देखने के आदी हो रहे हैं। तो राजनीति को भी उसके अनुसार बदलना होगा। राजनीति करने वाले को भी जातीय गोटी फिट करने से इतर सड़क-बिजली-पानी-शिक्षा आदि विषय-वस्तुओं पर ध्यान देना होगा। लालू यादव क्या राजनीति के इस परिवर्तन को देख-महसूस कर पा रहे हैं? नीतीश से उनका गठबंधन भी तभी सफल होगा जब विकास की राजनीति का मोर्चा उनके लिए भी जुनून का विषय बनेगा।
(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
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- अल्लामा जमील मज़हरी