बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया



 







कितने बदनसीब हैं जो करते हैं मां को नाराज़

वसीम अकरम त्यागी की क़लम से

अक्सर शनिवार को मैं अपने गांव चला जाता हूं। इस बार भी गया था। बीच में हाशिमपुरा पड़ गया वहां लोगों से मिलने के लिये रुक गया, फिर शाम को चौधरी चरण सिंह विवि चला गया। उर्दू विभाग अध्यक्ष डॉक्टर असलम जमशैदपुरी ने वहां पर एक ड्रामा रखा था। उस प्ले को देखते-देखते रात समय ज्यादा बीत गया। सोचा घर जाऊंगा, तो अम्मी को देर रात नाहक़ परेशानी होगी। इसलिए खाना भी शहर में खा लिया। इसके बाद रात को तक़रीबन 12 बजे मैं गांव पहुंचा। औपचारिक बातचीत के बाद अधूरी छोड़ रखी एक पुरानी किताब पढ़ने लगा और पढ़ते पढ़ते ही सो गया।

सुबह देर से आंख खुली। जिंदगी में एक बदलाव मैंने महसूस किया है, जब मैं 17 या 18 साल का था तब फ़ज्र की अज़ान होते ही बिस्तर छोड़ दिया करता था अम्मी खुद जगा देती थीं। उससे पहले यह ड्यूटी दादाजी के पास थी। उनके इंतक़ाल के बाद यह मामूल अम्मी बख़बी निभती रहीं। मगर अब कोई नहीं जगाता। जिस कमरे में सोता हूं, उसके पास बच्चों के आने-जाने पर पाबंदी लगा दी जाती है। अम्मी कहती हैं, वसीम सो रहा है अभी सोने दो। रात को देरी से सोया है। शहर में थक जाता होगा यहां कमसे कम आराम से तो सो लेता है।
चाय के कप में मां की उष्मा बेटा मेरी भी सुना कर
बहरहाल सुब्ह आंखें खुलने के बाद छत पर गया। अम्मी किचन में कुछ बना रही थी। मेरी तरफ़ चाय का कप बढ़ाते हुए बोलीं, सुबह से तीन बार चाय बना चुकी हूं कि तू उठते ही चाय मांगेगा। मैंने चाय का वही अपना वाला कप (मेरे चाय पीने का कप औरों से अलग है, वह एक ग्लास के बराबर है) अपने हाथ में ले लिया। उन्हें देखकर लग रहा था कि वे कुछ अपसेट हैं। मैंने वजह मालूम की, तो कहने लगीं कि आते हो और थोड़ी देर हमारे पास बैठकर अपने कमरे में घुस जाते हो। फिर सुबह होते ही चलने की तैयारी करने लगते हो। इससे बेहतर हो कि तुम आया ही न करो। अरे कम-अज़-कम कुछ हमारी भी सुना करो, कुछ अपनी कहा करो।
अम्मी का लहजा लगा जब सख़्त
कुछ खा़मोश अंतराल के बाद अम्मी बोलीं, .... मगर तुम हो कि हर वक्त, कभी लैपटाप, कभी मोबाईल, तो कभी किताबों में खो जाते हो। तुम्हारे पास दुनिया के लिये वक्त है, हमारे लिये कहां है? अम्मी का लहजा ज़रा सख़्त था। मुझे भी लगा कि अम्मी कुछ ज्यादा ही कह गईं? मगर बात को टालते हुए मैंने कहा तुम ख़्वाहमख़्वाह में अपनी एनर्जी वेस्ट मत किया कीजिये। और अगर आपको लगता है कि मेरे आने से आप परेशान होती हैं, तो मैं महीने में ही एक बार आया करुंगा। अब हर हफ्ते नहीं आऊंगा। यह कहकर चाय का कप लिये नीचे आ गया और अख़बार में सर खपाना शुरू कर दिया मुझे लगा कि सुबह उठते ही मूड ख़राब हो गया है। मगर यह मां की ममता थी जो एक बेटे के सामने शिकायती अंदाज़ में झलक रही थी जिसे मैं नहीं समझ पाया।
आंख मिलाना हुआ मुश्किल
मुझे लगा कि मैंने ग़लती कर दी है और उस वजह से अम्मी से आंख नहीं मिला पा रहा था। चलते वक्त छोटे भाई से कह दिया कि गाड़ी निकाल और मुझे शहर छोड़ के आ जाओ मुझे किसी प्रोग्राम में जाना है। उसने गाड़ी निकाल ली। अम्मी अभी ऊपर वाले कमरे में ही थीं। एक छोटे बच्चे से मैंने कहा कि जाकर कह दो कि मैं जा रहा हूं। अम्मी हर बार मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आती है, जिस कार में बैठता हूं उसे तब तक देखती रहती हैं जब तक वह उनकी आंखों से ओझल न हो जाये। मगर उस दिन वे नहीं आयीं। मैं भी उनके पास ऊपर नहीं गया और दस मिनट इंतजार करने के गाड़ी में बैठ गया, और दिल्ली आ गया।
बिना मिले चला गया न!
मगर एक बात थी जो बराबर खाये जा रही थी, कि मुझसे नाराज़ होने वाली कोई और नहीं बल्कि मेरी मां है ? यानी मेरी जन्नत मुझसे नाराज़ है। पिछले चार दिन से यह सवाल मैं अपने आपसे कर रहा था कि मैं कितना बड़ा गुनहगार हूं.. अपनी मां को नहीं मना सका, तो दूसरों को कैसे मनाऊंगा ? मां की मोहब्बत तो निस्वार्थ है, यह तो सभी जानते हैं। वह दिखावे की मोहब्बत से बिल्कुल जुदा है। बार–बार मुझे यह बातें खाये जा रही थीं। आज सुब्ह आंखें खुलते ही मैंने घर फोन किया अम्मी से बात की उन्होंने फिर वही शिकायत कीं तू तो चला गया था न। अब क्यों फोन कर रहा है।
मगर वह मां है हर गलती को माफ करने वाली है,... दुःखों के पहाड़ सहकर हमें पालने वाली... खुद को बूढ़ा करके हमें जवान करने वाली। उसकी मोहब्बत से कैसे इंकार किया जा सकता है। हम लोग सिर्फ यह सोचकर उसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि मां ही तो है मान जायेगी और वह मान भी जाती है। मैंने भी मना लिया, अब कोई टेंशन नहीं है, काम में मन लग रहा है। सबकुछ पहले जैसा ही लग रहा है, वे लोग कितने बदनसीब होते होंगे जो मां को नाराज़ कर देते हैं। घर से निकाल देते हैं, वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं, या फिर जिनकी मां मर जाती है।
लगता है जैसे जिस्म है और जां नहीं रही
वह शख्स जो ज़िंदा है लेकिन मां नहीं रही।

शीर्षक मनव्वर राना के शेर का सानी मिसरा।
(रचनाकार -परिचय:
जन्म : उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन : समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
संप्रति : मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क : wasimakram323@gmail.com )






read more...

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

चाहती तुम्हारी प्रेम कविताओं में शब्द भर होना










प्रोमिला क़ाज़ी की कविताएं
 
1.
मै तुम्हें प्रेम करना चाहती थी
कुछ इस तरह कि
तुम झूठ और सच का समीकरण
इस रिश्ते में भुला देते
पाप और पुण्य का झंझट
कहीं पर दबा आते
तुम न वो बनते, न यह बनते
बस सहज जैसे मां के सामने थे
वैसे ही मेरे सामने आते
मैं तुम्हें आकाश कर देना चाहती थी
और उस पर होने वाली उड़ानों को
आँख भर , सांस रोक देखना चाहती थी
एक खिड़की भर हिस्सा अपने लिए
और तुम्हें खाली छोड़ देना चाहती थी
मैं चाहती थी कि कोई सत्य न तुम
मुझको बताओ
जब कोई रंग बस मेरे लिए
पक्षियों के परों से चुराओ
जब लड़ पड़ो समुंदरों से
और मेरे लिए रास्ता बनाओ
मैं चाहती थी बस शब्द भर होना
तुम्हारे काव्य में
तुम्हारी उन प्रेम कविताओं में
जो मेरे लिए नहीं थी
मै चाहती थी कि मुझको तुम बताओ
यह सब तुमने लिखा किसके लिए है
सच कहना आसान कब था
पर सच को सुनने के लिए
मै पत्थर हो जाना चाहती थी
हमारे रिश्ते में
वैसे ही आसान क्या था
पर जो भी था मै उसको ही
सत्य, सुंदर मानती थी
बात इतनी सी थी, मेरे समुंदर
मै बस तुम्हारी लहर भर होना चाहती थी
पर तुम्हें अपनी लहरों से नहीं
हर दिशा से आती नदियों से प्रेम था II
=================

2 . जाने क्यों
 
रिश्ते-नातों का
अनचाहा बंधन
सिकुड़ते कमरे
व्यथित मन

कैसे होंगे कभी
अपने पराये?
सोचे जब
मन भर आये …

चलो छोड़ो अब
सोंचेंगे अपने लिए
आँगन की चौखट पर
चाँद सपने लिए …

मिल जाये चलो
सब सीमओं से परे
भीचती आँखें
जागने से डरे।
----------------------------

3 . तुम्हारा प्रेम

तुम्हारा प्रेम मेरे लिए
बचे रंगो की प्लेट जैसा है
जिसे कलाकार सोते-जागते
कोई मास्टरपीस बनाने का
सपना देखता है
और सहेजे रहता है
सूखते रंगों को
अपनी अधमुंदीं आँखों में !
तुम्हारा प्रेम
भरपूर ज़िंदगी जी चुके
उस जीवन की अंतिम हिचकी सा है
जिसमें जाने वाले को पूरा इत्मीनान होता है
कि अब कुछ भी छूटा नहीं है
कि अब शांति से जाया जा सकता है I
तुम्हारा प्रेम
मेरे कानों में लगे उस एयर प्लग सा है
जो बाहर की तमाम अनचाही
आवाज़ों को बंद कर देता है
और बहा देता है एक खामोश नदी मेरे भीतर I
तुम्हारा प्रेम
मेरे लिए
बसंत के आखिरी खिले फूल सा है
जो भूल गया हो
आते पतझड़ में मुरझा जाना !
तुम्हारा प्रेम मेरे लिए
कोई अनदेखा स्वर्ग नहीं
बल्कि दोबारा जनम लेने की
तुम्हारे साथ रहने की
एक बचकानी ज़िद है
जिसके लिए अस्वीकारा जाएगा
हर मोक्ष I
==============
4.

आते समय वो गिन के रखती है
बटुवे में अपनी स्वतंत्रता के पल
और ताकीद करती है अपने आप से
कि इससे ज्यादा खर्च नहीं करेगी उन्हें I
लौटते समय देखती है
खाली हुए रास्ते, खाली बाजार
खाली चेहरे और अपना खाली बटुवा भी
फिर मूँद लेती है अपनी भरी-भरी आँखें
भरा-भरा मन
आँखों की कोर पे अटका
भरा हुआ सावन
और एक अव्यक्त सी ख़ुशी
और हिसाब लगाती है
फिर बटुवे को कैसे भरा जाए ?
=================
5. 
 
बाजार की लड़की !
उसकी ऊँगलियाँ आस-पास के हर शीशे पर
उकेरती तितलियों सी आकृतियाँ
फिर वह अपनी अधखुली आँखों से
और हलके गोल घुमाते होंठो से
फूंक मार उन्हें उड़ा देती
उसकी आँखे आस्मां से ज्यादा विस्तृत हो जाती
और बरस पड़ती मानसून सी उसकी हँसी I
उसकी उँगलियाँ धीमे-धीमे बजातीं
धुंधलाये शीशो पर ढेरो राग
वो गुनगुनाती प्रेम और भीग जाती आँखें उसकी I
यह सब सीखा नहीं था उसने
फिर अचानक से उसे बड़ा घोषित कर दिया गया
उसका हाथ पकड़ सिखाया गया उसे
बालों में उलझना, देह पर फिसलना
सासो का बिखरना, बिना संगीत के शब्द
वो सीखती रही और सूखता रहा उसके अंतर का मानसून
खोता रहा उसकी पलकों के नीचे छुपा आसमान
और अदृश्य होती गयी उकेरी तितलियाँ
उसकी आँखें देख नहीं पाती अब कुछ
और यह खोजती है कोई खाली दर्पण
उकेरने की कोशिश में दर्पण चटख जाता है
कोई बेहूदा सा पैटर्न उभर आता है
जो मिलता है, ठीक उस निशाँ से
जो उसकी देह पर अब जहाँ-तहाँ है।
============


(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 18 जून 1966 को हिमाचल प्रदेश में।
शिक्षा : मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर, आगरा।
सृजन : हिंदी और अंग्रेजी के लगभग 25 कहानी व् कविता-संग्रहों में रचनाएं। मन उगता ताड़ सा, मन होता उजाड़ भी शीर्षक कविता-संग्रह प्रकाशित। इसके अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं और पोर्टल्स पर कविताएं।
संप्रति : स्वतंत्र लेखन हिंदी व् अंग्रेजी में, और एक वेब पोर्टल में मुख्य संपादक
संपर्क : promillaqazi@gmail.com )





read more...

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

विधायक से सांसद बना मुनीश्वर बाबू पर गोलियां चलाने वाला

मुनीश्वर बाबू अपनी लाडली बिटिया
प्रीति (लेखिका) के साथ



स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता

मुनीश्वर प्रसाद सिंह पर उनकी बेटी का संस्मरण-3

प्रीति सिंह की क़लम से

मां-बाप बच्चों के रहते मौसम के बदलते रंगों का कोई असर बच्चों पर नहीं होता। लेकिन जब ये छत न रहे तब अहसास होता है कि गर्मी की कड़क धूप, सर्दी की हाड़ कंपाने वाली ठंड और बरसात की मूसलाधार बारिश कैसे हमारे तन-मन को घायल कर देती है। जब अपने पास हों तो हम उनकी ओर से लापरवाह हो जाते हैं और जब वो दूर चले जाते हैं तो हम उनसे मिलने के लिए ईश्वर से फरियादें करते हैं। आज अगर मुझसे कोई पूछे कि तुम अगले जन्म में क्या बनना चाहती हो, तो मैं बेसाख़्ता बोलूंगी, बाबूजी। मुझे हैरत होती है कि दूसरों की बड़ी-से-बड़ी गलतियां वह कैसे माफ कर देते थे। चाहे वो अपने हों या गैर। उनके अपनों ने ही उन्हें कई बार धोखा दिया। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने ऐसे लोगों से रिश्ता नहीं तोड़ा। बल्कि घर आने पर उनके आतिथ्य सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी ये बात घर के अन्य सदस्यों के साथ मुझे भी बुरी लगती थी। लेकिन उनका कहना था कि अपनों को तो सभी माफ कर देते हैं। लेकिन इंसान वही है जो गैरों के गलत व्यवहार को भी भुला कर उसे क्षमा कर दें। क्योंकि क्षमा करने वाला हर हाल में बड़ा होता है।

चुनाव के बाद दोपहर का सन्नाटा
साल 1995 के गर्मियों के दिन थे। चुनाव खत्म हो गया था और बाबूजी दोपहर में आराम कर रहे थे। लेकिन घर में बच्चों के शोर ने उन्हें जगा दिया और वो दरवाजे पर बैठने चले गए। उनके साथ वहां उनके पार्टी के साथी, वर्तमान में डीलर एसोसिएशन के अध्यक्ष श्रीकांत लाभ, मेरा छोटा भईया और गांव के कुछ और लोग थे। बाबूजी और लाभ चाचा वोटिंग प्रतिशत पर चर्चा कर रहे थे। चुनाव खत्म होने और गर्मी की दोपहर का असर था कि गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था। लोग घरों में आराम कर रहे थे। चिलचिलाती गर्मी में सड़क पर कई मोटरसाइकिलें बार-बार आ-जा रही थीं। जिस ओर किसी का ध्यान नहीं गया।

बरसाईं गोलियां, पटके बम
बाबूजी दरवाजे के एकदम सामने वाली कुर्सी पर बैठकर बातें कर रहे थे। वो हमेशा वहीं बैठते थे। उस जगह से दरवाजा सीधा नजर आता था। अचानक दो-तीन गाड़ियों और 8-10 मोटरसाइकिलों पर सवार लोग दरवाजे के सामने की सड़क पर आकर रुक गए और बाबूजी का नाम लेकर उन्हें नहीं हिलने की चेतावनी दी। दरवाजे पर मौजूद लोग बाबूजी को अपनी जगह से हट जाने को कहने लगे। लेकिन उन्होंने कायर की तरह वहां से हटने से इनकार कर दिया और कहा कि गोली चलाना है तो चलाओ। उधर निशानेबाज ने गोली चलाई और इधर मेरे छोटे भाई ने फुर्ती दिखाते हुए बाबूजी की कुर्सी को पीछे से पलट दिया। उन हत्यारों को लगा कि गोली बाबूजी को लगी और वो घर पर अंधाधुंध गोलियां और बम चलाते हुए भाग निकले।

रोने लगे बच्चे, अपराधियों को दौड़ाया युवाओं ने
गोलियों की आवाज सुनकर हमलोग घर के अंदर से दौड़े। घर से निकलकर मैं जब दरवाजे की तरफ भाग रही थी तो मैंने देखा कि बड़े भईया और दीदी बाबूजी को जबरदस्ती पकड़कर अंदर ला रहे थे। सबने मिलकर उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया और मां को दरवाजा नहीं खोलने का कहा। मां को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। क्योंकि घटना के समय वो दूसरे आंगन में सो रही थी और बाबूजी दरवाजा नहीं खोलने पर अंदर से नाराज हो रहे थे। मैं बौखला कर रोने लगी और दरवाजे की ओर जाने लगी। लेकिन गांव के कुछ लोगों ने हम सभी बच्चों को एक कमरे में बंद कर दिया। उधर बड़े भईया और दीदी उनलोगों के पीछे बहुत दूर तक दौड़े। लेकिन वो लोग घटना को अंजाम देकर आराम से चलते बने। हमारे एक ड्राईवर रंजीत ने तो बिना किसी हथियार और साथी के ही कई किलोमीटर तक उनलोगों का पीछा गाड़ी से किया। लेकिन एक जगह जाकर वो लोग रंजीत को चकमा देकर आगे निकल गए। गांव के एक बुजुर्ग पंडित जी ने भी मोटरसाइकिल सवारों का पीछा किया और मोटरसाइकिल का कैरियर पकड़कर लटक गए। लेकिन कुछ दूर जाने के बाद वो गिर पड़े और अपराधी आराम से चलते बने।

खदेड़ कर पकड़ाबाबूजी ने बचाई उनकी जान
गोलियों और बमों की आवाज से तब तक गांववाले आ जुटे थे। सबने मिलकर 4-5 मोटरसाइकिल वालों को खदेड़ कर पकड़ा। हालांकि तब तक शॉर्प शूटर भाग चुका था। उस शॉर्प शूटर अशोक सम्राट को खासतौर पर दूसरे जिला से बाबूजी पर गोली चलवाने के लिए बुलावाया गया था। इस कांड को अंजाम देने के पीछे उस बाहुबली के मन में ये खौफ था कि जब तक ये बुजुर्ग जीवित रहेंगे वो यहां से चुनाव नहीं जीत पायेगा। उधर.. पकड़े गए मोटरसाइकिल सवारों को जब गांववाले मारने लगे, तो बाबूजी ने लोगों को उनलोगों को न मारने की अपील की और शांत रहने को कहा। बाबूजी ने पकड़े गए युवकों को गुमराह बताकर गांववालों के गुस्से को शांत किया और उन्हें सबके आक्रोश से बचा लिया। अगर उस दिन बाबूजी ऐसा नहीं करते तो गांववाले उनलोगों को पीच-पीटकर मार डालते।

एफआईआर दर्ज करवाने से किया मना
देखते-ही-देखते पुलिस के आलाधिकारी मौके पर पहुंच गए। बाबूजी के अंगरक्षकों को भी डांट पड़ी। लेकिन बाबूजी ने उनका बचाव किया। पुलिस के आलाधिकारियों के सामने भी बाबूजी ने किसी के व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने से मना कर दिया। हालांकि घटना किसने और क्यों की थी। ये बात हर कोई जानता था। लेकिन बाबूजी ने किसी का नाम नहीं लिया। नाम नहीं लेने के पीछे कोई डर नहीं था। बल्कि उन्होंने इस मामले को इतना तूल देना ही बेकार कहा। वो नहीं चाहते थे कि ऐसे लोगों को भी पुलिसिया कार्रवाई को झेलना पड़े जिन्होंने उनके साथ छल किया है। ऐसे थे मेरे बाबूजी। हर किसी को माफ कर देने वाले और मुंह से एक बददुआ तक नहीं देने वाले। वो सब कुछ ऊपरवाले पर छोड़ देते थे।

विधानसभा में उठा मामला, सुरक्षा लेने से इंकार
हालांकि इस घटना ने काफी तूल पकड़ा। रेडियो, अखबार और टीवी के साथ-साथ ये मामला एक बार फिर विधानसभा में पुरजोर तरीके से उछला। बाबूजी को स्कॉर्ट पार्टी जबरदस्ती दी गई। क्योंकि हर बार की तरह इस बार भी उन्होंने किसी भी तरह की सुरक्षा लेने से इनकार कर दिया था। लेकिन इस घटना ने उनके अंतर्मन पर गहरा घाव किया। जिस गांव और क्षेत्र को उन्होंने जान से ज्यादा चाहा था, जिसके विकास के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व झोंक दिया था, जिस क्षेत्र के लिए उन्होंने संसद जाने से इनकार कर दिया था। उन्हीं अपनों ने उनके साथ विश्वासघात किया। ये दर्द वो अपने सीने में दबाकर बैठ गए।

राजनीति से मोहभंग, गीता बनी सहारा
दो-एक दिन में ही वो पटना लौट आये। इस मुश्किल घड़ी में उनका संबल बनी गीता। कई दिनों तक चुपचाप उन्होंने गीता का अध्ययन किया और खुद को संभाला। इस पूरी घटना में उनके कई विश्वस्त साथियों का नाम सामने आया जिन्होंने इस कांड की योजना बनाई थी। अपनों का ये धोखा उनके मन में इतने गहरे चुभ गया कि बाबूजी ने धीरे-धीरे खुद को सक्रिय राजनीति से दूर कर दिया। पद और पैसे की लालसा तो उनके मन में कभी थी ही नहीं। इस घटना ने उनके मन में संसार के प्रति विरक्ति भी पैदा कर दी।

बाहुबली नेता ने तीन बार मांगी माफी
इधर, घटना के बाद बाबूजी पर गोलियां चलवाने और उन्हें मारने के लिए शॉर्प शूटर को बुलवाने वाले बाहुबली ने तीन बार बाबूजी के पैरों को पकड़ कर उनसे माफी मांगी। हर बार बाबूजी ने उन्हें यही कहा कि मैंने तो तुम्हें उसी वक्त माफ कर दिया था। अब भी तुम्हें माफ कैसे कर सकता हूं। क्योंकि तुम्हारे लिए तो मैं उसी वक्त मर गया था जब तुमने ऐसी बात सोची थी। ये जवाब सुनकर एयरकंडीशंड कमरे में भी उस शख्स के चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा रही थीं। आज वो इंसान बिहार का बड़ा नेता है और विधानसभा से अब संसद की छलांग लगा चुका है।

यहां ये बताना जरुरी है कि जब बाबूजी 1990 से लेकर 1995 तक विधायक थे। इस बीच में लगातार उन्हें धमकी भरे पत्र और फोन आ रहे थे। लेकिन इन सबके बावजूद बाबूजी ने किसी भी तरह की सरकारी सुरक्षा लेने से साफ इंकार कर दिया था। गोलयां चलने के बाद बाबूजी के कई साथियों ने इस मुद्दे को विधानसभा में उठाया। विधानसभा अध्यक्ष और कई अन्य नेताओं ने कई बार बाबूजी को अंगरक्षक साथ रखने को कहा। लेकिन उन्होंने हर बार मना कर दिया। हालांकि घर, मित्रों और शुभचिंतकों के बार-बार आग्रह के आगे बाबूजी झुक गए और अपने साथ दो अंगरक्षक रखने के लिए तैयार हो गए।


अवांतर उवाच

ईमानदार पिता की संतान होना
हर कदम पर ईमानदारी की कीमत नेताओं के परिवारों को ही देनी होती है और बदले में उन्हें समाज का तिरस्कार मिलता है। ये सुनने को मिलता है कि जिन्होंने अपने लिए कुछ नहीं किया वो क्या समाज के लिए करेंगे? यहां ‘कुछ करने’ का तात्पर्य सामने वाले को रुपये कमाने देने की छूट से होता है। मैं कई ऐसे विधायकों और सांसदों को जानती हूं जिनके बच्चे आज जैसे-तैसे जीवन गुजारने को विवश हैं। क्योंकि उनके पिता ने ईमानदारी का जीवन जीना पसंद किया। उन्होंने न कोई संपत्ति बनाई, न ही अपने बच्चों को अच्छी जगह पढ़ा सके। बच्चों के लिए कोई सरकारी पद भी नहीं जुगाड़ किया। कई ईमानदार नेताओं की बेटियों की अच्छे घर में शादी महज इसलिए नहीं हुई क्योंकि वो बड़ी और मोटी रकम देने में असमर्थ थे।
कर्तव्य लाइक से शुरू कमेंट तक ख़त्म
ऐसे परिवार किस स्थिति में हैं, ये जानने की फुर्सत किसको है? लेकिन दीपिका पादुकोण ने कौन सी ड्रेस पहनी है और विराट कोहली किसके साथ घूम रहे हैं? ये जानना अब ज्यादा जरूरी है। यहां भगत सिंह को कोने में फेंक दिया जाता है और उनके खिलाफ गवाही देने वाले परिवार को सिर-आंखों पर बिठाया जाता है। हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद की विधवा दूसरों के घरों में जूठे बर्तन साफ करती हैं। फेसबुक पर हम उनके फोटो को लाइक कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। याद रखियेगा जो वक्त पड़ने पर दूसरों के लिए खड़ा नहीं होता। उसकी जरूरत के समय कोई उसके लिए भी खड़ा नहीं होता। क्योंकि दुनिया ईमानदारों से कम और बेईमानों से ज्यादा भरी हुई है।
तो क्या ये अच्छा नहीं होगा कि हम सब मिलकर ईमानदारी और बेईमानी की इस खाई को कम करने की कोशिश करें? सोचिए और अपनी ओर से एक छोटी सी पहल कीजिए। तभी दुनिया हमारे सपनों जैसी सुंदर बन सकेगी।

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल आकाशवाणी में अस्थायी उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)





read more...

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

ताल ठोक के बोलूंगी मर्द से बना दूंगी भू्रण













दामिनी यादव की 12 कविताएं

ताल ठोक के

आज फिर तुमने मेरा बलात्कार कर दिया
और मान लिया कि
तुमने मेरा अस्तित्व मिटा दिया है
क्या सचमुच?
तुम्हें लगता है कि तुम्हारी इस हरकत पर
मुझे रोना चाहिए,
पर देखो, देखो
मेरी हंसी है कि
रोके नहीं रुक रही है।
मैं हंस रही हूं व्यवस्था पर
उसी व्यवस्था से उपजी
तुम्हारी मानसिकता पर,
मेरे कपड़ों के चिथड़े उड़ा
तुम्हें क्या लगा
कि तुमने मुझे भी तार-तार कर दिया है!
मैं भी नंगी हो गई हूं!
वैसे, मेरी नग्नता का प्रमाण ही है
तुम्हारी देह, तुम्हारा अस्तित्व
फिर क्या, क्यों देखना चाहते हो
मुझे बार-बार नंगा?
शायद मेरे अस्तित्व की गहनता
तुम्हारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है
इसीलिए उस गहनता को
तुम मेरी योनि में
सरिये, मोमबत्ती, बोतलें डालकर नापना चाहते हो।
फिर भी नाकाम ही होते हो
मुझे समझने में,
तभी क्यों नहीं नाप लिया था तुमने
इस असीमता को
जब तुम खुद इसी योनि से
गुज़रकर जनमने आए थे?
तुम तब भी मुझे
समझ नहीं पाए थे।
अपनी हताशा से उपजी तिलमिलाहट में,
भर देते हो मेरी योनि में मिर्ची पाउडर!
फिर भी नाकामयाब ही होते हो
मुझे जलाने में।
इसी झल्लाहट में
मेरे शरीर को
काटकर, नोंचकर वीभत्स कर देते हो
फिर भी नाकामयाब होते हो
मेरी आत्मा को घायल कर पाने में,
तुम कितने शरीरों को रौंदकर
मेरा अस्तित्व मिटाने चले हो?
मेरा अस्तित्व मेरे शरीर से परे है,
मैं तुमसे मिटी नहीं
मैंने तुमको मिटाया है।
यक़ीन नहीं होता तो देखो,
अब मैं तुमसे छलनी होकर भी
ताल-तलैया, कुआं-बावड़ी
ढूंढ़ने की बजाय
पुलिस स्टेशन ढूंढ़कर
एफआईआर  दर्ज कराती हूं।
तुम्हारे चेहरे की पहचान कर
सज़ा देने को सबूत जुटवाती हूं।
अब आओ, आओ
कि ताल ठोककर
मैं तुम्हें चुनौती देती हूं,
करो मेरा बलात्कार फिर से
और देखो मुझे धूल झाड़कर
वीभत्स-लहूलुहान शरीर से ही सही
फिर से खड़ा होते।
मैं अब भी तुम्हें
गली-कूचों, बाज़ारों  में नज़र आऊंगी
चैके-चूल्हे, आॅफिस, मीडिया
सत्ता के गलियारों में नज़र आऊंगी

अब सुनो!
ताल ठोककर मैं देती हूं तुम्हें चेतावनी
कि सुधर जाओ।
मुझे रौंदने के सपने देखने से
बाज़  आ जाओ,
वरना मैं तुम्हारे होश ठिकाने लगा दूंगी,
मर्द से बना दूंगी भू्रण
और जैसा कि करते आए हो
तुम मेरे साथ
मैं भी गर्भ में ही
तुम्हारा अस्तित्व मिटा दूंगी,
या फिर भू्रण से बना दूंगी अंडाणु
और माहवारी के ज़रिये
बजबजाती नालियों में बहा दूंगी।
छोड़ दो कोशिशें
मुझे लहूलुहान करने की
अपने लिंग की तलवार से।
बरसों खौला है मेरा रक्त
मेरी शिराओं में,
मेरे संस्कारों की दरार से
अब तुम्हारी बारी है,
बचो-बचो!
रक्तबीज बने मेरे नए अवतार से। 

 माहवारी

आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नज़रों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज़  लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
आॅफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बाॅस मुझे केबिन में बुलवाता हैै,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमजोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख़्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेज़ी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में ख़रीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।

मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गड़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज़ -नखरे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’

ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं,
जब अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं।
इसलिए अरे ओ मदो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।


 सहभागी


मेरी पीड़ा  में अक्सर
तुम सहभागी बन जाते हो
मुझे समझाते हो
कि तुम मेरी पीड़ा समझते हो,
मैं भी जानती हूं
कि तुम सचमुच मेरी पीड़ा समझते हो
मगर, तुम सिर्फ समझते-भर हो
सहते नहीं हो मेरी जैसी पीड़ा,
क्योंकि तुम जानते ही नहीं हो
मेरी जैसी पीड़ा को
सहना क्या होता है।
तुम नहीं जानते
कि कैसी होती है वो पीड़ा,
कैसे सह पाती हूं मैं वो पीड़ा
जब आशीर्वाद देता हाथ
सर से सरककर पीठ पर घिनौने, लिजलिजे सांप-सा
रेंगने लगता है।
तुम नहीं सहते उस पीड़ा को
जब बंधे हुए हाथ
तमाचा बनने से रुकने के लिए
और भी कसकर बंध जाते हैं,
क्योंकि इन हाथों से
शाम को घर लौटकर
मुझे रोटियां भी पकानी हैं
और उन रोटियों के आटे की ख़रीद-लागत
उन घिनौने हाथों से ही पानी है।
तुम नहीं सहते हो उस पीड़ा को
जब बस की भीड़ में से कोई
अचानक ‘यहां’ या ‘वहां’
छूकर, नोंचकर भीड़ में ही वापस खो जाता है,
तुम चाहकर भी
नहीं समझ पाओगे
क्योंकि तुम मेरी पीड़ा के
सिर्फ सहभागी हो
सहभोगी नहीं।
 

वफ़ादारी


वो अपनी बीवी से
झूठ बोलकर आया है,
और प्रेमिका के लिए तोहफ़े में,
ताजमहल लाया है,
यूं तो बीवी के बिना उसके
जूते-टाई-कच्छे-रुमाल तक
नहीं मिल पाते हैं,
सर पर चढ़ा होता है चश्मा
और वो पूरे घर में ढूंढ़ आते हैं,
पर प्रेमिका जब गले में
अपनी सुडौल बांहें सजाती है,
सारी दुनिया उसे बिन चश्मे के ही
रंगीन नज़र आती है.
बीवी को आख़िरी तोहफ़ा उसनेे
चार साल पहले दिया था,
जब तीसरी बेटी ने
घर की पांचवीं सदस्य के रूप में
इज़ाफ़ा  किया था,
बीवी इस ‘गुनाह’ से अब तक
उबर नहीं पाती है,
इसीलिए सुन-सह-मान लेती है
इसकी हर बात,
खुद कभी कुछ नहीं सुनाती है,
इन ‘गुनाहों’ ने उसे काफ़ी
अंतर्मुखी बना रखा है।
बिस्तर पर भी एक बुलाहट-भर से ही
काफी बोरिंग ढंग से
पसर जाती है,
न नाज़,  न नखरे
न अंगड़ाइयों के जलवे दिखाती है।
बस घरेलू कामों में
सुबह से आधी रात तक नहीं झलकता है,
वरना तो उसका ‘ढीलापन’
शरीर के हर अंग से टपकता है।

प्रेमिका में अब तक
अदाओं की गर्मी है,
सो इसमें भी उसके लिए
अब तक वफ़ाओं की नर्मी है।
तीन साल से इसके अलावा,
कहीं आंख नहीं घुमाई है,
वरना पंद्रह साल की गृहस्थी में,
यही तो इनकी तीसरी और ‘आख़िरी ’
बेवफ़ाई है,
बीवी के साथ तो सपने भी
ब्लैक एंड व्हाइट ही आते हैं,
अब तो बस प्रेमिका के नाम पर ही होंठ
रंगीनियत से मुस्कुराते हैं।
ऐसा नहीं है कि बीवी
इसकी प्रेमिका के बारे में नहीं जानती है!
इनके बालों की बदलती लट और
महकते बदन की बेवफ़ाई
वो सालों से पहचानती है।
‘ये रोज़ सुबह चाहे जितनी दूर
निकल जाते हैं,
शाम को ‘लौटकर’ तो
इसी घर में आते हैं’
बीवी बेवफ़ाई के बंटते ताजमहल को
कर देती है नज़र अंदाज
बस मनाती है इतना कि
घर से बाहर ही रहे हर आंच
अपने घर की दहलीज़ से ही वो
अंतिम चिता तक जाना चाहती है
इसीलिए हर रोज़
इस बेवफ़ा पति की सेज पर
पूरी वफ़ादारी से खुद को बिछाती है।

प्रेयसी बनाम चादर

फोन की घंटी घनघनाई
मैं दौड़ती हुई आई,
उठाते ही रिसीवर तुम्हारी आवाज़ टकराई
तुमने कहा,
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
और मैं एक पल को
ख़ामोश हो जाती हूं
मगर, इस ख़ामोशी में
मेरी वो चीख़ है जो चीख़ेगी  तब तक
जब तक तुम दोबारा कहोगे
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
अपनी कार के दरवाज़े के साथ ही तुम
खोलोगे उस अलमारी का दरवाज़ा
जहां एक हफ़्ते पहले तुम मुझे
भोग कर, समेट कर, सहेज कर रख गए थे,
फिर तुम मुझे उस सफ़र पर ले जाओगे
जहां मेरे इंतज़ार का सूरज
तुम्हारी रात में खो जाएगा
और उस रात का सारा अंधेरा
एक कमरे में सिमट जाएगा,
तुम मेरी तहंे खोलकर
मुझे बिछा दोगे उस बिस्तर पर
और मैं
यूं ग़ौर से देखने लगूंगी
उस चादर को
जिसकी जगह मैंने ले ली है
और इसके पहले कि
तुम भी अंधेरे की ही तरह
मुझ पर छा जाओ
मैं भी अंधेरे का हिस्सा बन
खो जाऊं,
तड़पकर दे देना चाहती हूं
तुम्हें उस उजियारे का वो सब
जो अपने हिस्से में से मैं
तुम्हारे लिए बचा लाई हूं
बिना तुम्हारी पहल का इंतज़ार किए
खुद ही झटके से अपने बालों-सा
खोलकर बिखेर देती हूं
उस सामान को
जो तुम्हारे लिए जुटा लाई हूं,
सबसे पहले मैं तुम्हें देती हूं
वो सुनहरी पहली किरण का टुकड़ा
जो बादल से छिटककर
मेरी खिड़की पर आ बैठा था
और मैंने उसे पकड़कर
तुम्हारे लिए रख लिया था
इसी अंधियारे में दिखाने को।
एक गुनगुना उनींदा-सा सेक भी है
उस दुपहरी का, जब मैं
तपती धूप में ठंडे पानी में
पांव डाले बैठी थी
वो धूप तेरे दिए अंधेरे-सी गर्म थी
और पानी तेरी मौजूदगी-सा ठंडा।
एक खुशबू भी है
फूल पर पड़ी उस धूल की,
जिसे ओस और ज्यादा महका गई थी
एक गीलापन बारिश के
बिन बरसे चले जाने का
एक छोटी हंसी
एक लंबी उदास मुस्कुराहट
एक रात की आंख-मिचौली तारों की
एक चंाद की लाड़ भरी खिलखिलाहट
और भी ना जाने कितना कुछ
जो होना रह गया है
जो कहना रह गया है
क्योंकि तुम अचानक बीच में
मेरी बातों को, मेरे बालों-सा
समेट देते हो, कहते हो
‘‘मैं भी एक सिंदूरी शाम
तुम्हारे लिए लाया हँू।’’
और मैं झट अपनी हथेली बढ़ा देती हूं 
लेकिन तुम्हारी हथेली से
मेरी हथेली तक आते-आते
वो सिंदूरी शाम ढलकर रात बन जाती है।
क्या तुम्हारी हथेली से
मेरी हथेली तक का सफ़र भी
उतना ही लंबा है,
जितना तुम्हारी चुटकी से
मेरी मांग का?
मुझे सवालों के जंगल में अकेला छोड़कर
तुम अंधेरे में खो जाते हो
पास आने की कोशिश में दूर हो जाते हो।
फिर अचानक शायद
तुम्हें एहसास होता है
मेरी ठंडी दूरी का
और तुम वापस लौट आते हो
मेरे सवालों को अधूरा छोड़
मेरी सलवटों को झाड़कर फिर से,
समेटकर, सहेजकर तह कर देते हो और दोबारा
उसी चादर को बिछा देते हो।
इस बार
वो चादर मुझे ग़ौर से देखती है
जैसे अब, उसने मेरी जगह ले ली हो।
फिर तुम वापस मुझे
उसी अलमारी में रख आते हो
और मैं उस ख़ामोशी में
उस गूंज को ढूंढ़ती हूं
जिसके साथ मुझे फिर से
तब तक रहना है जब तक
तुम फिर से कहोगे,
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’


 बोनसाई

मैं बरगद थी,
विशाल बरगद
इस रास्ते के किनारे पर
जो मेरे सामने से होकर
गुज़र जाता है,
मैंने युगों तक
तुम्हारी प्रतीक्षा की थी
और एक दिन तुम आए।
तुम सफ़र की थकान से चूर थे
तुम्हारे कंधे तुम्हारे ही बोझ से झुके हुए थे
मेरी छाया में तुमने
अपनी थकान मिटाई,
मेरे ओस से भीगे हुए पत्तों से
तुमने अपनी प्यास बुझाई
मेरी जटाओं में झूलकर
तुमने अपने गम भुलाए
और जब तुम तरो-ताज़ा हो
उठ खड़े हुए हुए तो जाने क्यों
मेरे क़द की ऊंचाई
तुम्हें नापसंद आई।
तुमने खुद को एक
तरकीब सुझाई,
अपनी गहरी चमकीली आंखों से
मुझेे देख कर अपनी बांहें
मेरी तरफ फैलाई,
मैं भी युगों की प्रतीक्षा के बाद
थक चुकी थी।
उन बांहों में आराम पाना चाहती थी,
सुस्ताना चाहती थी,
सो अपने वजूद को मैंने
तुम्हारी बांहों के दायरे में समेट दिया।
वाकई, तुमने मेरे वजूद को एक खूबसूरत जगह दी
चौराहे की बड़ी-सी चौपाल से उठा के
रख दिया
अपने ड्राइंग-रूम के कोने में
क्योंकि,
अब मैं विशाल बरगद नहीं
बल्कि बोनसाई बन हंू।


 इंसानियत

उस बूढ़ी भिखारिन के कटोरे में,
पांच रुपये का सिक्का डाल,
मैंने जुटाई है अपने लिए
प्रेरणा बेमिसाल!
लिखूंगी कोई कविता उस पे
और कर दूंगी गोष्ठी को
अपनी ‘मानवीयता’ से निहाल!
या उडे़लंूंगी कैनवॉस पे
रंगों से ऐसा दर्द
कि इस भिखारिन का झुर्रीदार चेहरा,
किसी ड्राइंगरूम की मरकरी लाइट तले झिलमिलाए
और हो जाए मेरी जेब भी मालामाल।
या फिर इस गंदी भिखारिन का
एक फोटो ही खंीच लूं,
इससे भी हल हो सकता है
मेरी शोहरत का सवाल,
मेरे पांच रुपये से इस भिखारिन की
जिंदगी तो नहीं बदल पाएगी,
पर हां, इसकी बदहाली, भूख, बेबसी,
मेरे रचनात्मकता की दुकान के लिए
थोड़ी शोहरत और थोड़े खरीदार
जरूर जुटा लाएगी।

 वेश्या

इस गंदे, बदबूदार, संकरे, अंधेरे कमरे में,
बस एक तख्त-भर का है अरेंजमेंट,
घंटे के हिसाब से चलता है यहां का रेट,
बीसियों बार खुलता है यहां दिन-भर में,
मेरे औरत होने की दुकान का ‘गेट’,
ड्राईवर, मजदूर, रिक्शावाला,
कोई भी आ सकता है,
जो भी मेरे गोश्त की,
क़ीमत चुका सकता है,
पुलिस वाला तो दाम भी नहीं चुकाएगा,
हमारे ‘संरक्षण’ के नाम पर ही
दो ग्राहकों की ‘सेवा’
अकेला मार जाएगा,
करना तो है ही,
चाहे भला हो या बुरा, ये काम,
क्योंकि मुझे भी बनाना है
अपने बच्चे को अच्छा इंसान।

 बूढ़ी वेश्या

जैसे ही उस ग्राहक ने
उस पर से नज़र हटा अगली पर बढ़ाई,
वो दांत पीसकर मन-ही-मन बड़बड़ाई,
पता नहीं इन औरतखोरों को
क्या चीज भाती है,
आंख बंद करने पर तो
दुनिया की हर लड़की
एक-सी बन जाती है!
उस पोपले मुंह वाले बुड्ढे को तो देखो,
जोर नहीं है दम-भर का,
पर उसे भी चाहिए बदन
सोलहवे सावन का!
वो कोने में बैठा कलमुंहां
दूर से ही नोट दिखाता है,
पास जाने पर छूता है यहां-वहां
पर नोट से पकड़ नहीं हटाता है,
अब ये मुफ्त में ही
दिल बहलवाना चाहते हैं
तो बीवी को छोड़कर इन गलियों की
धूल क्यों फांकने आते हैं
सारी जवानी काटी यहीं मैंने
अब बुढ़ापे में कहां जाऊं?
मुझ पर लेटने को हजार पर
पर श्मशान तक लेट के जाने को
मैं अपने लिए चार कांधे कहां से जुटाऊं?


कोठा

उसने हर रात किसी की
सेज सजाई है,
फिर भी दुल्हन
किसी की नहीं बन पाई है।
कई बार उसकी हालत पर
इंसानियत ने नज़र  झुकाई है,
जब सुबह बाप ने और
शाम को बेटे ने उसकी देह
अपने नीचे सजाई है।
हर रिश्ते को
लिहाज़  रिश्ता बनाता है,
इन कोठों पर
हर रिश्ते का लिहाज टूट जाता है।
किसी नौजवान को ‘ट्रेंड’ करने में
कोई बूढ़ी तवायफ़
अपनी देह नुचवाती है,
तब कहीं जा के वो उस दिन
अपने पेट की आग बुझा पाती है।
ढलते-मसले जिस्म का
खरीदार मुश्किल से मिलता है,
ये जिस्मों का कारोबार
जवानी तलक ही चलता है।
वो वेश्या मौत से पहले ही
दहशत से मर जाती है,
जिसे अपने बालों में सफेदी
और चेहरे पे झुर्रियां नजर आती है,
बिन मौत आए सचमुच मरने का
हौसला भी कम ही जुटा पाती हैं,
इसीलिए इन कोठों पर अक्सर
मांएं ही बेटियों की
दलाल भी नजर आती हैं।


 दूसरा जन्म

बरसों तुम्हारे लिए तड़पकर
बरसों तुम्हारे लिए जीकर
मैं तड़पने का अर्थ भूल चुकी हूँ
मैं जीने का अर्थ भूल चुकी हूँ।
वो दर्द जिसे मैंने सीने में बसाया था
दुनिया को समझने के लिए
अपने दिल को दर्दमंद बनाया था
वो सिर्फ तुम्हारे लिए तड़पकर
चूकने लगा है,
वो सारे शब्द और जबानें
जो मैंने सीखी थीं
दुनिया की करीबी के लिए
वो सिर्फ तुम्हारा नाम लिखने
और तुम्हारी बात समझने तक ही
सिमट गए हैं।
वो बात जो तुम्हारे नाम से शुरू न हो
मुझे समझ नहीं आती है
वो खुशी जो तुम्हारे चेहरे पे न झिलमिलाए
मुझे खुश नहीं कर पाती है,
और इन सबके बदले
मैंने तुमसे तुम्हारा नाम खरीदा है
जो मेरे नाम के साथ
कभी नहीं जुड़ता है,
तुमसे तुम्हारा साथ पाया है
जो सात कदमों के फ़ासले से
बिन सात फेरों के
साथ चलता है,
और इन सबके अलावा
तुमने मेरी जिंदगी की माँग में
एक खालीपन भी भरा है
जो मेरी माँग से होकर
मेरी कोख से गुज़रकर
मेरी जिंदगी में पसर जाता है।
इस तमामतर खालीपन से
इस थके हुए तन-मन से
कुछ नया ढब जुटाते हैं
हाड़, मांस, रक्त, मज्जा की
इस जिंदगी के फर्श को चमकाते हैं,
जेहन की दीवारों से उलझनों के जाले हटा
इसे फिर से रंगवाते हैं,
खाली करा लेते हैं ये जिस्म
इस औरत से
और इस मकान में औरत नहीं,
सिर्फ एक इंसान को बसाते हैं।


एक प्रयास

तुम करो
बस एक सफल प्रयास
मेरे कई असफल प्रयासों को
सफल बनाने को,
तुम उठाओ
बस एक सही कदम
मेरे भटके कदमों को
रास्ते पे लाने को,
तुम फिर करो शुरू
कोई सफर
हो सामान इंतजार से
मुझे बहलाने को,
तुम लगाओ
कोई जिंदादिल कहकहा
मिले बहाना मेरे मुर्दा होंठों को
मुस्कुराने को,
तुम तोड़ दो कोई शीशा
बड़ी बेदर्दी से
पाए रास्ता मेरा दर्द
छलक कर बह जाने को।


(रचनाकार -परिचय :
जन्म : 24 अक्टूबर 1981, को नई दिल्ली में.
शिक्षा : हिंदी में स्नातकोत्तर
सृजन :  नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, हिंदुस्तान, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, हंस, सर्वनाम,  अलाव और संवदिया आदि  पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं। मादा ही नहीं मनुष्य भी ( स्त्री विमर्श),  समय से परे सरोकार  (समसामयिक विषयों पर केन्द्रित) और ताल ठोक के (कविता-संग्रह)  प्रकाशित।
सातवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक ‘वितान’ में लेख सम्मिलित।
डी.डी. नेशनल, जी.सलाम,  विश्व पुस्तक मेला व साहित्य अकादमी के  काव्य पाठों में भागीदारी।
कार्य-अनुभव :  हिन्द पॉकेट बुक्स, मेरी संगिनी, डायमंड प्रकाशन की पत्रिका ‘गृहलक्ष्मी’ में क्रमशः सहायक संपादक व वरिष्ठ सहायक संपादक। कुछ वर्षों तक आकाशवाणी दिल्ली से भी संबद्ध।
संप्रति : स्वतंत्र लेखन, संपादन व अनुवाद।
संपर्क : medamini@rediffmail.com )

read more...
(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)