बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 31 अगस्त 2014

कभी सूली नफ़रत की कभी फंदा हिफ़ाज़त का
















धीरेन्द्र सिंह की क़लम से

1. 
उम्र भर बस यही इक उदासी रही
आपके दीद को आँख प्यासी रही

तुम गये बाद जाने के बस दो यही
बेक़रारी रही,  बदहवासी रही

याद करने से क्या कोई आये भला?
एक उम्मीद थी जो ज़रा सी रही

मिस्ले- नामा- ए- बेनाम की ही तरह
मेरे अफ़सानों की इक हवा सी रही

हाले- दिल क्या बयां और कहके करूँ?
हार अपनी हुई और ख़ासी रही


2.

शौक़  तो हम तमाम रखते हैं.
सो सभी इन्तज़ाम रखते हैं.

आपके पास गर सुबह है तो
देखिये हम भी शाम रखते हैं

जाओ तुम क्या हमें ख़रीदोगे
हम बहुत ज्यादा दाम रखते हैं.

पत्थरो इक नयी ख़बर सुन लो
सर पे अब हम भी बाम रखते हैं.

क्या सिखाते हो बारहा हमको
काम से ही तो काम रखते हैं.

3.

काबा खोजे कलीसे ढूंढें हैं
सबमें  तुझको तुझी से ढूंढें हैं

कोई मिलया न कोई भाया है
सबमें  तुझको ही मैंने पाया है

मेनू इंसान दी शकल देके
रूह बनकर के तू समाया है

प्यार गर है ख़ुदा तो नासेहो
अब के मैंने उसी से ढूंढें हैं

काबा खोजे कलीसे ढूंढें हैं
सबमे तुझको तुझी से ढूंढें हैं

चाँद को वो उठाये मिटटी सा
वो बिगाड़े बनाये मिटटी सा

थोडा बाहर से सख्त दिखता है
पर वो नाज़ुक है हाये मिट्टी सा

हम-क़दम, हम-सफ़र है वो मेरा
अक्स उसके उसी से ढूंढें हैं

काबा खोजे कलीसे ढूंढें हैं
सबमे तुझको तुझी से ढूंढें हैं

4.

कभी सूली थी नफ़रत की कभी फंदा हिफ़ाज़त का
तरीक़ा ख़ूब तेरा था इबादत का मुहब्बत का

अबाबीलें थी मेरी दोस्त लेकर उड़ चलीं मुझको
तभी से ना ज़मीं देखी न देखा डर क़यामत का

कि करके वादा भी उसने मेरी लाज न रक्खी
वो है दुनिया से बे- ग़ाफ़िल, वो आशिक़ है शरारत का

तबीयत क्यूँ नहीं बनती कि जबसे वो हुई ओझल
सिला क्या बस यही हासिल है सजदे का इबादत का?

मुझे क़ानून का है डर, मगर दिल में ख़ुदा का घर
बहुत हूँ मुन्तज़िर कब से बस उसकी ही इजाज़त का

मिरे ख़्वाबों में भी मुझको यही इक खौफ़ रहता है
कि अगला खेल क्या होगा दिखावे की रिफ़ाक़त का

क़ुरआन-ए-पाक को छूकर, क़सम खाकर रमायन ( ण ) की
मैं करने आ रहा हूँ सामना फिर से क़यामत का

5.

चाहे तो मुझको दर- बदर कर दे
पर ख़ुदा इस मकां को घर कर दे

और गर हो, तो जान भी ले ले
मौत से पहले पर ख़बर कर दे

जान फूंको तो बुत बने इंसां
टूटी डाली को तू शजर कर दे

कुछ अता मुझको हिम्मतें कर दे
कुछ तो आसां मिरा सफ़र कर दे

6.

मेरी बात की बात कुछ भी नहीं है.
कहूँ क्या सवालात कुछ भी नहीं है.

तुम्हारी नज़र में ये दुनिया है सब कुछ,
हमारे ये हालात कुछ भी नहीं है?

कहें भी तो क्या क्या कि क्या हार आये,
मिली है जो ये मात कुछ भी नहीं है.

ग़म-ए-हिज्र इक ज़िन्दगी भर जिया है,
जुदाई की ये रात कुछ भी नहीं है.

7.

मिरे ख़त ध्यान से पढ़ना दुआएं साथ भेजी हैं
उन्ही आँखों से बरसेंगी घटाएं साथ भेजी हैं

अगर आँखें समझ न पायें तो तुम दिल से पढ़ लेना
मिरा ख़त बोल उट्ठेगा सदायें साथ भेजी हैं

तिरी आवाज़ के साये ज़बां से बाँध कर मैंने
वो सारी बातें जो तुमको सताएं साथ भेजी हैं

वही संजीदा सी ग़ज़लें तुम्हे जो ख़ास लगती हैं
वही जो इश्क़ से वाकिफ़ कराएं साथ भेजी हैं

तुम्हारी सांस से उलझी हैं जो खुशबू बहारों की
जो दुनिया भर को महका दें, हवाएं साथ भेजी हैं.

8.

कब तक कहूँ ये फितरत अच्छी नहीं किसी से
बे-इन्तहा मुहब्बत अच्छी नहीं किसी से

बेहद बुरी है हालत शब् भर मैं जागता हूँ
कैसे कहूँ तबीयत अच्छी नहीं किसी से

उसने कहा था मुझसे मेरी दुआ है रख लो
यूँ बाटना ये दौलत अच्छी नहीं किसी से

पूरा ही तोड़ देगा ये हश्र आदमी को
सच पूंछ लो तो कुदरत अच्छी नहीं किसी से

(रचनाकार-परिचय:
जन्म:  १० जुलाई १९८७ को क़स्बा चंदला, जिला छतरपुर (मध्य प्रदेश) में
शिक्षा: इंजीयरिंग की पढाई  अधूरी
सृजन: 'स्पंदन', कविता_संग्रह '  और अमेरिका के एक प्रकाशन  'पब्लिश अमेरिका' से  प्रकाशित उपन्यास 'वुंडेड मुंबई' जो काफी चर्चित हुआ।
शीघ्र प्रकाश्य: कविता-संग्रह  'रूहानी' और अंग्रेजी में उपन्यास   'नीडलेस नाइट्स'
संप्रति : प्रबंध निदेशक, इन्वेलप  ग्रुप
संपर्क: renaissance.akkii@gmail.com, यहाँ- वहाँ भी )

धीरेन्द्र सिंह की कुछ और ग़ज़लें हमज़बान पर ही



Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

1 comments: on "कभी सूली नफ़रत की कभी फंदा हिफ़ाज़त का"

Unknown ने कहा…

बहुत खूबसूरत! ये नजरिया दिल जीत ले रहा है, पर खतम क्यों किये? अभी लग रहा है जैसे बहुत कुछ कहना बाकी है।

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)