बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 30 अगस्त 2014

रूट्स की खोज में झारखंड पहुंचा युवा फिल्मकार रंजीत उरांव

 कुडुख में बनाई पहली फीचर फिल्म पेनाल्टी कार्नर



















जब आप अपने परिवार और पुरखों के बारे में बात करते हैं, तो असल में आप पृथ्वी के सारे इंसानों के बारे में बात कर रहे होते हैं। ऐसा विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘रूट्स’ के आदिवासी लेखक एलेक्स हेली ने कहा है। यही बात युवा फिल्मकार रंजीत कुमार उरांव के मन में रही और वह रूट्स की तलाश में चेन्नई की अच्छी-खासी इंजीनियरिंग की जॉब छोड़कर झारखंड पहुंच गए। अश्विनी कुमार पंकज की कहानी पर उन्होंने कुडुख में पहली फीचर फिल्म पेनाल्टी कार्नर बनाई। यह अभी प्रमाण-पत्र के लिए सेंसर बोर्ड में है।

पलामू में जन्म, पढ़ाई चेन्नई से

रंजीत का जन्म पलामू के जुरू गांव में हुआ। यहां से शुरुआती पढ़ाई के बाद वह चेन्नई चले गए। पिता वहां नौकरी में थे। वहां अन्ना इंजीनियरिंग यूनिवर्सीटी से 2005 में बीटेक किया। इसके बाद चेन्नई और कोयंबटूर में मल्टीनेश्नल कंपनी में तीन साल तक अच्छे पैकेज पर नौकरी की। लेकिन बच्पन से ही सृजनशील रहे रंजीत का मन इसमें नहीं लगा। नौकरी छोड़कर पुणे के फिल्म प्रशिक्षण संस्थान (एफटीआई) में दाखिला ले लिया। यहां से निर्देशन व लेखन का कोर्स किया।

जनजातीय फिल्म बनाने वाले पहले झारखंडी

एफटीआई में यूं अब तक झारखंड से करीब 20-25 युवाओं ने कोर्स किया है। इसमें कई आदिवासी समुदाय से भी हैं। लेकिन रंजीत इनमें से अकेले युवा हैं, जिन्होंने पांच मिनट की डॉक्यूमेंट्री से फीचर फिल्म तक अपनी मातृभाषा कुड़ुख का चयन किया। इस तरह निसंदेह वह जनजातीय फिल्म बनाने वाले पहले झारखंडी हुए। पेनाल्टी कार्नर की कहानी में कर्मा कथा के साथ एक आदिवासी खिलाड़ी बच्ची का संघर्ष समानांतर चलता है। विलुप्त हो रही उरांव संस्कृति व भाषा उनके झारखंड वापसी का कारण बनी।

भास्कर झारखंड के 15 अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित 

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