तकिया और बस के सिवा कौन है उसका साथी
प्रीति सिंह की क़लम से
सुबह
का धुंधलका. रात
की कालिमा को परे धकेलते हुए
सूरज की हल्की-हल्की
रोशनी बिखरने को तैयार थी. चिड़ियों
का झुंड शोर मचाते हुए दाने
की तलाश में निकल पड़ा हो. ओस
की बूंदें यूं लग रही थीं मानो
अपने प्रीतम से बिछड़ने का
दर्द किसी नवयौवना की आंखों
से छलक आये हों..
सब
कुछ ठहरा-ठहरा..
अलसाया
हुआ था...
लेकिन इन
सबसे अलग एक तबका भोर की इस हल्की सी रोशनी में
भी भाग रहा था. आपाधापी
कर रहा था ..
बड़ी
उत्सुकता से जब मैंने इन्हें
जानने की कोशिश की..
तो
हैरान रह गई..
दरअसल..
ये
परछाईयां जो भाग रही थीं..
ये
वो महिलायें थीं..
जो
कामकाजी हैं..
ऑटो
और बसों में एक-दूसरे
को धकियाते हुए आगे निकलने
की इनकी होड़ इसलिए थी ताकि
ये सही समय पर अपने ऑफिस पहुंच
सकें. किसी
को अपने शहर के किसी सड़क तक
जाने की हड़बड़ी थी, तो
कुछ महिलाओं को दूसरे शहरों
की ओर रुख करना था. इसके
लिए पहले उन्हें पहले ऑटो फिर
ट्रेन पकड़नी थी.
लेकिन समस्यायें यहीं पर खत्म नहीं हुई थीं. ये तो बस एक शुरुआत थी. उसकी जो इन्होंने कामकाजी होने के एवज में चुकाई थी. कई घंटों का ट्रेन का सफर करने के बाद तय समय पर अपने ऑफिस पहुंचना इनकी पहली चुनौती थी. उससे भी बड़ी चुनौती थी अपने घर के सारे काम-काज को पूरा कर ऑफिस के लिए तैयार होकर सही समय पर निकलना. सुबह 4 बजे उठने के बाद भी उनकी ये तपस्या तब तक पूरी नहीं होती.. जब तक थक-हार कर घर लौटने के बाद वो फिर से अपने सारे काम-काज को निबटा न लें. काम-काज से यहां तात्पर्य उन कामों से है, जिसका न तो कोई तय रुटीन है.. और न ही कोई ड्यूटी आवर.. इसके लिए इन कामकाजी महिलाओं को कोई वेतन भी नहीं मिलता.. लेकिन.. फिर भी जन्म से लेकर मरते दम तक उसे ये घरेलू काम अनवरत करने पड़ते हैं.
कमोबेश
ये हालत हर शहर,
हर
क़स्बे की है. लेकिन पटना
जैसे शहर में तो हालात और भी
बुरे हैं.
बुरे
इसलिए क्योंकि यहां
कुछ दिनों में लोगों के खान-पान
और पहनावे में बदलाव तो आया
है. लेकिन महिलाओं
को लेकर पुरुषवादी
मानसिकता में आज भी यहां बहुत ज्यादा
फर्क नहीं आया है. सामाजिक
रुढ़ियां लोगों को जकड़े
हुई हैं. कामकाजी महिलाओं के
लिए हालात बहुत ज्यादा मुफीद
नहीं हैं.
आने-जाने
के साधनों की कमी की वजह से
महिलाओं को हर दिन परेशानियों
से दो-चार
होना पड़ता है. पटना
जैसे छोटे शहर में महिलाओं
के लिए स्पेशल ट्रेन तो नहीं
ही है. जो
महिला बोगी है, उस
पर भी पुरुषों का ही कब्जा
अधिक नजर आता है. बंदी
और हड़ताल में तो इन महिलाओं
की हालत और भी ज्यादा खराब हो
जाती है. ऐसे
में कभी ट्रेन छूट जाये,
तो
फिर भगवान ही मालिक है.
मुझे याद आता है. रात 8 बजे ऑफिस से घर लौटने के दौरान मैंने पटना जंक्शन से घर जाने के लिए बस पकड़ी. बस में मेरी बगल वाली सीट पर एक महिला (जिनकी उम्र लगभग मेरे ही बराबर थी) बैठीं. रास्ते में बातचीत के दौरान पता चला कि वो हर दिन पटना बाइपास से मोकामा जाने के लिए सुबह 6 बजे घर से निकलती हैं. इसके पहले उन्हें सुबह जल्दी उठकर घर का सारा काम-काज निपटाना पड़ता है. घर पर अपनी छोटी सी बेटी को सास-ससुर पर छोड़कर वो हर दिन अपने काम पर जाती हैं. इस दौरान उन्हें बस स्टॉप तक जाने के लिए डेढ़ घंटे पैदल जाना पड़ता है. कई बार उनकी बेटी बीमार होती है. लेकिन उन्हें काम पर जाना ही पड़ता है. फिर भी आये दिन वो देर से ऑफिस पहुंचती हैं. वहां बॉस की झिड़कियां उन्हें सुननी पड़ती हैं. उन्होंने बताया कि कैसे घर लौटने के दौरान आये दिन ट्रेन में लोग बदतमीजी करते हैं. डांटने पर उल्टे वही लोग इन्हें ‘मनबढ़ू महिला’ की संज्ञा देते हैं. कहते हैं हमारे घर में ऐसी महिलायें हों तो हम उन्हें जिंदा न रहने दें. इन सबसे लड़ते-निपटते जब वो घर पहुंचती हैं, तो फिर से रात के खाने का वक्त हो जाता है. कई बार तो बिना कपड़े बदले ही उन्हें भयंकर गर्मी में सीधे रसोई में घुस जाना पड़ता है. देर रात गए जब वो बिस्तर पर जाती हैं तो पति से बिना बात किए सो जाती हैं. जिस पर उनके पति की नाराजगी और बढ़ जाती है.. उसी कामकाजी महिला के शब्दों में..”नौकरी करना जी का जंजाल बन गया है. न करो तो घर में पैसों की तंगी और करो तो जिंदगी हराम.“ उन्होंने बस से उतरते-उतरते मुझे सलाह दी, काम तभी तक करना जब तक शादी न हो जाये. शादी के बाद तो नौकरी और जिंदगी में तालमेल बिठाते-बिठाते ही उम्र खत्म हो जाती है और हम जिंदा हैं या नहीं ये एहसास भी मर जाता है.लगभग हर कामकाजी महिला की यही कहानी है... काम पर से देर रात गए घर लौटते वक्त हाड़-हाड़ थक कर चूर हो जाता है. सोचने-समझने की शक्ति जवाब दे जाती है. लेकिन घर के ढ़ेरों काम इनके इंतजार में रुके होते हैं. सब निबटा कर बिस्तर पर गिरने के बाद कोई होश नहीं रहता. ऐसे में पति की इनसे अलग शिकायतें होती हैं और बच्चों की अपनी. सासू मां और ससुर जी को इनका नौकरी करना रास नहीं आता, तो पति को घर पर खाली बैठे रहना.
लेकिन कोई
नहीं सोचता कि महिला क्या चाहती है.
कैसा
लगता है उसे जब घर पर अपने छोटे
बच्चे को छोड़ कर उसे नौकरी
पर जाना होता है. मन
बच्चे में अटका होता है. काम सही समय पर पूरा नहीं होने
पर बॉस से झिड़कियां खानी
पड़ती हैं.
कैसा
लगता है उसे तब..
जब
ट्रेन की भीड़भाड़ में कई लोग
हर रोज जाने-अंजाने
उसे टटोलना चाहते हैं. कैसा लगता है जब बुखार के
बाद भी उसे अहम फाइलों को
निबटाने के लिए ऑफिस जाना
पड़ता है.
सबसे अहम लेकिन सबसे खास कि कैसा लगता है उसे जब महीने के आखिर में उसकी मेहनत से कमाये गए रुपये बिना उसकी मर्जी जाने पति उससे ले लेते हैं. कहते हैं कि लाओ इसे मुझे दो नहीं तो तुम इसे बेकार की चीजों पर खर्च कर दोगी. तब पता चलता है एक कामकाजी महिला होने के सारे संघर्ष किस कदर बेमानी और बेमकसद हो जाते हैं. सारी रात तकिये को गीला करने के बाद अगली सुबह कामकाजी महिलायें फिर तेज-तेज कदमों से भागे चलती है उस बस को पकड़ने.. जो संघर्षों और संकटों में अकेला उसका साथी है. दूर खड़ी होकर मैं महिलाओं की इन भागती-दौड़ती परछाईयों को देखती हूं.
(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 20 मई 1980 को पटना बिहार में
शिक्षा: पटना के मगध महिला कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक, नालंदा खुला विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में हिन्दी से स्नाकोत्तर
सृजन: कुछ कवितायें और कहानियां दैनिक अखबारों में छपीं। समसायिक विषयों पर लेख भी
संप्रति: हिंदुस्तान, सन्मार्ग और प्रभात खबर जैसे अखबार से भी जुड़ी, आर्यन न्यूज चैनल में बतौर बुलेटिन प्रोड्यूसर कार्य के बाद फिलहाल वास्तु विहार मीडिया वेंचर प्राइवेट लिमिटेड में कंटेंट डेवलपर और आकाशवाणी में नैमित्तिक उद्घोषक
संपर्क: pritisingh592@gmail.com)
4 comments: on "पटना में कामकाजी स्त्री "
कामकाजी स्त्री के जीवन की तल्ख़ सच्चाइयां...
I am too a working woman...... and i would like to thanks the writer to bring our pain in such beautiful words.........
Hope some day this male chauvinist world feel our pain. Because if u feel the pain then only u can understand the pain......
-Supriya Shekhar
we must give the right of woman or wife as a human being,,, heart touching story
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- अल्लामा जमील मज़हरी