बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 13 अगस्त 2014

चरवाहा से कवि तक की यात्रा












संजय शेफर्ड का आत्मकथ्य

लेखन और पाठन का सफ़र जीवन में काफी देर से जुड़ा, लेकिन घुम्मकड़ी की प्रवृति मुझमें जन्म के साथ ही मौजूद थी। उस समय जब लोगों का वक़्त लोगों की अंगुली पकड़कर उम्र के साथ- साथ चलता है। मेरे वक़्त ने मेरी उम्र के साथ किसी भी रूप में चलने से इंकार कर दिया था। पढ़ाई- लिखाई की अवधारणा को भाग्य की नियति मानकर कई वर्षों तक मैं अपने पुश्तैनी पेशे भेड़ पालन की वजह कर इधर-उधर भटकता रहा. यहीं पर मेरा साक्षात्कार जंगल, पहाड़, नदी, नाले और प्रकृति से हुआ. जाने-अनजाने में ही सही मेरा मन भावनाओं, संवेदनाओ और अहसासों सागर के रूप में मुझमें लहराने लगा।
वह रातें मुझे आज भी याद हैं, जिन्हें खुली पलकों के आगोश में लेकर मैंने कभी किसी नदी-नाले के किनारे या फिर वियाबान जंगलों की बांहों में बिताई थी। उन दिनों शेफर्ड हट जैसी कोई चीज अस्तित्व में नहीं आई थी। उस समय भेड़ पालन करने अथवा चराने वालों का कोई निश्चित ठौर ठिकाना नहीं होता था।  जहां सांझ ढली वहीं भेड़ों के लिए ठहराव ढूंढा और पाल डालकर खुले आसमान के नीचे सो गए। उस दौरान सर्दी, गर्मी, बरसात को मैंने बहुत क़रीब से देखा, छुआ और खुद में महसूस किया। उस समय मेरे पास एक विस्तृत धरती, खुला आसमान और दूर- दूर तक लहराता अथाह सागर था।

कुछेक ही दिनों में यह यायावरी भरी जिन्दगी मुझे रास आने लगी थी। यहां हमारी आवश्यकताएं बहुत ही सीमित थी। हम पूरी तरह से प्राकृतिक चीजों पर आश्रित थे, पेड़ से तोड़कर फल खा लिया, प्यास लगने पर किसी नदी का पानी पी लिया, भूख सताने लगी तो उपले इकट्ठा करके आग जलाई और लिट्टी आदि बनाया और पेट भर लिया। सही मायने में दुख, दर्द और विषाद क्या होता है बहुत दिनों तक जाना ही नहीं लेकिन एक दिन मेमने की में-में आवाज़ से रात का सन्नाटा टूटा तो ऐसा लगा कि सिर पर पहाड़ गिर गया।
उस समय भी जंगली जानवर रात के सन्नाटे में निचाट जगहों पर आकर शिकार तलाशते रहते थे। सुबह पास के खेत में उस मेमने की हड्डियों, बाल और खाल को लहू में लिपटा देखकर मन सिहर उठा और यहीं से जीवन में दुख, दर्द, विषाद और संवेदना का फूटा और वक़्त के साथ अपना आकर लेता रहा। इस तरह जन्म के साथ के सात शुरुआती  सालों ने मेरे हृदय- आत्मा कई अनकही कविताओं, कहानियों, उपन्यासों को जन्म दिया( जिसका लिखा जाना इस 27 साल की उम्र में पहुँचने के बावजूद भी बाक़ी है।

सही मायने में जब मैं कविता लिखता हूं तो कविता नहीं महज अपने मन के भाव लिखता हूं. कभी-कभी यही भाव विचार बन जाते हैं, स्थायित्व की प्रक्रिया पार कर अपना प्रतिबिंब बनाते हैं, और कविता बन जाती है । मेरी कविता, कुछ कल्पना, कुछ यथार्थ, कुछ वक़्त को समेटने की कोशिश, कुछ प्रतिध्वनि, कुछ परछाई, कुछ प्रतिबिंब के आलावा कुछ भी तो नहीं है। 

हमज़बान की अगली पोस्ट में पढ़ें  संजय शेफर्ड की कविताएं

(रचनाकार-परिचय: 
मूल नाम: संजय कुमार पाल।
जन्म: 10 अक्टूबर 1987 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में।
शिक्षा: भारतीय मीडिया संस्थान दिल्ली से पत्रकारिता व जन संचार में स्नातक, जबकि जेवियर इंस्टिट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन मुंबई से इसी में स्नातकोत्तर किया
कार्यक्षेत्र: एशिया के विभिन्न देशों में शोधकार्य, व्यवसायिकतौर पर मीडिया एंड टेलीविजन लेखन, साहित्य, सिनेमा, रंगमंच एवं सामाजिक कार्य में विशेष रुचि।
नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन।  25 से अधिक नाटकों का लेखन।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन व प्रसारण।
संप्रति: बीबीसी एशियन नेटवर्क में शोधकर्ता एवं किताबनामा प्रकाशन, हिन्दीनामा प्रकाशन के प्रबंध निदेशक के तौर पर संचालन।
संपर्क: sanjayshepherd@outlook.com)

Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

7 comments: on "चरवाहा से कवि तक की यात्रा"

vandana gupta ने कहा…

पोस्ट के माध्यम से संजय की ज़िन्दगी के एक पहलू से मिलने का मौका देने के लिए हार्दिक आभार

SAK ने कहा…

संजय मेरा दोस्त है और छोटा भाई भी पर कभी नहीं बताया उसने अपने जीवन के बारे में. यहाँ उसके बारे में थोड़ा जानना अच्छा लगा और यह और अच्छा लगा कि वह एक ऐसी पृष्ठभूमि से आकर कविता, पेंटिंग और दूसरे क्षेत्रों में अपना नाम कर रहा है. बहुत सारी शुभकामनाएँ उसके लिए.

SAK ने कहा…

सईद अय्यूब

Unknown ने कहा…

संजय सर कुछ नया जानने का मौका मिला आपके बारे में.. आपकी कविता में कहीं भी नीरसता नहीं लगती..

anwar suhail ने कहा…

फैज़ ने तभी तो कहा है ----"अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफलिस की कबा है जिसमे
सैकड़ों दर्द के पैबंद लगे जाते हैं....
चंद रोज़ और मेरी जान फकत चंद ही रोज़...."
संजय शेफर्ड के मन में सैकड़ों मंज़र हैं...आपने थोड़ी सी झलक दिखला दी है..कविताओं का इंतज़ार है...

Unknown ने कहा…

he iz gud writer , keep it up Sanjay...

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

ज़मीं से जुड़े हुए लोग यथार्थ के बहुत क़रीब होते हैं। अपने तजुर्बों को हृदय- आत्मा कई अनकही कविताओं, कहानियों, उपन्यासों में सभी दर्ज करते हैं। तजुर्बा अलग होगा तो लेखन भी कुछ अलग होगा। लिखते रहिये आपकी ज़िन्दगी का बीता कल आज आपको बहुत आगे ले जाएगा।

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)