बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

तिल-तिल आस्था, रोम-रोम राममय


 रांची में हर्ष-आस्था का रंग 


फोटो : माणिक बोस




सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से

वही "नवमी तिथि मधुमास पुनीता' यानी चैत्र महीना की नौवीं तारीख। मौसम भी मध्यान्ह में वही "शीतल मंद सुरभि बह बाऊ।' हर्ष-उल्लास की बानगी भी वही, बस तब अयोध्या नगरी थी, शुक्रवार को हमारी रांची। जिसके हर घर-आंगन, गली-चौबारे और सड़कें-चौक रामलला के जन्मोत्सव के आनंद में आकंठ डूबे थे। आस्था और उमंग का अद्भुत ज्वार किसी भाटे की तरह रांचीवासियों को सराबोर किए रहा। श्रद्धा जब गांव-शहर तक प्रकाश की तरह बिखरी, तो हर चेहरा दीप्त और झिलमिल हुआ। वहीं आंखों में पनियल मिठास लिए माताओं ने रामलला के भेषधारे अपने बच्चों का कौशल्या समान बलैया लिया। नन्हे कदम चहकने ही नहीं, फुदकने लगे। उस पिता की छाती सबसे बड़ी पताका से भी चौड़ी हुई, जिसके कंधे पर बालक हनुमान मंद-मंद मुस्कुराए जा रहे थे।
चलिए बात शहर की ढाई सौ वर्ष प्राचीन तपोवन मंदिर से करते हैं। क्योंकि बिना इसके दर्शन किए रामनवी की पूजा-अर्चना पूरी नहीं होती। जब पहली बार 1929 में कृष्णा साहू की अगुवाई में राजधानी में शोभायात्रा निकली थी, तो उसके अखाड़े भी यहीं पहुंचे थे। पौ फटने के बाद शंखनाद और मंत्रोच्चार के बीच सबसे पहली पूजा यहीं हुई। इसके बाद सजे-सजाए शहर के दूसरे मंदिरों में भी श्रद्धालुओं ने माथा टेका। इसके बाद "भए प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी' के मंगल गीतों के मध्य महावीरी अखाड़े शहर के कोन-कोने से निकलने लगे। वहीं नेत्रों के माध्यम से हृदय में घर करती जातीं ढेरों झांकियों ने अयोध्याकाल की उन स्मृतियों को जीवंत किया, जिनका होना उर्दू कवि इकबाल के अनुसार "हिंदुस्तां को नाज' (गर्व) से भर देता है। इनमें भोले बाबा, श्रीराम, लक्ष्मण और मां सीता बने नन्हे-मुन्नों का ठुमकना मुख्यमंत्री से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री तक को आशीष देने पर विवश कर गया।

गफ्फार के परिवार कीे बनाई अधिकतर पताकाएं फहरातीं दिखीं, तो अलबर्ट एक्का चौक की बेला इंद्रधनुषी हो उठी। कहीं गेरुआ, कहीं लाल, कहीं पीली, कहीं सतरंजी, कहीं बैग्नी, कहीं गुलाबी, कहीं हरी, कहीं कत्थई पताकाएं। मोरहाबादी के घोल के छोटे-छोटे ध्वज सरसों के फूलाें जैसे जगमगाए, तो मंचों पर खड़े बड़े-बड़े लोग भी उसका स्पर्श करना नहीं चूके। पारंपरिक शस्त्राें-अस्त्रों से सुसज्जित टोलियां के करतबों की प्रतीक्षा में छतों, मंचों, फुटपाथों पर श्रद्धालु थे ही कि उनकी आंखें चौंधिया गईं। अरे ये क्या? 35 तल के मंदिर बुर्ज पर घ्वज भगवा। अद्भुत। रांची महावीर मंडल की पताका कुछ ऐसी थी ही। इसके सम्मोहन को मनोकामना समिति, चडरी और श्रीरामसेना के गगनचुंबी ध्वज ने और बढ़ाया। जबकि गगन भी भक्ति में लीन रामभक्तों को सूर्य की उग्रता से बादलों से बचाता रहा।

भक्तों का समूह पंक्तिबद्ध होकर जब भजन करने लगे, "श्रीरामजानकी बैठे हैं मेरे सीने में' तभी आकाश से पुष्पवर्षा (हेलिकॉप्टर से) होने लगी। महिलाएं, बच्चे इसके बाद गुलाल उड़ाते ग्लाइडर देखने उमड़े, तो महावीर अखाड़े के रामभक्त कार्यकर्ताओं ने पुलिस कर्मियों के संग सैलाब को अनुशासित किया। नियंत्रित किया, तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम की परहित चिंतन परंपरा साकार हुई। मेन रोड से लेकर राजेंद्र चौक तक स्थान-स्थान पर लगे स्वागत शिविरों में तैनात युवाओं ने भगवनश्रीराम के सदाचार को चरीतार्थ किया। संध्या हौले-हौले रात्रि में परवर्तित क्या हुई, रामनवी दीपवली में बदल गई। रंग-बिरंगियों रौशनियों में मटकते- ठुमकते, गाते-गुनगुनाते रामभक्तों की रेल कहीं छुक-छुक, कहीं राजधानी बन तपोवन पहुंची। लेकिन जब इन्होंने विराम लिया, तो ड्रोन कैमरे भी लाखों की भीड़ को कैद करने में नाकाम रहे। मध्यरात्रि तक ढोल-बैंजों की संगीत लहरियां युवा करतबबाजों को झुमाती रहीं। देर रात्रि तक ये क्रम चला। फिर शनै: शनै: अखाड़े अपने-अपने गंतव्य को प्रस्थान कर गए।

दैनिक भास्कर के रांची अंक में 16 अप्रैल को प्रकाशित




Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

0 comments: on "तिल-तिल आस्था, रोम-रोम राममय "

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)