बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

भाजपा पर ज्यां द्रेज बोले, निरमा से नमो तक

रांची में रविवार को विजय संकल्प रैली को भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया. रैली में जानेमाने अर्थशास्त्री व सोशल एक्टिविस्ट ज्यां द्रेज भी मौजूद थे. उन्होंने जो देखा, सुना और महसूस किया, पेश है उन्हीं की जुबानी.

रांची में नरेंद्र मोदी उवाच 




 







ज्यां द्रेज की क़लम से

नरेंद्र मोदी की रैलियों की हकीकत मीडिया में छपी रिपोर्टो से किस कदर अलग होती है, यह जानना रोचक हो सकता है. इस अंतर को खुद से समझने के लिए मैंने हाल ही में रांची में आयोजित उनकी रैली में शिरकत की. दस दिन पहले से ही रैली के लिए पूरे शहर में जोर-शोर से प्रचार अभियान चल रहा था. मोदी और उनकी पार्टी के अन्य सहयोगियों के बड़े-बड़े पोस्टर शहर के लगभग हर चौक - चौराहे पर लगे थे- कहीं कहीं तो एक जगह दस-दस, बारह-बारह पोस्टर! चाहे आप किसी दिशा में जा रहे हों, शहर की मुख्य सड़कों पर बिना मोदी से नजरें मिलाये निकलना लगभग असंभव था.

रैली बड़ी सुनियोजित थी और भीड़ जबरदस्त थी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का सांगठनिक कौशल उम्दा है और उसके पास बहुत पैसा है. किसी को यह पूछने की सहज रुचि हो सकती है कि आखिर यह पैसा आता कहां से है. लेकिन मुख्यधारा की अन्य पार्टियों की तरह, भाजपा भी वित्तीय पारदर्शिता के मान-मूल्यों का विरोध करती रही है. मोदी के आगमन से पहले पार्टी के कई दिग्गज नेता बोले, लेकिन भीड़ ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखायी. साफ था कि वे मुख्यत: बहुप्रचारित मोदी की एक झलक मात्र पाने के लिए आये थे. केवल अर्जुन मुंडा ही कुछ हद तक खुद को भीड़ से जोड़ पाने में कामयाब हो सके. मोदी का हेलीकॉप्टर फिल्मी अंदाज में उतरा, तो भीड़ ने जोरदार हर्ष ध्वनि की. पार्टी के कार्यकर्ता इसमें आगे रहे, लेकिन हर कोई अपने तारनहार के स्वागत में खड़ा हो गया. जोरदार साउंड एफेक्ट, वीडियो क्लिपों और ‘नमो-नमो’ की गूंज के साथ स्टेज पर मोदी की एंट्री की तैयारी बड़े नाटकीय ढंग से की गयी थी.

पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने श्रोताओं को संबोधित करते हुए मोदी की तुलना भगवान राम से कर डाली. मोदी बहुत नाटकीय स्वर और भाव-भंगिमाओं के साथ बोले. बेहतरीन प्रभाव पैदा करने के लिए उन्होंने अपनी आवाज में उतार-चढ़ाव का इस्तेमाल किया, कई जगह बिल्कुल सुविचारित अंतराल लिये.  लेकिन यह सारी भाषणबाजी किसी फिल्म के ऑडिशन का भान करा रही थी. विषय-वस्तु एकदम सपाट थी. शायद यही वजह थी कि उनके भाषण के शुरू होने के कुछ ही समय बाद लोग मैदान छोड़ते नजर आये. और जो रु के भी रहे, उनमें भी मोदी की बातों के प्रति कोई खास उत्साह नजर नहीं आया. पार्टी कार्यकर्ताओं के इशारे के बावजूद लोगों ने कभी-कभार ही हर्ष ध्वनि की या तालियां बजायीं. मुझे जान पड़ा कि मोदी श्रोताओं से संवाद कायम कर पाने में नाकामयाब रहे. इसकी शायद एक वजह यह रही हो कि वे यहां एक बाहरी व्यक्ति की तरह आये थे, उन्हें झारखंड के बारे में जल्दबाजी में कुछ-कुछ बताया गया होगा, खुद उन्हें झारखंड के प्रति कोई खास अहसास नहीं था.

दूसरी वजह यह भी रही कि वह वोट के लिए, दूसरे नेताओं द्वारा किये जानेवाले चुनावी वादों से परे नहीं जा पाये. उन्होंने लोगों को राज्य की दयनीय स्थिति की ही ज्यादा याद दिलायी, यह भूलते हुए कि सन 2000 में राज्य के बनने के बाद से 13 सालों में आठ साल से ज्यादा समय तक भाजपा ही सत्ता में रही है. इस रैली से मैंने एक चीज सीखी कि आज राजनीति और व्यवसाय के बीच का अंतर एकदम कम हो गया है. चुनाव अभियान जन-संपर्क उद्योग के एक अन्य क्षेत्र के तौर पर विकसित हो रहा है. कुछ लोग निरमा बेचते हैं, तो कुछ लोग नमो को बेचते हैं. दोनों को बेचने के लिए एक ही तरह की विज्ञापन एजेंसियां एक ही तरह के हथकंडे अपनाती हैं.

झारखंड के लोग इससे अधिक के हकदार हैं.

प्रचार का कोई भी हथकंडा इस तथ्य को झुठला नहीं सकता कि बीते 13 वर्षो में झारखंड की बदहाली के लिए भाजपा सबसे बड़ी दोषी है. कांग्रेस सहित मुख्यधारा की अन्य पार्टियां भी राज्य के संसाधनों की लूट में शामिल रही हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि इन सबसे अलग विचारदृष्टि के साथ कोई सामने आये और लोगों के सामने बेहतर विकल्प प्रस्तुत करे, जैसा कि एक हद तक हाल ही में दिल्ली में हुआ.

प्रभात ख़बर से साभार

(लेखक-परिचय:
जन्म:  1959 बेल्जियम में
1979 से भारत में। 2002 में  भारत की नागरिकता मिली।
 शिक्षा:  इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिच्यूट (नई दिल्ली) से पीएचडी किया।
सृजन: अर्थशास्‍त्र पर12 पुस्तकें प्रकाशित ।  नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के साथ मिलकर कई पुस्तकें लिखीं।
डेढ सौ से अधिक एकैडमिक पेपर्स, रिव्यू और अर्थशास्त्र पर लेख
संप्रति: दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स सहित दुनिया के कई ख्यात विश्वविद्यालयों में  विजिटिंग लेक्चरर रहे। अभी पंडित गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक अनुसंधान संस्थान में अध्यापन 
संपर्क:  jean@econdse.org)


   
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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

अदीब पिता की कवयित्री बिटिया

 
      
















शहनाज़ इमरानी की कविताएं
 
बूँद भर एक ख़्वाब

        बूँद भर एक ख़्वाब
        पलकों की रिहाइश छोड़ कर
        दरिया नहीं, नहर नहीं
        और न बंधता है किनारों में
        झरना होना चाहता है
        चट्टानें तोड़ कर
        पत्थरों के बीच फूट कर
        बहना चाहता है वो
        दुनियाँ को समेट कर।


हाशिये के बाहर

        वो जाते है
        नाक पर रूमाल रखकर
        मुसल्मानों के मोहल्ले में
        जब वोट बटोरना होता है
        खुली बदबूदार नालियाँ गड्डों में सड़ता पानी
        कचरे और गन्दगी का ढ़ेर
        मटमैले अँधेरे घर बकरियाँ,मुर्गियाँ, कुत्ते, बिल्लीयें
        काटे हुए मवेशियों कि दुर्गन्ध
        मुरझाए चहरे पतवारविहीन साँसे
        पंखविहीन सपने
        पेट की आग कुरेदती है
        तो भूख चाहती है
        झपटना चील कि तरह
        और झपटने में जब गिर गए हों
        चारो खाने चित्त
        कितनी शर्म आयी होगी उन्हें
        अब तकलीफें झेलने कि ताब है
        आसना और मुश्किल दिन एकसे हैं
        अब वे एक दूसरी दुनियाँ में हैं
        खिंच गयी एक लकीर हाशिये की
        जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
        कुछ-न-कुछ किसी बहाने
        भूलती गयीं सरकारें भी
        बेशक सरकार बनाने में
        यह अहम भूमिका निभाते आये है
        आज भी याद आ जाते है चुनाव के समय
        हाशिए से बारह के लोग।

   मेंरा शहर
       

        शहर में बहुत भीड़ है
        शहर  में खौलता शोर है
        शहर को खूबसूरत बनाया जा रहा है
        वो बारिश में भीगते है
        सर्दी में ठिठुरते हैं
        उनके सरों पर धूप है
        खुरदरी, पथरीली,नुकीली
        भूख की चुभन है
        बदहवास, हताश, परछाइयाँ हैं
        शहर में ज़िन्दा हैं तमाम जुर्म
        क़त्ल, बेईमानी, वारदात, नाइंसाफ़ी, भ्रष्टचार बलात्कार, खुली लूट
        बढ़ती जाती है रोज़-बा रोज़
        महँगाई, गरीबी, बेरोज़गारी और भूख 
        क़ानून उड़ने लगा है वर्कों से
        घुल रही हैं कड़वाहट हवाओं में
        मन में गहरा विषाद
        भूखे  आदमीयों के
        सवाल लगा रहे हैं ठहाके
        अँधेरे के नाख़ून खुरचते है
        बदसूरत ज़ख्मों को
        मर चुकी संवेदनाओं के साथ जी रहा है शहर
        अब बहुत तैज़ दौड़ने लगा है शहर।

      
ट्रैफिक सिंगनल

        ट्रैफिक सिंगनल  पर जब रूकती है कार
        उग आते हैं अनगिनत
        नन्हे-नन्हे हाथ
        किसी हाथ में अख़बार
        किसी में मेंहकता गजरा
        किसी में खिलौने
        किसी में भगवान
        कुछ हाथ खाली हैं
        जिनमें झाँकते हैं
        अनुत्तरित सवाल
        एक बच्चा
        क़मीज़ की आस्तीन से
        जल्दी-जल्दी कार के शीशे साफ़ करता है
        और नाक पोंछ कर कहता है
        कुछ दे दो न साब
        और साब का बच्चा कहता है
        पीछे हट तूने कार के ग्लास गंदे कर दिये।

  
एक ऊब

        घर इत्मीनान नींद और ख़्वाब
        सबके हिस्से में नहीं आते
        जैसे खाने की अच्छी चीज़ें
        सब को नसीब नहीं होतीं
        जीवन के अर्थ खोलने के लिए
        खुद पर चढ़ाई पर्तों को
        उतारना होता है
        पैदा होते ही एक पर्त चढ़ाई गई थी
        जो आसानी से नहीं उतरती है
        पर्त-दर-पर्त पर्तों का यह खोल
        उतरने में बहुत वक़्त लगता है
        बहुत कड़वा और कसेला सा एक तजुर्बा
        यह ऊब बाहर से अंदर नहीं आती है
        बल्कि अंदर से बाहर की तरफ़ गयी है
        कुछ बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े
        कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी
        बेमानी लगती है.
        इसी अफरातफरी में इतना हो जाता है
        तयशुदा रास्ते पर चलते रहना
        मोहज़ब बने रहना बहुत मुश्किल है
        उम्र के दूसरे सिरे पर भी बचपन हँसता है
        गहरे जमीन में जाती जड़ें
        पानी का कतरा खोज कर शाख़ पर पहुँचाती हैं 
        शाख़ें अपनी खुशियाँ फूलों को सौंपती हैं
        फल सब कुछ खो देने के लिए पकता है
        जैसे जैसे पेड़ की उम्र होती जाती है
        इंसानी झुर्रियों जैसी पर्त-दर-पर्त उसका बाहरी हिस्सा बनता जाता है
        और फिर नाखूनों की तरह बेजान हो जाता है।


 ज़िंदा रहना एक फ़न है

        
        ज़िन्दगी में फिर लौट कर आना
        घने कोहरे को दरख्तों के बीच छटते देखना 
        धड़कन की रफ़्तार थोड़ी धीमी सही
        बेचैनी भी है
        पर लगातार जीने का माद्दा तो है
        कमरे में सारी किताबें क़रीने से लगी हैं
        किताबों कि क़तार देख कर सुकून मिलता है
        कितनी ज़िंदगियों का सच छुपा है इनमें
        इंसानों कि बनायीं हुई दुनियाँ में
        बहुत कुछ अच्छा और खूबसूरत बचा तो है
        पढ़ने को इतना कुछ, समझने को इतना कुछ
        जीने को इतना कुछ की एक पूरी ज़िन्दगी कम पढ़ती है
        कितने फलसफे हैं दुनियाँ में उन्हें समझने को
        पत्थर भी घिसे दीखते हैं 
        यूँ तो ख्वाहिशों का कोई आकार नहीं होता
        न उनकी कि गिनती
        अक्सर धुंध में ही तलाशती हूँ
        आखिर मुझे चाहिए क्या
        जैसे आर्टिस्ट खींचता है कैनवास पर पहली लकीर
        बस एक लम्हा ही तो मिलेगा उसे
        जैसे रौशनी ने ज़मीन का सफ़र किया हो
        जैसे भी हो
        ज़िंदा रहना एक फ़न है !




( रचनाकार-परिचय :

जन्म: भोपाल में
शिक्षा:  पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पहली बार कवितायेँ "कृति ओर " के जनवरी अंक में छपी है।
संप्रति: भोपाल में  अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com )
साहित्यकार पिता मक़सूद इमरानी  स्वतंत्रता सैनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे।

 
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

बवंडर में एक उम्मीद का हिलना















पंकज साव की क़लम से

तेजपाल-प्रकरण से  उपजी युवा चिंता


अब से करीब 12 साल पहले ‘तहलका’ ने जिस शख्स के दम पर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का राजनैतिक करियर खत्म कर दिया था, कहीं आज वह शख्स खुद पतन के कगार पर तो  खड़ा नहीं  है। अपनी ही महिला सहकर्मी द्वारा तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल पर लगाए गए यौन शोषण के आरोप कोर्ट में अगर सही साबित होते हैं,  तो उन्हें दस साल तक की क़ैद हो सकती है। सजा चाहे जो भी हो, पर इतना तो तय है कि भारत जैसा देश तेजपाल को दोबारा पत्रकार के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर सकेगा। यहां का समाज में औरत की अस्मिता के साथ खेलना हत्या से भी बड़ा अपराध माना जाता है, भले ही कानून कुछ भी कहे। लेकिन क्या इससे तहलका की साख पर कुछ असर पड़ेगा। क्या  एक भद्दे दाग को धोकर तहलका की वही धवल विश्वसनीयता बरक़रार  रह पायेगी। तुरंत कुछ भी कहना सरलीकरण होगा। पर गर्दिश में सवाल और जवाब दोनों हैं.  
देश के कई इलाकों में बारह बरस को एक युग माना जाता है। तहलका के संदर्भ में यह अवधि सचमुच में एक युग साबित होती दिख रही है। अपनी बेखौफ और जुझारू पत्रकारिता के साथ इतने सालों में आशा की किरण से बढ़ते हुए दिन का सूरज बन चुकी तहलका अब भरी दोपहरी में ही डूबती दिख रही है। मानो तेजपाल-प्रकरण अचानक दोपहर की आंधी बनकर आया हो और यह आंधी कब लौटेगी, किसी को पता नहीं। कहने में तो आसान लगता है कि व्यक्ति से संस्था नहीं चलती, पर व्यवहारिक सच्चाई यह है कि तहलका को तरुण तेजपाल से अलग कर कभी नहीं देखा जा सका।
अब से कुछ हफ्ते पहले तक, जब तक उनका ‘कन्फेशन’ सामने नहीं आया था, किसी भी अच्छी सोच वाले पत्रकार, पत्रकारिता के विद्यार्थी और जागरूक पाठकों के लिए तरुण किसी देवता से कम तो नहीं थे और तहलका, उस देवता की मूर्ति। इसलिए, इस प्रकरण से उठा दर्द सिर्फ पीड़िता का ही नहीं है, बल्कि उन लाखों-करोंड़ों लोगों का भी है।
जिन-जिन मुद्दों पर मुख्यधारा की मीडिया से जनता की उम्मीद खत्म हुई, वहां कुछ गिने-चुने संस्थानों के अलावा एक तहलका ही था, जिससे आस रहती थी। महिलाओं की बराबरी की न सिर्फ बात की बल्कि उसे अपने संस्थान में भी व्यवहार में उतार कर दिखाया। निष्पक्षता ऐसी की दक्षिणपंथियों को लताड़ा तो वामपंथियों को भी नहीं छोड़ा। शंकराचार्य से लेकर तोगड़िया-सिंघल को उसी तरह स्पेस दिया, जितना बिनायक सेन, वारवरा राव को। कांग्रेस से नजदीकियों के आरोप तो लगे, मगर खबरों में कहीं उसकी बू तक नहीं आई। अपने बूते जिसने अपनी ख्याति विदेशों तक में पाई। ब्रिटेन के प्रमुख अखबार द गार्जियन ने इस ‘भारत में खबरों के सबसे बेहतरीन स्रोतों में से एक’ कहा। लेकिन, अपने कंटेंट से किसी का मुंह बंद कर देने की ताकत अब कौन दिखाएगा?
यह आस इसलिए भी खत्म होती दिख रही है क्योंकि इसके संपादक ने पत्रिका की शुरूआत में ही स्थापित आदर्श के उसी मर्म को चोट पहुंचाई है, जो वहां सबसे सुरक्षित माना जा सकता था। आशंका तो यह भी जताई जा रही है कि इस प्रकरण के बहाने उन दक्षिणपंथी तत्वों को एक और तर्क मिल गया है लड़कियों को काम करने और खासकर पत्रकारिता में जाने से रोकने का। अदालत पर भी सबका भरोसा है।  पर, सवाल ये उठता है कि  जनता की अदालत में क्या ‘सच कहने का साहस और सलीका’ कायम रह पाएगा?


(लेखक-परिचय:
 जन्म: 8 अक्टूबर 1986 को हज़ारीबाग (झारखंड) में 
शिक्षा: संत कोलंबा कॉलेज, हजारीबाग से कला स्नातक तथा  माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि, भोपाल से MA in Mass Communication
सृजन: छिटपुट यत्र-तत्र लेख, रपट प्रकाशित
 2011 से पत्रकारिता की शुरुआत
संप्रति:   दैनिक भास्कर डॉट कॉम में सब एडिटर
संपर्क: pankajsaw86@gmail.com )

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सोमवार, 16 दिसंबर 2013

विकल्पहीनता में देश यानी वाम-वाम समय

  








 अमित राजा की क़लम से
दिल्ली और बाक़ी राज्यों के आम आदमी में फ़र्क़
जटिलताओं के देश भारत में राजनीति एक उलझी हुई डोर है। इस उलझी हुई डोर का एक सिरा दिल्ली में 'आप' नहीं-नहीं आम आदमी के हाथ लगा है। लेकिन डोर का दूसरा सिरा जबतक देश के बाक़ी  हिस्सों में आम आदमी के हाथ नहीं लगता है, अनबुझ पहेलियों में कैद सियासत मुक्त नहीं हो सकती। जो हो, दिल्ली के चुनाव परिणाम ने हाल के दिनों में विकसित हुई कुछ मान्यताओं की चिंदी उड़ा दी। ये जाहिर हो गया कि देश को कांग्रेस के साथ भाजपा का भी विकल्प चाहिए। दोनों दलों में एकरूपता है और वे एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते। आंकड़े भी इसे पुष्ट करते हैं।
मध्यप्रदेश में जहां मतदाताओ के 1.5 फ़ीसदी ने नोटा का सहारा लिया। वहीं राजस्थान में 1.8 फ़ीसदी और छत्तीसगढ़ में 3.4 फ़ीसदी ने नोटा पर बटन दबाया। जबकि दिल्ली में महज 0.6 फ़ीसदी मतदाता ही नोटा के साथ गए। मतलब साफ है कि मतदाताओ में दिल्ली के उम्मीदवारों को लेकर कन्फयूजन कम था।
जनता का जिन मुद्दों को लेकर रुझान केजरीवाल की पार्टी 'आप' की ओर गया, वे मुद्दे नए भी नहीं थे। वामपंथी दलों का मुद्दा भी यही था। माले विधायक रहे शहीद महेंद्र सिंह ने कई बार सदन में माननीयों को मिलने वाले उपहारों को लौटा दिया था । उनकी पार्टी के दूसरे  विधायकों ने भी यही किया। तीन बार विधायक और तीन बार सांसद रहे मार्क्सवादी समन्वय समिति केएके रॉय भी यही करते रहे। उन्होंने एक मुश्त 70 लाख पेंशन की राशि प्रधानमंत्री रहत कोष में जमा करा दी थी । क्योंकि इससे पहले उन्होंने कभी पेंशन को स्वीकारा ही नहीं था। सो पेंशन की राशि बढ़ते-बढ़ते 70 लाख हो गई थी। कई मार्क्सवादी बेवजह सुरक्षा लेने से भी इंकार करते रहे हैं। भाकपा के सांसद रहे भोगेन्द्र झा से लेकर सीपीएम के  नम्बूदरीपाद और वासुदेव आचार्य, देवाशीष दासगुप्ता तक मिसाल रहे हैं। वामपंथी माननीय राजधानी में मिले बंगलों में  नहीं रहकर भी मिसाल देते रहे हैं। ऐसे में वामपंथी दलों को भी चुनाव नतीजों ने अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार का मौका दिया है। क्योंकि  डेढ़ सालों की मेहनत और मुद्दों की राजनीति से उभरी 'आप' ने देश को कांग्रेस व भाजपा के साथ लेफ्ट पार्टियों का भी विकल्प पेश करने की स्थिति पैदा की है। हालांकि तात्कालिक मुद्दों से निकली और पिक तक पहुंची पार्टियों का इतिहास टूटन भरा रहा है। सोसलिस्ट पार्टी के बाद 1977 में जनता पार्टी, 1989 में बीपी सिंह की पार्टी भी इस लिस्ट में है। मगर इन पार्टियों में ऐसा टूटन आया कि 50 से अधिक छोटे-बड़े दल अस्तित्व में आये।
बहरहाल, देश की जनता ने बता दिया कि उनके लिए सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता कोई मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत, सुशासन, जनता के सेवकों पर जनता की गाढ़ी कमाई खर्च नहीं करना ही मुद्दा है। इसलिए इन मुद्दों के साथ चली  'आप' को बिना कोई बड़े मैदान में रैली किये आम आदमी ने चुन लिया। जनता ने बता दिया कि विकल्पहीनता की स्थिति में ही जनता पैसे पर वोटिंग करती रही और आज विधानसभाओं व संसद में करोड़पति माननीय बहुसंख्यक हो गए है।
                                                                                                                                                                

(लेखक-परिचय
जन्म: 09 मार्च 1976  को दुमका (झारखंड) में 
शिक्षा: स्नातक प्रतिष्ठा।
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख -रपट
संप्रति: दैनिक भास्कर के  गिरिडीह ब्यूरो
संपर्क:amitraja.jb@gmail.com)  

  
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बुधवार, 11 दिसंबर 2013

मंज़िल ढूँढता एक मुसाफिर गुमनामी में जी रहा हिंदी का लेखक

 
 सेहन में बैठे फणीन्द्र मांझी  डायरी से एक गीत सुनाते हुए

ज़िंदगी चलती नहीं प्यारे धकेली जाती है :फणीन्द्र  मांझी

चौक-चौराहे पर शहीद भगत सिंह या सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा देख  धरती  आबा का सुरक्षा कवच रहा डुमबारी पहाड़ भले दूर से ही लुकाछिपी खेले, पर खूंटी को इस बात पर कोई गिला नहीं कि यहाँ भगवान् बिरसा की एक भी प्रतिमा शहर में नहीं है. बावजूद इसके अपने पुरखों की विरासत को सम्भालने वाले का तेज ज़रा भी मद्धम नहीं है. खूँटी के शहीद भगत सिंह चौक पर मिले हिंदी लेखक मंगल सिंह मुंडा बताते हैं कि पांचवे दशक में इस जवार में सागू मुंडा जैसा क़िस्सागो भी हुआ. जो घूम-घूम कर अपने पुरखों की कहानियां सुनाया करता था. वहीँ सुखदेव बरदियार गाँव-गाँव मुंडारी में नाटक किया करते थे. सामाजिक बदलाव के अतिरिक्त उनके मंचन मुग़ल काल की ख्यात प्रेम-कथा अनारकली-सलीम पर भी केंद्रित होते। हिंदी के नामवर आलोचकों से अलक्षित मंगल मुंडा का खुद एक कहानी-संग्रह छैला सन्दु  राजकमल प्रकाशन से छप चुका है.
हमारे साथ झारखंडी साहित्य संस्कृति अखड़ा के अश्विनी पंकज और दिल्ली से आये पत्रकार रजनीश साहिल भी थे.  अब हम खूंटी  से महज़ छह किमी की दूरी पर स्थित हस्सा गाँव के अखरा पर पहुंच चुके थे. उसके सामने ही एक धूसर चौड़ी गली बड़े से बगीचा का पता देती है. हस्सा यानी मुंडारी में मिटटी। तो हम इसी हस्सा   के  पुराना घर की  डेवढ़ी में दाखिल हुए.  सामने फूल-पत्तों से लदे आँगन की छोर पर सेहन किनारे फर्श पर एक पाये से कमर टिकाये बैठे थे फणीन्द्र  मांझी। जन्म 21 मार्च 19 30. 

मुंडा संस्कृति की झलक समेत कई किताबें
यह वही फणीन्द्र  हैं जिनके लेखन की कभी तूती बोलती थी. राधाकृष्ण के संपादन में निकलने वाली पत्रिका आदिवासी के अंक की कल्पना तो उनके बिना अधूरी मानी  जाती थी. वहीँ उनके रिपोर्ताज, संस्मरण, गीत और कहानियां धर्मयुग, दिनमान, नवनीत, आर्यावर्त, जनसत्ता जैसे पत्र-पत्रिकाओं  की शोभा बढ़ाते थे. तब के प्रमुख हिंदी दैनिक रांची एक्सप्रेस और प्रभात खबर के तो यह स्थायी लेखक रहे. लेकिन इनके लेखन की चर्चा आपको हिंदी के इतिहास में नहीं मिलेगी। न ही राजधानी रांची के साहित्यिक गलियारे में इनकी कुछ जानकारी मिल पाती है. जबकि  कई पुस्तकें प्रकाशित हैं. तीन खण्डों में मंज़िल ढूँढता एक मुसाफिर, मुंडा संस्कृति की झलक  के अलावा उगता सूरज, ढलती शाम चर्चित रही है.

लिखने का जज़बा 87 साल की उम्र में भी जवां
लेकिन यह लेखक आज खुद ही  गुमनामी में 'मंज़िल ढूंढता एक मुसाफिर' में तब्दील हो गया है.  हालांकि 2002 की 13 जुलाई को नवजवान बेटे की असामयिक मौत ने उनकी लेखनी को विराम दे दिया। पोते-पोतियों को पढ़ाना  अपना ध्येय बना चुके फणिन्द्र का लेखक  अब भी कसमसाता है. कहते हैं, क्या आप अपने अखबार में मेरे लेख या कहानी को छापेंगे।  

भौतिकी में गोल्ड मेडल, पहली कहानी 1958 में छपी
 जानकर हैरत होती है कि मुरहू के मिशन एलपी स्कूल, फिर खूंटी से मैट्रिक कर चुके फणीन्द्र  ने वाया संत ज़ेवियर्स कॉलेज , रांची काशी हिन्दू विश्व विद्यालय से भौतिकी में एमएससी कर गोल्ड मेडल हासिल किया। लेकिन उनकी प्रतिभा  हिंदी साहित्य में आकर स्वर्णिम हुई. हालांकि शिक्षक विज्ञान के ही रहे. लेखन की ओर झुकाव  के लिए जगदीश त्रिगुणायत  को प्रेरक मानते हैं. कहते हैं, मैं हिंदी में हमेशा अव्वल आता था. वह हाईस्कूल में टीचर थे. एक दिन बोले, फणीन्द्र  तुम अपना अनुभव लिखो। अखड़ा के नृत्य पर कहानी लिखो। तब पहली बार एक कहानी लिखी ' बोलना गीत, चलना नृत्य'. यह सम्भवता सन 1958 में दैनिक आर्यावर्त के किसी अंक में छपी. उसके बाद एक लेख माघ मेले पर लिखा 'अनोखा' जिसे राधाकृष्ण जी ने आदिवासी में छापा।

मुंडारी व हिंदी में आंदोलनकारी गीत भी लिखे
 राधाकृष्ण को सरल ह्रदय बताते हुए लिखने को उकसाने वाले भी कहा. झारखंड के महत्वपूर्ण लेखक  प्यारे लाल केरकेट्टा को याद करते हुए  कहते हैं कि नाम के अनुरूप ही वह बेहद प्यारे थे. जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त स्पष्टवादी। हंसमुख व्यक्ति।  मरांगगोमके की कम चर्चा होने पर कुपित होते हैं. बोले, तब मैं नौवीं में था. खूंटी हाईस्कूल के दक्षिण में एक मैदान था, वहां जय पाल सिंह मुंडा की सभा थी. हेड मास्टर ने हमलोगों की छुट्टी कर दी. यह जज़बा था आंदोलन का. हालांकि इसके असर ने मुझे मैट्रिक बाद घेरा। जय पाल मुंडारी और हिंदी दोनों में धरा प्रभाव बोलते थे. बिना माइक के भी उनकी आवाज़ दूर तक सुनी जाती थी. कहते हैं कि उनकी बातें बहुत बाद में समझ आयी तो मुंडारी और नागपुरी में आंदोलनकारी गीत लिखे।

अब फूलों संग पत्नी गीता का सहारा
फणीन्द्र  बिरसा, गांधी मार्क्स, माओ, लेनिन, फिदेल कास्त्रो, ओशो से प्रभावित फणिन्द्र  प्रेमचन्द, दिनकर,  शेली, गोर्की और टॉल्स्टॉय को रट-घोंट चुके हैं. हमलोगों को दुबारा चाय पीने को कहते हैं. आप लोग आ गये. अब तो कोई बात करने वाला भी नहीं मिलता।  अभी दिल्ली से बेटी ललितां आयी हुई है. वरना पत्नी गीता देवी ही उनकी सच्ची संगिनी हैं जीवन की. उनके साथ ही वो आँगन में आम, अमरुद, मेहंदी, कटहल, अलेवेरा, गुलाब, गेंदा, गुलदाउदी, उड़हुल, अटल और फुटबॉल फूल से बतियाते हैं. बोले जीवन का क्या पूछते हैं. वह  अपना ही मंचित नाटक बहादुर शाह ज़फर का संवाद दुहराते हैं,  'ज़िंदगी चलती नहीं प्यारे, धकेली जाती है'.    

दैनिक भास्कर, झारखंड के 11 दिसंबर 2013 के अंक में प्रकाशित 
   

    
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सोमवार, 9 दिसंबर 2013

सिर्फ़ आप ही नहीं, कर सकते हो तुसी भी कमाल!

फ़ोटो गूगल महाराज की कृपया से











हालिया चुनाव पर कुछ इस तरह भी तो सोच सकते हैं
तमाम तामझाम और बेशर्मी लांघती मीडिया रपटों के बावजूद लोकमानस को समझ पाने में हम लोग असमर्थ रहे. लेकिन ज़िद की लकीर का अहं अब भी मुंह नहीं चुरा  रहा है. दरअसल सेठों का पैसा दाव पर है. उसकी अपनी ज़रूरतें हैं. अपने निहितार्थ हैं. शहरों के मध्य-वित्त वर्ग को उसका चमकीला रैपर बहुत सुहाता है. और देश को इन्हीं के मार्फ़त चलाने की क़वायद रवां-दवाँ है. गांधी का गाँव कहीं  खो गया है. उसकी चिंता जभी होती है, जब सेठों को अपने उत्पाद की बिक्री करनी होती है. इसी बहाने सड़कें तो बन ही जाती हैं. लेकिन वहीँ तक बनती हैं जहां क्रय-शक्ति है. और उत्पाद छोटे पैक में भी बिक जाता  हो.  इधर व्यस्क होते  शहरी युवाओं की ऊर्जा और उत्साह का इस्तेमाल धर्म और जाति की सियासत करने वाले उन्हें वरगलाकर करते हैं. और अभी उसका फीसद अच्छा-खासा है. लेकिन क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है कि हम गाँव में रहने वालों की अनदेखी कर दें.
लेकिन सच यह भी तो है कि जनता कार्पोरेट राजनीति और राजनीतिक कारोबार को कुछ-कुछ तो ज़रूर समझने लगी है. क्या ताज़ा चुनाव इसकी तस्दीक़ नहीं करता कि दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों से जन-मोह भंग हो रहा है. और इसकी शुरुआत तो बहुत पहले दक्षिण और पूर्वोत्तर में  हुई. बाद में उत्तर प्रदेश और बिहार-झारखंड  में उभरे इलाक़ाई दलों ने बखूबी महसूस  किया। तुरंता मिसाल दिल्ली की है. जहां आप  ने कमाल कर दिया। यदि दिल्ली की तरह ही राजस्थान,  छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कोई तीसरा विकल्प होता तो क्या परिणाम यही होते। गर पुण्य प्रसून  बाजपेयी जैसा पत्रकार यह कहता है कि   'कांग्रेस के खिलाफ गये चार राज्यों के जनादेश का सबसे बडा संकेत 2014 में एक नये विकल्प को खोजता देश है' तो गलत क्या है. यह विकल्प कांग्रेस या भाजपा से इतर तीसरी राह की और अग्रसर होगा।
समय है कि हर क्षेत्र की सियासी जमात अपनी खुन्नस त्याग कर  मज़बूत तीसरा मोर्चा तैयार करें तो इन बड़बोलों का गुब्बारा हवा हो जाए! तभी नमो जाप करने वाले नमो-नमो करने लगेंगे। क्योंकि वो सोच रहे हैं कि  कांग्रेस की नीतियों को लेकर बढ़ता आक्रोश उन्हें सत्तासीन कर देगा। यदि इन दोनों के अलावा तीसरा विकल्प सामने होगा तो जनता निसंदेह उसे ही तरजीह देगी। सच्चे लोकतंत्र की भी यही मांग है.  वर्ना तमाशा देखते रहिये।
 छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के खिलाफ लगभग 59 प्रतिशत मत पड़े लेकिन रमन सिंह महज़  41.4 प्रतिशत मत पाकर फिर ताज सम्भाल लेंगे ! जबकि सिर्फ एक प्रतिशत से भी कम मत लाने वाली कांग्रेस विपक्ष का स्वाद लेगी। हालांकि विकल्प न होने की स्थिति और नक्सली हिंसा में मारे गए नेताओं की हमदर्दी में ही उसे यह वोट मिल गया। तस्वीर तो यही है कि मतदाता देश में केंद्र सरकार से नाखुश थे. हर जगह कांग्रेस के विरोध में ही मत पड़े. गर कोई लहर रहती तो वोट का प्रतिशत भाजपा का दिल्ली और छत्तीसगढ़ में इतना कम न होता। हद तो यह है कि सरगुजा में जिस नक़ली लाल क़िले से नरेंद्र मोदी ने सभा संबोधित की थी, वहाँ ही कई विस से भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो गया.    


      




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बुधवार, 4 दिसंबर 2013

न रहा घर, न ही कोई आसरा, मां पहले ही गुज़र चुकी




















पाइलिन में पिता और छोटा भाई खो  चुके पवन की  कहानी

उसकी  आंखें लबालब हैं। मानो पाइलिन उतर आया हो। जबकि यह तूफ़ान तो अक्टूबर के  पहले सप्ताह आया था। मैं बात अरगोड़ा, रांची  के 22 साल के  पवन तिर्की की कर रहा हूं।  जिसके पिता और एक  छोटे भाई को  इस क़हर ने लील लिया।  अब वह  पंखे की तेज़ खड़-खड़ाहट  से भी कांप जाता है। घर तो रहा नहीं। अब उसका  पता है  , अशोक  नगर, रोड नंबर एक ।
पवन कहता है, दो दिन तक  तूफानी हवाओं के  साथ मुसलाधार बारिश होती रही । मज़दूरी कर तीन बच्चों को  पालने वाले बाबा गंदरू तिर्की  कभी इधर बाल्टी रखते, तो कभी उधर। हम तीनों भाई मैं  पवन, आकाश, पंकज बदन पर कथरी ओढ़े अपने बाबा की  मदद करते रहे। लेकिन खपरैल छत ने आसरा छोड़ दिया। दो अक्टूबर की  रात थकन ने हमें  दबोच लिया। जिसे जहां जगह मिली नींद के  आगोश में चला गया।  क्या पता था कि यह आखऱी नींद होगी।
पवन के  थरथराते होंठ से निकलता है, तब 12 बज रहा होगा। ज़ोर की  आवाज़ हुई। इतना शोर कभी न सुना था। मोहल्ले वाले बाबा का  नाम लेकर पुकार नहीं, मानो चीख रहे थे। मैं हड़बड़ा कर उठा।   वह कहते-कहते  चुप हो गया। खुद ही खामोशी तोड़ी। मैं जब उठा तो उसी स्थिति में रह गया अवाक । जैसे पूरे शरीर को  का ठ मार गया हो। हमारा मिटटी का घरोंदा हम सब पर मलबा बनकर सवार था। पड़ोसियों ने हम सभी को  बमुशकिल बाहर  निकाला। बाबा, आकाश और पंकज की हालत गंभीर थी। उनका कंठ  बंद था। सिर्फ आंखें उनकी  पीड़ा को  बयान कर रही थी। मोहल्ले वाले तीनों को  अस्पताल लेकर गए. जहां बाबा और आकाश ने दम तोड़ दिया।
अम्मा बहुत पहले ही गुजऱ गयी थी। बाबा से ही ममता और वात्सल्य मिलता था। घर भी तो न रहा। छोटे भाई पंकज को  लेकर मैं पड़ोसियों की भीख पर ज़िंदा हूं।  गरीबी ने पढऩे न दिया, लेकिन भाई को पढ़ाना चाहता हूं।  लेकिन  पडोसी कब तक  दया करते रहेंगे। मैं तो बस इतना चाहता हूं कि  सरकार वाजिब मुआवज़ा दे तो मैं कुछ कारोबार कर सकूं । घर बना सकूं । अब  पंकज का बाबा और अम्मा मैं हूं न!

यह है सरकार की  कहानी
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने 15 अक्टूबर को  बुलाई आपदा बैठक  में पाइलिन से प्रभावित लोगों को  सात दिनों के  अंदर मुआवज़ा देने का  निर्देश दिया था  पवन ने 21 अक्टूबर को  डीसी और शहर अंचल कार्यालय में मुआवज़े के  लिए आवेदन दिया। लेकिन आज तक  उस पर कार्रवाई नहीं हुई है। महीने भर दफ्तरों का  चक्कर लगाकर यह आदिवासी युवक  हताश हो चुका  है। भाजपा व्यापार प्रकोष्ठ के ज्ञानदेव झा कहते हैं कि आदिवासी राज्य, आदिवासी  सीएम के  रहते आदिवासी युवक  की  गुहार जब अनसुनी है, दूसरों के  हित का  सोचना ही गलत है. जबकि  पवन बीपीएल कार्ड धारी  भी है।   

भास्कर रांची के 3 दिसंबर 2013 के अंक में प्रकाशित



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शनिवार, 30 नवंबर 2013

पटना ब्लास्ट के एक महीने बाद कितनी बदल गयी ज़िंदगी

 इस दुकान की बायीं तरफ़ पहले कैफे भी हुआ करता था, जिसे बंद कर अब निशा स्टोर को बढ़ा दिया गया है. फ़ोटो मीर वसीम  

दहशत ने बनाया अपनों को संदिग्ध: कई शहर, तो कुछ स्कूल छोड़ने को तैयार,   बच्चों के लैपटॉप तक की होने लगी मॉनिट्रिंग 



पटना सीरियल बम ब्लास्ट को एक महीने पूरे हो चुके हैं। लेकिन इसकी गूंज आज भी रांची में सुनाई पड़ रही है। इसमें दहशत, जिज्ञासा, चौकसी और अकारण उपजी परेशानी भी शामिल है। दरअसल इस मामले में एक के बाद कड़ी रांची से जुड़ती चली गयी है.
 पटना ब्लॉस्ट और उसके बाद की पुलिस और एनआईए की गतिविधियों रांची  के लोगों को झकझोर के रख दिया है। इस एक महीने में शहर के मुसलमानों को लेकर लोगों के नजरिये में, उनकी सोच में बदलाव देखने को मिल रहा है। यह बदलाव महसूस किए जाने वाले हैं। खुद मुस्लिम परिवार के लोग अपने बच्चों के कल को लेकर फिक्रमंद हैं। घर के किसी पीसी  लैपटॉप लेकर जब भी कोई लड़का बैठता है, तो घर के गार्जियन की नज़रें चौकन्नी हो जाती हैं. हंसी-ठिठोली में ही सही उनके मेल या सोशल साइट्स के अकाउंट की निगरानी इन बच्चों के लिए दहशत भरी होती हैं. कुछ परिवार तो मोबाइल तक की मॉनिट्रिंग करने लगे हैं. वहीँ शहर के कई इलाक़ों में नाम पूछकर स्टूडेंट्स को लॉज दिए जा रहे हैं.  दहशत और शक की सुई ने तालीम और कारोबार को भी बुरी तरह प्रभावित किया है.  वही एक खास विचारधारा  को लेकर भी लोगों में गुस्सा है. ब्लॉस्ट  के बाद रांची में आए बदलाव को हमने उनके बीच जाकर तलाशने का प्रयास किया है, ताकि उसकी बारीकियों को समझा जा सके।

कैफे बंद कर देना पड़ा
इरम लॉज से चंद दूरी पर निसा जनरल स्टोर है। यहां एक साइबर कैफे भी कुछ माह शुरू हुआ था। लेकिन अब उसे बंद कर दिया गया है। इसके संचालक मो. इरफान आलम ने बताया कि उन्होंने दहशत में कैफे को बंद करदेने का फैसला किया। हालांकि उससे उनकी आय पर भी असर पड़ा है। जबके मैं बिना पहचान पत्र के किसी को भी बैठने की अनुमति नहीं देता था। लेकिन कोई नेट का कैसा इस्तेमाल करेगा, इसकी मॉनिटरिंग मुश्किल है। साथ ही निजी आजादी पर हमला भी।

डर में जी रहा परिवार
बीते एक महीने में हमारी जिंदगी बदल गई है। पूरा परिवार डर में जी रहा है। घर के बाहर से कोई आवाज देता है, तो रूह कांप जाती है। किसी अनजाने नंबर से फोन आता है, तो लगता है कि एनआईए वालों का फोन होगा। यह कहना है मोजम्मिल के पिता मोइनुद्दीन अंसारी का। मोजम्मिल की बस गलती इतनी थी कि वह पांच लाख का इनामी आतंकी हैदर से ढ़ाई साल पहले मिला था। हैदर उस समय डोरंडा में ही रहा करता था। मोजम्मिल की अम्मी अल्लाह से दुआ करती हैं कि फिर दोबारा कहीं बम न फटे। वरना फिर से एक बार हमारा जीना दूभर हो जाएगा।

फीस नहीं भरी  तो बच्चों का स्कूल छूट जाएगा
उजैर की पत्नी फातिमा शानी ने बताया कि बीते महीने की 28 तारीख को पुलिस ने मेरे पति को फोन कर बुलाया। उसके बाद से वो कहां हैं मुझे पता नहीं बताया गया। न उनका फोन आया और न उनकी बाइक लौटाई गई। उजैर के साथ पुलिस ने मेरा भी पासपोर्ट जब्त कर लिया है। मेरे पास पैसे नहीं है। उधार के राशन से घर चल रहा है। इस महीने तो बच्चों की फीस तो किसी तरह भर दिया है, लेकिन दिसंबर में फीस के पैसे मेरे पास नहीं है। अगर फीस नहीं भरी,  तो बच्चों की पढ़ाई छूट जाएगी। फातिमा कहती हैं कि उनके पति आतंकी नहीं है। वो हमेशा जरूरतमंदों की मदद करते आए हैं। उन्हें खुदा पर भरोसा है, वो एक दिन बेगुनाह साबित होंगे।

पासपोर्ट बनाना हुआ मुश्किल
ब्लास्ट के बाद रांची में मुसलमानों के लिए पासपोर्ट बनवाना भी मुश्किल हो गया है। पहले आसानी से पुलिस और स्पेशल ब्रांच की वेरिफिकेशन हो जाया करती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इन दोनों एजेंसी के जांच के बाद भी डीएसपी लेबल के अधिकारी खुद से आमने सामने पासपोर्ट बनाने वाले से पूछताछ करने लगे हैं। इस वजह से पासपोर्ट बनाने में समय तो लग ही रहा है, साथ ही उसे मानसिक तनाव से भी गुजरना पड़ रहा है। घटना के बाद पहले सीठिओ के लोगों को दुकानदारों ने सिम बेचना बंद कर दिया था। अब रांची शहर के आम दुकानदार भी उन्हीं मुस्लिम लोगों को सिम कार्ड बेच रहे हैं, जिनसे उनकी जान पहचान है।

दिल करता है रांची छोड़ दें
मेरे छोटे बेटे की सिर्फ जान पहचान उजैर से थी। उजैर के पकड़े जाने के बाद दूसरे दिन एनआईए मेरे बेटे को पूछताछ के लिए ले गई। रात 10 बजे छोड़ा। दूसरे दिन फिर 10 बजे सुबह उसे बुला लिया। बेटा रात में घर लौटा। यह सिलसिला लगातार 13 दिनों तक चलता रहा। इस दौरान हम हर पल जीते मरते रहे। यह कहना है डोरंडा फिरदौस नगर में रहने वाले रईस खान का। कहते हैं कि उनका पूरा परिवार दहशत में है। पत्नी सदमे में है। बेटे की जिंदगी बदल गई। उसका घर से निकलना कम हो गया। घर से बाहर निकलने पर मुहल्ले के लोग ऐसे देखते हैं कि लगता है कोई अजनबी जा रहा हो। मैं पत्नी से बात कर रहा था कि रांची छोड़कर बड़े बेटे के पास रहने चले जाए।

किरायेदार पर निगारी करने लगी हैं
इरम लाज के पड़ोस में रहनेवाली यास्मीन बानो आज भी उस शाम को याद कर कांप जाती हैं। जब उनके ही पड़ोस में रहने वाले स्टूडेंट्स के कमरे से बम बरामद किया गया था। कहती हैं कि आखिर आदमी किस पर भरोसा करे। लॉज में रहने वाले सभी लड़के पढऩेवाले रहते हैं। रमजान में वे रोजा-नमाज भी किया करते हैं। उनके बीच कोई दहशतगर्द भी है, इसकी किसी ने कल्पना भी न की थी। अपने एक किरायेदार छात्र पर वे हर समय निगारानी करने लगी हैं।

अब चौकन्ने हैं पड़ोसी
इरम लॉज के दूसरी ओर मोहम्मद सईद की टेलरिंग शॉप है। महिलाओं के कपडे वे सिलते हैं। कहते हैं कि लॉज में हिंदू-मुस्लिम सभी छात्र रहते रहे हैं। इनमें कभी मनमुटाव की भी शिकायत नहीं मिली। लेकिन उस दिन शाम जब वह नमाज पढ़कर दुकान लौटे, तो भीड़ देखकर भौंचक रह गए। कहा गया कि लॉज से बम बरामद किया गया है। तब उन्हें बेहद हैरत हुई। यकीन ही नहीं हुआ कि ये पढऩेवाले बच्चे ऐसा भी कर सकते हैं। अब चौकन्ने हो गए हैं।

आलिमों की राय
पुलिस को ऐसे गिरोहों को चिन्हित करना चाहिए: शहर काजी
रांची के शहर काजी कारी जान मोहम्मद रज्वी ने कहा है कि सरकार, पुलिस और अवाम को चाहिए कि वे उन तत्वों की निशानदेही करें, जो आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हैं। क्योंकि एक इतिफाक है कि एक खास विचारधारा से जुड़े लोगों का नाम इस मामले में सामने आ रहा है। लेकिन उससे समूची मुस्लिम कौम बदनाम हो रही है। आलिमों व दानिश्वरों को मिलबैठकर इस मुद्दे पर बैठक करनी चाहिए।

एक जमायत शक के घेरे में : नाजिम इदारे शरीया
इदार-ए-शरीया झारखंड के नाजिम आला मौलाना कुतुबुद्दीन रिजवी ने कहा है कि पटना ब्लास्ट के इल्जाम में जितने भी लड़के रांची से पकड़े गए, वे सभी एक खास विचारधारा से जुड़े हुए थे। यह अफसोसनाक है। इसकी ईमानदारी से जांच होनी चाहिए। इसकी भी जांच होनी चाहिए कि इस जमायत को कहां से फंडिंग होती है। रांची में महज पंद्रह साल के अंदर इस जमायत का बहुत तेजी से फैलाव हुआ है। अवाम को भी इसपर सोचना होगा।

(साथ में आदिल हसन)

भास्कर के झारखंड संस्करण में 29 नवंबर 2013 के अंक में प्रकाशित 









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मोदी को बुलेट से नहीं बैलेट से दें जवाब: अहले हदीस मस्जिद के इमाम













इमाम ज़ियाउल हक़ फ़ैज़ी ने कहा बम या गोली मसले का हल नहीं

मामला नाइंसाफी से जुड़ा हो या फौरी गुस्सा से उबली प्रतिक्रिया इस्लाम या अहले हदीस हिंसा की इजाजत नहीं देता। कुछ भटके हुए लोग जिहाद की गलत व्याख्या कर रहे हैं। जिहाद आतंकवाद नहीं होता। जिहाद तो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना है। बुराई से बचना है। आतंकवादी गतिविधियों में पकड़े गए लोग अपने बचाव में अहले हदीस का नाम लेकर उसे बदनाम कर रहे हैं। यह बातें रांची स्थित अहले हदीस की प्रमुख मस्जिद के इमाम व खतीब ज़ियाउल हक़ फ़ैज़ी  ने सैयद शहरोज कमर से खास बातचीत में कही है। पेश है उसके प्रमुख अंश:

कहा जा रहा है कि अहले हदीस मुसलमानों के बीच कट्टरता के बीज बो रहा है?
 नहीं। ऐसा हरगिज नहीं है। अहले हदीस सिर्फ कुरआन व हदीस की रोशनी में समाज की सलामती व ईमान की सुरक्षा का प्रचार--प्रसार करता है। इस्लाम अमनो-अमां की बात कहता है. हमारे नबी ने मस्जिद और बाज़ारों में हथियार ले जाने की  मनाही की  है.  
फिर दहशतपसंदी के आरोप में अहले हदीस के लड़के ही क्यों पकड़े जा रहे हैं?
यह इत्तिफाक है कि पकड़े गए लोग अहले हदीस का नाम ले रहे हैं। यह हमारी जमायत के खिलाफ कोई साजिश भी हो सकती है।
इसे महज इत्तिफाक कैसे कह सकते हैं। जबकि हिरासत में लिए गए या इल्जाम में पकड़े गए लोगों का संबंध बजाब्ता अहले हदीस से रहा है?
हो सकता है। उनका झुकाव मेरी जमायत से रहा हो। लेकिन हमलोग ऐसी शिक्षा नहीं देते हैं। ट्रेनिंग की बात ही जुदा है। वे भटके हुए लोग हैं। मुमकिन है , बेरोजगार युवकों का किसी ने अहले हदीस को बदनाम करने और मुल्क में अशांति फैलाने के लिए इस्तेमाल किया हो। इससे इंकार नहीं कर सकते। अगर ऐसा होता तो, लक्खीसराय या झरिया से पकड़े गए लड़के गैरमुस्लिम नहीं होते।
कहा जाता है कि अहले हदीस को सऊदी अरब से फंडिंग होती है?
मैं बच्चों को ट़्युशन पढ़ाता हूं ताकि अपने बच्चों की ठीक से परवरिश कर सकूं। क्योंकि मुझे महज छह हजार रुपए ही तनख्वाह मिलती है। वहीं मस्जिद के खर्च के लिए चंदा किया जाता है। अगर सऊदी से मदद मिलती तो फिर न चंदा की जरूरत पड़ी, ना ही मैं ट्युशन करता।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की जान अहले हदीस क्यों लेना चाहता है?
यह सरासर इल्जाम है।
जितनी खबरें आ रही हैं या पटना ब्लास्ट मिसाल है।
मैंने पहले ही कहा कि ऐसी इजाजत न इस्लाम, ना ही अहले हदीस देता है। अगर किसी को मोदी से शिकायत है, तो जम्हूरियत है, उनका विरोध करें। उन्हें वोट न करें। सेकुलर मिज़ाज के लोगों को जिताएं।
गुजरात या हालिया मुजफ्फरनगर दंगे की प्रतिक्रिया हो या अन्याय के खिलाफ हो सकता है कि इन लड़कों को बरगला दिया गया हो?
हुजूर बहुत पहले कह गए हैं कि वतन से मुहब्बत करना ईमान का ही अंग है। अगर नाइंसाफी है, तो कानूनन लड़ाई करें। बम या गोली किसी मसले का हल नहीं है। उनकी मुख़ालिफ़त के नाम पर बेक़सूर बच्चों, औरतों, बुज़ुर्गों और नौजवानों को हलाक करना गुनाह है. ऐसा करने वालों की  जगह इस्लाम में नरक ही है. 
भास्कर के झारखंड संस्करण में 30 नवंबर 20 13 के अंक  में प्रकाशित
  
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सोमवार, 25 नवंबर 2013

ईंट उठाने वाली मज़दूर बनी यूनिवर्सिटी टॉपर


गोल्ड मेडल पाकर  कहा, नौकरी मिल जायेगी न!

पदक पाकर मुन्नावती रो पड़ी   चित्र: रमीज़ जावेद




शहरोज़
 @  मुन्नावती


बरसों रेजा मजदूरी करते बचपन से युवा होने तक जो सपना देखा था, उसके साकार होने में मात्र कुछ ही घंटे बचे थे। मन में अजब हलचल थी  कि आज मुझे ईंटें नहीं उठानी, बल्कि सोने का तमगा गले में पहनना है। मुझे यह पदक कोई और नहीं देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे स्वयं देंगे। आखिर क्यों नहीं? मैंने संस्कृत में यूनिवर्सिटी जो टॉप किया है। सूरज बाबा ने चहुं ओर अंजोर कर दिया है। सोमवार को दिन के 10 बजे हैं। मैं छोटे भैया हरख  के साथ रांची विवि पहुंची, तो अवाक् रह गई। सड़क की दोनों ओर गाडिय़ों का काफिला। फूल सी चहकती छात्राएं। छात्रों के झुंड का तेज भी जुदा-जुदा सा। दीक्षांत मंडप पहुंचते-पहुंचते मुझे गांव के आसपास लगने वाले मेले याद आने लगे। उस मेले में जाने का अवसर भी भला कहां नसीब हो पाता था। दिन-भर हाथ-गोड़ तोड़ू श्रम करने के बाद शाम को थकी-मांदी अपने गांव दोलैंचया पहुंचती थी। फिर रसोई निबटाकर पढऩे बैठ जाती। गालों पर लुढक आए आंसूओं को पोंछते मैंने मंडप में प्रवेश किया। काले-लाल गाउन में दमकती हमउम्र लड़कियों को पास देख खुशी दोहरी हुई। साथ ही ज्योतिमर्य डुंगडुंग, कुमारी अनुपमा, गुफराना फिरदौस, शमा परवीन, नुपुर , शहनवाज को करीब पाकर दिल ने जोर से कहा, जय हिंद!  हरख भैया मुझे बैठाकर इधर-उधर टहलने लगे। उनकी आंखें की पलकें भी उचक-उचक कर यहां उतर आए खुशरंग व खुशपल को निहारने लगीं। सीट पर बैठते ही पत्रकारों ने घेर लिया। हर कोई मेरी गरीबी को जानना चाहता है। लेकिन मैं हरेक से अपनी गरीबी दूर करने की विनती करती हूं। मुझे अब नौकरी मिल जाएगी न?

मेरे ठीक सामने बड़ा सा मंच है। लग रहा है कि लापुंग का खेल मैदान हो। मंच पर सजे रंगबिरंगे फूल मुझे गांव के फुटबाल(गेंदा)फूल का स्मरण कराते हैं। मंडप में भीड़ है। खुशियों का मेला है। इससे पहले इतनी भीड़ अपने गांव से चार-पांच किमी दूर डुरू जतरा में देखी थी। अचानक घोषण होती है कि अब शोभायात्रा आएगी। समय 11 बजे का है। मखमली गाउन में गुरुओं व अतिथियों का झुंड। मार्च की अगुवाई कर रहे हैं, रजिस्ट्रार डॉ. अमर कुमार चौधरी। उनके साथ राज्यपाल डॉ. सैयद अहमद, केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव, वीसी व प्रोवीसी, डीन, सिंडीकेट, सीनेट। उनके मंचासीन होने के बाद ही राष्ट्रगान के लिए सभी खड़े हो गए। समवेत स्वर में जन  गण मन से गाते ही रोम-रोम सिहर गया। उसके बाद जय-जय गुरुकुल जय रांची विवि के कुलगीत ने स्वाभिमान की ऊर्जा भर दी।

रजिस्ट्रार साहब के भाषण के बाद अतिथियों को सम्मानित किया गया। कुलपति ने अंग्रेजी में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। उसके बाद गोल्ड मेडल पाने वाले छात्र-छात्राओं को सामने आने को कहा गया। मेरी धड़कनें धौकनी की तरह चलने लगीं। मंच की  बायीं ओर  हम सभी करीब लगगभ 29 विद्यार्थी पंक्तिबद्ध खड़े हो गए। इनमें 19 लड़कियां थीं। सबसे पहले मंच से संजय कुमार के नाम की घोषणा होते ही तालियों ने शोर का संग दिया। आठवें क्रम में मेरा नाम पुकारा गया। साहस बटोरते हुए मैं मंच पर पहुंची। केंद्रीय मंत्री के हाथों गोल्ड मेडल व प्रमाण पत्र पाते ही लगा कि मैं घोल जीत गई। बचपन में जतरा में अक्सर मैं घोल में हार जाती थी। मंच से उतरते ही दोनों भैया  हरख व गोवद्र्धन साहू का चरण छुआ। मेरी मजदूरी के साथ इनकी मेहनत व साथ के बल पर ही तो मेरे गले मे यह सोने का तमगा चमका है। पदक वितरण के बाद अतिथियों ने भाषण दिया। शिंदे जी की बात ने बहुत प्रेरित किया। उन्होंने भी अभाव को अपनी मेहनत व ईमानदारी से परास्त किया है। पदक को भैया बार-बार छू कर देखने लगे। मैंने किसी से पूछा, भैया यह सोना ही है ना या कि केवल पानी चढ़ा  हुआ है। यहां से मैं विभाग जाउंगी  गुरुओं का आशीष लेने। अस्पताल जाकर बीमार मां की चरणधूलि से माथे पर टीका लगाउंगी। बाबा देवीदयाल होते, तो किता खुश होते। तब इन आंखों का बादल सिर्फ हर्ष का ही होता।

भास्कर रांची के 26 नवंबर 2013 के अंक में प्रकाशित 

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शनिवार, 9 नवंबर 2013

शमा-ए-हरम हो, या दीया सोमनाथ का

       फोटो वसीम





छठ पर्व पर बिखरी  परस्पर प्रेम की खुश्बू   साफसफाई, सजावट सहित फल वितरण  में मुस्लिम  रहे अव्वल











सूर्य उपासना के महापर्व छठ के अवसर पर राजधानी के लेक रोड का दृश्य उर्दू शायर मीर के इस शेर को जीवंत करता है:
 उसके फरोगे हुस्न से झमके है सबमें नूर
शमा-ए-हरम हो, या दीया सोमनाथ का।

 संजय सोनी उर्दू लाइब्रेरी के सामने तोरण द्वार बनाने में लगे हैं। नीचे खड़े मो. मोइन जब उन्हें बल्ब की रंगबिरंगी लरियां हाथों से पकड़ाते हैं, तो दोनों की परस्पर मिलीं आंखों में उतरा सद्भाव का स्नेहिल उबाल देश की गंगा-यमुनी संस्कृति को मटियामेट करने की सारी साजिशों को बहा ले जाता है। संजय, मुन्ना जमाल, रवि और रब्बानी जैसे ढेरों युवा गुरुवार को लेक रोड को सजाने व संवारने में लगे रहे। संजय कहते हैं कि बिना मोईन के मैं छठ की कल्पना भी नहीं कर सकता। पास खड़ी उनकी मां की नजर दोनों पर ममत्व बरसाती रहीं। दरअसल वातावरण में ही छठ मइया की ममता झिलमिल है।

राइन स्कूल के पास नवशाही संघ सद्भावना समिति एक मंच बना रही है। यहां से व्रतियों का स्वागत किया जाएगा। वहीं राइन पंचायत की ओर से फल व अगरबती का वितरण होगा। पंचायत के सदर मो. एनामुल कहते हैं कि लेक रोड रांची का यह सबसे पुराना छठ तालाब का मार्ग है। बरसों से ही इसकी साफ-सफाई हिंदू-मुस्लिम मिलकर करते रहे हैं। समाजिक कार्यकर्ता हुसैन कच्छी की दृष्टि में यह देश का पहला पर्व है, जिसमें साफ-सफाई और शुद्धता का ध्यान रखा जाता है। इसमें महिलाओं की भागीदारी अधिक रहती है, इसलिए उन्हें विश्वास है कि इस पर्व की पाकीजगी हमेशा बरकरार रहेगी।

छता मस्जिद के पास मिले रब्बानी फूल की व्यवस्था में लगे हैं। कहते हैं कि व्रतियों की सुरक्षा व उनका सम्मान करना उनका धर्म है। हमलोग सड़क की सफाई के बाद इसे पूरी तरह धोते हैं, ताकि शुद्धता बनी रहे। वहीं व्रतियों की सुरक्षा व्यवस्था में भी सभी कार्यकर्ता तैनात रहते हैं। इधर लेक रोड से लगी हिंदपीढ़ी सेंकेंड स्ट्रीट के मुर्शिद अय्यूब और अनवर भी दिनभर गली की सफाई में लगे रहे। मो. मोईन के बकौल वे सार्वजनिक चंदी नहीं लेते। सभी दोस्त आपसी सहयोग से सब करते हैं। चाहे लाउडस्पीकर लगाना हो, या फूलों का स्वागत द्वार। छठ मार्ग के दोनों ओर सजी रंग बिरंगियां रोशनियां देश के परंपरागत सद्भाव को जगमग करती हैं। वहीं फूलों से उठती खुश्बू इस बात की परिचायक हैं कि देश की राजधानी दिल्ली की तरह हमारे राज्य की राजधानी रांची में भी फूलों की सैर होती है। ऐसी सैर जिसमें तुलसी, कबीर, बुल्लेशाह, रहीम और रसखान की आत्माएं गलबहियां करती हैं।

दैनिक भास्कर के 8 नवंबर 2013 के अंक में प्रकाशित


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गुजरात नरसंहार के बहाने


हिंसा  के तर्क और तर्कों की हिंसा: एक आलोचनात्मक  प्रयास
   
















 हिलाल अहमद  की क़लम से

हिंसा, विशेषकर ' सामूहिक हिंसा’ को समझने के दो संभव तरीके हो सकते हैं। पहला तरीका घटनाओं और व्यक्तियों के सिलसिलेवार ब्यौरों को केंद्र मे रख कर पर ‘हिंसा कैसे हुई?’  जैसा सवाल ज्यादा उठता है. विश्लेषण का यह नजरिया घटना के वर्णन पर ज्यादा जोर देता है और परिणामस्वरुप घटनाओं की गतिशीलता में व्यक्तियों और समूहों के द्वारा किये गए ‘अमल’ हिंसा को परिभाषित करने के स्रोत्र बन जाते हैं। आमतौर पर साम्प्रदायिक दंगों पर लिखी जाने वाली रिपोर्ट्स ‘हिंसा’ को इसी स्तर पर परिभाषित करती है।

परन्तु ‘हिंसा’ को एक अलग तरीके से भी समझा जा सकता है। यह तरीका प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष है। ‘हिंसा’ के विचार को केन्द्र में रखकर एक घटना विशेष के संबंध में दिए गए विभिन्न तर्कों का विश्लेषण हमें इस तथ्य से परिचित करा सकता है कि क्यों एक ही घटना एक समूह के लिए ‘हिंसा’ हो सकती है और दूसरे समूह के लिए ‘संघर्ष’? हिंसा के विश्लेषण का यह तरीका ‘तर्को’, ‘आस्थाओं’ और विचारों के उस विमर्श से संबंधित है जिसे कुछ वर्षों पूर्व तक समाज विज्ञान की दुनिया में ‘विचारधारा’ कहा जाता था।
प्रस्तुत लेख ‘हिंसा’ के वैचारिक क्षेत्र की चर्चा पर केन्द्रित है। मेरा उद्देश्य ‘हिंसा’ के विचार को समस्याप्रद बनाकर उन तर्कों की खोज करना है, जिनके द्वारा ‘हिंसा’ को या तो न्यायोचीत करार दिया जाता है या फिर अमानवीय बताकर नैतिकता के विमर्श में बदल दिया जाता है। इस तरह की वैचारिक कोशिश, मेरा मत है, हमें हिंसा और प्रति हिंसा के विमर्श की जटिलताओं को समझने मे सहायक सिद्ध हो सकती है.
‘हिंसा’ का विचार सभ्य कहे जाने के वाले समाज से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। ऐसे में हिंसा को नकारात्मक बताने से पहले जरुरी  है कि उन ‘सभ्य’ कही जाने वाली सामाजिक संरचनाओं की परख की जाए, जिन के बीच ‘हिंसा’ का विचार निर्मित होता है। दूसरे शब्दों में, किसी भी हिंसक घटना की समग्रता को समझने के लिए जरुरी है कि हिंसा करने वाले और हिंसा का शिकार व्यक्ति/समूहों के वैचारिक स्तरों को उन के अपने तर्कों के दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की जाए। हिंसा के इन्हीं अस्पष्ट से दिखने वाले पक्षों की पहचान करने के लिए मैं दो उदाहरणों से लेख के व्यापक उद्देश्य को स्पष्ट करने की कोशिश करुंगा।

पहला उदाहरण 2002 के गुजरात दंगों से है। मैं एक घटना विशेष की वैकल्पिक समझ से इस बात की जांच करने का प्रयास करुंगा कि हिंसा करने वाला समूह किन संभव तर्कों और वैचारिक आस्थाओं का सहारा लेता है. यहां यह स्पष्ट कर देना जरुरी है कि घटना की यह समझ अत्यंत व्यक्तिगत हैं। मैं केवल ‘संभावनाओं’ के जरिये हिंसक समूह को समझने की कोशिश कर रहा हूं। वास्तव मे समूह ने ऐसा सोचा होगा या नहीं, मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता। समूह का व्यवहार मेरे लिए एक ऐसा स्रोत है जिसके जरिये इस घटना के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीकों को चिन्हित किया जा सकता है।

मेरा दूसरा उदाहरण पिछले तीन दशकों से चल रहे बाबरी मस्जिद-राममंदिर विवाद से है। मैं बाबरी मस्जिद की ऐतिहासिकता और राम मंदिर की आस्था जैसे कभी हल न किये जाने वाले प्रश्नों के जाल में नहीं उलझना चाहता। मेरा मकसद है उन तर्कों को जानना जिनके जरिये राममंदिर की राजनीति को अमल में लाया गया। विषय को केन्द्रित करने के लिए मैं गुजरात के उदाहरण की विस्तार से चर्चा करुंगा, विशेषकर राम मंदिर आन्दोलन के सम्बन्ध मे. यह चर्चा न केवल गुजरात मे पनपे प्रयोगात्मक हिंदुत्व कही जाने वाली राजनितिक विशेषताओ को स्पष्ट करने मे मदद कर सकती है बल्कि इस विश्लेषण के माध्यम से हम हिंदुत्व राजनीती के विभिन्न आयामों, प्रकारों और विविधताओ को भी उजागर कर करके यह साबित कर सकते है कि दक्षिण पंथी हिंदुत्व अपने आप मे एक जटिल राजनितिक और वैचारिक परिघटना का नाम है.    

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हाल के कुछ वर्षो मे साम्प्रदाकिता की तथाकथित सेकुलर आलोचना मे काफी बदलाव आया है. एक समय था जब हमें यह बताया जाता था कि साम्प्रदायिकता वर्ग संघर्ष का दूसरा नाम है. हिन्दू इलीट  और मुस्लिम इलीट के हित समान है, इसलिए दोनों इलीट सम्प्रदियाकता का राजनीती खेल-खेल कर आम हिन्दू और मुसलमान को एक दुसरे से लड़ने के लिए प्रेरित करते है.

यह सेकुलर जवाब, कई मायनों मे, अब एक अन्य सेकुलर तर्क मे बदल गया है. अब मुस्लिम इलीट आलोचना के घेरे से बाहर है. हमें बताया जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय एक वर्ग के तौर पर पिछड़ा है, कमज़ोर है, लचर है. इसलिए उसका संपन्न कहे जाने वाला तबका भी पिछड़ा है और हिंदुत्व जैसी राजनितिक ताकत का सामना करने मे असमर्थ है. इसलिए मुस्लिम पिछड़ापन और सांप्रदायिक हिंसा को जोड़ना ज़रूरी है ताकि हिन्दू साम्प्रदायिकता का समग्र विरोध हो सके. सच्चर कमीशन रिपोर्ट आने के बाद से इस तरह का सेकुलरवाद मजबूत होता सा दीखता है.  

मेरा मत है कि ये दोनों ही सेकुलर तर्क सतही है. ये तर्क समुदायों को कभी न बदलने वाली संरचना मान कर राजनीतिक तौर पर सही  होने के पूर्वाग्रहों ग्ह्रासित है. येही कारण है कि धार्मिक साम्प्रदायिकता की बात करते समय, विशेष कर गुजरात के संबंध में, मुसलमानों की बदलती सामाजिक-आर्थिक स्थिति को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. यह मान लिया जाता है मुस्लिम समाज स्थिर है और उसकी धार्मिकता अपरिवर्तनशील.     

इस तरह के प्रचलित और स्थापित सेकुलर जवाबों से आगे जाने के लिए ज़रूरी है कि हम सामाजिक बदलावों को हिंसा के विमर्श की परिधि में लायें. ऐसा विश्लेषण हमें मुस्लिम पिछड़ापन और साम्प्रदायिकता के जटिल संबधों को दिखा सकेगा. साथ ही तब शायद हम यह भी समझ सके क़ि किन कारणों से २००२ के दंगो मे मुस्लिम संपन्न वर्ग भी हिंसा का शिकार बना.      

इस लेख मे मैं गुजरात के मुसलमानों की बदलती सामाजिक आर्थिक-स्थिति और इस्लामी आस्थाओं के भावनात्मक एवं छवि-उन्मुख आयामों को उजागर करने का प्रयास करुंगा। मेरा मत है कि इस तरह गुजरात के मुसलमानों की स्थापित छवि का विश्लेषण हो सकेगा और हिंदुत्व के तर्कों को एक खास संधर्भ मे समझने मे सहूलियत होगी. 

मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरा मूल उद्देश्य उस ‘हिंदुत्व आक्रोश’ को समझने का है जिसे भाजपा और विहिप ने २००२ मे प्रतिहिंसा, प्रतिक्रिया और स्वाभाविक रिएक्शन कहकर ज़ायज़ ठहराया था।  मेरा प्रयास भी हिंदुत्व राजनीति  की आलोचना खड़ी करना है पर मेरी कोशिश  ‘राजनीतिक तौर पर सही’ होने के पूर्वाग्रहों से बचने  की  है. इसलिए में इस प्रयास को सेकुलर बनाम सांप्रदायिक  फ्रेमवर्क  से बाहर रखना चाहता हूँ.  

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One woman, Kauser Bano, who was nine-months pregnant, had her belly cut open and her foetus wrenched out, then swung on the edge of a sword before being dashed to the ground and flung into the fire.
(Concerned Citizens Tribunal - Gujarat 2002. An inquiry into the carnage in Gujarat)

 

आइये एक ‘रोचक’ परन्तु अत्यंत अमानवीय उदाहरण से इस बात की शुरुआत करें। 2002 के गुजरात दंगों में एक घटना विशेष रूप से चर्चा में आई। बड़ौदा के पास की एक मुस्लिम बस्ती में हिंदू दंगाइयों ने एक गर्भवती महिला का सामूहिक बलात्कार किया। परन्तु हिंसा की यह प्रक्रिया महज़ बलात्कार तक ही नहीं रुकी, दंगाइयों ने चाकू से गर्भवती महिला के पेट को चीरा और उसके अजन्मे गर्भ को बाहर निकाल लिया। इसी दौरान बस्ती में आग लगा दी गई। दंगाइयों ने महिला और तब तक मर चुके शिशु को भाले की नोक पर रखकर जलती आग में फेंक दिया।

यह घटना अत्यंत निदंनीय है। न केवल इसलिए कि इस पूरे प्रकरण में यौन हिंसा और हत्या जैसे घृणित कृत्य बिल्कुल अलग तरीके से अंजाम दिये गए बल्कि इसलिए भी कि इस घटना ने सामाजिक सरोकारों के अत्यंत संवेदनशील पक्ष मातृत्व और जन्म को पूरी तरह रौंद दिया।

जैसा कि होना ही था - घटना के बाद बहुत से फैक्ट-फाइंडिंग दलों और मानवाधिकार संगठनों ने इस बस्ती का दौरा किसा और तथ्यों, साक्ष्यों और जिन्दा बचे लोगों की स्मृतियों के आधार पर घटना को दोबारा जिंदा कर दिया। इस हादसे को कई नाम दिये गए - हिंदु फासीवादी, सेक्यूलरवाद का अंत, साम्प्रदायिकता की पुरुष प्रधानता आदि।

ये तर्क यक़ीनी तौर पर महत्वपूर्ण थे और हैं। हमें मानवाधिकार संगठनों का शुक्रगुज़ार होना चाहिये कि उन्होंने दंगों के शिकार लोगों के दर्द को एक राष्ट्ीय प्रश्न में बदल दिया। परन्तु ‘भर्त्सना के इस विमर्श’ में कई ऐसे मुद्दे नजरअंदाज होते चले गए जो हिंसा के अन्य संभव पक्षों से हमें परिचित करा सकते थे।मेरा मानना है कि अगर हम इस घटना को एक सामाजिक परिघटना के तौर पर लेकर विश्लेषण की परिधि में लाने की कोशिश करें तो कई नयी तरह के सवालों को उठाया जा सकता है।

आइये हिंसक समूह को केन्द्र में रखकर इस घटना को पुनः पढ़े। सोचिये कि एक समूह यह फैसला करता है कि उसे एक बस्ती को जलाना है, समूह के सदस्य हथियार इकट्ठे करते हैं, उन्हें धारदार बनाने की कवायद करते हैं और फिर समय निश्चित होता है। सभी सदस्य हथियारों से लैस होकर बस्ती पहुंचते हैं। बस्ती को घेरा जाता है और वह महिला जोकि गर्भवती है दंगाइयों की नजर में आती है।

यहां से कहानी एक दूसरा रुख ले लेती है। महिला के साथ सामूहिक तौर पर बलात्कार होता है। पर कैसे? बलात्कार करने के लिए दोनों पक्षों (महिला और समूह) का निर्वस्त्र होना लाज़िमी है। महिला को निर्वस्त्र करना आसान है क्योंकि समूह महिला से ज्यादा शक्तिशाली है। परन्तु समूह के सदस्यों को तो स्वयं ही अपने कपड़े या कुछ विशेष कपड़े उतारने होंगे ताकि इस कृत्य को अंजाम दिया जा सके। समूह के सदस्य सामूहिक तौर पर अपने शरीर के सबसे निजि कहे जाने वाले अंगों को सार्वजनिक करते हैं। ऐसा करते समय वे न केवल शिकार महिला के आत्मसम्मान पर हमला करते हैं बल्कि समूह के सदस्य होने के नाते अपने व्यक्तिगत आत्मसम्मान को भी खो देते हैं।

बलात्कार जैसी घटनाओं का अपना एक मनोविज्ञान है। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि बलात्कार का संबंध यौन-सुख से है। परन्तु यह एक सतही जवाब है क्योंकि यौन-सुख का अर्थ दोनों पक्षों की भागीदारी से जुड़ा है। इसके बरअक्स बलात्कार एक ऐसी मानसिकता है जिसमें पारस्पारिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। सामूहिक बलात्कार इस मानसिकता का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है।

परन्तु यह घटना बलात्कार और सामूहिक बलात्कार कही जाने वाली हिंसक वारदातों से थोड़ा भिन्न है। यहां व्यक्तिगत या सामूहिक यौन-तृप्ति का अर्थ केवल स्त्री-पुरुष दैहिकता के विमर्श से नहीं जुड़ा है। महिला का शरीर न केवल नारी देह है बल्कि उसका एक प्रतीकात्मक मूल्य भी है। इस प्रतीकात्मकता के चलते इस शरीर का यौन-उत्पीड़न न केवल महिला को आहत कर सकता है बल्कि उस महिला के परिवार, उसकी बस्ती, उसका समुदाय और यहां तक कि उसके धर्म को भी हिंसा की लपेट में लाया जा सकता है। हिंसक समूह इस तथ्य से परिचित है और शायद यही कारण है कि इस कृत्य को अंजाम देने के लिए, समूह के सदस्य सार्वजनिक तौर पर नंगे होने से भी गुरेज़ नहीं करते।

इस प्रक्रिया का नया अध्याय तब शुरू होता है, जब समूह महिला का पेट चीरता है। पेट चीरता और चाकू से हत्या करना दो अलग-अलग बातें हैं। चाकू से हत्या करते समय शरीर के आन्तरिक अंगों को नहीं देखा जाता। चाकू से सिर्फ नाजु़क जिस्मानी हिस्सों को गोदा जाता है जोकि अपेक्षाकृत आसान है। परन्तु एक जिंदा महिला के पेट चीरने का अर्थ है खून का एक फौव्वारा जो वार करने वाले के पूरे शरीर, चेहरे और हाथों को खून से रंग सकता है। खून, और विशेषकर इंसानी खून, की दुर्गंध अत्यंत असहनीय होती है। समूह इसे बर्दाश्त करता है और फिर गर्भ को निकाला जाता है।

गर्भ का निकालना कोई आसान काम नहीं है। चिकित्सा विज्ञान के लोग यह जानते हैं कि गर्भ शरीर में मौजूद द्रवो, अवयवों और अंगों के बीच मौजूद एक संरचना का नाम है। जिस समय गर्भ को शरीर से निकाला जाता है, तब सिर्फ खून नहीं निकलता। कई अन्य द्रव्य और रसायन भी निकलते हैं, जिनकी गंध रक्त की गंध से कहीं ज्यादा असहनीय होती है।

परन्तु हमारा हिंसक समूह चिकित्सक नहीं है। उसका काम महिला और शिशु को बचाना नहीं है। उसे तो इन दोनों की हत्या करनी है। तो क्या हिंसक समूह के रवैये को कसाई का रवैया कहना चाहिए?

जो लोग कसाईखाना से परिचित हैं, वे जानते हैं कि भैंस, बकरी और यहां तक की मुर्गी को मारना कितना मुश्किल काम है. भैंस और बकरी को काटने के लिए रस्सी का इस्तेमाल होता है, कई लोग भैंस/बकरी के पांव पकड़ते हैं और फिर एक व्यक्ति छुरी से गर्दन की मूल रक्तवाहिनी को काटता है, ताकि जानवर तड़पे नहीं और जल्द ‘‘ठंडा’ हो जाए। उसके बाद उसके शरीर के अंगों को अलग किया जाता है। इस बात पर विशेष ध्यान रखा जाता है कि उसके अमाशय पर कोई काट न लगे क्योंकि अमाशय के फटने से कई अवांछनीय द्रव्य निकल सकते हैं।

हमारे हिंसक समूह का काम भैंस/बकरी काटने से ज्यादा मेहनत का है। उसे गर्भ को निकालना है, जिस प्रक्रिया में यह संभव है कि शिकार महिला का अमाश्य और आंते दोनों पर काट लग जाए। समूह इस बात की भी परवाह नहीं करता। उसके लिए रक्त, पीप, अमाश्य से निकलने वाला अपच मल आंते सभी कुछ ‘सामान्य’ बन जाता है। इस तरह समूह, कसाई की श्रेणी से निकलकर दरिन्दें की श्रेणी में आ जाता है जिसका मकसद महज़ गोश्त काटना है और खून से खेलना है। अंततः समूह पेट चीर ही लेता है और शिशु को बाहर निकालने में उसे कामयाबी हासिल होती है।

घटना का अगला हिस्सा आगजनी का है। आमतौर पर बस्तियों में आग लगाने जैसी कार्रवाई में आग लगाने वाले समूह वहां रुकते नहीं है। इसके दो संभव कारण हैं - पकड़े जाने का डर एवं आग जैसी अनियंत्रित चीज़ की लपटों से बचने की चेष्टा। पर हमारा यह समूह ऐसा नहीं करता। चाकू और तलवारों से लोगों को मारता है, घायल करता है, बलात्कार करता है और फिर आग लगा दी जाती है। आग लगाना व्यावहारिक भी और प्रतीकात्मक भी। व्यावहारिक तौर पर आग में झुलसी बस्ती और आहत लाशें हिंसा के सारे प्रमाण मिटा देती हैं। व्यापक अर्थों में कहें तो आग लगाकर न केवल हिंसक अमल को मिटाया जाता है बल्कि हिंसा के शिकार व्यक्ति/समूहों का सम्पूर्ण अस्तित्व समाप्त कर दिया जाता है।
 ‘अस्तित्व का अंत’ वास्तव में एक प्रतीकात्मक कृत्य है। इसके दो संभव पहलू हैं। एक अर्थ में यह धार्मिक कुठाराघात से जुड़ा है जिसका निशाना इस्लामिक विश्वास हैं. उल्लेखनीय है कि इस्लामिक दर्शन मुर्दा जिस्म को अत्यतं सवेदनशील वस्तु (ऑब्जेक्ट) मानता है. इसी कारण मृत शरीर को अंतिम संस्कार के लिए बेहद सावधानी से तैयार किया जाता है. यहां तक कि कफन भी इस तरह सिला जाता है, ताकि मृत शरीर के हाथ, गर्दन और पैर दफन की प्रक्रिया में हिल-डुल न सकें। साथ ही साथ इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि मृत शरीर पर किसी भी तरह का दबाव न डाला जाए।

कब्र का विचार भी यहाँ महत्वपूर्ण है. इस्लामिक दर्शन कब्र को कयामत से पहले का ठिकाना करार देता है. इसीलिए जो लोग अच्छे अमल करके मरते है उनके लिए कब्र एक रेस्ट-हाउस बन जाती है और जो लोग गुनाहगार होते है उनके लिए सजा देने का मुकाम. इस्लामिक दर्शन मे सजा देने का अर्थ आग मे जलने से है. कुरान मे जहन्नुम का जो तफसीर दिया गया है उसमे आग मे झुलसना सबे बड़ी सजाओं के मे से एक है. इस तरह मुस्लिम अस्तिव के लिए आग के व्यापक धार्मिक अर्थ मौजूद है.     

इस घटना में मौजूद हिंसक समूह इन तथ्यों से परिचित लगता है। वे न केवल मुर्दा मुसलमानों के शरीरों को आग में डाल देते हैं, बल्कि जिं़दा और अधमरे मुसलमान भी जला दिये जाते हैं। इस तरह इस्लामी दफन प्रक्रिया का एक आक्रामक हिंदुकरण किया जाता है और मुसलमानों को एक ऐसी मौत दी जाती है जो जहनुम से ज्यादा इबरतनाक हो सके.   

आगजनी का दूसरा प्रतीकात्मक पक्ष अजन्मे गर्भ को जलाने से जुड़ा है। महिला का बलात्कार और शिशु की हत्या का एक व्यापक अर्थ भी है। वास्तव में दंगाई ‘इतिहास’ और ‘भविष्य’ जैसे विचारों को अमली जामा पहनाते दिखते हैं। बच्चे का शरीर, मां के शरीर की तरह ही एक प्रतीक बन जाता है। परन्तु यह प्रतीक मुसलमानों के ‘आज’ के संदर्भ से परिभाषित होता नहीं दिखता। हिंसक समूह बच्चे के शरीर को मुसलमानों की आने वाली पीढ़ी के तौर पर परिभाषित करता दिखता है। इसीलिए उसे न सिर्फ पैदा होने से रोका जाता है, बल्कि उसे पैदा होने से पहले ही ‘जला’ दिया जाता है।

मैं इस घटना के प्रतीकात्मक पाठ को एक आलोचना से समाप्त करना चाहता हूँ. यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त विवरण Concerned Citizens' Tribunal Report (2002) का एक अतथ्यपूर्ण और काल्पनिक बयान है, जिसे शब्दों की खिलवाड़ मात्र ही कहा जाना चाहिए। यह आलोचना कुछ हद तक सही भी है। घटना को पेश करने का यह तरीका विवादास्पद कहा जा सकता है और कुछ हद तक काल्पनिक भी.

परन्तु यहाँ सामाजिक घटनाओ, विशेषकर हिंसक घटनाओ को समझने की वय्कापिक पदति का सवाल भी निहित है. सामूहिक हिंसा पर माजूद साहित्य बताता है की घटनाओं के विवरण करने का तरीका घटनाओं को पुनः जिंदा होने का मौका देता है। ऐसे मे हमारे शब्द भंडार ऐसे माध्यम बन जाते है जिनसे  सामाजिक सरोकारों की कहानियों को रचा जाता है. घटनाओं के विवरण भी ऐसी ही कहानियों का नाम है। यही कारण है कि ‘तथ्य’ और ‘प्रमाण’ जैसे कारक विवरण करने की विशुद्ध गति के लिए महज़ एक वैचारिक धक्के से अधिक नहीं होते। जो लोग प्रमाणिक होने का दावा करते हैं वे भी ‘तर्कों’ और ‘तथ्यों’ को अपने विवरण के अनुसार चुनते हैं, समायोजित करते हैं और अंत में एक ‘प्रमाणिक’ कहानी को रचते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हर प्रमाण, एक कहानी है और हर प्रस्तुति एक निरुपण।

इसलिए मैं इस आलोचना से सहमत होते हुए भी यह तर्क देना चाहता हूं कि इस घटना की वैकल्पिक समझ के लिए यह जरुरी है कि वीभत्स ही सही, ऐसा कुछ जरुर सोचा-लिखा जाए जिससे हम हिंसा जैसे विचारों की समग्रता और विविधता को महसूस कर सकें।

परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि घटना को केवल अपने ‘विवरण’ और अपनी ‘समझ’ कह कर उत्तर आधुनिक होने के फै़शन में खो जाया जाए। मेरा मत है कि ऐसी तामम घटनाओं को हिंसा करने वाले समूह के दृष्टिकोण से समझना ज़्यादा ज़रुरी है। जिसके लिए सामाजिक मानवशास्त्र के अध्ययन में इस्तेमाल होने वाली पद्धतियां, इंटरव्यू और समूहचर्चा का इस्तेमाल हो सकता है। क्योंकि गुजरात 2002 के दंगों पर ऐसा कोई काम नहीं है इसलिए हमें दंगों के शिकार लोगों के विवरणों को ही स्रोत मानना होगा।

मेरा उद्देश्य यहां केवल घटना के वर्णन तक सीमित नहीं है। जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था कि घटना के विभिन्न पाठ हमें हिंसा के वैचारिक स्तर पर पहुंचने में मदद कर सकते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है इस घटना में ‘वैचारिक’ क्या था?

हमारा पिछला ब्यौरा हमें बताता है कि समूह के कृत्य आक्रोश से प्रेरित है। पर इस आक्रोश के पीछे कौन से विचार थे, तर्क थे जिनके आधार पर हिंसक समूह अपने को न्यायोचित मानता रहा? इस घटना को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर ही, मेरा मत है हम इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं।


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 2002 गुजरात के दंगे तीन मायनों में विशिष्ट कहे  जा सकते हैं। दंगों का निश्चित प्रभाव क्षेत्र इस दंगे की पहली विशिष्टता है। साम्प्रदायिक होने के बावजूद यह दंगे गुजरात में शुरु हुए और गुजरात में ही खत्म हो गए। इस दंगे ने किसी ‘धारा’ का रूप नहीं लिया। राज्य-तंत्र के सीधे हस्तक्षेप को इस दंगे के सीमित प्रभाव क्षेत्र का एक प्रमुख कारण बताया जाता रहा है। मेरा मानना है कि यह तर्क काफी हद तक सही भी है। मोदी के नेतृत्व में राज्य सरकार ने दंगे को तकरीबन एक तरफ़ा कर दिया था. हिंसा के कारणों के निर्माण से लेकर हिंसा अंजाम देने और फिर शिकार समुदाय को अन्य अप्रत्यक्ष तरीको से प्रताड़ित करने तक राज्य सरकार की भूमिका संधिग्ध बनी रही. ऐसे मे इस हिंसा को प्रायोजित हिंसा कहा जाना चाहिए. 

असग़र अली इंजिनियर का शोध बताता है कि आजाद भारत मे हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास को तीन हिस्सों मे रख कर देखा जा सकता है: (अ) 1950 से 1986 तक के दंगे, जब  समुदायों के स्थानीय द्वंद हिंसा को धारावाहिक बनाते रहे;

(ब) 1986 के बाद बाबरी मस्जिद दंगे मे जब साम्प्रदायिकता को एक मूर्त रूप मिल गया. इस दौर मे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की हर लड़ाई ‘सभ्यताओं’ की लड़ाई में बदल दी गई, जिसका निर्णय राम-मंदिर और बाबरी मस्जिद के अस्तित्व पर टिक गया।

(स) 1993  के बाद के दंगे जब अयोध्या विवाद सिर्फ एक संधर्भ बिंदु बन कर रह गया.

गुजरात दंगे इस तीसरी श्रेणी मे आते है. वास्तव मे यह बिंदु हमें इस दंगे की दूसरी विशिष्टता से परिचित कराता है। हमें याद रखना चाहिए मे 2002 के दंगे मेगोधरा की घटना से भड़के। यह घटना सीधे तौर पर राम-मंदिर की मांग से जुड़ी हुई थी। जो कारसेवक मंदिर बनाने का संकल्प लेकर अयोध्या गए थे, वे गुजरात वापस लौट रहे थे। जब गाड़ी गोधरा  में रुकी तो उसमें आग लगा दी गई जिसके चलते डिब्बे में मौजूद सभी कारसेवक जल कर मर गए। हिंदुत्ववादी संगठनों का दावा था कि कारसेवकों को मुसलमानों ने मारा जबकि सेक्यूलरवादियों का तर्क था कि यह घटना एक तरह की साजिश थी ताकि मुसलमानों को निशाना बनाया जा सके। बहरहाल इस मुद्दे पर पहले से बहुत कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए मैं इस बहस से बचते हुए एक अन्य पहलू को उजागर करना चाहता हूं। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद से जुड़े होने के बावजूद गुजरात दंगा ‘राममंदिर आंदोलन’ नहीं माना गया। पर क्यों ? 

1990 की स्थिति की तुलना में 2002 के हालात भिन्न थे। भाजपा केन्द्र में एनडीए गठबंधन चला रही थी जिसके कई घटक राम मंदिर आंदोलन जैसे साम्प्रदायिक मुद्दों के प्रबल विरोधी थे। ऐसे में राम मंदिर टाइप आन्दोलन एनडीए की स्थिरता के लिए राजनितिक संकट बन सकता था। दूसरी ओर अयोध्या विवाद का चरित्र भी बदल चुका था। अयोध्या में व्यावहारिक तौर पर बाबरी मस्जिद के स्थान पर राममंदिर अस्तित्व में आ चुका था।  मंदिर बनाने की मांग का अर्थ सिर्फ और सिर्फ ‘भव्य मंदिर’ बनाने से था, न कि मस्जिद ढहाने से। ऐसे में ‘गोधरा की घटना’ महज़ हिंसा-प्रतिहिंसा ही बन कर रह गई और उसका कोई व्यापक ‘रामकरण’ नहीं हुआ।

अगर दंगे के बाद हुई घटना-प्रकिया पर नजर डाले तो ऐसा लगता है कि दंगा पूरी तरह से ‘हिंसा और उसके विरोध’ पर केन्द्रित रहा। यही कारण था कि कुछ ही सालों में ‘विकास’ गुजरात की राजनीती का नया विमर्श बन गया. यहां तक कि कुछ मुस्लिम संगठनों ने मोदी को समर्थन देना शुरू कर दिया। दंगे के विमर्श का विकास के विमर्श में बदलना और वह भी बिना किसी सत्ता परिवर्तन के इस दंगे की तीसरी विशेषता है।

लेकिन तब सवाल उठता है कि 2002 के इस दंगे की तीन विशेषताओं - सीमित प्रभाव क्षेत्र, दंगे का राम मंदिर आंदोलन में न परिवर्तित होना व दंगे के विमर्श का विकास के विमर्श में बदलना - का हिंसा और हिंसा के विचार से क्या संबंध है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें राममंदिर आंदोलन के तर्कों को समझने की कोशिश करनी होगी।

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मैं यहां यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि राम मंदिर बाबरी मस्जिद विवाद का नया इतिहास लिखने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरा उद्देश्य है, तर्कों की हिंसा का अध्ययन। इसके लिए ज़रुरी है कि हिंदुत्व और राम मंदिर के तर्कों को जोड़ कर देखा जाए। अयोध्या में राम मंदिर बनाने की मांग कभी एक सी नहीं रही। 1885 में राम मंदिर का अर्थ राम चबूतरा था; 1949 में जब मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया, तब मंदिर का अर्थ सम्पूर्ण मस्जिद क्षेत्र था; और 1992-93 में मंदिर का अर्थ २.77 एकड़ भूमि से था जो सरकार ने अधिग्रहित की थी. यही स्थिति तर्कों की भी रही। 1885 में राम चबूतरे  पर पक्का मंदिर बनाने के पीछे तर्क था पूजा आदि में आने वाले व्यवधान; 1949 की घटना के बाद तर्क था कब्जा की गयी मस्जिद में पूजा करने की आजादी; 1993 में तर्क था हिंदुओं की आस्थाएं!

इस तरह न तो राम मंदिर आंदोलन एक सा रहा न राम मंदिर के समर्थन में दिये जाने वाले तर्क। ऐसे में इन तर्कों के परिवर्तित होने की प्रक्रिया कुछ अवधारणात्मक बिंदुओं को उजागर करती है। जिसके ज़रिये हम ‘हिंदुत्व की राजनीति की संरचना को तोड़कर देख सकते हैं।

हिंदुत्व राजनीति के विमर्श की तीन परते है, जो एक व्यापक तर्क का निर्माण करती है. इस संरचना की सबसे आन्तरिक परत आस्था की है. 1990 में आडवाणी ने रथ यात्रा के दौरान दिये गए इंटरव्यू में कहा था -‘‘हिंदुओं की आस्था है कि वहां राम का जन्म हुआ है....क्या इसके लिए किसी प्रमाण की जरुरत है? क्या किसी ने ईसा मसीह से जन्म प्रमाणपत्र मांगा है जो भगवान राम से मांगा जाए’’?

यह तर्क केवल राजनीतिक भाषण नहीं है। यह बताता है कि ‘‘आस्था’’ का सशक्त होना कैसे अन्य तर्कों को बौना साबित कर देता है। तब ‘प्रमाण’ या साक्ष्य अनुपयोगी हो जाते हैं और ‘विश्वास’ स्वयं एक ऐसी अवधारणा का रूप ले लेता है जिससे सामाजिक-राजनीतिक सरोकार व्याख्यित किये जा सके।

परन्तु ‘‘आस्था’’ के तर्क की अपनी एक सीमा होती है. इस तर्क को राजनीतिक भाषा, विशेषकर आधुनिक चुनावी भाषा में बदलने के लिए ज़रुरी है, कि 'आस्था' को किसी अन्य तर्क से जोड़ कर प्रस्तुत किया जाय. यह संभावना हमें हिंदुत्व राजनितिक विमर्श की दूसरी परत की और ले जाती है, जो पूरी तरह इतिहास की एक विशेष समझ से सम्बंधित है.     

1980 के अंतिम वर्षो मे मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दू मंदिरों का विध्वंस, हिंदुत्व राजनीति का दूसरा सबसे शक्तिशाली तर्क बन गया. यूँ तो हिन्दू मंदिर विध्वंस औपनिवेशिक काल से ही हिन्दू मुस्लिम द्वन्द का एक विशेष मुद्दा रहा है, पर अयोध्या आन्दोलन के समय मे इस तर्क ने एक नया स्वरुप ले लिया. यह कहा जाने लगा कि  मुसलमानों  द्वारा तोड़े गए हिन्दू मंदिर एक ऐतिहासिक अन्याय का प्रतिक है. इस तर्क को मुखर करने के लिए कई पुस्तकें, कई उपन्यास, कहानियां और यहां तक की कविताएं भी लिखी गई।  प्रफुल गुदारिया की पुस्तक हिंदू मस्जिद और सीता राम गोयल द्वारा संपादित पुस्तक हिंदू मंदिरःव्हवाट हैपेन टू देम? इस तरह के लेखने के उदाहरण हैं।

हिंद्त्व विमर्श की संरचनाओं की सबसे बाहरी परत ‘‘न्याय’’ की थी. हिंदुत्व राजनीति ने कुछ विशिष्ट मुद्दे जैसे गौ रक्षा, विवाह कानून (हिन्दू कोड बिल विवाद) और राम मंदिर को हिंदुओं के साथ हो रहे अन्याय के तौर पर प्रस्तुत किया. यह दलील दी गई कि राम मंदिर की आज़ादी सामाजिक न्याय का प्रश्न है। अगर व्यापक अर्थो मे देखे तो न्याय की इस राजनीति ने बहुसंख्यकवाद  की राजनीति को एक नया आयाम दिया. राम मदिर की मांग हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने से नहीं जोड़ी गयी. अपितु हिन्दुओं को एक  राजनीतिक  समुदाय के तौर परिभाषित करने के लिए उनके साथ अनवरत चल रहे अन्याय का सहारा लिया गया. इस तरह हिन्दू समुदाय की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत की गयी जो पूर्णता एक प्रताड़ित और लाचार समूह की थी. 'गर्व से कहो हम हिन्दू है' जैसे नारे इस प्रस्तुति का अभिन अंग थे. शायद यही कारण था कि 1991  मे भाजपा का नारा था-- राम आस्था रोटी जीवन.    

‘आस्था’’ की अंदरूनी परत हिन्दुत्व की राजनीतिक मुहिम के लिए आम लोगो को प्रतिबद्ध बनाने का सबसे मजबूत आधार रहा है। उल्लेखनीय है कि  भाजपा जैसे संगठनों को राम के अस्तित्व और उनके जन्म की व्याख्याओं का सहारा नहीं लेना पड़ा। इसके बरअक्स आम धार्मिक हिंदू की मान्यताओं को निरुपित किया गया और परिणाम स्वरुप राम में आस्था रखने वाले राममंदिर में आस्था रखने लगे। भाजपा-विहिप ने इस आस्थावान समूह को ‘कारसेवक’ का नाम दे दिया।
परन्तु ‘‘आस्था’’ धर्म से जुड़ी थी और धर्म का विमर्श विशुद्ध कल्पना से नहीं चलता। इस कमी को पूरा करने के लिए ‘इस्लामी दमन’ की स्मृति को प्रचारित किया गया। ‘‘दमन की स्मृति और राम में आस्था’’ को न्याय-अन्याय के रूप में परिभाषित कर दिया गया और परिणामस्वरुप हिंदुओं के राजनीतिक ‘समुदाय’ बनने की प्रक्रिया शुरू हुई।

सवाल उठता है कि क्या आस्था, स्मृति और न्याय पर टिके इस हिंदुत्व तर्क का 2002 की उस घटना से कोई रिश्ता है जिसका वर्णन हमने लेख के प्रारम्भ में किया था? यह सवाल और भी ज़्यादा पेचीदा हो जाता है जब हम पाते हैं कि गुजरात का दंगा, न तो राम मंदिर आंदोलन को रूप ले सका और न ही इस दंगे ने हिंसा की किसी नई धारा को जन्म दिया?

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इस सवाल के दो संभव जवाब दिये जा सकते हैं। पहला जवाब सैद्धान्तिक है। हमारी चर्चा बताती है कि हिंदुत्व राजनीति के तर्क लगातार बदलते रहें। इन तर्कों के बदलाव को आमतौर पर नेताओं की साजिश और हिंदुत्व बुद्धिजीवियों के षडयंत्र के तौर पर देखा जाता है। विशेषकर सेक्यूलर कहे जाने वाले लोग तर्क देते हैं कि ‘राममंदिर’ की मिथ्या को हिंदू साम्प्रदायिकता ने गढ़ा है ताकि आम हिंदू की आस्थाओं का लाभ उठाया जा सके। यह जवाब काफी हद तक वाजिब लगता है। परन्तु अगर तर्क को सिर्फ नेताओं और बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया जाए तब उन बदलती परिस्थितियों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता जिनकी वजह से तर्क बदले और उनकी ‘लोकप्रियता’ बढ़ती चली गई। 

यहां ‘‘मीडिया’’ की भूमिका अहम है। मीडिया से मेरा अर्थ अखबार, टी.वी. चैनल और रेडियो से कुछ ज्यादा है। ‘‘मीडिया’’ मोटे तौर पर उन सभी ज़रियों का नाम है जिनके माध्यम से सूचना निरुपित होकर प्रसारित होती है। इस तरह न्यायालय, नेताओं के वक्तव्य और आम प्रचलित अफवाहें भी मीडिया कही जा सकती हैं।

सूचना का प्रसार हमें एक अलग तरह की वास्तविकता से परिचित कराता है। अखबार में छपी हिंसा की खबरें हमें किसी समुदाय-समूह विशेष की छवि बनाने में मदद करती हैं। ये छवियां महज़ खबर से नहीं बनती, बल्कि हमारे व्यक्तिगत अनुभवों, समाज में प्रचलित धारणाओं और पूर्वाग्रहों से निर्मित होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो छवियों का निर्माण और धारणाओं का विमर्श साथ-साथ चलते हैं। अखबार में छपी खबर, टी.वी. न्यूज में दिखाई गई बाइट आम-बातचीत में मौजूद प्रचलित मान्यताएं ;जो कभी मजाक के तौर पर आती हैं तो कभी गाली के तौर पर, एक खास तरह के सामाजिक सरोकारों का निर्माण करती हैं। ऐसे में यदि कोई घटना ‘विशेष’ इस तरह के सरोकारों की एक व्याख्या के तौर पर प्रस्तुत की जाए तब यह संभव हो जाता है कि पहले से मौजूद मान्यताएं सामाजिक ‘ आक्रोश’ का रूप ले लें और छवियों से पहुंचने वाली मानसिक हिंसा का बदला हमारी अपनी दुनिया में मौजूद समुदायों से लिया जाने लगे ।

गोधरा की घटना के बाद कार सेवकों की जली हुई लाशों को एक प्रतीक के तौर पर प्रस्तुत किया गया। भाजपा की राज्य सरकार ने जहां तक संभव हुआ गोधरा के ‘अवशेषों’ को प्रचारित-प्रसारित किया और पुरजोर कोशिश की कि प्रत्येक हिन्दू तक जली हुई लाशों की छवियां पहुंच सके। यही कारण था कि जली हुई लाशों और रेल के उस डिब्बे की कई वीडियो सी.डी. बनवाई गई। इन प्रसारित छवियों ने हिंदुत्व राजनीति के तर्क की संरचनाओं को नयी मजबूती दी। कार सेवकों पर हुए जानलेवा हमले से इतिहास में हुए मुस्लिम दमन के तर्क का एक नया स्पष्टीकारण मिला और कारसेवकों का बलिदान हिंदुओं पर होने वाले अन्याय की एक नई मिसाल बना दी गयी । यह स्पष्टीकरण बताता है कि कैसे हिंदुत्व के तर्कों को समय और काल की परिधियों से परे ले जाकर सर्वकालानीय बना दिया। परन्तु ऐसा सिर्फ गुजरात में ही क्यों हुआ?

इस तथ्य को और अधिक गहराई से जानने के लिए मै अपने दूसरे और काफी हद तक ‘‘गुजरात’’ केन्द्रित स्पष्टीकरण पर आता हूँ.  आंकड़े बताते हैं कि गुजरात का मुस्लिम समुदाय कई मायनों में देश के अन्य मुसलमान से आर्थिक-सामाजिक और शैक्षिणिक तौर पर काफी आगे है। जिस तरह गुजराती हिंदुओं ने अप्रवासी भारतीयों में सबसे शक्तिशाली समुदाय के तौर पर अपने आप को स्थापित किया है, बहुत कुछ वैसा ही गुजराती मुसलमानों के साथ भी है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ब्रिटेन में सक्रिय ‘भारतीय मुस्लिम’ नामक संस्थाओं को गुजराती मूल के मुसलमान संचालित करते हैं। ब्रिटेन की इंडियन मुस्लिम फेडेरेशन और कांउसिल ऑफ इंडियन मुस्लिमस, अमेरिका की इंडियन मुस्लिम एसोसिएशन और दक्षिण अफ्रीका की जमतियात उलेमा इसके सटीक उदाहरण हैं। ये एनआरआई मुसलमान न केवल गुजरात में मुस्लिम शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाओं को चंदे में भारी रकम देते हैं बलिक गुजरात में इनके द्वारा संचालित कई आर्थिक संस्थान भी हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि गुजरात के व्यावसायिक तंत्र में हिंदु और मुस्लिम अप्रवासी भारतीयों की भागीदारी महत्वपूर्ण है। परन्तु यह मानना कि इस तरह की आर्थिक भागीदारी में द्वन्द नहीं होगा, सर्वथा गलत होगा। हिंदु और मुस्लिम व्यवसायी वर्गों में कई स्तरों पर आर्थिक विरोधाभास भी हैं। इस तरह वर्ग और आर्थिक द्वंद के प्रश्न गुजरात के विशेष संबंध में अप्रवासी गुजरातियों से जुड़े हुए हैं।2002 के दंगों की समझ के लिए इन प्रश्नों को व्यापक स्तरों पर देखना होगा, विशेषकर ‘मुस्लिम छवि’ के दृष्टिकोण से।

गुजरात का सम्पन्न मुसलमान, हमें याद रखना होगा ‘सेक्यूलर मुसलमान’ जैसा नहीं है। सेक्यूलर मुसलमान से मेरा आशय 1950 के बाद जन्मे उस विशिष्ट मुस्लिम इलीट  से है, जिसने अपने आप को सांस्कृतिक मुसलमान कहलवाना शुरू किया। इस मुस्लिम इलीट  ने ‘‘धर्म का विरोध’’ कुछ इस तरह किया  ताकि अपने को और अधिक प्रगतिशील और जनवादी दिखा सके। इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप अंग्रेजी पढ़ा-लिखा एक ऐसा मुस्लिम तबका उदित हुआ जिसका आम मुसलमानों से कोई रिश्ता नहीं था. परन्तु सम्पन्न गुजराती मुसलमान इस तरह का ‘सेक्यूलर’ नहीं था। इस वर्ग की आधुनिकता में धर्म  का एक विशेष स्थान था।
पर कैसा धर्म? बदलते सामाजिक आर्थिक परिवेश मे गुजरात के संपन्न मुस्लमान नयी तरह की धार्मिकता की तलाश मे थे. उनके व्यवसायिक संबधों के लिए प्रचलित सूफी इस्लाम की धार्मिकता एक रुकावट बन रही थी. यही कारण था की 1950 के बाद गुजरात मे खास कर शहरों मे सूफी इस्लाम की लोकप्रियता लगातार घटने लगी. धार्मिकता  के इस रिक्त स्थान को तबलीगी जमात ने भरना शुरू किया. 

तबलीगी जमात की शुरुआत 1932 मे दिल्ली से हुई थी. यह एक मज़हबी आन्दोलन था जिसका उद्देश्य मुसलमानों को इस्लाम के मूल तत्व से परिचित करना था. तबलीग ने धार्मिक आडम्बरो का विरोध विनम्र तरीको से किया. सूफी इस्लाम को बुरा कहने की बजाय तबलीग ने लोगो को नमाज़ की दावत देना शुरू किया . इस  तरह न केवल मज़हबी लडाइयां दर किनार हो गयी बल्कि मुस्लिम व्यापारी वर्ग भी जमात की ओर आकर्षित होने लगा. जमात द्वारा स्थापित सिद्धांत   ‘‘अपना माल,अपना वक़्त और अपनी इबादत ’’ व्यवसायी वर्ग के लिए अनुकूल था. इस तरह के धर्म मे न तो आडंबर करने के खर्चे थे और न ही कोई राजनीतिक प्रोग्राम।

यही कारण था कि स्वंतत्रता के बाद के पहले दो दशकों में तब्लीगी जमात गुजराती  मुसलामानों की प्रमुख इस्लामिक धार्मिकता बन गई। हालांकि मुस्लिम धार्मिक विविधताएं बरकरार रहीं, परन्तु धीमी-प्रक्रिया के रूप में तब्लीगी जमात ने सूफी इस्लाम और अन्य मजहबी विश्वासों को किनारे कर दिया। रोचक बात यह है कि अप्रवासी भारतीय गुजराती मूल के मुस्लिम समूहों ने तब्लीगी जमात को न केवल भारत में पनपने में मदद की बल्कि पश्चिमी देशों में मौजूद मुसलमानों को भी जमात की धार्मिकता से परिचित कराया।

इस तरह गुजरात मे जो मुस्लिम छवि बनी वह देश में मौजूद अन्य मुस्लिम पहचान से थोड़ी अलग थी। जहां एक ओर गुजराती मुस्लिम छवि सम्पन्न होते ऐसे समुदाय की थी जिसके स्पष्ट अंतरराष्ट्ीय संबंध थे, वहीं तब्लीग की लोकप्रियता ने इस छवि में परम्परागत इस्लामी प्रतीक - दाढ़ी, टोपी, बुर्का, कुरान, मकतब, मदरसा जोड़ दिये।
हिंदुत्व की राजनीति की नजर से देखें तो गुजरात का मुसलमान एक ऐसा प्रतीक था जिसके जरिये से हिंदुत्व के तर्कों को साबित करना बहुत आसान हो गया। मुसलमानों की बढ़ती धार्मिकता को हिंदुत्व के लिए  खतरे के तौर पर  दिखाया जाने लगा. कुछ इसी तरह मुसलमानों की आर्थिक प्रगति  भी हिंदुओं के आर्थिक हितों की अनदेखी बताई जाने लगी। राम मंदिर आन्दोलन ने इन स्थापित जवाबो को नए अर्थ दिए, विशेष कर 1990 के बाद.

इस सम्बन्ध मे सोमनाथ मंदिर का ज़िक्र करना उल्लेखनीय है. 1950 मे सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण भी आस्था का तर्क दे गया था. इस प्रयोजन मे वहां पहले से मौजूद मंदिर के खंडहर तोड़े गए थे ताकि इतिहास का बदला लिया जा सके. उस पूरे प्रकरण मे सरदार पटेल की भूमिका अहम् थी.
परन्तु अडवाणी की 1990 की रथ यात्रा ने सोमनाथ के मंदिर को अयोध्या से जोड़ दिया. इस तरह गुजरात के हिन्दू-मुस्लिम द्वन्द जो आर्थिक और स्थानिये मुद्दों से परिभाषित हो रहे थे, एतिहासिक रंग मे रंग दिए गए. परिणाम स्पष्ट था. गुजरात का संपन्न मुसलमान जिसका महमूद गजनवी, सोमनाथ, ओर अयोध्या से कोई रिश्ता नहीं था, आम हिन्दू गुजरती का दुश्मन बना के पेश किया जाने लगा .
इस तरह हिंदुओं के साथ होने वाले ‘अन्याय का तर्क’ जो अब तर्क अमूर्त था इस नव स्थापित मुस्लिम छवि से मूर्त रूप लेता चला गया। इतिहास में मौजूद हिन्दू दमन की कहानियां जो सोमनाथ के मंदिर के विध्वंस से शुरू होती थी, अब गोधरा की छवि से जा मिलीं। इतिहास, वर्तमान से मिला और हिंदुत्व राजनीति आक्रोश की मनोभावना में बदल दी गई।

हमारा यह विश्लेषण दो बिन्दुओं को उठता है. पहला, छवियों का निर्माण, प्रसार और उनके स्वीकार करने की प्रक्रिया हिसा के तर्कों को मूर्त रूप देने अहम भूमिका निभाती है. दूसरा, गुजरात मे जिस विशिष्ट मुस्लिम छवि का निर्माण हुआ वह मुसलमानों की बदलती आर्थिक स्थिति सामाजिक  रुतबे  और परिवर्तित धार्मिकता पर आधारित थी. ऐसे मे मुसलमानों के खिलाफ़  हुई हिंसा का वैचैरिक  क्षेत्र  काफी हद तक गुजरात की आपनी विशिष्ट आधुनिकता के विमर्श मे निहित था.
यदि  इन  दोनों बिन्दुओं को मिलकर  देखा  जाये  तो  यह कहा  जा सकता है कि हिंसा के विमर्श को हिंसा के तर्कों से जोड़ कर देखना  चाहिए ताकि हिंसा जैसी अवधारना की विविधताओं से परिचित हुआ जा सके. मेरा मत है कि हिंसा के तर्कों की सही समझ हमें मूल्यों की राजनीति करने की सही समझ दे सकती है. 

(लेखक-परिचय:
जन्म: 17 मार्च 1971 को दिल्ली में
शिक्षा: दिल्ली और लंदन से राजनीतिशास्त्र की उच्च डिग्रियां
सृजन: समाज, राजीनीति और साम्प्रदायिकता पर प्रचुर लेखन इंग्लिश, हिंदी और उर्दू में
संप्रति: सीएसडीएस, दिल्ली में रिसर्च फ़ेलो
संपर्क: ahmed.hilal@)csds.in)
    

 



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मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

ब्लास्ट का दोषी साबित होने पर कर दूंगा भाई का क़त्ल

फ़ोटो : मीर वसीम

एक विचारधारा  ने कैसे बदल दिया रंग-रोगन करने वाले मज़दूर का रंग

पटना ब्लास्ट के चार आरोपियों के गाँव हेड कोचा सिठियो से

धुर्वा से लोदमा जानेवाली सड़क सोमवार को बेहद खामोश थी। जगह-जगह समूह में युवा व बुजुर्ग जरूर खड़े मिले। पर किसी भी अनजान चेहरे को देख वह आपस में सिमट जाते। आंखों में बेचारगी और खौफ। उनकी आंखें इम्तियाज, तौफीक, तारीक और नुमान के प्रति उनके आक्रोश को बयां कर रही थी। लोदमा-कर्रा सड़क से दक्षिण की ओर कच्ची सड़क पर हेटकोचा है। आम लोग इसे नीचा मोहल्ला कहते हैं। सड़क के अंत में बने टी प्वाइंट के बायीं ओर सौ साल पुरानी मस्जिद है। यहां के इमाम हाफिज शौकत अली कहते हैं, 'इन लड़कों ने मजहब के साथ हमारे गांव को भी बदनाम कर दिया। खुदा जाने उन्हें रास्ते से भटकाने वाले कौन सा इस्लाम पढ़ाते हैं।'  दरअसल उनका इशारा एक कट्टरवादी विचारधारा की ओर था। जिसकी पुष्टि सरना स्थल के पास पान गुमटी पर खड़े युवाओं ने भी की।
एचईसी में मजदूर नसीम कहते हैं, चार सालों से इन लड़कों का मिलना-जुलना अहले हदीस के लोगों से था। वे अक्सर हमारी धार्मिक परंपरा-व्यवहार के विरोध में बातें करते। गांव में दो मस्जिद है, इनमें अधिकतर लोग देवबंदी स्कूल को मानने वाले हैं। कुछ लोग  बरेलवी विचारधारा के हैं। लेकिन इन लड़कों को कोई तीसरी विचारधारा के लोग प्रभावित करने में लगे थे। करीब तीन साल पहले जब गांव में बड़ा जलसा हुआ, तो मुख्य वक्ता मौलाना ताहिर गयावी से इन लोगों का वाद-विवाद भी हुआ था। जिसपर गांव के लोगों ने इम्तियाज की पिटाई भी की थी।
इन चारों लड़कों से गांववालों ने बातचीत बंद कर दी थी। वहीं उनके घरवाले भी उनसे कटे-कटे से रहने लगे। यहां तक के, जब सड़क दुघर्टना मे मारे गए संझले बेटे के इंश्योरेंस और दूसरे बेटों के पैसे से एचईसी से रिटायर्ड मो. कमालउद्दीन ने दो मंजिला मकान बनवाया, तो इम्तियाज को अलग कमरा दे दिया गया। कम उम्र का लड़का तौफिक इम्तियाज का ही सगा भतीजा है। गांव के स्कूल में ही आठवीं में पढ़ रहा है। अतीउलाह का कम उम्र बेटा तारीक और सुल्तान अंसारी का लड़का नुमान भी इनके गिरोह में शामिल हो गया।
कहने को इनमें से कुछ मकानों में रंग-रोगन, तो कुछ बिजली मिस्त्री का काम करते। लेकिन इनके दिलों-दिमाग को कोई और ही रंग रहा था। लेकिन घर व गांववाले समझते रहे कि यह लड़के उनकी अपेक्षा अरबी व उर्दू अधिक जानते हैं। इसलिए संभव है, धर्म की अधिक जानकारी रखते हों। कुछ लोगों ने उस कट्टरवादी विचारधारा के लोगों पर मासिक ढाई हजार रुपए देकर इन लड़कों को बिगाडऩे का आरोप भी लगाया। गांव के ज्यादातर लोगों से हुई बातचीत के बाद इस आशंका को बल मिलता हैं कि कहीं ये विचारधारा रांची में जिहाद के नाम पर युवाओं की एक नई बेल तो तैयार नहीं कर रही?

ग्राम प्रधान शंकर कच्छप कहते हैं कि उनके गांव में आदिवासी व मुसलमानों की लगभग बराबर आबादी है। लेकिन आज तक इनके बीच कभी कोई विवाद नहीं हुआ। फरार तारीक के बड़े भाई मौलाना तौफीक आलम मस्जिद कमेटी के सेके्रट्री हैं। वह कुछ भले न बोले। पर उनके ही भाई तौहीद आलम ने कहा, अगर सच में उनका भाई दोषी निकला, तो वे लोग उसे मार डालेगे। सदर हाजी हसन अली की चुप्पी भी इन लड़कों के कारण हुई गांव व कौम की शर्मिंदगी बता रही थी जबकि इम्तियाज के घर पर मातमी सन्नाटा था। समाजिक कार्यकर्ता साजिद अंसारी का कहना है कि गांव के लोग अब उस विचाधारा के लोगों को गांव में घुसने ही नहीं देंगे। उनकी बात का खुर्शीद अंसारी ने भी समर्थन किया।

भास्कर के लिए लिखा गया 29 अक्टूबर 2013 के अंक में सम्पादित अंश प्रकाशित   

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