बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 9 नवंबर 2013

गुजरात नरसंहार के बहाने


हिंसा  के तर्क और तर्कों की हिंसा: एक आलोचनात्मक  प्रयास
   
















 हिलाल अहमद  की क़लम से

हिंसा, विशेषकर ' सामूहिक हिंसा’ को समझने के दो संभव तरीके हो सकते हैं। पहला तरीका घटनाओं और व्यक्तियों के सिलसिलेवार ब्यौरों को केंद्र मे रख कर पर ‘हिंसा कैसे हुई?’  जैसा सवाल ज्यादा उठता है. विश्लेषण का यह नजरिया घटना के वर्णन पर ज्यादा जोर देता है और परिणामस्वरुप घटनाओं की गतिशीलता में व्यक्तियों और समूहों के द्वारा किये गए ‘अमल’ हिंसा को परिभाषित करने के स्रोत्र बन जाते हैं। आमतौर पर साम्प्रदायिक दंगों पर लिखी जाने वाली रिपोर्ट्स ‘हिंसा’ को इसी स्तर पर परिभाषित करती है।

परन्तु ‘हिंसा’ को एक अलग तरीके से भी समझा जा सकता है। यह तरीका प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष है। ‘हिंसा’ के विचार को केन्द्र में रखकर एक घटना विशेष के संबंध में दिए गए विभिन्न तर्कों का विश्लेषण हमें इस तथ्य से परिचित करा सकता है कि क्यों एक ही घटना एक समूह के लिए ‘हिंसा’ हो सकती है और दूसरे समूह के लिए ‘संघर्ष’? हिंसा के विश्लेषण का यह तरीका ‘तर्को’, ‘आस्थाओं’ और विचारों के उस विमर्श से संबंधित है जिसे कुछ वर्षों पूर्व तक समाज विज्ञान की दुनिया में ‘विचारधारा’ कहा जाता था।
प्रस्तुत लेख ‘हिंसा’ के वैचारिक क्षेत्र की चर्चा पर केन्द्रित है। मेरा उद्देश्य ‘हिंसा’ के विचार को समस्याप्रद बनाकर उन तर्कों की खोज करना है, जिनके द्वारा ‘हिंसा’ को या तो न्यायोचीत करार दिया जाता है या फिर अमानवीय बताकर नैतिकता के विमर्श में बदल दिया जाता है। इस तरह की वैचारिक कोशिश, मेरा मत है, हमें हिंसा और प्रति हिंसा के विमर्श की जटिलताओं को समझने मे सहायक सिद्ध हो सकती है.
‘हिंसा’ का विचार सभ्य कहे जाने के वाले समाज से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। ऐसे में हिंसा को नकारात्मक बताने से पहले जरुरी  है कि उन ‘सभ्य’ कही जाने वाली सामाजिक संरचनाओं की परख की जाए, जिन के बीच ‘हिंसा’ का विचार निर्मित होता है। दूसरे शब्दों में, किसी भी हिंसक घटना की समग्रता को समझने के लिए जरुरी है कि हिंसा करने वाले और हिंसा का शिकार व्यक्ति/समूहों के वैचारिक स्तरों को उन के अपने तर्कों के दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की जाए। हिंसा के इन्हीं अस्पष्ट से दिखने वाले पक्षों की पहचान करने के लिए मैं दो उदाहरणों से लेख के व्यापक उद्देश्य को स्पष्ट करने की कोशिश करुंगा।

पहला उदाहरण 2002 के गुजरात दंगों से है। मैं एक घटना विशेष की वैकल्पिक समझ से इस बात की जांच करने का प्रयास करुंगा कि हिंसा करने वाला समूह किन संभव तर्कों और वैचारिक आस्थाओं का सहारा लेता है. यहां यह स्पष्ट कर देना जरुरी है कि घटना की यह समझ अत्यंत व्यक्तिगत हैं। मैं केवल ‘संभावनाओं’ के जरिये हिंसक समूह को समझने की कोशिश कर रहा हूं। वास्तव मे समूह ने ऐसा सोचा होगा या नहीं, मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता। समूह का व्यवहार मेरे लिए एक ऐसा स्रोत है जिसके जरिये इस घटना के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीकों को चिन्हित किया जा सकता है।

मेरा दूसरा उदाहरण पिछले तीन दशकों से चल रहे बाबरी मस्जिद-राममंदिर विवाद से है। मैं बाबरी मस्जिद की ऐतिहासिकता और राम मंदिर की आस्था जैसे कभी हल न किये जाने वाले प्रश्नों के जाल में नहीं उलझना चाहता। मेरा मकसद है उन तर्कों को जानना जिनके जरिये राममंदिर की राजनीति को अमल में लाया गया। विषय को केन्द्रित करने के लिए मैं गुजरात के उदाहरण की विस्तार से चर्चा करुंगा, विशेषकर राम मंदिर आन्दोलन के सम्बन्ध मे. यह चर्चा न केवल गुजरात मे पनपे प्रयोगात्मक हिंदुत्व कही जाने वाली राजनितिक विशेषताओ को स्पष्ट करने मे मदद कर सकती है बल्कि इस विश्लेषण के माध्यम से हम हिंदुत्व राजनीती के विभिन्न आयामों, प्रकारों और विविधताओ को भी उजागर कर करके यह साबित कर सकते है कि दक्षिण पंथी हिंदुत्व अपने आप मे एक जटिल राजनितिक और वैचारिक परिघटना का नाम है.    

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हाल के कुछ वर्षो मे साम्प्रदाकिता की तथाकथित सेकुलर आलोचना मे काफी बदलाव आया है. एक समय था जब हमें यह बताया जाता था कि साम्प्रदायिकता वर्ग संघर्ष का दूसरा नाम है. हिन्दू इलीट  और मुस्लिम इलीट के हित समान है, इसलिए दोनों इलीट सम्प्रदियाकता का राजनीती खेल-खेल कर आम हिन्दू और मुसलमान को एक दुसरे से लड़ने के लिए प्रेरित करते है.

यह सेकुलर जवाब, कई मायनों मे, अब एक अन्य सेकुलर तर्क मे बदल गया है. अब मुस्लिम इलीट आलोचना के घेरे से बाहर है. हमें बताया जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय एक वर्ग के तौर पर पिछड़ा है, कमज़ोर है, लचर है. इसलिए उसका संपन्न कहे जाने वाला तबका भी पिछड़ा है और हिंदुत्व जैसी राजनितिक ताकत का सामना करने मे असमर्थ है. इसलिए मुस्लिम पिछड़ापन और सांप्रदायिक हिंसा को जोड़ना ज़रूरी है ताकि हिन्दू साम्प्रदायिकता का समग्र विरोध हो सके. सच्चर कमीशन रिपोर्ट आने के बाद से इस तरह का सेकुलरवाद मजबूत होता सा दीखता है.  

मेरा मत है कि ये दोनों ही सेकुलर तर्क सतही है. ये तर्क समुदायों को कभी न बदलने वाली संरचना मान कर राजनीतिक तौर पर सही  होने के पूर्वाग्रहों ग्ह्रासित है. येही कारण है कि धार्मिक साम्प्रदायिकता की बात करते समय, विशेष कर गुजरात के संबंध में, मुसलमानों की बदलती सामाजिक-आर्थिक स्थिति को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. यह मान लिया जाता है मुस्लिम समाज स्थिर है और उसकी धार्मिकता अपरिवर्तनशील.     

इस तरह के प्रचलित और स्थापित सेकुलर जवाबों से आगे जाने के लिए ज़रूरी है कि हम सामाजिक बदलावों को हिंसा के विमर्श की परिधि में लायें. ऐसा विश्लेषण हमें मुस्लिम पिछड़ापन और साम्प्रदायिकता के जटिल संबधों को दिखा सकेगा. साथ ही तब शायद हम यह भी समझ सके क़ि किन कारणों से २००२ के दंगो मे मुस्लिम संपन्न वर्ग भी हिंसा का शिकार बना.      

इस लेख मे मैं गुजरात के मुसलमानों की बदलती सामाजिक आर्थिक-स्थिति और इस्लामी आस्थाओं के भावनात्मक एवं छवि-उन्मुख आयामों को उजागर करने का प्रयास करुंगा। मेरा मत है कि इस तरह गुजरात के मुसलमानों की स्थापित छवि का विश्लेषण हो सकेगा और हिंदुत्व के तर्कों को एक खास संधर्भ मे समझने मे सहूलियत होगी. 

मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरा मूल उद्देश्य उस ‘हिंदुत्व आक्रोश’ को समझने का है जिसे भाजपा और विहिप ने २००२ मे प्रतिहिंसा, प्रतिक्रिया और स्वाभाविक रिएक्शन कहकर ज़ायज़ ठहराया था।  मेरा प्रयास भी हिंदुत्व राजनीति  की आलोचना खड़ी करना है पर मेरी कोशिश  ‘राजनीतिक तौर पर सही’ होने के पूर्वाग्रहों से बचने  की  है. इसलिए में इस प्रयास को सेकुलर बनाम सांप्रदायिक  फ्रेमवर्क  से बाहर रखना चाहता हूँ.  

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One woman, Kauser Bano, who was nine-months pregnant, had her belly cut open and her foetus wrenched out, then swung on the edge of a sword before being dashed to the ground and flung into the fire.
(Concerned Citizens Tribunal - Gujarat 2002. An inquiry into the carnage in Gujarat)

 

आइये एक ‘रोचक’ परन्तु अत्यंत अमानवीय उदाहरण से इस बात की शुरुआत करें। 2002 के गुजरात दंगों में एक घटना विशेष रूप से चर्चा में आई। बड़ौदा के पास की एक मुस्लिम बस्ती में हिंदू दंगाइयों ने एक गर्भवती महिला का सामूहिक बलात्कार किया। परन्तु हिंसा की यह प्रक्रिया महज़ बलात्कार तक ही नहीं रुकी, दंगाइयों ने चाकू से गर्भवती महिला के पेट को चीरा और उसके अजन्मे गर्भ को बाहर निकाल लिया। इसी दौरान बस्ती में आग लगा दी गई। दंगाइयों ने महिला और तब तक मर चुके शिशु को भाले की नोक पर रखकर जलती आग में फेंक दिया।

यह घटना अत्यंत निदंनीय है। न केवल इसलिए कि इस पूरे प्रकरण में यौन हिंसा और हत्या जैसे घृणित कृत्य बिल्कुल अलग तरीके से अंजाम दिये गए बल्कि इसलिए भी कि इस घटना ने सामाजिक सरोकारों के अत्यंत संवेदनशील पक्ष मातृत्व और जन्म को पूरी तरह रौंद दिया।

जैसा कि होना ही था - घटना के बाद बहुत से फैक्ट-फाइंडिंग दलों और मानवाधिकार संगठनों ने इस बस्ती का दौरा किसा और तथ्यों, साक्ष्यों और जिन्दा बचे लोगों की स्मृतियों के आधार पर घटना को दोबारा जिंदा कर दिया। इस हादसे को कई नाम दिये गए - हिंदु फासीवादी, सेक्यूलरवाद का अंत, साम्प्रदायिकता की पुरुष प्रधानता आदि।

ये तर्क यक़ीनी तौर पर महत्वपूर्ण थे और हैं। हमें मानवाधिकार संगठनों का शुक्रगुज़ार होना चाहिये कि उन्होंने दंगों के शिकार लोगों के दर्द को एक राष्ट्ीय प्रश्न में बदल दिया। परन्तु ‘भर्त्सना के इस विमर्श’ में कई ऐसे मुद्दे नजरअंदाज होते चले गए जो हिंसा के अन्य संभव पक्षों से हमें परिचित करा सकते थे।मेरा मानना है कि अगर हम इस घटना को एक सामाजिक परिघटना के तौर पर लेकर विश्लेषण की परिधि में लाने की कोशिश करें तो कई नयी तरह के सवालों को उठाया जा सकता है।

आइये हिंसक समूह को केन्द्र में रखकर इस घटना को पुनः पढ़े। सोचिये कि एक समूह यह फैसला करता है कि उसे एक बस्ती को जलाना है, समूह के सदस्य हथियार इकट्ठे करते हैं, उन्हें धारदार बनाने की कवायद करते हैं और फिर समय निश्चित होता है। सभी सदस्य हथियारों से लैस होकर बस्ती पहुंचते हैं। बस्ती को घेरा जाता है और वह महिला जोकि गर्भवती है दंगाइयों की नजर में आती है।

यहां से कहानी एक दूसरा रुख ले लेती है। महिला के साथ सामूहिक तौर पर बलात्कार होता है। पर कैसे? बलात्कार करने के लिए दोनों पक्षों (महिला और समूह) का निर्वस्त्र होना लाज़िमी है। महिला को निर्वस्त्र करना आसान है क्योंकि समूह महिला से ज्यादा शक्तिशाली है। परन्तु समूह के सदस्यों को तो स्वयं ही अपने कपड़े या कुछ विशेष कपड़े उतारने होंगे ताकि इस कृत्य को अंजाम दिया जा सके। समूह के सदस्य सामूहिक तौर पर अपने शरीर के सबसे निजि कहे जाने वाले अंगों को सार्वजनिक करते हैं। ऐसा करते समय वे न केवल शिकार महिला के आत्मसम्मान पर हमला करते हैं बल्कि समूह के सदस्य होने के नाते अपने व्यक्तिगत आत्मसम्मान को भी खो देते हैं।

बलात्कार जैसी घटनाओं का अपना एक मनोविज्ञान है। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि बलात्कार का संबंध यौन-सुख से है। परन्तु यह एक सतही जवाब है क्योंकि यौन-सुख का अर्थ दोनों पक्षों की भागीदारी से जुड़ा है। इसके बरअक्स बलात्कार एक ऐसी मानसिकता है जिसमें पारस्पारिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। सामूहिक बलात्कार इस मानसिकता का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है।

परन्तु यह घटना बलात्कार और सामूहिक बलात्कार कही जाने वाली हिंसक वारदातों से थोड़ा भिन्न है। यहां व्यक्तिगत या सामूहिक यौन-तृप्ति का अर्थ केवल स्त्री-पुरुष दैहिकता के विमर्श से नहीं जुड़ा है। महिला का शरीर न केवल नारी देह है बल्कि उसका एक प्रतीकात्मक मूल्य भी है। इस प्रतीकात्मकता के चलते इस शरीर का यौन-उत्पीड़न न केवल महिला को आहत कर सकता है बल्कि उस महिला के परिवार, उसकी बस्ती, उसका समुदाय और यहां तक कि उसके धर्म को भी हिंसा की लपेट में लाया जा सकता है। हिंसक समूह इस तथ्य से परिचित है और शायद यही कारण है कि इस कृत्य को अंजाम देने के लिए, समूह के सदस्य सार्वजनिक तौर पर नंगे होने से भी गुरेज़ नहीं करते।

इस प्रक्रिया का नया अध्याय तब शुरू होता है, जब समूह महिला का पेट चीरता है। पेट चीरता और चाकू से हत्या करना दो अलग-अलग बातें हैं। चाकू से हत्या करते समय शरीर के आन्तरिक अंगों को नहीं देखा जाता। चाकू से सिर्फ नाजु़क जिस्मानी हिस्सों को गोदा जाता है जोकि अपेक्षाकृत आसान है। परन्तु एक जिंदा महिला के पेट चीरने का अर्थ है खून का एक फौव्वारा जो वार करने वाले के पूरे शरीर, चेहरे और हाथों को खून से रंग सकता है। खून, और विशेषकर इंसानी खून, की दुर्गंध अत्यंत असहनीय होती है। समूह इसे बर्दाश्त करता है और फिर गर्भ को निकाला जाता है।

गर्भ का निकालना कोई आसान काम नहीं है। चिकित्सा विज्ञान के लोग यह जानते हैं कि गर्भ शरीर में मौजूद द्रवो, अवयवों और अंगों के बीच मौजूद एक संरचना का नाम है। जिस समय गर्भ को शरीर से निकाला जाता है, तब सिर्फ खून नहीं निकलता। कई अन्य द्रव्य और रसायन भी निकलते हैं, जिनकी गंध रक्त की गंध से कहीं ज्यादा असहनीय होती है।

परन्तु हमारा हिंसक समूह चिकित्सक नहीं है। उसका काम महिला और शिशु को बचाना नहीं है। उसे तो इन दोनों की हत्या करनी है। तो क्या हिंसक समूह के रवैये को कसाई का रवैया कहना चाहिए?

जो लोग कसाईखाना से परिचित हैं, वे जानते हैं कि भैंस, बकरी और यहां तक की मुर्गी को मारना कितना मुश्किल काम है. भैंस और बकरी को काटने के लिए रस्सी का इस्तेमाल होता है, कई लोग भैंस/बकरी के पांव पकड़ते हैं और फिर एक व्यक्ति छुरी से गर्दन की मूल रक्तवाहिनी को काटता है, ताकि जानवर तड़पे नहीं और जल्द ‘‘ठंडा’ हो जाए। उसके बाद उसके शरीर के अंगों को अलग किया जाता है। इस बात पर विशेष ध्यान रखा जाता है कि उसके अमाशय पर कोई काट न लगे क्योंकि अमाशय के फटने से कई अवांछनीय द्रव्य निकल सकते हैं।

हमारे हिंसक समूह का काम भैंस/बकरी काटने से ज्यादा मेहनत का है। उसे गर्भ को निकालना है, जिस प्रक्रिया में यह संभव है कि शिकार महिला का अमाश्य और आंते दोनों पर काट लग जाए। समूह इस बात की भी परवाह नहीं करता। उसके लिए रक्त, पीप, अमाश्य से निकलने वाला अपच मल आंते सभी कुछ ‘सामान्य’ बन जाता है। इस तरह समूह, कसाई की श्रेणी से निकलकर दरिन्दें की श्रेणी में आ जाता है जिसका मकसद महज़ गोश्त काटना है और खून से खेलना है। अंततः समूह पेट चीर ही लेता है और शिशु को बाहर निकालने में उसे कामयाबी हासिल होती है।

घटना का अगला हिस्सा आगजनी का है। आमतौर पर बस्तियों में आग लगाने जैसी कार्रवाई में आग लगाने वाले समूह वहां रुकते नहीं है। इसके दो संभव कारण हैं - पकड़े जाने का डर एवं आग जैसी अनियंत्रित चीज़ की लपटों से बचने की चेष्टा। पर हमारा यह समूह ऐसा नहीं करता। चाकू और तलवारों से लोगों को मारता है, घायल करता है, बलात्कार करता है और फिर आग लगा दी जाती है। आग लगाना व्यावहारिक भी और प्रतीकात्मक भी। व्यावहारिक तौर पर आग में झुलसी बस्ती और आहत लाशें हिंसा के सारे प्रमाण मिटा देती हैं। व्यापक अर्थों में कहें तो आग लगाकर न केवल हिंसक अमल को मिटाया जाता है बल्कि हिंसा के शिकार व्यक्ति/समूहों का सम्पूर्ण अस्तित्व समाप्त कर दिया जाता है।
 ‘अस्तित्व का अंत’ वास्तव में एक प्रतीकात्मक कृत्य है। इसके दो संभव पहलू हैं। एक अर्थ में यह धार्मिक कुठाराघात से जुड़ा है जिसका निशाना इस्लामिक विश्वास हैं. उल्लेखनीय है कि इस्लामिक दर्शन मुर्दा जिस्म को अत्यतं सवेदनशील वस्तु (ऑब्जेक्ट) मानता है. इसी कारण मृत शरीर को अंतिम संस्कार के लिए बेहद सावधानी से तैयार किया जाता है. यहां तक कि कफन भी इस तरह सिला जाता है, ताकि मृत शरीर के हाथ, गर्दन और पैर दफन की प्रक्रिया में हिल-डुल न सकें। साथ ही साथ इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि मृत शरीर पर किसी भी तरह का दबाव न डाला जाए।

कब्र का विचार भी यहाँ महत्वपूर्ण है. इस्लामिक दर्शन कब्र को कयामत से पहले का ठिकाना करार देता है. इसीलिए जो लोग अच्छे अमल करके मरते है उनके लिए कब्र एक रेस्ट-हाउस बन जाती है और जो लोग गुनाहगार होते है उनके लिए सजा देने का मुकाम. इस्लामिक दर्शन मे सजा देने का अर्थ आग मे जलने से है. कुरान मे जहन्नुम का जो तफसीर दिया गया है उसमे आग मे झुलसना सबे बड़ी सजाओं के मे से एक है. इस तरह मुस्लिम अस्तिव के लिए आग के व्यापक धार्मिक अर्थ मौजूद है.     

इस घटना में मौजूद हिंसक समूह इन तथ्यों से परिचित लगता है। वे न केवल मुर्दा मुसलमानों के शरीरों को आग में डाल देते हैं, बल्कि जिं़दा और अधमरे मुसलमान भी जला दिये जाते हैं। इस तरह इस्लामी दफन प्रक्रिया का एक आक्रामक हिंदुकरण किया जाता है और मुसलमानों को एक ऐसी मौत दी जाती है जो जहनुम से ज्यादा इबरतनाक हो सके.   

आगजनी का दूसरा प्रतीकात्मक पक्ष अजन्मे गर्भ को जलाने से जुड़ा है। महिला का बलात्कार और शिशु की हत्या का एक व्यापक अर्थ भी है। वास्तव में दंगाई ‘इतिहास’ और ‘भविष्य’ जैसे विचारों को अमली जामा पहनाते दिखते हैं। बच्चे का शरीर, मां के शरीर की तरह ही एक प्रतीक बन जाता है। परन्तु यह प्रतीक मुसलमानों के ‘आज’ के संदर्भ से परिभाषित होता नहीं दिखता। हिंसक समूह बच्चे के शरीर को मुसलमानों की आने वाली पीढ़ी के तौर पर परिभाषित करता दिखता है। इसीलिए उसे न सिर्फ पैदा होने से रोका जाता है, बल्कि उसे पैदा होने से पहले ही ‘जला’ दिया जाता है।

मैं इस घटना के प्रतीकात्मक पाठ को एक आलोचना से समाप्त करना चाहता हूँ. यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त विवरण Concerned Citizens' Tribunal Report (2002) का एक अतथ्यपूर्ण और काल्पनिक बयान है, जिसे शब्दों की खिलवाड़ मात्र ही कहा जाना चाहिए। यह आलोचना कुछ हद तक सही भी है। घटना को पेश करने का यह तरीका विवादास्पद कहा जा सकता है और कुछ हद तक काल्पनिक भी.

परन्तु यहाँ सामाजिक घटनाओ, विशेषकर हिंसक घटनाओ को समझने की वय्कापिक पदति का सवाल भी निहित है. सामूहिक हिंसा पर माजूद साहित्य बताता है की घटनाओं के विवरण करने का तरीका घटनाओं को पुनः जिंदा होने का मौका देता है। ऐसे मे हमारे शब्द भंडार ऐसे माध्यम बन जाते है जिनसे  सामाजिक सरोकारों की कहानियों को रचा जाता है. घटनाओं के विवरण भी ऐसी ही कहानियों का नाम है। यही कारण है कि ‘तथ्य’ और ‘प्रमाण’ जैसे कारक विवरण करने की विशुद्ध गति के लिए महज़ एक वैचारिक धक्के से अधिक नहीं होते। जो लोग प्रमाणिक होने का दावा करते हैं वे भी ‘तर्कों’ और ‘तथ्यों’ को अपने विवरण के अनुसार चुनते हैं, समायोजित करते हैं और अंत में एक ‘प्रमाणिक’ कहानी को रचते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हर प्रमाण, एक कहानी है और हर प्रस्तुति एक निरुपण।

इसलिए मैं इस आलोचना से सहमत होते हुए भी यह तर्क देना चाहता हूं कि इस घटना की वैकल्पिक समझ के लिए यह जरुरी है कि वीभत्स ही सही, ऐसा कुछ जरुर सोचा-लिखा जाए जिससे हम हिंसा जैसे विचारों की समग्रता और विविधता को महसूस कर सकें।

परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि घटना को केवल अपने ‘विवरण’ और अपनी ‘समझ’ कह कर उत्तर आधुनिक होने के फै़शन में खो जाया जाए। मेरा मत है कि ऐसी तामम घटनाओं को हिंसा करने वाले समूह के दृष्टिकोण से समझना ज़्यादा ज़रुरी है। जिसके लिए सामाजिक मानवशास्त्र के अध्ययन में इस्तेमाल होने वाली पद्धतियां, इंटरव्यू और समूहचर्चा का इस्तेमाल हो सकता है। क्योंकि गुजरात 2002 के दंगों पर ऐसा कोई काम नहीं है इसलिए हमें दंगों के शिकार लोगों के विवरणों को ही स्रोत मानना होगा।

मेरा उद्देश्य यहां केवल घटना के वर्णन तक सीमित नहीं है। जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था कि घटना के विभिन्न पाठ हमें हिंसा के वैचारिक स्तर पर पहुंचने में मदद कर सकते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है इस घटना में ‘वैचारिक’ क्या था?

हमारा पिछला ब्यौरा हमें बताता है कि समूह के कृत्य आक्रोश से प्रेरित है। पर इस आक्रोश के पीछे कौन से विचार थे, तर्क थे जिनके आधार पर हिंसक समूह अपने को न्यायोचित मानता रहा? इस घटना को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर ही, मेरा मत है हम इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं।


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 2002 गुजरात के दंगे तीन मायनों में विशिष्ट कहे  जा सकते हैं। दंगों का निश्चित प्रभाव क्षेत्र इस दंगे की पहली विशिष्टता है। साम्प्रदायिक होने के बावजूद यह दंगे गुजरात में शुरु हुए और गुजरात में ही खत्म हो गए। इस दंगे ने किसी ‘धारा’ का रूप नहीं लिया। राज्य-तंत्र के सीधे हस्तक्षेप को इस दंगे के सीमित प्रभाव क्षेत्र का एक प्रमुख कारण बताया जाता रहा है। मेरा मानना है कि यह तर्क काफी हद तक सही भी है। मोदी के नेतृत्व में राज्य सरकार ने दंगे को तकरीबन एक तरफ़ा कर दिया था. हिंसा के कारणों के निर्माण से लेकर हिंसा अंजाम देने और फिर शिकार समुदाय को अन्य अप्रत्यक्ष तरीको से प्रताड़ित करने तक राज्य सरकार की भूमिका संधिग्ध बनी रही. ऐसे मे इस हिंसा को प्रायोजित हिंसा कहा जाना चाहिए. 

असग़र अली इंजिनियर का शोध बताता है कि आजाद भारत मे हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास को तीन हिस्सों मे रख कर देखा जा सकता है: (अ) 1950 से 1986 तक के दंगे, जब  समुदायों के स्थानीय द्वंद हिंसा को धारावाहिक बनाते रहे;

(ब) 1986 के बाद बाबरी मस्जिद दंगे मे जब साम्प्रदायिकता को एक मूर्त रूप मिल गया. इस दौर मे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की हर लड़ाई ‘सभ्यताओं’ की लड़ाई में बदल दी गई, जिसका निर्णय राम-मंदिर और बाबरी मस्जिद के अस्तित्व पर टिक गया।

(स) 1993  के बाद के दंगे जब अयोध्या विवाद सिर्फ एक संधर्भ बिंदु बन कर रह गया.

गुजरात दंगे इस तीसरी श्रेणी मे आते है. वास्तव मे यह बिंदु हमें इस दंगे की दूसरी विशिष्टता से परिचित कराता है। हमें याद रखना चाहिए मे 2002 के दंगे मेगोधरा की घटना से भड़के। यह घटना सीधे तौर पर राम-मंदिर की मांग से जुड़ी हुई थी। जो कारसेवक मंदिर बनाने का संकल्प लेकर अयोध्या गए थे, वे गुजरात वापस लौट रहे थे। जब गाड़ी गोधरा  में रुकी तो उसमें आग लगा दी गई जिसके चलते डिब्बे में मौजूद सभी कारसेवक जल कर मर गए। हिंदुत्ववादी संगठनों का दावा था कि कारसेवकों को मुसलमानों ने मारा जबकि सेक्यूलरवादियों का तर्क था कि यह घटना एक तरह की साजिश थी ताकि मुसलमानों को निशाना बनाया जा सके। बहरहाल इस मुद्दे पर पहले से बहुत कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए मैं इस बहस से बचते हुए एक अन्य पहलू को उजागर करना चाहता हूं। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद से जुड़े होने के बावजूद गुजरात दंगा ‘राममंदिर आंदोलन’ नहीं माना गया। पर क्यों ? 

1990 की स्थिति की तुलना में 2002 के हालात भिन्न थे। भाजपा केन्द्र में एनडीए गठबंधन चला रही थी जिसके कई घटक राम मंदिर आंदोलन जैसे साम्प्रदायिक मुद्दों के प्रबल विरोधी थे। ऐसे में राम मंदिर टाइप आन्दोलन एनडीए की स्थिरता के लिए राजनितिक संकट बन सकता था। दूसरी ओर अयोध्या विवाद का चरित्र भी बदल चुका था। अयोध्या में व्यावहारिक तौर पर बाबरी मस्जिद के स्थान पर राममंदिर अस्तित्व में आ चुका था।  मंदिर बनाने की मांग का अर्थ सिर्फ और सिर्फ ‘भव्य मंदिर’ बनाने से था, न कि मस्जिद ढहाने से। ऐसे में ‘गोधरा की घटना’ महज़ हिंसा-प्रतिहिंसा ही बन कर रह गई और उसका कोई व्यापक ‘रामकरण’ नहीं हुआ।

अगर दंगे के बाद हुई घटना-प्रकिया पर नजर डाले तो ऐसा लगता है कि दंगा पूरी तरह से ‘हिंसा और उसके विरोध’ पर केन्द्रित रहा। यही कारण था कि कुछ ही सालों में ‘विकास’ गुजरात की राजनीती का नया विमर्श बन गया. यहां तक कि कुछ मुस्लिम संगठनों ने मोदी को समर्थन देना शुरू कर दिया। दंगे के विमर्श का विकास के विमर्श में बदलना और वह भी बिना किसी सत्ता परिवर्तन के इस दंगे की तीसरी विशेषता है।

लेकिन तब सवाल उठता है कि 2002 के इस दंगे की तीन विशेषताओं - सीमित प्रभाव क्षेत्र, दंगे का राम मंदिर आंदोलन में न परिवर्तित होना व दंगे के विमर्श का विकास के विमर्श में बदलना - का हिंसा और हिंसा के विचार से क्या संबंध है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें राममंदिर आंदोलन के तर्कों को समझने की कोशिश करनी होगी।

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मैं यहां यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि राम मंदिर बाबरी मस्जिद विवाद का नया इतिहास लिखने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरा उद्देश्य है, तर्कों की हिंसा का अध्ययन। इसके लिए ज़रुरी है कि हिंदुत्व और राम मंदिर के तर्कों को जोड़ कर देखा जाए। अयोध्या में राम मंदिर बनाने की मांग कभी एक सी नहीं रही। 1885 में राम मंदिर का अर्थ राम चबूतरा था; 1949 में जब मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया, तब मंदिर का अर्थ सम्पूर्ण मस्जिद क्षेत्र था; और 1992-93 में मंदिर का अर्थ २.77 एकड़ भूमि से था जो सरकार ने अधिग्रहित की थी. यही स्थिति तर्कों की भी रही। 1885 में राम चबूतरे  पर पक्का मंदिर बनाने के पीछे तर्क था पूजा आदि में आने वाले व्यवधान; 1949 की घटना के बाद तर्क था कब्जा की गयी मस्जिद में पूजा करने की आजादी; 1993 में तर्क था हिंदुओं की आस्थाएं!

इस तरह न तो राम मंदिर आंदोलन एक सा रहा न राम मंदिर के समर्थन में दिये जाने वाले तर्क। ऐसे में इन तर्कों के परिवर्तित होने की प्रक्रिया कुछ अवधारणात्मक बिंदुओं को उजागर करती है। जिसके ज़रिये हम ‘हिंदुत्व की राजनीति की संरचना को तोड़कर देख सकते हैं।

हिंदुत्व राजनीति के विमर्श की तीन परते है, जो एक व्यापक तर्क का निर्माण करती है. इस संरचना की सबसे आन्तरिक परत आस्था की है. 1990 में आडवाणी ने रथ यात्रा के दौरान दिये गए इंटरव्यू में कहा था -‘‘हिंदुओं की आस्था है कि वहां राम का जन्म हुआ है....क्या इसके लिए किसी प्रमाण की जरुरत है? क्या किसी ने ईसा मसीह से जन्म प्रमाणपत्र मांगा है जो भगवान राम से मांगा जाए’’?

यह तर्क केवल राजनीतिक भाषण नहीं है। यह बताता है कि ‘‘आस्था’’ का सशक्त होना कैसे अन्य तर्कों को बौना साबित कर देता है। तब ‘प्रमाण’ या साक्ष्य अनुपयोगी हो जाते हैं और ‘विश्वास’ स्वयं एक ऐसी अवधारणा का रूप ले लेता है जिससे सामाजिक-राजनीतिक सरोकार व्याख्यित किये जा सके।

परन्तु ‘‘आस्था’’ के तर्क की अपनी एक सीमा होती है. इस तर्क को राजनीतिक भाषा, विशेषकर आधुनिक चुनावी भाषा में बदलने के लिए ज़रुरी है, कि 'आस्था' को किसी अन्य तर्क से जोड़ कर प्रस्तुत किया जाय. यह संभावना हमें हिंदुत्व राजनितिक विमर्श की दूसरी परत की और ले जाती है, जो पूरी तरह इतिहास की एक विशेष समझ से सम्बंधित है.     

1980 के अंतिम वर्षो मे मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दू मंदिरों का विध्वंस, हिंदुत्व राजनीति का दूसरा सबसे शक्तिशाली तर्क बन गया. यूँ तो हिन्दू मंदिर विध्वंस औपनिवेशिक काल से ही हिन्दू मुस्लिम द्वन्द का एक विशेष मुद्दा रहा है, पर अयोध्या आन्दोलन के समय मे इस तर्क ने एक नया स्वरुप ले लिया. यह कहा जाने लगा कि  मुसलमानों  द्वारा तोड़े गए हिन्दू मंदिर एक ऐतिहासिक अन्याय का प्रतिक है. इस तर्क को मुखर करने के लिए कई पुस्तकें, कई उपन्यास, कहानियां और यहां तक की कविताएं भी लिखी गई।  प्रफुल गुदारिया की पुस्तक हिंदू मस्जिद और सीता राम गोयल द्वारा संपादित पुस्तक हिंदू मंदिरःव्हवाट हैपेन टू देम? इस तरह के लेखने के उदाहरण हैं।

हिंद्त्व विमर्श की संरचनाओं की सबसे बाहरी परत ‘‘न्याय’’ की थी. हिंदुत्व राजनीति ने कुछ विशिष्ट मुद्दे जैसे गौ रक्षा, विवाह कानून (हिन्दू कोड बिल विवाद) और राम मंदिर को हिंदुओं के साथ हो रहे अन्याय के तौर पर प्रस्तुत किया. यह दलील दी गई कि राम मंदिर की आज़ादी सामाजिक न्याय का प्रश्न है। अगर व्यापक अर्थो मे देखे तो न्याय की इस राजनीति ने बहुसंख्यकवाद  की राजनीति को एक नया आयाम दिया. राम मदिर की मांग हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने से नहीं जोड़ी गयी. अपितु हिन्दुओं को एक  राजनीतिक  समुदाय के तौर परिभाषित करने के लिए उनके साथ अनवरत चल रहे अन्याय का सहारा लिया गया. इस तरह हिन्दू समुदाय की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत की गयी जो पूर्णता एक प्रताड़ित और लाचार समूह की थी. 'गर्व से कहो हम हिन्दू है' जैसे नारे इस प्रस्तुति का अभिन अंग थे. शायद यही कारण था कि 1991  मे भाजपा का नारा था-- राम आस्था रोटी जीवन.    

‘आस्था’’ की अंदरूनी परत हिन्दुत्व की राजनीतिक मुहिम के लिए आम लोगो को प्रतिबद्ध बनाने का सबसे मजबूत आधार रहा है। उल्लेखनीय है कि  भाजपा जैसे संगठनों को राम के अस्तित्व और उनके जन्म की व्याख्याओं का सहारा नहीं लेना पड़ा। इसके बरअक्स आम धार्मिक हिंदू की मान्यताओं को निरुपित किया गया और परिणाम स्वरुप राम में आस्था रखने वाले राममंदिर में आस्था रखने लगे। भाजपा-विहिप ने इस आस्थावान समूह को ‘कारसेवक’ का नाम दे दिया।
परन्तु ‘‘आस्था’’ धर्म से जुड़ी थी और धर्म का विमर्श विशुद्ध कल्पना से नहीं चलता। इस कमी को पूरा करने के लिए ‘इस्लामी दमन’ की स्मृति को प्रचारित किया गया। ‘‘दमन की स्मृति और राम में आस्था’’ को न्याय-अन्याय के रूप में परिभाषित कर दिया गया और परिणामस्वरुप हिंदुओं के राजनीतिक ‘समुदाय’ बनने की प्रक्रिया शुरू हुई।

सवाल उठता है कि क्या आस्था, स्मृति और न्याय पर टिके इस हिंदुत्व तर्क का 2002 की उस घटना से कोई रिश्ता है जिसका वर्णन हमने लेख के प्रारम्भ में किया था? यह सवाल और भी ज़्यादा पेचीदा हो जाता है जब हम पाते हैं कि गुजरात का दंगा, न तो राम मंदिर आंदोलन को रूप ले सका और न ही इस दंगे ने हिंसा की किसी नई धारा को जन्म दिया?

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इस सवाल के दो संभव जवाब दिये जा सकते हैं। पहला जवाब सैद्धान्तिक है। हमारी चर्चा बताती है कि हिंदुत्व राजनीति के तर्क लगातार बदलते रहें। इन तर्कों के बदलाव को आमतौर पर नेताओं की साजिश और हिंदुत्व बुद्धिजीवियों के षडयंत्र के तौर पर देखा जाता है। विशेषकर सेक्यूलर कहे जाने वाले लोग तर्क देते हैं कि ‘राममंदिर’ की मिथ्या को हिंदू साम्प्रदायिकता ने गढ़ा है ताकि आम हिंदू की आस्थाओं का लाभ उठाया जा सके। यह जवाब काफी हद तक वाजिब लगता है। परन्तु अगर तर्क को सिर्फ नेताओं और बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया जाए तब उन बदलती परिस्थितियों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता जिनकी वजह से तर्क बदले और उनकी ‘लोकप्रियता’ बढ़ती चली गई। 

यहां ‘‘मीडिया’’ की भूमिका अहम है। मीडिया से मेरा अर्थ अखबार, टी.वी. चैनल और रेडियो से कुछ ज्यादा है। ‘‘मीडिया’’ मोटे तौर पर उन सभी ज़रियों का नाम है जिनके माध्यम से सूचना निरुपित होकर प्रसारित होती है। इस तरह न्यायालय, नेताओं के वक्तव्य और आम प्रचलित अफवाहें भी मीडिया कही जा सकती हैं।

सूचना का प्रसार हमें एक अलग तरह की वास्तविकता से परिचित कराता है। अखबार में छपी हिंसा की खबरें हमें किसी समुदाय-समूह विशेष की छवि बनाने में मदद करती हैं। ये छवियां महज़ खबर से नहीं बनती, बल्कि हमारे व्यक्तिगत अनुभवों, समाज में प्रचलित धारणाओं और पूर्वाग्रहों से निर्मित होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो छवियों का निर्माण और धारणाओं का विमर्श साथ-साथ चलते हैं। अखबार में छपी खबर, टी.वी. न्यूज में दिखाई गई बाइट आम-बातचीत में मौजूद प्रचलित मान्यताएं ;जो कभी मजाक के तौर पर आती हैं तो कभी गाली के तौर पर, एक खास तरह के सामाजिक सरोकारों का निर्माण करती हैं। ऐसे में यदि कोई घटना ‘विशेष’ इस तरह के सरोकारों की एक व्याख्या के तौर पर प्रस्तुत की जाए तब यह संभव हो जाता है कि पहले से मौजूद मान्यताएं सामाजिक ‘ आक्रोश’ का रूप ले लें और छवियों से पहुंचने वाली मानसिक हिंसा का बदला हमारी अपनी दुनिया में मौजूद समुदायों से लिया जाने लगे ।

गोधरा की घटना के बाद कार सेवकों की जली हुई लाशों को एक प्रतीक के तौर पर प्रस्तुत किया गया। भाजपा की राज्य सरकार ने जहां तक संभव हुआ गोधरा के ‘अवशेषों’ को प्रचारित-प्रसारित किया और पुरजोर कोशिश की कि प्रत्येक हिन्दू तक जली हुई लाशों की छवियां पहुंच सके। यही कारण था कि जली हुई लाशों और रेल के उस डिब्बे की कई वीडियो सी.डी. बनवाई गई। इन प्रसारित छवियों ने हिंदुत्व राजनीति के तर्क की संरचनाओं को नयी मजबूती दी। कार सेवकों पर हुए जानलेवा हमले से इतिहास में हुए मुस्लिम दमन के तर्क का एक नया स्पष्टीकारण मिला और कारसेवकों का बलिदान हिंदुओं पर होने वाले अन्याय की एक नई मिसाल बना दी गयी । यह स्पष्टीकरण बताता है कि कैसे हिंदुत्व के तर्कों को समय और काल की परिधियों से परे ले जाकर सर्वकालानीय बना दिया। परन्तु ऐसा सिर्फ गुजरात में ही क्यों हुआ?

इस तथ्य को और अधिक गहराई से जानने के लिए मै अपने दूसरे और काफी हद तक ‘‘गुजरात’’ केन्द्रित स्पष्टीकरण पर आता हूँ.  आंकड़े बताते हैं कि गुजरात का मुस्लिम समुदाय कई मायनों में देश के अन्य मुसलमान से आर्थिक-सामाजिक और शैक्षिणिक तौर पर काफी आगे है। जिस तरह गुजराती हिंदुओं ने अप्रवासी भारतीयों में सबसे शक्तिशाली समुदाय के तौर पर अपने आप को स्थापित किया है, बहुत कुछ वैसा ही गुजराती मुसलमानों के साथ भी है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ब्रिटेन में सक्रिय ‘भारतीय मुस्लिम’ नामक संस्थाओं को गुजराती मूल के मुसलमान संचालित करते हैं। ब्रिटेन की इंडियन मुस्लिम फेडेरेशन और कांउसिल ऑफ इंडियन मुस्लिमस, अमेरिका की इंडियन मुस्लिम एसोसिएशन और दक्षिण अफ्रीका की जमतियात उलेमा इसके सटीक उदाहरण हैं। ये एनआरआई मुसलमान न केवल गुजरात में मुस्लिम शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाओं को चंदे में भारी रकम देते हैं बलिक गुजरात में इनके द्वारा संचालित कई आर्थिक संस्थान भी हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि गुजरात के व्यावसायिक तंत्र में हिंदु और मुस्लिम अप्रवासी भारतीयों की भागीदारी महत्वपूर्ण है। परन्तु यह मानना कि इस तरह की आर्थिक भागीदारी में द्वन्द नहीं होगा, सर्वथा गलत होगा। हिंदु और मुस्लिम व्यवसायी वर्गों में कई स्तरों पर आर्थिक विरोधाभास भी हैं। इस तरह वर्ग और आर्थिक द्वंद के प्रश्न गुजरात के विशेष संबंध में अप्रवासी गुजरातियों से जुड़े हुए हैं।2002 के दंगों की समझ के लिए इन प्रश्नों को व्यापक स्तरों पर देखना होगा, विशेषकर ‘मुस्लिम छवि’ के दृष्टिकोण से।

गुजरात का सम्पन्न मुसलमान, हमें याद रखना होगा ‘सेक्यूलर मुसलमान’ जैसा नहीं है। सेक्यूलर मुसलमान से मेरा आशय 1950 के बाद जन्मे उस विशिष्ट मुस्लिम इलीट  से है, जिसने अपने आप को सांस्कृतिक मुसलमान कहलवाना शुरू किया। इस मुस्लिम इलीट  ने ‘‘धर्म का विरोध’’ कुछ इस तरह किया  ताकि अपने को और अधिक प्रगतिशील और जनवादी दिखा सके। इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप अंग्रेजी पढ़ा-लिखा एक ऐसा मुस्लिम तबका उदित हुआ जिसका आम मुसलमानों से कोई रिश्ता नहीं था. परन्तु सम्पन्न गुजराती मुसलमान इस तरह का ‘सेक्यूलर’ नहीं था। इस वर्ग की आधुनिकता में धर्म  का एक विशेष स्थान था।
पर कैसा धर्म? बदलते सामाजिक आर्थिक परिवेश मे गुजरात के संपन्न मुस्लमान नयी तरह की धार्मिकता की तलाश मे थे. उनके व्यवसायिक संबधों के लिए प्रचलित सूफी इस्लाम की धार्मिकता एक रुकावट बन रही थी. यही कारण था की 1950 के बाद गुजरात मे खास कर शहरों मे सूफी इस्लाम की लोकप्रियता लगातार घटने लगी. धार्मिकता  के इस रिक्त स्थान को तबलीगी जमात ने भरना शुरू किया. 

तबलीगी जमात की शुरुआत 1932 मे दिल्ली से हुई थी. यह एक मज़हबी आन्दोलन था जिसका उद्देश्य मुसलमानों को इस्लाम के मूल तत्व से परिचित करना था. तबलीग ने धार्मिक आडम्बरो का विरोध विनम्र तरीको से किया. सूफी इस्लाम को बुरा कहने की बजाय तबलीग ने लोगो को नमाज़ की दावत देना शुरू किया . इस  तरह न केवल मज़हबी लडाइयां दर किनार हो गयी बल्कि मुस्लिम व्यापारी वर्ग भी जमात की ओर आकर्षित होने लगा. जमात द्वारा स्थापित सिद्धांत   ‘‘अपना माल,अपना वक़्त और अपनी इबादत ’’ व्यवसायी वर्ग के लिए अनुकूल था. इस तरह के धर्म मे न तो आडंबर करने के खर्चे थे और न ही कोई राजनीतिक प्रोग्राम।

यही कारण था कि स्वंतत्रता के बाद के पहले दो दशकों में तब्लीगी जमात गुजराती  मुसलामानों की प्रमुख इस्लामिक धार्मिकता बन गई। हालांकि मुस्लिम धार्मिक विविधताएं बरकरार रहीं, परन्तु धीमी-प्रक्रिया के रूप में तब्लीगी जमात ने सूफी इस्लाम और अन्य मजहबी विश्वासों को किनारे कर दिया। रोचक बात यह है कि अप्रवासी भारतीय गुजराती मूल के मुस्लिम समूहों ने तब्लीगी जमात को न केवल भारत में पनपने में मदद की बल्कि पश्चिमी देशों में मौजूद मुसलमानों को भी जमात की धार्मिकता से परिचित कराया।

इस तरह गुजरात मे जो मुस्लिम छवि बनी वह देश में मौजूद अन्य मुस्लिम पहचान से थोड़ी अलग थी। जहां एक ओर गुजराती मुस्लिम छवि सम्पन्न होते ऐसे समुदाय की थी जिसके स्पष्ट अंतरराष्ट्ीय संबंध थे, वहीं तब्लीग की लोकप्रियता ने इस छवि में परम्परागत इस्लामी प्रतीक - दाढ़ी, टोपी, बुर्का, कुरान, मकतब, मदरसा जोड़ दिये।
हिंदुत्व की राजनीति की नजर से देखें तो गुजरात का मुसलमान एक ऐसा प्रतीक था जिसके जरिये से हिंदुत्व के तर्कों को साबित करना बहुत आसान हो गया। मुसलमानों की बढ़ती धार्मिकता को हिंदुत्व के लिए  खतरे के तौर पर  दिखाया जाने लगा. कुछ इसी तरह मुसलमानों की आर्थिक प्रगति  भी हिंदुओं के आर्थिक हितों की अनदेखी बताई जाने लगी। राम मंदिर आन्दोलन ने इन स्थापित जवाबो को नए अर्थ दिए, विशेष कर 1990 के बाद.

इस सम्बन्ध मे सोमनाथ मंदिर का ज़िक्र करना उल्लेखनीय है. 1950 मे सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण भी आस्था का तर्क दे गया था. इस प्रयोजन मे वहां पहले से मौजूद मंदिर के खंडहर तोड़े गए थे ताकि इतिहास का बदला लिया जा सके. उस पूरे प्रकरण मे सरदार पटेल की भूमिका अहम् थी.
परन्तु अडवाणी की 1990 की रथ यात्रा ने सोमनाथ के मंदिर को अयोध्या से जोड़ दिया. इस तरह गुजरात के हिन्दू-मुस्लिम द्वन्द जो आर्थिक और स्थानिये मुद्दों से परिभाषित हो रहे थे, एतिहासिक रंग मे रंग दिए गए. परिणाम स्पष्ट था. गुजरात का संपन्न मुसलमान जिसका महमूद गजनवी, सोमनाथ, ओर अयोध्या से कोई रिश्ता नहीं था, आम हिन्दू गुजरती का दुश्मन बना के पेश किया जाने लगा .
इस तरह हिंदुओं के साथ होने वाले ‘अन्याय का तर्क’ जो अब तर्क अमूर्त था इस नव स्थापित मुस्लिम छवि से मूर्त रूप लेता चला गया। इतिहास में मौजूद हिन्दू दमन की कहानियां जो सोमनाथ के मंदिर के विध्वंस से शुरू होती थी, अब गोधरा की छवि से जा मिलीं। इतिहास, वर्तमान से मिला और हिंदुत्व राजनीति आक्रोश की मनोभावना में बदल दी गई।

हमारा यह विश्लेषण दो बिन्दुओं को उठता है. पहला, छवियों का निर्माण, प्रसार और उनके स्वीकार करने की प्रक्रिया हिसा के तर्कों को मूर्त रूप देने अहम भूमिका निभाती है. दूसरा, गुजरात मे जिस विशिष्ट मुस्लिम छवि का निर्माण हुआ वह मुसलमानों की बदलती आर्थिक स्थिति सामाजिक  रुतबे  और परिवर्तित धार्मिकता पर आधारित थी. ऐसे मे मुसलमानों के खिलाफ़  हुई हिंसा का वैचैरिक  क्षेत्र  काफी हद तक गुजरात की आपनी विशिष्ट आधुनिकता के विमर्श मे निहित था.
यदि  इन  दोनों बिन्दुओं को मिलकर  देखा  जाये  तो  यह कहा  जा सकता है कि हिंसा के विमर्श को हिंसा के तर्कों से जोड़ कर देखना  चाहिए ताकि हिंसा जैसी अवधारना की विविधताओं से परिचित हुआ जा सके. मेरा मत है कि हिंसा के तर्कों की सही समझ हमें मूल्यों की राजनीति करने की सही समझ दे सकती है. 

(लेखक-परिचय:
जन्म: 17 मार्च 1971 को दिल्ली में
शिक्षा: दिल्ली और लंदन से राजनीतिशास्त्र की उच्च डिग्रियां
सृजन: समाज, राजीनीति और साम्प्रदायिकता पर प्रचुर लेखन इंग्लिश, हिंदी और उर्दू में
संप्रति: सीएसडीएस, दिल्ली में रिसर्च फ़ेलो
संपर्क: ahmed.hilal@)csds.in)
    

 




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2 comments: on "गुजरात नरसंहार के बहाने "

anwar suhail ने कहा…

स्तब्ध हूँ..हिलाल भाई को एन डी टी वी पर सुना/देखा है..उनका ये आलेख 'हमज़बाँ' में देकर आपने बड़ा काम किया है शहरोज़ जी, मैं तवील टिपण्णी दूंगा...

anwar suhail ने कहा…

हिलाल भाई कि चिंताएं और हम मुस्लिम लेखको कि चिंताएं समान हैं...शहरोज़ भाई ने इस आलेख को शाये कर बड़ा काम किया है. हिलाल के अन्य आलेख भी दें

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