बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

विकल्पहीनता में देश यानी वाम-वाम समय

  








 अमित राजा की क़लम से
दिल्ली और बाक़ी राज्यों के आम आदमी में फ़र्क़
जटिलताओं के देश भारत में राजनीति एक उलझी हुई डोर है। इस उलझी हुई डोर का एक सिरा दिल्ली में 'आप' नहीं-नहीं आम आदमी के हाथ लगा है। लेकिन डोर का दूसरा सिरा जबतक देश के बाक़ी  हिस्सों में आम आदमी के हाथ नहीं लगता है, अनबुझ पहेलियों में कैद सियासत मुक्त नहीं हो सकती। जो हो, दिल्ली के चुनाव परिणाम ने हाल के दिनों में विकसित हुई कुछ मान्यताओं की चिंदी उड़ा दी। ये जाहिर हो गया कि देश को कांग्रेस के साथ भाजपा का भी विकल्प चाहिए। दोनों दलों में एकरूपता है और वे एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते। आंकड़े भी इसे पुष्ट करते हैं।
मध्यप्रदेश में जहां मतदाताओ के 1.5 फ़ीसदी ने नोटा का सहारा लिया। वहीं राजस्थान में 1.8 फ़ीसदी और छत्तीसगढ़ में 3.4 फ़ीसदी ने नोटा पर बटन दबाया। जबकि दिल्ली में महज 0.6 फ़ीसदी मतदाता ही नोटा के साथ गए। मतलब साफ है कि मतदाताओ में दिल्ली के उम्मीदवारों को लेकर कन्फयूजन कम था।
जनता का जिन मुद्दों को लेकर रुझान केजरीवाल की पार्टी 'आप' की ओर गया, वे मुद्दे नए भी नहीं थे। वामपंथी दलों का मुद्दा भी यही था। माले विधायक रहे शहीद महेंद्र सिंह ने कई बार सदन में माननीयों को मिलने वाले उपहारों को लौटा दिया था । उनकी पार्टी के दूसरे  विधायकों ने भी यही किया। तीन बार विधायक और तीन बार सांसद रहे मार्क्सवादी समन्वय समिति केएके रॉय भी यही करते रहे। उन्होंने एक मुश्त 70 लाख पेंशन की राशि प्रधानमंत्री रहत कोष में जमा करा दी थी । क्योंकि इससे पहले उन्होंने कभी पेंशन को स्वीकारा ही नहीं था। सो पेंशन की राशि बढ़ते-बढ़ते 70 लाख हो गई थी। कई मार्क्सवादी बेवजह सुरक्षा लेने से भी इंकार करते रहे हैं। भाकपा के सांसद रहे भोगेन्द्र झा से लेकर सीपीएम के  नम्बूदरीपाद और वासुदेव आचार्य, देवाशीष दासगुप्ता तक मिसाल रहे हैं। वामपंथी माननीय राजधानी में मिले बंगलों में  नहीं रहकर भी मिसाल देते रहे हैं। ऐसे में वामपंथी दलों को भी चुनाव नतीजों ने अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार का मौका दिया है। क्योंकि  डेढ़ सालों की मेहनत और मुद्दों की राजनीति से उभरी 'आप' ने देश को कांग्रेस व भाजपा के साथ लेफ्ट पार्टियों का भी विकल्प पेश करने की स्थिति पैदा की है। हालांकि तात्कालिक मुद्दों से निकली और पिक तक पहुंची पार्टियों का इतिहास टूटन भरा रहा है। सोसलिस्ट पार्टी के बाद 1977 में जनता पार्टी, 1989 में बीपी सिंह की पार्टी भी इस लिस्ट में है। मगर इन पार्टियों में ऐसा टूटन आया कि 50 से अधिक छोटे-बड़े दल अस्तित्व में आये।
बहरहाल, देश की जनता ने बता दिया कि उनके लिए सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता कोई मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत, सुशासन, जनता के सेवकों पर जनता की गाढ़ी कमाई खर्च नहीं करना ही मुद्दा है। इसलिए इन मुद्दों के साथ चली  'आप' को बिना कोई बड़े मैदान में रैली किये आम आदमी ने चुन लिया। जनता ने बता दिया कि विकल्पहीनता की स्थिति में ही जनता पैसे पर वोटिंग करती रही और आज विधानसभाओं व संसद में करोड़पति माननीय बहुसंख्यक हो गए है।
                                                                                                                                                                

(लेखक-परिचय
जन्म: 09 मार्च 1976  को दुमका (झारखंड) में 
शिक्षा: स्नातक प्रतिष्ठा।
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख -रपट
संप्रति: दैनिक भास्कर के  गिरिडीह ब्यूरो
संपर्क:amitraja.jb@gmail.com)  

  

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3 comments: on " विकल्पहीनता में देश यानी वाम-वाम समय "

Unknown ने कहा…

वाम क्यूँ पिछड़ता चला जा रहा-यह बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न उत्तर की अनंत प्रतीक्षारत है.

Unknown ने कहा…

वाम क्यूँ पिछड़ता चला जा रहा-यह बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न उत्तर की अनंत प्रतीक्षारत है.

Unknown ने कहा…

वाम क्यूँ पिछड़ता चला जा रहा-यह बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न उत्तर की अनंत प्रतीक्षारत है.

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