बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

सिर्फ़ आप ही नहीं, कर सकते हो तुसी भी कमाल!

फ़ोटो गूगल महाराज की कृपया से











हालिया चुनाव पर कुछ इस तरह भी तो सोच सकते हैं
तमाम तामझाम और बेशर्मी लांघती मीडिया रपटों के बावजूद लोकमानस को समझ पाने में हम लोग असमर्थ रहे. लेकिन ज़िद की लकीर का अहं अब भी मुंह नहीं चुरा  रहा है. दरअसल सेठों का पैसा दाव पर है. उसकी अपनी ज़रूरतें हैं. अपने निहितार्थ हैं. शहरों के मध्य-वित्त वर्ग को उसका चमकीला रैपर बहुत सुहाता है. और देश को इन्हीं के मार्फ़त चलाने की क़वायद रवां-दवाँ है. गांधी का गाँव कहीं  खो गया है. उसकी चिंता जभी होती है, जब सेठों को अपने उत्पाद की बिक्री करनी होती है. इसी बहाने सड़कें तो बन ही जाती हैं. लेकिन वहीँ तक बनती हैं जहां क्रय-शक्ति है. और उत्पाद छोटे पैक में भी बिक जाता  हो.  इधर व्यस्क होते  शहरी युवाओं की ऊर्जा और उत्साह का इस्तेमाल धर्म और जाति की सियासत करने वाले उन्हें वरगलाकर करते हैं. और अभी उसका फीसद अच्छा-खासा है. लेकिन क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है कि हम गाँव में रहने वालों की अनदेखी कर दें.
लेकिन सच यह भी तो है कि जनता कार्पोरेट राजनीति और राजनीतिक कारोबार को कुछ-कुछ तो ज़रूर समझने लगी है. क्या ताज़ा चुनाव इसकी तस्दीक़ नहीं करता कि दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों से जन-मोह भंग हो रहा है. और इसकी शुरुआत तो बहुत पहले दक्षिण और पूर्वोत्तर में  हुई. बाद में उत्तर प्रदेश और बिहार-झारखंड  में उभरे इलाक़ाई दलों ने बखूबी महसूस  किया। तुरंता मिसाल दिल्ली की है. जहां आप  ने कमाल कर दिया। यदि दिल्ली की तरह ही राजस्थान,  छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कोई तीसरा विकल्प होता तो क्या परिणाम यही होते। गर पुण्य प्रसून  बाजपेयी जैसा पत्रकार यह कहता है कि   'कांग्रेस के खिलाफ गये चार राज्यों के जनादेश का सबसे बडा संकेत 2014 में एक नये विकल्प को खोजता देश है' तो गलत क्या है. यह विकल्प कांग्रेस या भाजपा से इतर तीसरी राह की और अग्रसर होगा।
समय है कि हर क्षेत्र की सियासी जमात अपनी खुन्नस त्याग कर  मज़बूत तीसरा मोर्चा तैयार करें तो इन बड़बोलों का गुब्बारा हवा हो जाए! तभी नमो जाप करने वाले नमो-नमो करने लगेंगे। क्योंकि वो सोच रहे हैं कि  कांग्रेस की नीतियों को लेकर बढ़ता आक्रोश उन्हें सत्तासीन कर देगा। यदि इन दोनों के अलावा तीसरा विकल्प सामने होगा तो जनता निसंदेह उसे ही तरजीह देगी। सच्चे लोकतंत्र की भी यही मांग है.  वर्ना तमाशा देखते रहिये।
 छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के खिलाफ लगभग 59 प्रतिशत मत पड़े लेकिन रमन सिंह महज़  41.4 प्रतिशत मत पाकर फिर ताज सम्भाल लेंगे ! जबकि सिर्फ एक प्रतिशत से भी कम मत लाने वाली कांग्रेस विपक्ष का स्वाद लेगी। हालांकि विकल्प न होने की स्थिति और नक्सली हिंसा में मारे गए नेताओं की हमदर्दी में ही उसे यह वोट मिल गया। तस्वीर तो यही है कि मतदाता देश में केंद्र सरकार से नाखुश थे. हर जगह कांग्रेस के विरोध में ही मत पड़े. गर कोई लहर रहती तो वोट का प्रतिशत भाजपा का दिल्ली और छत्तीसगढ़ में इतना कम न होता। हद तो यह है कि सरगुजा में जिस नक़ली लाल क़िले से नरेंद्र मोदी ने सभा संबोधित की थी, वहाँ ही कई विस से भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो गया.    


      





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1 comments: on "सिर्फ़ आप ही नहीं, कर सकते हो तुसी भी कमाल! "

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

अच्छा लिखा है. बधाई.

रूपसिंह चन्देल

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