बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

चुप होंगे साहित्यकार-कवि


टिटिहरी गाएगी मृत्युराग













अदनान कफ़ील की कविताएं

आताताई

सुनो साथी !
उस दिन की कल्पना करो
जब आएगा आताताई
अपने लश्कर के साथ
इन मक्खन-सी मुलायम
सड़कों को रौंदते हुए
कुचलते हुए हरी दूब को।
उस दिन तुम्हारे चौपाल पर धूल उड़ेगी
कबूतर दुबक जायेंगे
अपने दड़बों में
टिटिहरी गाएगी मृत्युराग
उस दिन सूरज नहीं खिलेगा आकाश में
बल्कि दूर क्षितिज के उस पार
किसी अज्ञात कोने में
सहमा दुबक जायेगा।
रहट ख़ामोश होगी
बेज़ुबान होगी बुलबुल

लेखक चुप होंगे
चुप होंगे साहित्यकार-कवि
जो नहीं होंगे चुप उनके ज़ुबान खेंच लिए जायेंगे
अखबार के पन्ने स्याह होंगे
आतताई के स्वागत गीतों से
उनमें दर्ज होंगी आततायी की जीवनी
उससे सम्बंधित छोटी-छोटी बातें
मसलन उसके मूंछों की लम्बाई-चौड़ाई वगैरह-वगैरह

साथी ! उस दौर में वो कलम घसीट बड़े साहित्यकार-पत्रकार कहलायेंगे
जो बैठे होंगे साहिब की गोद में
उस दौर में बनेंगे बड़े-बड़े पुल, मेट्रो-रेल
बड़ी प्रगति होगी
लेकिन रघुआ फिर भी मैला ही उठाएगा
कल्लन मियाँ चाय ही बेचेंगे।

सड़कें रगड़-रगड़ कर चमकाई जाएँगी
जिसपर चलेगा आततायी अपने लश्कर के साथ
उसकी भावनाहीन आँखें तनी होंगी अभिमान से
उसके चेहरे पर बिखरी होगी
विजयी कुटिल मुस्कान

आततायी होगा उस दौर का अकेला तानाशाह
साथी उस दौर में हमें तय करनी होगी अपनी भूमिका
कि हम कैसे जीना पसंद करेंगे
अँधेरे के अधीन होकर
या फिर
अपने कलम को तलवार
और अपनी हड्डियों को मशाल बना कर. 

झूठों के शिलालेख

वो लिखेंगे झूठ
शिला-खण्डों पर
ताकि सभ्यता के
समाप्त हो जाने के बाद भी
बचा रह जाये
उनका झूठा-सच
लेकिन साथी
हम लिखेंगे सच
चाहे रेत ही क्यूँ न हो अपने पास
साथी हम बोलेंगे सच
तब तक
जबतक कि
हमारी ज़ुबाने नहीं काट ली जातीं।

एक कवि का डर
मैं मौत से ख़ायफ़ नहीं होता
न ही मुझे डर लगता है
किसी भूत-पिशाच-प्रेतात्मा से
लेकिन मैं डरता हूँ
वक़्त के
अंतहीन-संकरे-घुप्प-सुरंग से
डर लगता है मुझे
इतिहास की डरावनी आँखों से
डरता हूँ मैं कभी-कभी अपने ही हाथों से
कभी-कभी मैं अपने आप से
बहुत डरता हूँ साथी...

पिपासा

जब भी तुम्हें
अपनी इन आँखों से देखता हूँ
हर दफ़ा
थोड़ा ही देख पाता हूँ
और तुम्हें
सम्पूर्णता में देखने की तृष्णा
और बढ़ जाती है
मैं इन कंचे-सी अपनी आँखों को
अब और नहीं पहनना चाहता
मैं तुम्हें
एक अंधे की आंख से
देखना चाहता हूँ ...

साथी से

ये चराग़ बुझा दो
मैं तुम्हें अँधेरे में देखना
ज्यादा पसंद करता हूँ
क्यूंकि
अँधेरे में
मेरे अन्दर का आदमी
तुम्हें
एक आदमी की तरह देखता है
एक औरत की तरह नहीं...

देह से परे

तुम्हें हर दफा
एक देह की तरह देखा गया
कभी तुम्हें किसी मूर्ति में जकड़ा गया
तो कभी तुम्हें
किसी पेंटिंग में बंद कर
लटकाया गया
किसी दीवार से
सबने तुम्हारे आरिज़ के रंग और सुडौलता
के क़सीदे पढ़े
लेकिन किसी ने नहीं देखी
तुम्हारी पनीली आँखें
तुम्हें घुटते हुए किसी ने नहीं पाया
लेकिन मैं तुम्हारे अस्तित्व को
समग्रता में देखता हूँ
तुम्हारी कठिनाइयों, संवेदनाओं और
संघर्षों का इकलौता गवाह हूँ मैं
मैं तुम्हें एक देह की तरह नहीं
एक जीते जागते इंसान की तरह देखता हूँ .....

मैं अब सोना चाहता हूँ

मेरा सिर अनिर्वचनीय बोझ से
दुःख रहा है साथी
मेरी जिह्वा में
बहुत ऐठन है
मेरी आँखों का तेल
चूक गया है
लम्बे सफ़र के बाद
अब मैं दो घड़ी
सोना चाहता हूँ साथी ...

सोता हुआ आदमी

सोता हुआ आदमी
झूठ नहीं बोलता
सोता हुआ आदमी
गाली नहीं देता
सोता हुआ आदमी
किसी का क़त्ल नहीं करता
न ही सोते हुए रचता है साज़िशें
सोता हुआ आदमी मुखौटा भी नहीं लगाता
सोते हुए आदमी, आदमी होता है.

मैं लिखूंगा एक कविता मेरी जान

मैं लिखूंगा एक कविता मेरी जान
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए
जिसमें करूँगा ज़िक्र तितलियों का
मधुमक्खियों का, चींटियों का.
गुलाब, चमेली के फूलों और अमलतास के पत्तों का
उसमें करूँगा ज़िक्र तुम्हारी भिन्न-भिन्न मुद्राओं का
मापूंगा तुम्हारी हँसी को अपनी कविता के स्केल से
और खींचूंगा वैसी सैकड़ों हंसी
और बिखरा दूंगा तुम्हारे चारों ओर
चाँद से थोड़ी चांदनी उधार मांग लूँगा
और बुनूँगा उससे एक चमकदार शॉल तुम्हारे लिए
तारों से थोड़ी टिमटिमाहट चुरा लूँगा
और तुम्हारी नाक की लौंग में नग की जगह भर दूंगा

हाँ मेरी जान मैं लिखूंगा एक कविता
एक ऐसी कविता जिसमें दर्ज होगा
तुम्हारा गुनगुना स्पर्श
तुम्हारा मुलायम-गीला-चुम्बन
जिसमें दर्ज होगी तुम्हारे गालों की लालिमा
तुम्हारे गुलाबी होंठ
तुम्हारी रूबी और नीलम सी आँखें

हाँ मेरी जान मैं लिखूंगा एक कविता
ऐसी कविता जिसमें इन सबका ज़िक्र होगा
लेकिन न होगा तो सिर्फ मेरा
क्यूंकि तब मैं 'मैं' नहीं रहूँगा
'तुम' हो जाऊंगा.
तब तुम मुझे ख़ुद में तलाशना.....

शैतान

अब वो काले कपड़े नहीं पहनता
क्यूंकि तांडव का कोई ख़ास रंग नहीं होता
ये काला भी हो सकता है और लाल भी
भगवा भी और हरा भी.

अब वो आँखों में सुरमा भी नहीं लगाता
अब वो हवा में लहराता हुआ भी नहीं आता
ना हीं अब उसकी आँखें सुर्ख और डरावनी दिखतीं हैं
वो अब पहले की तरह चीख़-चीख़कर भी नहीं हँसता
ना हीं उसके लम्बे बिखरे बाल होते हैं अब.

क्यूंकि इस दौर का शैतान
इंसान की खाल में खुलेआम घूमता है
वो रहता है हमारे जैसे घरों में
खाता है हमारे जैसे भोजन
घूमता है टहलता है
ठीक हमारी ही तरह सड़कों पर
और मज़ा तो ये
कि वो अखबार में भी छपता है
टी.वी. में भी आता है.

लेकिन अब उसे कोई शैतान नहीं कहता
क्यूंकि उसके साथ जुड़ी होती हैं जनभावनाएँ
लोग उसे "सेवियर" समझते हैं
और अब अदालतें भी कहाँ
सच और झूठ पर फैसले देतीं हैं साथी ?
अब तो गवाह और सबूत एक तरफ़
और सामूहिक जनभावनाएँ दूसरी तरफ.

अब इस अल्ट्रा मॉडर्न शैतान की शैतानियाँ
नादानियाँ कही जाती हैं
क्रिया-प्रतिक्रिया कही जातीं हैं.

इस दौर का शैतान बेहद ख़तरनाक है
क्यूंकि अब उसकी कोई ख़ास शक्ल नहीं होती
वो पल-पल भेस बदले है साथी
वो तेरे और मेरे अन्दर भी
आकर पनाह लेता है कभी-कभी
अब ज़रूरत इस बात की है
कि हम अपने इंसानी वजूद को बचाने के लिए
छेड़ें इस शैतान के साथ
एक आख़िरी जिहाद
एक आख़िरी जंग
इससे पहले की बहुत देर हो जाए..


(कवि-परिचय:
 जन्म: ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में जुलाई  30, 1994
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में स्नातक
संप्रति: दिल्ली रहकर अध्ययन और स्वतंत्र लेखन 
सृजन: बचपन से ही शायरी और कविता, छिटपुट प्रकाशन
संपर्क: thisadnan@gmail.com )

हमज़बान पर अदनान  की और कविताएं



read more...

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

जांनिसार के नाम सफ़िया के ख़त

पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे













सैयद एस.तौहीद की पेशकश


नए विकल्पों की तलाश में जब जांनिसार अख़्तर  भोपाल से बंबई आए तो पत्नी सफ़िया वहीँ रुक गयी थी. आपके साथ आपके बच्चे सलमान एवं जावेद अख़्तर भी रह थे.  सफ़िया हमीदिया कालेज में दी जा रही सेवाओं को जारी रखना चाहती थी. आप वहां पढाया करती थी. आप जांनिसार से बराबर खतो-किताबत करती रहती थी. कभी-कभार तो हफ्ते में दो खत लिखना हो जाता था. इन ख़तो में जज्बा-ए-मुहब्बत एवं हिम्मत बढ़ाने का दम था. अभी जान साहेब को रवाना हुए एक बरस भी नहीं गुजरा था जब सफ़िया सख्त बीमारी की शिकार हो गई. आपको गठिया एवं कर्क ने घेर रखा था. बीमारी से न घबराते हुए सर पड़ी मुसीबत का डट कर सामना किया. भोपाल में रहते हुए आप पर कई इम्तिहान आए लेकिन हिम्मत नहीं हारी. मुश्किल भरे उन दिनों लेखा-जोखा इन खतों में मिलेगा. उनसे गुजरते हुए लिखने वाले की अदबी जबान का का कायल होना होगा .इसे गमगीन ही कहा जाएगा कि सफ़िया के खतो को सिर्फ निजी ग़मों व परेशानियों का आईना माना गया. सफ़िया सिराजुल हक चालीस दशक की पढ़ी लिखी सेक्युलर महिला थी.प्रगतिशील विचारधारा को लेकर चलने वाली साफिया ने अपनी मर्जी का हमसफर चुना. फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आप मजाज की बहन थी. अदब में खत-किताबत को ग़ालिब से शुरू माना जाएगा क्योंकि आपने खतों को रचना की शिद्दत से लिखा.इनमें शायरी एवं गज़ल की गहराई का एहसास होता है. खतों में फिराक एवं वस्ल के पहलू के साथ मुश्किलों का हिम्मत से सामना करने का जज्बा मिलता है. साफिया के उन खतों में से एक ख़त आपके लिए..

भोपाल
फरवरी 1952

बेशकीमत मुहब्बत

आपका ख़त मिला .मेरे बारे में इस कद्र फिक्र ना किया करें. आपने एक हिम्मत वाली ईरादे की पक्की लड़की को हमसफर चुना. तमाम इम्तिहान के बावजूद सफ़िया ने अब भी पुराना जज्बा नहीं खोया. हालांकि कभी कभी जिन परेशानियों से गुजर रही होती उनके बारे में बात निकल जाती है.जानती हूं आप भी परेशान हो जाते होंगे.लेकिन क्या करूं उन बातों को आपसे ने कहूं तो फिर किससे. दिसंबर में सेहत थोड़ी दुरुस्त थी .लेकिन अब तकलीफ फिर वही पहले की तरह आ रही. जितनी देरी तक मुमकिन होगा खुद से इन्हें संभाल कर चलूंगी.लेकिन इस सिलसिले में हमें कोई फैसला जल्द लेना होगा.इलाज की खातिर वक्त बे वक्त बराबर आपको आना होगा. कोई दूसरी सुरत नजर नहीं आती. आप ने कहा कि बम्बई छोड़कर आएंगे तो काफी नुक्सान होगा,रोजगार का सवाल खड़ा हो जाएगा. बेरोजगारी अपने साथ नई मुसीबतें लेकर आती है.उस चीज को लेकर आप जरूरत से ज्यादा फिक्रमंद हो जाते हैं. इन हालात में क्या कहना ? आप ही बताएं! कुल मिलाकर अब यही मालुम हो रहा कि इन हालातों से आपको समझौता करना होगा. मेरे खातिर जिस तरह आपके काम के साथ मुझे करना है. बच्चो की खातिर हमें मिलकर चलना होगा .हमें उनकी परवरिश में कमी नहीं रखनी.मां-बाप के नाते उनकी उम्मीदों साथ नाइंसाफी नही की जाएगी. इस 12 फरवरी तक आप यहां फुर्सत लेकर आएं ताकि हम परिवार के साथ थोडा ज्यादा वक्त गुजारें. दो हफ्ते
मुनासिब होंगे.


मिसदाक़ के आने पर जादू बहन से नोटबुक में एक कहानी लिखवाए बिना उसे रिहा नहीं करता.फिर वो उस लिखे के उपर अपनी बात रखता. कहानी को लेकर जादू की बातें मिसदाक़ को सोचने पर मजबूर कर जाती हैं. भाई की जहीन नवाजी के लिए उसके पास लफ्ज नहीं होते.अब तो जनाब ओवेस भी स्कुल जा रहे. जादू छोटे का खूब ख्याल रखा करता है. कल बीते दिन की बात सुनें कि ओवेस तीन गलतियों में उलझ गया था. एक जिसे समझाय जाना बेहद जरुरी था जिसमे वो स्कूल की घंटी बजने का मायने सिर्फ घर वापसी समझ रहा था. आपकी घर आमद की खबर को लेकर बच्चों में बेइंतेहा खुशी है. ऐसा क्या ख़्वाब दिखा दिया इन्हें कि रातों में नींद नहीं आती. हो सके तो एक खत इनके नाम भी लिख भेजिए. एक मरहले पर आपको इन बच्चों को भी लिखना चाहिए. अख्तर.. बीमारी को लेकर पूरी जनवरी परेशान रही.इंतेखाब की गहमा-गहमी ने अलग चिडचिडा बना दिया. बीमरी रह-रहकर तकलीफ का सबब हो रही. नहीं मालुम आगे क्या पेश आए. उस दिन का हमें मिलकर सामना करना है. इस वक्त कालेज में हूं तालिबों का आना जाना लगे होने से बातें छुट रही हैं. इसलिए सोचती हूं बाक़ी बाद के लिए मुनासिब होगा. घर पर इस तरह की परेशानी नहीं होगी.. बच्चे भी स्कुल में होंगे. सो वहीँ
पर इत्मिनान से आगे लिखूंगी. तब तक के लिए हजारों सलाम . भोपाल आमद की तारीख लिख भेजिए....

आपकी
सफ़िया


(रचनाकार-परिचय:
 जन्म: पटना बिहार
शिक्षा : जामिया मिल्लिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म समीक्षाएं
संप्रति :  सिनेमा व संस्कृति विशेषकर हिंदी फिल्मों पर लेखन।
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

सैयद एस.तौहीद को  हमज़बान पर पढ़ें


read more...

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

किसको राहत देती हैं संघ की बातें

चित्र: गूगल से साभार

हमारी अतियों से माहौल और बिगड़ेगा ही
 
भवप्रीतानंद की क़लम से
आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने जब हिंदू महिलाओं को कितने बच्चे जन्म दें के मुद्दे पर बीजेपी के कुछ सांसदों को अघोषित रूप से फटकार लगाई थी तो यह भान स्वभाविक था कि चीजों को तार्किक नजरिए से देखने की कोशिश की जा रही है। उसी के आसपास दिल्ली में चर्चों पर हुए हमलों के विरोध में पीएम नरेंद्र मोदी की स्पष्ट टिप्पणी भरोसा जगाने वाली लगी थी। पर पता नहीं क्यों बार-बार कुछ मुद्दों पर, जिसपर बोलने की आवश्यकता नहीं है और जिसका कोई तार्किक आधार हम प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं उसपर कुछ बेतुका बोल दिया जाता है। मदर टेरेसा में मन में लोगों को  ईसाई बनाने की भी मंशा थी, इसे पुष्ट करने के लिए हमारे पास कोई तथ्यात्मक सबूत नहीं है। खुद मोहन भागवत  के पास ऐसा कोई सबूत हो तो वे बताएं, और साबित करें। बाद में जब मीडिया में ऐसे बयान मुद्दे के रूप में व्याख्यायित होते हैं तो सफाई दी जाती है कि बयान को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया। यही सफाई बोलते  वक्त ध्यान में रखी जाए तो ऐसी नौबत ही नहीं आएगी। इससे होता कुछ नहीं है पर ऐसे-ऐसे वक्तव्यों को एक तार में जोड़कर यह साबित करने का  प्रयास किया जाता है कि आरएसएस की सोच इससे आगे बढ़ी ही नहीं है। अगर किसी पार्टी या संगठन में समस्या समाधान करने की सम्यक सोच है तो वह कश्मीर समस्या का समाधान क्यों नहीं कर देते हैं जो सर्वमान्य हो। बार-बार उन चीजों को कुरेद कर जिसका कोई इतिहास हमारे पास उपलब्ध नहीं है, उसपर बयानबाजी से क्या होगा।

जब मुसलामानों और ईसाइयों के लिए घर वापसी वाला बेतुका शोर वातावरण में घुल रहा है तो मोहन भागवत को यह स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि हिंदू धर्म में वह मुसलमान और ईसाई बने हिंदुओं को वापस लाकर ब्रह्मण का दर्जा देंगे। क्योंकि वह भागे ही इसलिए थे कि उन्हें हिंदू धर्म की अतियां जीने नहीं दे रही थीं। लतमारा की श्रेणी में रखे हुई थी। मैला ढुलवाती थी। गांव के अंतिम छोर पर उसके रहने के लिए झुग्गी मुकर्रर थी। उसकी छाया तक ब्रह्मण-राजपूत अपनी जमीन में पडऩे नहीं देता था। कोई भी हिंदुवादी संगठन खुलकर, इतिहास को ठीक से पढ़कर बताए कि किसी देशकाल में बड़ी संख्या में ब्रह्मण और राजपूतों ने धर्म परिवर्तन किए हैं।
सत्ताधारी पार्टी भाजपा के लिए यह सतत प्रक्रिया की तरह हो जााएगा कि कोई संघी जबतब कुछ बोल देगा और केंद्र सरकार यह कहकर किनारा करते रहेगी कि इस वक्तव्य का सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। आप से दिल्ली में करारी हार के बाद प्रधानमंत्री चर्चों के हमले पर बोलने के लिए मजबूर हुए नहीं तो शायद ही उनसे इस तरह की भाषा की अपेक्षा थी।  पता नहीं अपनी इस भाषा पर वह कालांतर में कायम रह भी पाएंगे या नहीं। मीडिया से वह जिस तरह की दूरियां बनाकर रखते हैं, वह चीजों को भड़काउ बनने का वक्त दे देती हैं। गुजरात के गोधरा कांड के बाद जो उन्होंने मीडिया से परहेज किया वह पीएम बनने तक जारी है। यह बहुत खतरनाक इस मायने में  है कि राष्ट्रीय स्तर के संवेदनशील मुद्दों पर प्रधानमंत्री का वक्तव्य ही मायने रखता है, क्योंकि उसे ही पार्टी लाइन कहा जाता है।
गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी बहुत कम लाइम लाइट में दिखते हैं। जरूरी होने पर ही बोलते और दिखते हैं। लेकिन उनका मन भी संघी आग्रह  कहां छोड़ पाता। एक आरोपी बलात्कारी आसाराम बापू को वह पूज्य संत कहने में एक जरा हिचक महसूस नहीं करते हैं तो शक होता है कि सत्ता के इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठे लोग क्या देश की संप्रभुतता से न्याय कर पाएंगे। उसकी विविध सांस्कृतिक विरासत को संजोकर रख पाएंगे। 

अभी तो सत्ता के एक साल भी पूरे नहीं हुए हैं। ऐसी नकारात्मक चीजों से उन तत्वों को बढ़ावा ही मिलेगा जो दंगे करने में या फिर अराजक स्थिति पैदा करने में सहायक होते हैं। कांग्रेस ने भ्रष्टाचार में जिस तरह से अराजकता की स्थिति पैदा कर दी थी, वैसी ही स्थिति भाजपा के शासनकाल में समाज के स्तर पर बलवती होंगी तो इसके कई खतरनाक परिणाम हमें भुगतने पड़ेंगे। आरएसएस की धर्म से जुड़ी बयानबाजी में वह तत्व निराधार रूप से संपुष्ट होते रहते हैं कि मैं इस देश का असली वारिस, बाकी सब बाहरी। बाहरी को अगर रहना है तो मैंने जो तय किया उसके तहत रहो।
किसी को कोई शक नहीं पालना चाहिए, कांग्रेस की दुर्गति का मुख्य कारण है कि वह भ्रष्टाचारी और कालाबाजारी पर मजबूती से काबू नहीं रख पाई। उसने सत्ता को बेजा इस्तेमाल होने दिया। मनमोहन सिंह को कठपुतली की स्थिति में ला दिया। लगातार दस वर्ष तक सत्ता में रहने के बाद अगर भ्रष्टाचारी और कालाबाजारी पर अंकुश लगा लिया गया होता तो देश की प्रगति की रफ्तार दूनी तो निश्चित ही होती। भाजपा के शासन का मूल्यांकन जल्दबाजी होगी, क्योंकि अभी एक वर्ष भी पूरे नहीं हुए हैं, पर एक जिस मोर्चे पर अभी से वह कमजोर दिखाई दे रही है वह है उसका संघ से, उसके विचारों से लाग-लपेट। बार-बार संघ की ओर से और पार्टी की ओर से इस मद्देनजर सफाई दी जाती है कि दोनों एक-दूसरे के कार्यों में दखल नहीं देते हैं। पर जब बिना लगाम की बातें निकलती हैं तो समाज में उसके बहुत अच्छे अर्थ नहीं जाते। और जब कोई एक ही प्रकृति की चीजें बार-बार होती रहती हैं तो वह कई मुश्किलें खड़ी करती हैं। कें्रद के लिए यह स्थिति असमंजसपूर्ण होती है। मेक इन इंडिया को यह सफाई देनी पड़ी है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी से उनका कोई लेनादेना नहीं है। कल को गृहमंत्री जी भी सफाई देंगे।

अब जिला स्तर पर, राज्य के स्तर पर होने वाले हिंदू सम्मेलन को अधिक मीडिया कवरेज इसलिए मिलेगा क्योंकि भाजपा सत्ता में है। सम्मेलन करने में कोई गड़बड़ी नहीं है। पर वहां से कोई ऐसी  बात निकलकर समाज के आखिरी छोर तक नहीं पहुंचनी चाहिए जो बेवजह लोगों को उत्तेजित करती है। कोई भी धर्म, मथकर ही दुरुस्त और तार्किक होता है। विशुद्ध आस्था को भी तार्किकता की कसौटी पर कसा होना चाहिए, नहीं तो मुश्किलें पैदा होती हैं। इराक में आईएस की गतिविधियां इस्लाम की व्याख्या नहीं है। इस्लाम के नाम पर वह रोटी इसलिए सेंक पा रहे हैं कि चीजें सामाजिक स्तर पर बहुत विद्रूप रूप में पहुंची और लोगों को उत्तेजित करती गईं। और अब वह काबू से बाहर हो गईं हैं। किसी को जला देना, किसी को काट देना, मौत की सजा देने से पहले यह पूछना कि आपको मौत से पहले कैसा महसूस हो रहा है आदि जघन्यतम स्थितियां कोई एक दिन की उपज नहीं है। विद्रूप चीजों और विचारों के हावी होने और समाज में उसके  व्यवस्थित रूप ले लेने का कारण यह नासूर पैदा हुआ। हमें इससे बचना है किसी भी कीमत पर। फरवरी-मार्च के इस मौसम में अभी फुलवारी में एक साथ कई फूल खिले होंगे,  अपना-अपना स्पेस लेकर। हमें विचारों को स्पेस देना होगा। ऊंचे पद पर बैठे लोगों को न तो लट्ठमार भाषा शोभा देती है और न ही लट्ठमार स्वभाव।

 













(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )

हमज़बान पर पढ़ें  भवप्रीतानंद को

read more...

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

‘मुर्दहिया’ के बहाने लोक-चिंता

ज़मीन की अतल गहराईयों में धँसी थी जिसकी जड़े






 






सुनील यादव  की क़लम से

मुर्दहिया तद्भव में छप रही थी उससे पहले मैं प्रो. तुलसी राम को बहुत कम जानता था, अगर जानता था तो गोरख पाण्डेय पर उनके अविस्मरणीय और जीवंत सस्मरणों  के लिए. अद्भुत यदाश्त थी इस व्यक्ति के पास, बनारस से लेकर जेएनयू तक के गोरख से जुड़े किस्से जब वे सुनाते थे तो एक छवि बनती जाती थी गोरख की और साथ में तुलसी राम जी की भी.  हालांकि बाद में उन्होने अपनी आत्मकथा मणिकर्णिका में उसे लिखा भी । मुर्दहिया को तद्भव में पढ़ने के बाद उसकी फोटो कॉपी के साथ मैं प्रो. तुलसी राम के गाँव धरमपुर पहुंचा.  धरमपुर मेरे गाँव से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। वहाँ पहुँचकर यह अहसास हुआ कि कुछ नहीं बदला है, मैं उसी मुर्दहिया में खड़ा हूँ.  यह मुर्दहिया सिर्फ धरमपुर में ही नहीं है यह मुर्दहिया पूर्वी उत्तरप्रदेश के हर गाँव में है। अन्य गांवो की तरह दक्खिन टोला मेरे गाँव में भी है जिसे लोग ‘चमरौटी’ कहते हैं, यह ‘चमरौटी’ उसी तरह नहीं है, जिस तरह अहिराना, कोइराना, साहबाना या कनुवाना है, यह चमरौटी एक पूरवा का नाम नहीं है बल्कि एक घृणा का नाम है, यह एक तरह की गाली है, जो इसमें रहने वालों की आत्मा को हर रोज छलनी करती रहती है । मुर्दहिया इसी दक्खिन टोले का मर्मांतक दास्तावेज है । यह अकारण नहीं है कि तुलसीराम अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ नाम से लिखते हैं.  हिंदू समाज में जो स्थान मणिकर्णिका का है वही स्थान उनके गाँव धरमपुर की दलित बस्ती का मुर्दहिया से है। वे लिखते भी हैं कि “उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक मुर्दहिया ही होता।”
    
युवा कथाकार और पत्रकार अनिल यादव उनके संदर्भ में बिलकुल सटीक लिखते है कि “वे लंबे समय तक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफेसर रहे। लेकिन कभी उस फर्मे में फ़िट नहीं बैठे जिसमें सगर्व समा जाने के बाद जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के ज़्यादातर अध्यापक चमकीले प्लास्टिक के बने ज्ञानी लगने लगते हैं। उन्हें देखकर हमेशा मुझे उस धातु की महीन झंकार सुनाई देती थी जिसके कारण भुखमरी, जातीय प्रताड़ना का शिकार, सामंती पुरबिया समाज में दुर्भाग्य का प्रतीक वह चेचकरू, डेढ़ आंख वाला दलित लड़का घर से भागकर न जाने कैसे अकादमियों में तराश कर जड़ों से काट दिए गए प्रोफेसरों की दुनिया में चला आया था। अपमान से कुंठित होने के बजाय पानी की तरह चलते जाने का जज़्बा उन्हें बहुतों के दिलों में उतार गया था। तुलसी राम ने दिखाया कि दलित सिर्फ बिसूरते नहीं हैं, उनकी भी आत्मसम्मान की रक्षा के लिए लड़ने की परंपरा है, अपने हथियार हैं।”(कबाड़खाना ब्लॉग पर)
    प्रख्यात दलित चिंतक प्रो. तुलसी राम के चिंतन पर बहुत कुछ लिखा गया है उसे मैं छोड़ रहा हूँ, मैं उनके एक बिलकुल अलग रूप को आपके सामने रखने जा रहा हूँ, वह है उनकी ‘लोक चिंता’। इनकी चर्चित आत्मकथा मुर्दहिया लोक-चेतना से सराबोर है। इस आत्मकथा ने आत्मकथा के लगभग सारे प्रतिमानों के साथ सिद्धांतों को भी ध्वस्त कर दिया । जहाँ परंपरागत आत्मकथाओं में लेखक ‘मैं’ से ‘समाज की ओर जाता है। वही इस आत्मकथा में लेखक अपने समाज की पूरी सांस्कृतिक प्रक्रिया से गुजरते हुए ‘अपने’ तक आता है। इसमें लेखक अपने समाज का जिस तरह समाजशास्त्रीय आख्यान प्रस्तुत करता है,  वह किसी भी समाज के अध्ययन के लिए समाजशास्त्रियों को चुनौती है। अपने समाज के जीवन स्तर के एक-एक तत्व की बेबाक प्रस्तुति है ‘मुर्दहिया’। इसमें लोक की तमाम रीति-रिवाज, परंपराएँ, लुप्त होते संस्कार, गीत तथा जातियों के साथ अपने भाषा के लुप्त होते शब्दों को बचा लेने की जोरदार मुहिम है। इसमें ‘लोक’ और ‘लेखक’ एक-दूसरे के सहचर बनकर चलते हैं। प्रो. तुलसीराम ने लिखा है कि ‘‘मेरे जैसा कोई अदना जब भी पैदा होता है। वह अपने इर्द-गिर्द घूमते लोक-जीवन का हिस्सा बन ही जाता है। यही कारण था कि लोकजीवन हमेशा मेरा पीछा करता रहा।”1

आज जिस तरह बाज़ारीकरण ने गाँवों को अपने चपेट में लिया है। गाँवों की सामूहिकता नष्ट-भ्रष्ट हो गई है। कई लोक-कलाएँ लुप्त होती जा रही हैं और कितनी तो नष्ट हो गई है। इसके बारे में ‘मुर्दहिया’ में प्रो. तुलसीराम लिखते हैं कि ”शादी विवाहों के इन अवसरों पर भांड़-मंडलियों या नौटंकियों का आयोजन दलितों के बीच आम बात थी। इन अत्यंत आकर्षक मंडलियों या नौटंकियों में नाटक से लेकर गायक, तबलची, अभिनेता, स्वांग आदि कोई प्रोफेशनल व्यक्ति नहीं बल्कि वही अधपेटवा गुजारा करने वाले हरवाहे हुआ करते थे।”2 वास्तव में लोक कलाकार बनने के पीछे भूख के अर्थशास्त्र को रेखांकित करना, उसके नष्ट होने के कारणों तक पहुँचने का रास्ता भी दिखाता है। बाज़ारवाद के दबाव के बीच ‘थियेटर’ तक दम तोड़ने लगे हैं तो ये लोक कलाएँ कैसे ठहर पाती। आज लोक कलाकारों की स्थितियाँ आत्महत्या तक पहुँच चुकी है। यह भूख के अर्थशास्त्र से ही समझा जा सकता है।
    “लोक कला मंडलियों में लैला-मजनूँ, शीरी-फरहाद, सुल्ताना डाकू आदि जैसे नाटकों का मंचन भी दलित कलाकार आकर्षक ढंग से करते थे। इन सभी नाटकों का अंत एक विचित्र समापन शैली में होता था।... इस कड़ी में बरात प्रस्थान के समय एक खास किस्म का नृत्य किया जाता था, जिसे ‘दुक्कड़’ कहते थे। यह बहुत शक्तिशाली नृत्य होता था। इसमें सिर्फ दो कलाकार एक दफलावादक तथा दूसरा दुक्कड़ची नर्तक हाता था, दफले की जोरदार लक्कड़ ध्वनि पर नाचने वाला व्यक्ति गोलाकार आवृत्ति में नाचते हुए तरह-तरह की कलाबाजियाँ दिखाता रहता था। इन कलाबाजियों में उसका मुकाबला तबलची स्वयं करता था।.... ऐसे ही एक नाच हुआ करता था ‘हूड़क’ की ध्वनि पर ‘कहंरउवा’। हूड़क डमरू की आकृति वाला उससे काफी बड़ा वाद्य होता था, जिसे कलाकार अपनी बांह के नीचे कांख में दबा लेता था तथा उसे अपनी कुहनी से बजाता था। यह बड़ा गजब का वाद्य होता था, जिससे बहुत सुरीली ‘केहुरवा’ शैली में आवाज निकलती थी। वाद्यक स्वयं जो कुछ गाता था, उसके बीच-बीच में ‘दहि दहि दे-दहि दहि दे’ नामक तकियाकलाम भी ठोंक देता था।... आज के जमाने में तो वे सम्भवतः विलुप्त ही हो गए हैं।... एक रोचक बात यह थी कि इस तरह की सारी लोककलाएँ सिर्फ दलितों के बीच ही केंद्रित थीं। सवर्ण जातियों में किसी तरह की लोककला मौजूद नहीं होती थी। शायद यही कारण था जिसके चलते इन कलाओं के साथ जाति सूचक विशेषण जुड़ गए थे जैसे-चमरउवा नाच, या गाना, धोबियउवा नाच कहैरउवा धुन, गोड़इता नाच (हूड़क के साथ) आदि।”3
इन लोक कलाओं के बाद लोकगीतों पर आते हैं। लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता संप्रेषीकरण की होती है। लगभग हर प्रकार के उत्सव तथा श्रम के अलग-अलग गीत लोक में प्रचलित थे, जिनका सौंदर्यबोध अभिजात साहित्य के सौंदर्यबोध से एकदम भिन्न होता है। “धान की रोपनी करती हुई दलित मजदूरिनें हमेशा एक लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ दिन भर गाती रहतीं थीं, जो इस प्रकार थीं, अरे रामा परि गय, बलुआ रेत, चलब हम कइसे ऐ हरी।’  इसी तरह जब मजदूरिनें पूर तथा घर्रा के दौरान मोट छिनते हुए कुँए से पानी निकालतीं तो दलित मजदूर एक लोकगीत गाते:
ऊँचे-ऊँचे कुअना क नीची बा जगतिया रामा
निहुर के पनिया भरै, हइ रे साँवर गोरिया
पनिया भरत कै हिन कर झुमका हेरैले रामा
रोवत घरवां आवै ले रे सावर गोरिया।
पनिया भरत के हिन कर टीकवा हेरैले रामा
रोवत घरवा आवै ले रे सांवर गोरिया।”4

इस प्रकार औरत के सारे आभूषणों के कुएँ में गुम हो जाने का वर्णन हो जाता था। यह आभूषण औरतों के मन की कल्पना हुआ करते थे और ये गीत के माध्यम से कुछ देर ही सही कल्पना में जी कर खुश हो लिया करती थीं। “इस प्रकार श्रम के अनेक सौंदर्य गीत भुखमरी के शिकार दलित के जीवन के अभिन्न अंग थे, जो किसी कालिदास या जयदेव के बस की बात नहीं थी।”5  “इसी तरह बालविवाह जैसी कुरीतियों पर तीखी टिप्पणियाँ, जो नंगी सच्चाइयों का पर्दाफाश कर देने वाली होती थीं......इस पर विरहा शैली में बड़ा लोकप्रिय गीत गाया जाता था, जिसकी इन पंक्तियों में गूढ़ रहस्य छिपे रहते थे, जैसे- बाबा विदा करौ लं लरिका क मेहरिया रहरिया में बाजै घुंघरू।”6
    “उपरोक्त पंक्तियों में छिपा हुआ रहस्य यह है कि बाल-विवाह से उत्पन्न कुरीति के कारण बालक दूल्हे की जवान पत्नी को उसका ससुर अरहर और सनई की संयुक्त खड़ी फसल के बीच से जाने वाले रास्ते से विदा कराकर ले जा रहा है। अतः सामाजिक रूप से अमान्य व्यवहार के स्पर्श से गहन फसल के बीच सनई के पौधों से घुंघरू की गूंजती आवाजों से सारा रहस्य उजागर हो जाता है। ‘गीत गोविन्दम’ में जयदेव द्वारा वर्णित कृष्ण के शारीरिक स्पर्श से राधा के पैरों में बंधी पायल के खनक जाने से जो रहस्य खुल जाता है, उससे कहीं ज्यादा सौंदर्यशास्त्रीय रहस्य इन लोकगीतों में मिलता है।”7
 
ऐसे ही लोक के तमाम विषयों एवं उत्सवों पर लोकगीतों की भरमार थी, जो आज लुप्त होती जा रही है। पूरे लोक के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परंपरा को अपने अंदर समेटे ये लोकगीत आज लोक से बिसर गये हैं। गाँवों में बच्चों को बहलाने के लिए काव्यमय कहानियाँ गाई जाती थीं जैसे,  ‘‘राजा रानी आवैली, पोखरा खनावैली, पोखरा के तीरे-तीरे इमिली लगावैली, इमिली के खोढ़रा में बत्तीस अंडा, रामचंद्र, फटकारै डंडा, डंडा गयल रेत में-मछरी के पेट में, कौआ कहे काँव-काँव, बिलार कहै झपटो-आ लगड़ी क टांग धइके रहरी में पटको रहरी में पटको।”8  इसी तरह एक अन्य लघुकथा गाई जाती थी, जो इस प्रकार है-  “कड़ा-कड़ा कौआ, नेपाल क बेटउवा, नेपाल गइलै डिल्ली, उठाइके लिअउलै पिल्ली, खेलावा हो कौआ, खेलावा हो कौवा।”9
आज न तो ऐसे काव्यमय कहानी गाकर बहलाने वाला बचा है और ना ही कोई इसे सुनने वाला। पर इन काव्यमय कहानियों का बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक पक्ष होता था, जो बच्चों में जिज्ञासु होने की प्रवृत्ति को पैदा करता था।
प्रो. तुलसी राम ने अपने इस आत्मकथा में बच्चों के उन तमाम खेलों का विस्तार से वर्णन करते हैं जो आज क्रिकेट के चकाचैंध में गायब हो गए हैं। ‘अक्का-बक्का’’’10 से लेकर ‘लखनी’ तथा ‘ओल्हवा के पाती’ तक के खेलों का परिचय ‘मुर्दहिया’ में मिलता है। ‘लखनी’ और ‘ओल्हापाती’ खेल में “एक-दो फिट पतली लकड़ी पेड़ के नीचे रख दी जाती, फिर एक लड़का पेड़ से कूदकर उस लकड़ी जिसे ‘लखनी’ कहा जाता था, को उठाकर अपनी एक टांग ऊपर करके उसके नीचे से फेंककर पेड़ पर पुनः चढ़ जाता था। जहाँ लखनी गिरती थी, पेड़ के नीचे खड़ा दूसरा लड़का उसे उठाकर दौड़ता हुआ पुनः पेड़ के नीचे आकर उसी लखनी से पहले वाले को जमीन से ऊपर कूदकर छूने की कोशिश करता, वह भी सिर्फ एक बार में। यदि उसे छू लिया तो पेड़ चढ़े लड़के को मान लिया जाता कि वह अब ‘मर’ चुका है, इसलिए वह खेल से बाहर हो जाता था फिर लखनी से छूने वाला लड़का विजेता हो जाता। इस ‘मरे’ हुए लड़के को पेड़ के नीचे खड़े होना पड़ता तथा विजेता पेड़ पर चढ़ जाता और खेल की वही प्रक्रिया दोहराई जाती।”11
विवाह के दौरान दीवारों पर ‘कोहबर’ कलाकृतियाँ बनाने की परंपरा थी। “दीवार पर गेरू तथा हल्दी से जो पेंटिंग की जाती थी, उसे कोहबर कहा जाता था। ऐसी कलाकृतियों में केले का पेड़, हाथी, घोड़े, औरत, धनुषवाण आदि शामिल होते थे। एक विशेष बात यह थी कि इन कोहबर कलाकृतियों का प्रचलन सवर्ण जातियों में नहीं था। इन परंपराओं से जाहिर होता है कि सदियों से चला आ रहा दलितों का यह बहिष्कृत समुदाय एक अलौकिक कला एवं संगीत का न सिर्फ संरक्षक रहा, बल्कि उसका वाहक भी है। अशिक्षा के कारण लिपि का ज्ञान न होने के कारण दलित लोग संभवतः भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अभिव्यक्ति के लिए कोहबर पेंटिग का सहारा लिया था।”12
बाजारवाद की मार सबसे ज्यादा लोक में उन लोगों पर पड़ी जो गांवों में घूम-घूम कर सामान बेचा करते थे। जैसे “हिंगुहारा’ हिंग बेचने वाला, ‘पटहारा’ जो शीशा, कंघी, सुई-डोरा, टिकुली इत्यादी चीज़ बेचता था, ‘चुड़िहारा’ जो चूड़ियाँ बेचता था। ‘कपड़हारा’ जो कपड़ा बेचता था।”13 यह सब आज लोक से गायब हैं और बाजार लोक में अंदर तक घुस आया है। ऐसे ही ‘डोम’ जो टोकरी चंगेरी, छिट्टा, दउरी इत्यादि बनाते थे, धोबी जो कपड़ा धोते थे, ‘कुम्हार’ जो वर्तन बनाते थे, ‘नाई’ इत्यादि व्यवसायिक जातियाँ आज लोक से विलुप्त हो रही है। मुर्दहिया में इनके चिंता से रूबरू होने का प्रयास दिखता है।
प्रो. तुलसी राम ने अपने दादी के माध्यम से अनेक दवाओं की चर्चा करते हैं, जो लोक में ‘खरबिरिया’ दवाएँ के नाम से जानी जाती हैं, जैसे- “दाल चीनी तथा बांस का सींका पीसकर ललाट पर लगाने से सिरदर्द बंद हो जाता था।”14 पेचिश की बीमारी के लिए “अमरूद या अमलताश की पत्ती पीसकर छानने के बाद उसके रस को पिलाया जाता।”15 खुजली ठीक करने के लिए ‘‘भंगरैया नामक पौधे की पत्तियाँ पीसकर छोपने से खुजली ठीक हो जाती है।”16 फोड़े फुंसी के ऊपर “अकोल्ह के पत्ते पर मदार का दूध पोतकर चिपकाने से वह ठीक हो जाते।”17 इस प्रकार के अनेकों दवाएँ लोक में उपलब्ध थीं, जिनका उपयोग किया जाता था।
‘मुर्दहिया’ के बहाने लोक के पुर्नसृजन का प्रयास प्रो. तुलसी राम करते हैं, उनकी नजर लोक के उन सब चीजों तक जाती है, जो आज विलुप्त हो गये हैं या होने के कगार पर हैं। वे विस्तार से उन चीजों को फिर से संजोते हैं। खेती के उपकरणों से लेकर सिंचाई के साधनों तक जिनका प्रयोग पहले से होता था, का विस्तार से वर्णन यहाँ मिलता है। लोक की तमाम प्रकार की कुरीतियों की समाजशास्त्रीय आधारों की चर्चा भी यहाँ मिलती है, जिसमें एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिखता है।
लोकोक्तियों तथा लोक के उन शब्दों को जिनका प्रयोग आज होना बंद हो गया है, उन्हें वे पुर्नव्याख्यायित करते हैं। लोक का पूरा संस्कार ‘मुर्दहिया’ में जीवित हो उठता है। यही इसकी विशेषता भी है। लेखक लोक से किस तरह संपृक्त है इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है “चरवाही के दौरान हम किसी के खेत से पकी-पकी धान की बालियाँ पांग कर लाते और गमछा बिछाकर उन्हें लाठी के हूरे से मूसल की तरह कूच-कूच कर चावल बना देते। इस थोड़े से चावल को हम आग जलाकर छोटी सी मिट्टी की भरूकी में पकाते तथा वहीं किसी की बकरी को दूहकर पलाश के पत्ते के दोने में दूध निकालते। बकरी के इस कच्चे दूध में सिंघोर की पत्ती के तोड़ने से निकलते द्रव की एक-दो बूँद मिला दिया जाता, जिससे तत्काल दहीं जम जाती थी। भरूकी में ही मटर की दाल पकाई जाती, जिसमें पलाश का पत्ता डाल देने से वह तुरंत गल जाती थी।”18 

तत्काल दही जमाने तथा तुरंत दाल गलाने का उपाय लोक में ही मिल सकता है। यही लोक की ताकत है, जिसका अहसास मुर्दहिया से गुजरते हुए बार-बार होता रहता है।
    अंत में प्रो तुलसी राम के लिए यह कह सकते हैं कि जमीन की अतल गहराईयों में धँसी थी जिसकी जड़े वह बरगद इतनी जल्दी ढह जाएगा ऐसी आशा न थी ।


संदर्भ:
1.    मुर्दहिया (आत्मकथा प्रथम खण्ड) प्रथम संस्करण-2010) - प्रो.
तुलसीराम,     राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ - 5
2.    वही पृष्ठ - 106
3.    वही पृष्ठ - 107-108
4.    वही पृष्ठ - 67
5.    वही पृष्ठ - 67
6.    वही पृष्ठ - 106
7.    वही पृष्ठ - 107
8.    वही पृष्ठ - 28
9.    वही पृष्ठ - 28
10.    वही पृष्ठ - 29
11.    वही पृष्ठ - 43
12.    वही पृष्ठ - 105
13.    वही पृष्ठ - 33
14.    वही पृष्ठ - 49
15.    वही पृष्ठ - 62
16.    वही पृष्ठ - 62
17.    वही पृष्ठ - 62
18.    वही पृष्ठ – 145



(लेखक-परिचय:
जन्म: 29 दिसंबर 1984 को ग्राम- करकपुर , पोस्ट अलावलपुर, गाजीपुर (उ प्र ) में
शिक्षा: आदर्श इंटर कॉलेज गाजीपुर से आरंभिक शिक्षा,  इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद से बीए और एमए, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से पी-एचडी कंप्लीट, उपाधि प्रतिरक्षा रत
सृजन : पहल जैसी अहम पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित.
‘समसामयिक सृजन’ पत्रिका के  लोक विशेषांक का संयोजन
संप्रति:   स्वतंत्र लेखन और शोध कार्य में सक्रिय
संपर्क: sunilrza@gmail.com)

हमज़बान पर सुनील यादव के और लेख पढ़ें

 

read more...

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

के होतई बिहार के मांझी

चित्र: गूगल से साभार



 
बिहार के सुशासन को चुनौती देते कुछ तत्व
भवप्रीतानंद की क़लम से
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी को अपना नेता चुनने में कोई खास परेशानी नहीं हुई थी। दल की एकता  और गांधी परिवार की आशक्ति ने एकमत से राजीव गांधी को नेता चुन लिया। लालू यादव के लिए भी चारा घोटाला में फंसने के बाद मुख्यमंत्री के पद पर बने रहना असंभव हो गया था, तो पार्टी में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए कोई और नहीं सूझा, पत्नी राबड़ी के अलावा। इससे न सिर्फ वह पार्टी पर कमांड रख सके, बल्कि सत्ता में भी छाया प्रशासक की भूमिका निभाते रहे। नीतीश कुमार के पास शायद ऐसा कोई नहीं था। इसलिए उन्होंने महादलित जीतनराम मांझी को चुना। नीतीश ऊपर के दोनों दोनों उदाहरण से थोड़ा  अलग इसलिए हैं कि उन्होंने सत्ता  लोकसभा में बिहार में मिली करारी हार के कारण छोड़ी थी। कमान जीतनराम मांझी को यह सोचकर दी थी, कि वह उसी कार्य परंपरा को बनाए रखेंगे, जो वह आठ वर्षों से बनाए रखे थे। इससे नीतीश ने जनता के सामने यह साबित करने का प्रयास किया कि हार के बाद उन्होंने सत्ता में बने रहने का आधिकार खो दिया है।
आम आदमी पार्टी फिर से जब दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई है, तो पार्टियों को दो खेमे में बांटकर देखने का चलन शुरू हुआ है। एक परंपरागत पार्टी का खेमा बना है जो वर्षों से राजनीति कर रहा है और नाम अलग-अलग  होने के बाद भी चारित्रिक रूप से दोनों एक हैं। मतलब दोनों में दागी नेताओं  की कमी नहीं है। दोनों के पास काले धन हैं। सत्ता में जो रहता है, वह इन दागी नेताओं से परहेज नहीं करता है। या फिर सत्ता में रहकर भी जो अलोकतांत्रिक फैसले लेता से उसपर तुरंत कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, जब तक की पानी सिर के ऊपर ने न गुजर जाए।

इन्हीं परंपरागत राजनीतिक  दलों में से कई नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने विकास को एक नया आयाम दिया है। ओडिशा, छत्तीसगढ़, एमपी में वर्षों से परंपरागत पार्टी के नेताओं ने लीक से हटकर काम करके दिखाया, तो लोग उन्हें सत्ता में बनाए हुए है। बिहार के नीतीश कुमार भी ऐसे सीएम की केटगरी में देखे जाते हैं जो विकास की राजनीति करते हैं। काम के बल पर वोट मांगते हैं और जातीय गणित के जोड़-तोड़ में लिप्त रहने वाला राज्य भी उन्हें सत्ता में बनाए रखता है।

नीतीश ने भाजपा से नाता तोडऩे के बाद जो राजनीति की है, वह कई शंकाओं को जन्म देती है। लालू यादव से हाथ मिलाकर उन्होंने जातीय गणित को दुरुस्त करने की भले कोशिश की हो, पर जिस दम पर उनकी राजनीतिक  शख्सियत बनी थी, उसपर सवालिया निशान लग गया है। यह चुभने वाली बात है। जदयू और नीतीश नरेंद्र मोदी की अखिल भारतीय स्वीकृति को नहीं आत्मसात कर पाए, यह बात अपने-आप में और अपनी जगह ठीक हो सकती है। पर जदयू-शरद यादव-नीतीश कुमार इसके काट के लिए लालू यादव को गले लगाते हैं, यह बात कुछ हजम नहीं हो रही है।

लोकसभा चुनाव में हार के बाद भी नीतीश बिहार की सत्ता में बने रहते, तो लोगों में कोई बहुत गलत संदेश नहीं जाता। खासकर तब जब कि उन्होंने आठ वर्ष राज कर लिया था और बिहार में विकास की स्थिति को गतिशील बना दिया था। २०१५ अंत में जब वह जनता के सामने रिपोर्ट कार्ड लेकर जाते, तो शायद उनकी स्थिति भाजपा और राजद से बेहतर ही होती। पर जीतनराम मांझी के बेसुरा होने के बाद और लालू यादव को गले लगाने के बाद नीतीश उस रिपोर्ट कार्ड को बहुत अधिकार के साथ प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं हो पाएंगे, जिसे वह सुशासन कहते हैं। जीतनराम मांझी ने नीतीश की छवि सत्ता लोलुप की बना दी है। शायद इसी कारण वह जीतनराम मांझी के चुनाव को  अपनी बड़ी भूल मान रहे हैं। पर अगर बिहार की जनता विकास की राजनीति को मानक मानकर वोटे देती है तो जीतनराम मांझी से अधिक खतरनाक उनका लालू  यादव से गठबंधन वाला दांव रहेगा। लालू यादव ने सत्ता में आने के बाद से वहां बने रहने के लिए उसका जितना गलत इस्तेमाल करना था, किया था। उन्होंने बिहार में चुनाव का मखौल बनाकर रख दिया था। जिस सुशासन को नीतीश अपना गहना मानते हैं, क्या उनके साथी लालू यादव भी उसे इसी रूप में देखते हैं। यह प्रश्न इसलिए लाजिमी है क्योंकि लालू यादव को लठैती की भाषा समझ में आती है। वह चीजों को व्यवस्थित तरीके से देख ही नहीं सकते। बिहार में विकास के ग्रिप में आई जनता लालू यादव को सिरे से नकारती है। क्योंकि उन्होंने अपने कर्मों का कोई प्रायश्चित नहीं किया है। उन्होंने  कुछ ऐसा कर नहीं दिखाया है जिससे कि बिहार की जनता समझे कि चलो अब लालू यादव को सद्बुद्धि आई। ऐसी स्थिति में नीतीश का लालू के गले लगना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि मिलकर अगर उन्हें सत्ता मिलती है तो नीतीश के सुशासन के रथ में पहिए सुरक्षित रह भी पाएंगे-इसमें शक है।
दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद जीतनराम मांझी नामक वायरस से नीतीश को आने वाले सप्ताह में मुक्ति मिल सकती है। पर मांझी के वायरस ने नीतीश को सताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। १६ फरवरी को जब हाईकोर्ट ने जीतनराम मांझी के थोक में लिए गए फैसले पर रोक लगाई तो पहली बार उनके चेहरे पर हार का डर दिखने लगा। दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद से भाजपा भी बहुत उत्सुक होकर माझी के साथ नहीं चल रही है। नीतीश के दूसरी बार विधायक दल के नेता चुने जाने के बाद सत्ता पाने के लिए जो हड़बड़ाहट दिखा रहे हैं वह उनके व्यक्तित्व के इतर है। पर बात सिर्फ फिर से सीएम बन जाने की नहीं है। बात है साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव की है। वह क्या लालू यादव को साथ लेकर चुनाव जीता जा सकता है।
आप ने हर परंपरागत पार्टियों के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। उसके सुशासन की परिभाषा नीतीश कुमार से भी अलग है। अगर पूरे देश की जनता ऐसे ही मानक को प्रतिमान मानकर लोगों को चुनती है तो लालू से गठबंधन नीतीश के लिए गले की फांस बन जाएगी। नीतीश जब फिर से सीएम बनेंगे तो उन्हें बहुत संभलकर कदम रखने होंगे। लालू यादव से हुए गठबंधन को अवसरवादी नहीं बताकर उसकी स्पष्टता की व्याख्या जनता के समझ प्रस्तुत करना पड़ेगा। यह चुनौती कई मायनों में अधिक जटिल है। जातीय गणित बिहार की राजनीति में अहम है। बिहार क्या पूरे देश की राजनीति में अहम है। पर लोग अब इससे परे भी देखने लगे हैं। देखने के आदी हो रहे हैं। तो राजनीति को भी उसके अनुसार बदलना होगा। राजनीति करने वाले को भी जातीय गोटी फिट करने से इतर सड़क-बिजली-पानी-शिक्षा आदि विषय-वस्तुओं पर ध्यान देना होगा। लालू यादव क्या राजनीति के इस परिवर्तन को देख-महसूस कर पा रहे हैं? नीतीश से उनका गठबंधन भी तभी सफल होगा जब विकास की राजनीति का मोर्चा उनके लिए भी जुनून का विषय बनेगा।



 









(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
 
हमज़बान पर पढ़ें  भवप्रीतानंद को

read more...

महज़ इक सुख़नवर का जाना नहीं कलीम



 










कलीम आजिज़ एक गुमनाम शायर का फ़साना

सिद्धान्त मोहन की क़लम से
कलीम आजिज़, यानी वह शख्स जो मीर की रवायत को अब तक बनाए रखे हुए था, हमें और उर्दू शायरी छोड़ चले गए. यह छोड़कर जाना सिर्फ़ एक सुखनवर के गुज़र जाने का होता तो कोई बात भी थी, लेकिन यह जाना पूरी उर्दू शायरी और उससे कमोबेश हर हाल में प्रभावित रहने वाली हिन्दी कविता के एक बड़े अध्याय का जाना था. आपातकाल के वक्त इंदिरा गांधी के लिए कलीम साहब ने कहा था:
रखना है कहीं तो पाँव तो रखो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया तो इतराए चलो हो.
और
दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो

और इसी के साथ कलीम साहब की शायरी के सियासी लहजे को भी वह मक़ाम मिला, जो आज हम सबके सामने है. बात ज़ाहिर करने के लिए मीर की पूरी परम्परा को अख्तियार करते हुए कलीम आजिज़ ने अपने अंदाज़-ए-बयां को फ़िर भी पूरी मकबूलियत दी
.
हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा-ए-सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो

इसके साथ-साथ कलीम आजिज़ ने हरेक सामाजिक पहलू को अपनी शायरी में समेटने का बीड़ा उठाया. चाहे इश्क करना हो या क़ाफिर साबित होना हो, कहीं भी कलीम साहब ने भाषा और लहज़े को मुक़म्मिल बनाए रखा. किसी भी स्थिति को साफ़ और ज़ाहिर तरीकों से सामने रखने के लिए जो अंदाज़ कलीम आजिज़ ने अख्तियार किया था, वह आज भी प्रासंगिक और पूरे वजूद में बना हुआ है.
अंदर हड्डी-हड्डी सुलगे बाहर नज़र न आए
बहुत कम कवियों और शाइरों के साथ ऐसा होता आया है कि उनकी ही किसी नज़्म, शेर या कविता के साथ ही उनका व्यक्तित्व या उनके जाने को बयां किया जा सके. उन बेहद कम लोगों की फ़ेहरिस्त में कलीम आजिज़ का नाम गिना जा रहा है.
दर्द का इक संसार पुकारे, खींचे और बुलाए
लोग कहे हैं ठहरो-ठहरो ठहरा कैसे जाए
ऐसा कम हुआ है कि किसी शायर की मौत पर सियासतदार ने अपना गम ज़ाहिर किया हो. अपनी राजनीतिक विषमताओं से दो-चार हो रहे राज्य बिहार के नेता नीतीश कुमार ने कहा, ‘बिहार में हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद का बड़ा पैरोकार हमारे बीच से चला गया है. कलीम साहब के जाने से उर्दू अदीब का एक बड़ा सितारा बुझ गया.’
बिहार में क़ाबिज़ रंगकर्मी हृषिकेश सुलभ कहते हैं, ‘पोएट(शायर) दो तरह के होते हैं – एक सिर्फ़ पोएट और दूसरे पोएट ऑफ़ पोएट्स. कलीम आजिज़ दूसरे किस्म के शायर थे. उन्होंने शायरी और जीवन के कई दौर देखे थे. अज़ीमाबाद की शायरी के वे बड़े नामों में शुमार थे.’
शायरी में पसरे पॉपुलर कल्चर के बारे में बात करने पर सुलभ कहते हैं, ‘जिस तरह यह ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह अच्छा हो, इसलिए यह भी ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह ख़राब भी हो. कलीम आजिज़ की लोकप्रियता के अपने मानी थे. वे बशीर बद्र व निदा फाज़ली तरह नहीं थे, इसका मतलब यह नहीं कि उनकी शायरी कमज़ोर थी. वे गंभीर थे, जब वे पढ़ना शुरू करते थे तो हर कोई शान्त होकर उन्हें सुनता था. उनके आगे-पीछे कोई नहीं होता था. उन्होंने शायरी के मेआर को बनाए रखा था.’
हिन्दी कवि और आलोचक असद ज़ैदी कहते हैं, ‘मुझे आज से क़रीब 40 साल पहले एक मित्र ने कलीम साहब की गज़ल पढ़ाई थी. उस समय मेरा परिचय आजिज़ की शायरी से हुआ था. मैं कहूँगा कि मीर के लहज़े और डिक्शन को पूरी मजबूती के साथ पकड़ने वाले शायर आजिज़ साहब थे.’ असद ज़ैदी आगे कहते हैं, ‘विभाजन के दौरान कलीम आजिज़ के समूचे परिवार का ख़ात्मा कर दिया गया था. हमें और आपको पता है कि इसके क़त्ल-ए-आम के पीछे कौन था? आजिज़ साहब को भी पता था. लेकिन यह अचरज का विषय है कि इन सबके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई और नौकरी का रास्ता बुलंद किया.’ गुमनामी के बारे में बात करते हुए असद ज़ैदी कहते हैं, ‘बिहार के बाहर मुट्ठीभर पाठक ही हैं, जो आजिज़ साहब को पढ़ते-जानते हैं. उर्दू शायरी के चुनिन्दा नाम ही सभी को पता हैं. लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि गंभीरता और ख़ामोशी के साथ शायरी करने वाला शायर कलीम आजिज़ है.’
साफ़ है कि हिन्दी के कल्चर में जिस तरह केवल चुनिन्दा शाइरों का नाम प्रचलन में रहा, उसका शिकार कलीम आजिज़ की शख्सियत भी हुई. उन्हें हिन्दी पट्टी के पाठकों ने नहीं पढ़ा. युवाओं में उनकी उपस्थिति बिलकुल गायब थी. युवाओं के पास ग़ालिब, मीर और फैज़ सरीखे बड़े नाम तो थे लेकिन इन नामों से नया परिष्कार क्या हुआ, बेहद कम लोगों को मालूम है.
और चलते-चलते कलीम आजिज़ की एक गज़ल...
इस नाज़ से अंदाज़ से तुम हाय चलो हो
रोज़ एक गज़ल हम से कहलवाए चले हो
रखना है कहीं पांव तो रखो हो कहीं पांव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चले हो
दीवाना-ए-गुल क़ैदी ए ज़ंजीर हैं और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाए चले हो
ज़ुल्फों की तो फ़ितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे
ज़ुल्फों से ज़ियादा तुम्हों बलखाये चले हो
मय में कोई ख़ामी है न सागर में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चले हो
हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाए चले हो
वो शोख सितमगर तो सितम ढाए चले हैं
तुम हो कलीम अपनी गज़ल गाये चले हो

(साभार TwoCircles.net )

इंक़लाबी शायर कलीम आजिज़ की ग़ज़लें पढ़ें










(लेखक-परिचय:
जन्म : बनारस में
शिक्षा : बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय से
सृजन: लेख और कविताएं प्रकाशित
संप्रति : वेब पत्रिका फर्स्ट फ्रंट का संपादन और स्वतंत्र लेखन
ब्लॉग: बुद्धू-बक्सा
संपर्क : sidaurche@gmail.com)




read more...

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो : कलीम आजिज़


कलीम आजिज़














इंक़लाबी शायर का अंदाज़ जुदा 

1.
इस नाज़ से, अंदाज़ से तुम हाये चलो हो
रोज एक ग़ज़ल हमसे कहलवाये चलो हो

रखना है कहीं पांव तो रक्खो हो कहीं पांव
चलना जरा आ जाये तो इतराये चलो हो

दीवान-ए-गुल क़ैदी-ए-जंजीर है और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाये चलो हो

मय में कोई ख़ामी है न साग़र में कोई खोट
पीना नहीं आये है तो छलकाये चलो हो

हम कुछ नहीं कहते हैं, कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाये चलो हो

ज़ुल्फ़ों की तो फ़ितरत है लेकिन मेरे प्यारे
ज़ुल्फ़ो से भी ज्यादा बलख़ाये चलो हो

वो शोख़ सितमगर तो सितम ढ़ाये चले है
तुम हो के कलीम अपनी ग़ज़ल गाये चलो हो

2.

दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो

मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो

हम खाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो

हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम और भुला दें तुम्हें? क्या बात करो हो

दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो

यूं तो कभी मुँह फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मुदारात करो हो

बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो.

3.
ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी
मजबूर थे हम उस से मुहब्बत भी बहुत थी

उस बुत के सितम सह के दिखा ही दिया हम ने
गो अपनी तबियत में बगावत भी बहुत थी

वाकिफ ही न था रंज-ए-मुहब्बत से वो वरना
दिल के लिए थोड़ी सी इनायत भी बहुत थी

यूं ही नहीं मशहूर-ए-ज़माना मेरा कातिल
उस शख्स को इस फन में महारत भी बहुत थी

क्या दौर-ए-ग़ज़ल था के लहू दिल में बहुत था
और दिल को लहू करने की फुर्सत भी बहुत थी

हर शाम सुनाते थे हसीनो को ग़ज़ल हम
जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी

बुलावा के हम "आजिज़" को पशेमान भी बहुत हैं
क्या कीजिये कमबख्त की शोहरत भी बहुत थी

4.

ये आँसू बे-सबब जारी नहीं है
मुझे रोने की बीमारी नहीं है

न पूछो ज़ख्म-हा-ए-दिल का आलम
चमन में ऐसी गुल-कारी नहीं है

बहुत दुश्वार समझाना है गम का
समझ लेने में दुश्वारी नहीं है

गज़ल ही गुनगुनाने दो मुझ को
मिज़ाज-ए-तल्ख-गुफ्तारी नहीं है

चमन में क्यूँ चलूँ काँटों से बच कर
ये आईन-ए-वफादारी नहीं है

वो आएँ कत्ल को जिस रोज चाहें
यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है

5.
नज़र को आइना दिल को तेरा शाना बना देंगे
तुझे हम क्या से क्या ऐ जुल्फ-ए-जनाना बना देंगे

हमीं अच्छा है बन जाएँ सरापा सर-गुजिश्त अपनी
नहीं तो लोग जो चाहेंगे अफसाना बना देंगे

उम्मीद ऐसी न थी महफिल के अर्बाब-ए-बसीरत से
गुनाह-ए-शम्मा को भी जुर्म-ए-परवाना बना देंगे

हमें तो फिक्र दिल-साज़ी की है दिल है तो दुनिया है
सनम पहले बना दें फिर सनम-खाना बना देंगे

न इतना छेड़ कर ऐ वक्त दीवाना बना हम को
हुए दीवाने हम तो सब को दीवाना बना देंगे

न जाने कितने दिल बन जाएँगे इक दिल के टुकड़े से
वो तोड़ें आईना हम आईना-खाना बना देंगे


6.

मेरी मस्ती के अफसाने रहेंगे
जहाँ गर्दिश में पैमाने रहेंगे

निकाले जाएँगे अहल-ए-मोहब्बत
अब इस महफिल में बे-गाने रहेंगे

यही अंदाज-ए-मै-नोशी रहेगा
तो ये शीशे न पैमाने रहेंगे

रहेगा सिलसिला दा-ओ-रसन का
जहाँ दो-चार दीवाने रहेंगे

जिन्हें गुलशन में ठुकराया गया है
उन्हीं फूलों के अफसाने रहेंगे

ख़िरद ज़ंजीर पहनाती रहेगी
जो दीवाने हैं दीवाने रहेंगे 





(परिचय :
असली नाम : कलीम अहमद
जन्म :11 अक्तूबर 1924, तेलहाड़ा (जिला पटना) में हुआ।
शिक्षा : पटना विश्वविद्यालय से र्दू साहित्य के विकास पर पीएचडी
सेवा : 1964-65 में पटना कालेज में लेक्चरर हुए और 1986 में सेवानिवृत्त हुए। वर्तमान समय में बिहार सरकार, उर्दू मुशावरती कमिटी के अध्यक्ष थे ।
सृजन :  मजलिसे अदब (आलोचना); वो जो शाइरी का सबब हुआ, जब फसले बहाराँ आई थी(ग़ज़ल संग्रह); फिर ऐसा नज़ारा नहीं होगा, कूचा-ए जानाँ जानाँ (ग़ज़लों एवं नज़्मों का संग्रह); जहाँ ख़ुशबू ही ख़ुशबू थी, अभी सुन लो मुझसे (आत्मकथा); मेरी ज़बान मेरा क़लम (लेखों का संग्रह, दो भाग); दफ़्तरे गुम गश्ता (शोध); दीवाने दो, पहलू न दुखेगा (पत्रों का संग्रह); एक देश एक बिदेसी (यात्रा-वृत्तान्त, अमेरिका); यहाँ से काबा-काबा से मदीना (यात्रा-वृत्तान्त, हज) इसके अलावा मो. जाकिर हुसैन के संपादन में उनकी शायरी का संकलन दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गई शीर्षक से हिंदी में प्रकाशित ।
सम्मान : पद्म श्री 1989, भारत सरकार; इम्तियाज़े मीर, कुल हिंद मीर अकादमी, लखनऊ; अल्लामा, मशीगन उर्दू सोसाइटी, अमेरिका; अल्लामा, तिलसा लिटरेरी सोसाइटी, अमेरिका; प्रशंसा पत्र, मल्टी कल्चरल कौंसिल आफ ग्रेटर टोरंटो; प्रशंसा पत्र, उर्दू कौंसिल आफ कनाडा; मौलाना मज़हरुल हक़ पुरस्कार, राज्य भाषा, बिहार सरकार; बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार।
निधन : 15 फ़रवरी 2015 हज़ारीबाग़ झारखंड में. पटना में सुपुर्द-ख़ाक किये जाएंगे। )
read more...

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

दिल में उतरी अरविंद की सादगी

दिल्ली में बस कुछ नहीं, आप ही आप 


चित्र: गूगल से साभार



भवप्रीतानंद की क़लम से
अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिले असाधारण बहुमत पर अचंभित हैं, और कह रहे हैं, यह बहुमत डरानेवाला है। आप कार्यकर्ताओं को चेता रहे हैं,  अधिक अहंकार मत पालो नहीं तो पांच साल बाद हमारी हालत भी भाजपा-कांग्रेस की तरह हो जाएगी। जीत के बाद यह दो बातें वही व्यक्ति कह सकता है जो चीजों को सही तरीके से देखने का आदी है। जो यह कह सकता है,  मैंने पिछली बार गलती की। मुझे दिल्ली में सरकार नहीं गिरानी चाहिए। अबकी मौका मिला तो ऐसा नहीं करूंगा। यह सादगी लोगों के दिलों में सीधे उतरती है। और उतरी भी। दिल्ली की जनता ने दिल खोलकर आप को ७० विधानसभा सीट में से ६७ सीट दे दिए।


देश में परंपरागत पार्टियों के लिए यह बहुमत सुधरकर सलीके से काम करने का संकेत दे रहा है। परंपरागत पार्टियां मतलब भाजपा और कांग्रेस को अपनी बैठकों में इस बात पर निश्चित मंथन करना चाहिए कि वह कौन-सा आंतरिक फोर्स काम कर रहा था, जो आप को लोगों ने इकतरफा वोट दे डाले। भ्रष्टाचार से मुक्ति हर आमोखास चाहता है। यह एक बहुत बड़ा मुद्दा तो है ही। दिल्ली में लोकल समस्या बिजली-पानी से जुड़ी है। इस संबंध में केजरीवाल की पिछली पचास दिनों की सरकार ने बहुत ठोस कदम उठाए थे। उस ठोस कदम का फायदा भी लोगों मिलने लगा था। इसके अलावा दिल्ली में एक प्रमुख समस्या कच्ची बस्ती की मान्यता से जुड़ी हुई है। उसके नियमन के लिए भी आप ने नीतिगत आश्वासन दिया था। ये कुछ ऐसे तत्व हैं, जो लोगों को आप के करीब ले आई। खासकर कच्ची बस्ती के नियमन से जुड़े मुद्दे ने निम्र मध्यमवर्गीय परिवार को आप के करीब ला दिया। इसके बरक्स भाजपा और कांग्रेस के वादे सिर्फ कोरे वादे ही लगते हैं। दोनों पार्टियां चुनाव के समय किए गए वादे को सत्ता मिलने के बाद लगभग भूल जाती हैं। फिर उन्हें उन लोगों की फिक्र ही नहीं रहती, जिसने उन्हें सत्ता दी है। यह जो ट्रेंड पारंपरिक पार्टियों में है, वादों से मुकरने का, इसके टूटने की दिन अब आ चुके हैं। अगर इस मिथ को इन पार्टियों ने नहीं तोड़ा तो उनका नामलेवा भी कोई नहीं रह जाएगा। जैसा कि अभी कांग्रेस की गत हुई है। लोकल मीडिया में एक जुमला खूब चला है कि भाजपा का भी यारो अजीब गम है। पहले चार कम थे...अब चार से भी कम है।
दिल्ली का विधानसभा चुनाव परिणाम है, इसलिए इसके राष्ट्रीय अर्थ भी निकाले जाते हैं। भाजपा में मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने कई चुनाव जीते हैं। दिल्ली में उन्हें मुंह की खानी पड़ी है। इसलिए कोई इसे दिल्ली  भाजपा की हार  या दिल्ली  भाजपा की रणनीतिक असफलता मानने को भी तैयार नहीं है। खासकर तब जब भाजपा ने दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के लिए हैलीकॉप्टर लेंडिंग की तरह किरण बेदी को उतारा। दिल्ली में किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर उतारने के बाद से ही भाजपा कार्यकर्ताओं में नाखुशी थी। खासकर किरण बेदी की कार्यशैली को लेकर। वह भाजपा या संघ की बातों को तवज्जो ही नहीं दे रही थीं। किरण बेदी का प्रशासनिक कार्यकलाप उन्हें राजनीति में कभी सहजता से लोगों से रूबरू नहीं होने देगा, इसे दिल्ली की चुनाव ने साफ कर दिया है। अमित शाह ने मुखमंत्री पद के लिए किरण बेदी को इसलिए प्राथमिकता दी कि वह साफ छवि की हैं। भ्रष्टाचार से मुक्ति की बात केजरीवाल के बरक्स वही करेंगी  तो दिल्ली  की जनता में अच्छा संदेश जाएगा। फिर मोदी की चार-पांच सभाएं कराकर दिल्ली के किले में भी घुस जाया जाएगा। लेकिन यह सब दांव उलट पड़े। सबसे पहले संघ और पार्टी कार्यकर्ताओं में किरण बेदी को लेकर उपेक्षा का भाव पनपा। जो ठीक चुनाव के पहले स्पष्ट रूप से दिखाई देना शुरू हो गया था। दूसरा, जो सबसे खतरनाक ट्रेंड दिखाई दिया वह यह है कि पार्टी में वर्षों समय खपाने के बाद  अगर बाहर से मुख्यमंत्री पद के लिए किसी को बिठा दिया जाता है तो पार्टी में उपेक्षा का वातावरण पसर जाता है। यही बेदी के साथ हुआ। हार के बाद उनका पहला स्टेटमेंट देखिए, मैं हारी नहीं हूं। हार के बारे में जानना है तो भाजपा से पूछो। सोचिए, जिस प्रशासनिक अधिकारी कम  नेता को आपने मुख्यमंत्री पद के लिए चुना वह पूरी पार्टी को ही कटघरे में खड़ा कर रही है। भाजपा यही भूल पश्चिम बंगाल में क्रिकेटर सौरभ गांगुली को पार्टी में लाकर करना चाहती है। वो तो सौरभ ही बार-बार कन्नी काट रहे हैं। कुल मिलाकर अपने पार्टी में तपे नेता में से ही किसी एक को चुनकर उसे प्रोजेक्ट किया जाए तो अधिक अच्छा है। किरण बेदी वाला प्रयोग भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए एक सबक से कम नहीं है।
केंद्र में सत्ता में आने के बाद से भाजपा ने कुछ ऐसे कदम उठाए हैं जिसने दिल्ली चुनाव पर बुरा असर डाला है। इसमें पहला है, धर्म परिवर्तन कर घर वापसी वाली मुहिम। संघ के नेताओं को अब तो ऐसा लग रहा है,  जैसे लाइसेंस मिल गया है। कुछ सांसद तो मुंहफट हो चुके हैं। हिंदुओं को अधिक बच्चे पैदा करने के सार्वजनिक बयान ऐसे दे रहे हैं, जैसे वह उनका निजी मसला है। ऐसे बयान अगर थोक के भाव में आते रहेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब भाजपा मूल मुद्दे से भटक जाएगी और देश में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ जाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा जब इस ओर इंगित करते हैं तो बुरा लगता है क्योंकि यह हमारा नितांत निजी मामला है। पर मामला निजी तभी तक रहता है, जब हम चीजों को निजी रहने देते हैं। बेलगाम होकर जहां-तहां घर वापसी के स्टेटमेंट देने से चीजों निजी नहीं रह पाएंगी। दिल्ली की जनता ने इसके विरोध में भी अपना वोट दिया है। नहीं तो दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में साक्षी महाराज ने माहौल तो बिगाड़ ही दिया था।
एक अन्य बात मोदी के पर्सनल व्यक्तित्व से जुड़ी है। वह जब सोने के तार से अपना नाम गुदवाई शेरवानी पहनते हैं और मीडिया में यह बात उछलती है कि मोदी नेदस लाख की ड्रेस पहनी है, तो इसकी कोई सार्थक छाप जनता पर नहीं जाती। मोदी से अधिक मोदी का पहनावा समाचार का विषय वस्तु बने तो इसमें भविष्य के खतरनाक संकेत  छिपे हैं। दूसरी बात, अपने विचार या किसी मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया ट्विट करने के स्थान पर पत्रकारों से मिलिए। धर्म परिवर्तन, घर वापसी ऐसे मुद्दे हैं जिसपर लोग प्रधानमंत्री की राय जानता चाहते हैं। उनकी प्रतिक्रिया से लोगों में उनसे प्यार या उपेक्षा जन्म लेगी। इस मामले में मोदी तो मनमोहन सिंह से भी आगे हैं। वह मीडिया से मिलना ही नहीं चाहते हैं। जनता को अपने सामने सरकार की स्थिति स्पष्ट ही नहीं करना चाहते हैं। हर उस मुद्दे पर, जो राष्ट्रीय स्तर पर असर डालती है उसपर मोदी की या फिर स्पोक्स पर्सन की सफाई (जवाब) आनी चाहिए। मोदी की कई मुद्दों पर अस्पष्टता ने भी दिल्ली में भाजपा के वोट काटे ही होंगे।

दिल्ली चुनाव परिणाम ने स्पष्ट संकेत दिया है जो कहो, उसे करो। जो करो उसके बारे में बताओ। जो बताओ वह तथ्यहीन नहीं हो। यानी प्रशासक और उसको चुनने वाली जनता के बीच कोई बिचौलिया नहीं हो।
.............................












(लेखक-परिचय:
जन्म: 3 जुलाई, 1973 को लखनऊ में
शिक्षा : पटना से स्नातक, पत्रकारिता व जनसंचार की पीजी उपाधि, दिल्ली विश्वविद्यालय से
सृजन : देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कहानियां
संप्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क : anandbhavpreet@gmail.com )
 
read more...

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

रेड ज़ोन यानी झारखंड का औपन्यासिक दस्तावेज़

समस्याओं को समग्रता में डायग्नोस करता उपन्यास


















गुंजेश की क़लम से
हम अपनी पीढ़ी में अंतिम इतिहास नहीं लिख सकते, लेकिन हम परंपरागत इतिहास को रद्द कर सकते हैं और इन दोनों के बीच प्रगति के उस बिंदु को दिखा सकते हैं, जहां हम पहुंचे हैं। सभी सूचनाएं हमारी मुट्ठी में है और हर समस्या समाधान के लिए पक चुकी है।  -ऐक्टन

एलोपैथ में अक्सर होता है कि कान की बीमारी के इलाज के लिए नाक में दवाई दी जाती है। साहित्य रचना बीमारी का इलाज भले ही न हो, लेकिन उसको डायग्नोस करने का एक तरीका तो जरूर है। विनोद कुमार रचित रेड जोन, ऐसा ही एक उपन्यास है जो हमारे आसपास मौजूद समाजों (दल, वर्ग, जाति, राष्ट्र, या जो भी नाम हम देना चाहें) में समाधान के लिए पक चुकी समस्याओं को समग्रता में डायग्नोस करता है। रेड जोन, में सिर्फ रेड जोन की बात नहीं है बल्कि यह पूरे झारखंड और उसके बनने के क्रम में यहां की समाजिक हलचलों का दस्तावेज है। खुद लेखक इस बारे में लिखते हैं ""सच पूरा का पूरा देखना तो कठिन है ही, लिखना और भी ज्यादा कठिन। कुछ यथार्थ और कल्पनाओं को जोड़ कर यह रचना बनी है। मौजूदा राजनीति, राजनेताओं, पत्रकारों के ब्योरे में यथार्थ का अंश ज्यादा है। झारखंड को लाल रंग देती भूमिगत गतिविधियों और प्रवृत्तियों में कल्पना का अंश ज्यादा।'' (दो शब्द)
रेड जोन में दर्ज समय झारखंड अलग राज्य बनाने की मांग से लेकर अलग राज्य बनने के कुछ बाद तक का है। पहली नजर में उपन्यास का नायक मानव दिखता है जो कि लौहनगरी में राजधानी से निकलने वाले एक अखबार का स्टॉफ रिपोर्टर है। लेकिन पाठ खत्म होते ही यह सवाल उठता है कि क्या वाकई मानव उपन्यास का नायक है? या वह उस दिक (स्पेस) में जिसमें उपन्यास रचा गया है, के काल (टाइम) का प्रतिक है। जिसमें सब कुछ घटित हो रहा है। लेकिन उन तमाम घटनाओं पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। वह सिर्फ मौजूद है और कई बार तो पीड़ित भी।

उपन्यास अपने आधे हिस्से में जिस सवाल को प्रमुखता से उठाता है वह है ""... अब देखिए न, इस लौह कारखाना के चलते इस औद्योगिक शहर के रूप में झारखंड में समृद्धि का एक द्वीप जरूर बन गया है लेकिन यहां के आदिवासियों और मूलवासियों को क्या मिला?''

सुप्रसिद्ध आलोचक वीर भारत तलवार ने अपने किसी लेख में शिबू सोरेन का जिक्र करते हुए लिखा था कि कभी सोचा था की उन पर किताब लिखूंगा लेकिन अब स्थितियां काफी बदल गईं हैं। रेड जोन में गुरुजी की कहानी शिबू सोरेन की उन्हीं बदली हुई स्थितियों का बयान है। गुरुजी, बाटूल, मुक्ति मोर्चा, मंडल जी, विस्थापन की राजनीति। भाजपा, दादा, बिहार, वनांचल की मांग। दुर्गा, कालीचरण, तेज सिंह, लेवाटांड़, पछियाहा राजनीति, दारोगा, बंदूक और उसकी नली से निकलने वाली सत्ता का स्वप्न। दो अन्य नेता एके राय और महेंद्र सिंह। इन सब से गुजरने वाला मानव, मानव पर नजर रखने वाला उसका अखबार और अखबार के संपादक हर्षवर्द्धनजी।

क्या हम यह मान सकते हैं कि ऐतिहासिक समस्याएं हमेशा व्यक्तिगत व्यवहार और व्यक्तिगत सनक की समस्या होती है। चाहे वह अलग राज्य को लेकर चला आंदोलन हो या फिर राज्य बनने के बाद सत्ता हासिल करने की राजनीति, इत्तिफाक से झारखंड में हमेशा व्यक्तियों के इर्दगिर्द ही नाचती रही है। "" इसके अलावा झारखंडी समाज में एक और द्वंद्व है, वह है बाहरी और भीतरी का। कॉमरेड राय ने इस विभाजन- रेखा को एक दशक पहले बहुत गहरा कर दिया था।'' (पृष्ठ सं. : 121) में लेखक व्यक्ति आधारित राजनीति के साथ-साथ नेताओं के व्यक्तिवादी होने पर भी टिप्पणी कर रहा है। मानव खुद जेपी आंदोलन से निकल कर पत्रकारिता के क्षेत्र में अाया है और जन आंदोलनों की ओर सहानुभूति रखता है। लेकिन यह मानव का जेपी आंदोलन के मोह से निकला हुआ मन है या पत्रकारिता में रम चुका वस्तुनिष्ठ दिमाग कि वह किसी भी व्यक्ति पर चाहे वह गुरुजी हों, एके राय हों, दादा हों या महेंद्र सिंह हों पूरी तरह भरोसा नहीं करता। वास्तव में यही उपन्यास के पूरे क्राफ्ट की विशेषता और सफलता है कि वह किसी को हीरो नहीं बनाता। वरना हाल के दिनों में आदिवासियों और जन आंदोलनों के हीरो गढ़ने की जो परंपरा चल निकली है वह इतिहास दृष्टि में बहुत अधिक गलतियां और भ्रम पैदा कर रही हैं।

कालीचरण और दुर्गा

दो आदिवासी चरित्र उभर कर सामने आए हैं। कालिचरण बरास्ते गुरुजी वामपंथ और फिर माओवाद की शरण में चला जाता है। दुर्गा पर समय की नजर कुछ ऐसी पड़ी है कि उसे यकीन होने लगा है कि सत्ता बंदूक के रास्ते से ही मिल सकती है। कालीचरण तो पहले से ही हिंसा के मार्ग के पक्ष में नहीं था।
लंबी बहसों और हत्याओं के एक सिलसिले के बाद दुर्गा को भी लगने लगता है कि ""लड़ें-मरें हम और निर्णय कोई और ले। हमारे यहां ऐसा नहीं होता।.....
हमारे यहां नहीं होता माने हमारे समाज में नहीं होता। आदिवासी समाज में नहीं होता।'' (पृष्ठ सं. 334)  दरअसल झारखंड की विडंबना यही रही कि "" आम झारखंडी नेता समाजवादी आंदोलन मुखी नहीं है और जो लोग आंदोलन में हैं वे झारखंडी नहीं हैं।'' (पृष्ठ सं. 372) और इन सब स्थितियों में कई कालीचरण और दुर्गा बनते जा रहे हैं। जो अपनी समाज की तरह "राज्य' की तलाश में एक खेमे से दूसरे खेमे में जाते हैं और हर जगह से ठगे से लौटते हैं।

यह कहने में कोई संकाेच नहीं है कि लेखक ने वो सारे खतरे उठाए जो इस उपन्यास को व्यक्तिवादी और सेंसेशनल बना सकता था और लेखक उन सब खतरों के बीच से समाज में फैले कमिटमेंट की कमी को दर्ज करने में भी कामयाब हुआ। चाहे वह पत्रकारिता से जुड़े मानव के अपने सवाल हों या फिर राजनीतिक हलकों से जिंदा नजिरों को उठाना। वीर भारत तलवार ने फ्लैप पर सटीक ही लिखा है कि लेखक के जवाबों से कोई सहमत या असहमत हो सकता है लेकिन उसकी ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता। अंत में सिर्फ इतना ही कि यह न केवल एक राजनीतिक उपन्यास है बल्कि पिछले कुछ समय का एक महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट भी है।


पुस्तक : रेड ज़ोन
लेखक : विनोद कुमार
 प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली
 कीमत : 395
 पृष्ठ : 400

दैनिक भास्कर के झारखंड संस्करणों में 12 फरवरी 2014 को प्रकाशित

(रचनाकार -परिचय:
जन्म: बिहार झरखंड के एक अनाम से गाँव में 9 जुलाई 1989 को
शिक्षा: वाणिज्य में स्नातक और जनसंचार में स्नातकोत्तर महात्मा  गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा से
सृजन: अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं व वर्चुअल स्पेस  में लेख, रपट, कहानी, कविता
संप्रति: भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क: gunjeshkcc@gmail.com )



read more...

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

समय की बेचैनियों से बनीं शाहनाज़ की कविताएँ
















राजेश जोशी की क़लम से
आँसुओं से भीगी ताज़ा लहू में डूबी कविता
लिखती हूँ काट देती हूँ फिर लिखती हूँ !

शाहनाज़ की ये कविताएँ गुस्से , खीज , गहरी करूणा ,स्मृतियों और हमारे समय की
बेचैनियों से बनी कविताएँ हैं। इनमें गहरी हताशा का स्वर है तो कहीं उसी के बीच से कौंधती उम्मीद की रौशनी भी मौजूद है। यहाँ रौशनी की एक बूंद को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने का खेल है तो यह प्रश्न भी कि आज़ाद चीजों को कै़द करने का ऐसा खेल क्यों होता है। यहाँ कभी न लौट सकने वाले बचपन की स्मृतियाँ है और यह दुख भी कि उस समय जब घर में सब होते थे मतलब दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े पापा , चाचा, मामी , ख़ाला उस संयुक्त परिवार के हम आख़री गवाह है। तेजी से बदल रहे शहर, रिश्ते और गुम हो रही चीजें और चिट्ठियाँ हैं,  जिनका शायद कुछ आँखों को अभी भी इंतज़ार है। यह कविताएँ अपनी बात कहने के लिये किसी कविताई कौतुक, अलंकारिकता या भाषायी बंतुपन का आसरा नहीं ढूंढती। इनमें हिन्दी उर्दू की मिली-जुली जबान का वह स्वाद है जो शाहनाज़ को अपने शहर की बोलचाल से प्राप्त हुआ है । शाहनाज़ के पाँव अपनी ज़मीन को पहचानते हैं और अपने आसमान को भी ।
ये कविताएँ उन दृश्यों को सामने रखती है जो अतिपरिचित हैं, सबके देखेभाले हैं और शायद इसीलिए रचना में वो हमसे अक्सर अदेखे रह जाते हैं । वो हमारे एकदम आसपास बिखरे जीवन के दृश्य है। इनमें आँसू भी है और लहू भी। ये कविताएँ जीवन के बहुत ज़रूरी सवालों को बेलाग ढंग से और बेख़ौफ़ होकर उठाती है। इसमें किसी तरह का संकोच या हकलाहट नहीं। पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री की अस्मिता से जुड़े सवाल हों या अल्पसंख्यक समुदाय और तथाकथित सेक्यूलर राजनीति के कारनामे, कहीं भी शाहनाज़ विमर्श के सीमित दायरों में अपने को कैद नहीं रखती , वह उससे बाहर आकर उन सच्चाइयों को वर्गीय राजनीतिक समझ के साथ देखने की कोशिश करती हैं। इसलिए उसकी दृष्टि बहुत हद तक अस्मिताविमर्शवादियों से अलग भी है ।
हमारे समय की राजनीति जिसे हमेशा ही सिर्फ चुनाव के समय ही हाशिये से बाहर के लोग याद आते हैं पर ये कविताएँ विचलित कर देने वाले सवाल खड़े करती हैं। हमारे आसपास बिखरी सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक विद्रूपताएँ इन कविताओं की उठी हुई उंगली की जद में हैं। यह ऐसी राजनीति है जिसे जब वोट मांगना होता है तब ही वह नाक पर रूमाल रखकर मुसलमानों के मोहल्ले में प्रवेश करती है । जहाँ जख़्मों से चूर ज़िन्दगी ख़ून सी छलकती है । यह एक ऐसा जीवन है जो स्टिललाइफ़ की तरह पिछले साठ सालों में ठहर-सा गया है । जिसे किसी न किसी बहाने से सरकारें बार बार भूल जाती हैं । आलोचना की सुई किसी एक ही तरफ ठहरी हुई नहीं है । इसी तरह उम्र बीस साल कविता में वह कहती है-

तुम्हारा परिचय भी हुआ होगा
हिंसा ,उत्पीड़न ,यातना ,अपमान जैसे शब्दों से
मौलवियों और उलेमाओं की इस दुनिया में
रोने पर पाबन्दी है और ज़ोर से हँसना मना है
तबलीग करने वाले सिर्फ फ़र्ज़ बताते हैं
और हक़ सिर्फ़ किताबों में लिखे जाते हैं ।
शाहनाज़ का यह पहला कविता संग्रह है। एक नये कवि को पढ़ते हुए पाठक यही ढूंढता है कि उसमें नया क्या है और कितना चौकन्ना है वह अपने समय और आसपास के जीवन को देखने, जानने बूझने के लिये। शाहनाज़ की ये कविताएँ अपने आसपास के प्रति सजग भी हैं और इनमें कई अलक्षित कोनों में झाकने और चीजों को नये तरह से देखने और कहने का कौशल भी है। इन कविताओं से किसी हिस्से को अलग करके उद्धृत करना मुश्किल है। वस्तुतः ये कविताएँ एक मुकम्मिल इकाई की तरह हैं। इसलिए उन्हें हिस्सों में नहीं पढ़ा जा सकता। कई बार तो किसी पंक्ति या पंक्तियों को अलग करके रखने में यह भी डर होता है कि संदर्भ से कट जाने पर उनका अर्थ ही न बदल जाये ।
शाहनाज़ सोचती है कि इन वर्कों पर कुछ और भी लिखा जा सकता था। जैसे:

एक सफ़र का क़िस्सा
जंग की भयावहता
डरावनी यादें
चूल्हे की आग ,छीनी गई रोटी
झील में उभरता सूरज
अकेली शाम की खामोशी
या तुम्हारी काली आँखें

पर आँसू और खुशी , गुस्से और नफ़रत , तकलीफ़ें और मोहब्बत लिखते हुए उसे लगता है कि ऐसा लिखना-कुछ ऐसा ही जैसे लिखना / खुद को बचाये रखने का रास्ता हो।
 

मुझे पूरा विश्वास है कि इस संग्रह को पढ़ने के बाद आप विचलित हुए बिना नहीं रह सकते और इस संग्रह की अनेक कविताएँ और अनेक पंक्तियाँ आपके मन में उतरकर आपकी स्मृति का हिस्सा हो जायेंगी ।


दख़ल से प्रकाशित शहनाज़ के कविता-संग्रह दृश्य के बाहर की भूमिका


शहनाज़ इमरानी की कविताएं पढ़ें



(लेखक-परिचय:
जन्म: 18 जुलाई 1946 को नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश में
प्रमुख कृतियाँ :     कविता-संग्रह- समरगाथा (लम्बी कविता), एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, नेपथ्य में हँसी और दो पंक्तियों के बीच, दो कहानी संग्रह - सोमवार और अन्य कहानियाँ, कपिल का पेड़, तीन नाटक - जादू जंगल, अच्छे आदमी, टंकारा का गाना। इसके अतिरिक्त आलोचनात्मक टिप्पणियों की किताब - एक कवि की नोटबुक, पतलून पहना आदमी (मायकोवस्की की कविताओं का अनुवाद), धरती का कल्पतरु(भृतहरि की कविताओं का अनुवाद)
कुछ लघु फिल्मों के लिए पटकथा लेखन भी
सम्मान : शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, मध्य प्रदेश सरकार का शिखर सम्मान और माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार के साथ साहित्य अकादमी पुरस्कार  से विभूषित। )
read more...
(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)