बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 30 जून 2014

तुमने बदले हम से गिन-गिन के लिए

दो शाइर और एक ग़ज़ल 













रजनीश ‘साहिल’ की क़लम से

"दो जुदा शाइरों की अलग-अलग ग़ज़लों से शेर चुनकर बनी एक तीसरी मुकम्मल ग़ज़ल", अगर कोई ऐसा कहे तो क्या आप क्या कहेंगे? थोड़ा अटपटा लगता है सुनने में, पर जो है, सो है. यह सुनकर शायद और अटपटा लगे कि इसमें चोरी-वोरी का कोई मामला भी नहीं है. और यह भी नहीं है कि जिसके मार्फ़त तीसरी ग़ज़ल हम तक पहुंची उसने नादानी में ऐसा कर दिया होगा. क्योंकि न तो दोनों शाइर और न ही वह तीसरा शख्स, कोई भी ग़ज़ल की दुनिया का अनजाना नाम नहीं है. जो भी ग़ज़ल पढ़ने-सुनने का शौक रखता है वो तीनों को बखूबी जानता है. तो ग़ज़ल के रू-ब-रू होने से पहले ज़रा इन तीनों की ही बात कर लेते हैं. शुरुआत शाइरों से करते हैं. एक ही समय के दो अलग-अलग शायर. एक लखनऊ में पैदा हुए, दूसरे दिल्ली में. इंतकाल दोनों का एक ही जगह हुआ, हैदराबाद में.
पहले शाइर हैं 1828 में लखनऊ में जन्म लेने वाले अमीर अहमद मीनाई, जो ग़ज़ल की दुनिया में भी अमीर मीनाई के नाम से ही मशहूर हुए. इस्लामिक क़ानून और न्यायशास्त्र के ज्ञाता अमीर मीनाई 1856 में लखनऊ पर हुए ब्रिटिश हुकूमत के हमले के बाद बेघर-बेदर हुए और बरास्ता काकोरी रामपुर रियासत पहुंचे जहाँ वे तत्कालीन शासक नवाब युसूफ अली खान के उस्ताद हुए. सन 1900 की शुरुआत तक वे रामपुर ही रहे फिर अपनी ‘अमीर-उल-लुग़त’ के बाकी हिस्सों के शाया होने की हसरत लिए वे हैदराबाद कूच कर गए, जहाँ 13 अक्टूबर 1900 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा.
दूसरे शाइर हैं 25 मई 1831 को दिल्ली में जन्मे नवाब मिर्ज़ा खान, जिन्हें उर्दू अदब की दुनिया में दाग़ देहलवी के नाम से जाना जाता है. शेख मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक़ और मिर्ज़ा ग़ालिब की शागिर्दी में रहे दाग़ 1956 में दिल्ली में हुई उथल-पुथल के बाद रामपुर रवाना हुए और नवाब युसूफ अली खान के शासनकाल में सरकारी मुलाज़िमत हासिल की. 1888 में दाग़ हैदराबाद पहुँचे और मुशाइरों की जान हो गए. 1891 में वे हैदराबाद दरबार के शाइर और छठवें निज़ाम के उस्ताद हुए.
यूँ तो शाइरी के मामले में दिल्ली और लखनऊ की अपनी-अपनी रवायत है और ऐसे कई किस्से हैं जब बाज़ दफ़ा दोनों ही रवायतों के शाइरों ने एक-दूजे के लिए अपनी नापसंदगी ज़ाहिर की और चुटकियाँ लीं. बावज़ूद इसके दाग़ देहलवी और अमीर मीनाई बहुत ही अच्छे दोस्त थे. ज़ाहिर बात है कि दोस्ती का यह पौधा रामपुर में पनपा होगा जो दोनों की आख़िरी साँस तक हैदराबाद की ज़मीं पर भी हरा रहा. 1900 में जब अमीर मीनाई हैदराबाद पहुँचे तो वे दाग़ के साथ ही रहे. बहुत मुमकिन है कि जिन शेरों के ज़िक्र से यह बात निकली है वह भी दोनों ने एक ही वक़्त पर एक ही कमरे मैं बैठकर कहे हों. दोनों ग़ज़लों को पढ़कर लगता भी ऐसा ही है. बहरहाल, अमीर के बाद 17 मार्च 1905 को दाग़ भी इस दुनिया को अलविदा कह गए.
अब बात करते हैं उस तीसरे शख्स़ की जिसने इन दोनों शाइरों को एक ही ग़ज़ल में साथ ला दिया. ग़ज़ल के सुनने वालों के बीच इस शख्स का नाम बड़ा ही मक़बूल है और वह है – जगजीत सिंह. 8 फ़रवरी 1941 को राजस्थान के श्री गंगानगर में जन्मे और 1965 में फिल्मोद्योग में अपनी जगह बनाने की ख़्वाहिश लिये मुंबई पहुँचे जगजीत सिंह ने 10 अक्टूबर 2011 को अपनी आख़िरी साँस लेने तक के वक़्त में ख़ुदा-ए-सुखन मीर तक़ी ‘मीर’ और ग़ालिब से लेकर निदा फ़ाज़ली, बशीर बद्र और इस दौर के न जाने कितने ही शाइरों को अपनी आवाज़ के ज़रिये हमारे सामने ला खड़ा किया है. ग़ज़ल, जो किसी वक़्त में मुश्किल समझी जाती थी उसे अपनी मौसिक़ी से आसान बनाने और हर दिल तक पहुँचाने में उन्हें जो कामयाबी मिली उसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जो ग़ज़ल और गीत का फ़र्क भी नहीं जानते वे भी उनकी गाई ग़ज़लों के दीवाने हैं. जवाँ दिल अपनी उदासी अक्सर उनकी ग़ज़लों से बाँटते हैं.
अब चुन-चुन कर एक से एक बेहतरीन शाइर की अच्छी ग़ज़ल गाने वाले जगजीत सिंह से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि वे दाग़ देहलवी की शेरों को गाते-गाते यूँ ही बेख़याली में अमीर मीनाई के शेर गुनगुना गए होंगे, भले ही बहर एक है तो क्या! असल में सुरों में उतारने से पहले दाग़ और अमीर की ग़ज़लों के शेर बड़ी ही ख़ूबसूरती से चुने गए. एहतियात के साथ चुने गए कि सुनते वक़्त किसी को अहसास तक न हुआ कि कोई शेर किसी और शाइर का भी हो सकता है. हर शेर की एक-सी ज़बान, एक-सा अंदाज़-ए-बयां, एक-सा अहसास. इसीलिए तो हर सुनने वाले को यह अपने आप में एक मुकम्मल ग़ज़ल लगी. दो शाइरों के शेरों को चुनकर बनी तीसरी मुक़म्मल ग़ज़ल. जिसने जानने की कोशिश न की उसे कभी पता न चला कि इस ग़ज़ल का, इसके शेरों का ख़ालिक कोई एक नहीं दो जुदा शख्स हैं.
इतनी लम्बी तम्हीद जिस मक़सद से की, अब भी अगर उसका ज़िक्र न किया यानी अब भी अगर उस तीसरी ग़ज़ल पर न आए, तो ये नाइंसाफ़ी होगी. इसलिए रू-ब-रू होते हैं उस ग़ज़ल से, हर शेर के साथ उसके शाइर की मौजूदगी में...
 
तुमने बदले हम से गिन-गिन के लिए
हमने क्या चाहा था इस दिन के लिए
 
  ...(दाग़ देहलवी)

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
   ...(अमीर मीनाई)

वो नहीं सुनते हमारी क्या करें
माँगते हैं हम दुआ जिनके लिए 
   ... (दाग़ देहलवी)

चाहने वालों से गर मतलब नहीं
आप फिर पैदा हुए किन के लिए 
  ...(दाग़ देहलवी)

बागबाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
भेजनी हैं एक कमसिन के लिए 
  ...(अमीर मीनाई)

---------------

(लेखक-परिचयः
जन्मः मध्य प्रदेश के अशोकनगर ज़िले के ग्राम ओंडेर में 5 दिसंबर 1982 को।
शिक्षाः स्नातक।
सृजनः जनपथ, देषबंधु, दैनिक जनवाणी, कल्पतरु एक्सप्रेस व कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं, वेब पोर्टल्स में रचनाएँ प्रकाशित
संप्रतिः स्वतंत्र पत्रकार व ग्राफिक आर्टिस्ट
ब्लाॅगः ख़लिश
संपर्कःsahil5603@gmail.com  09868571829)

हमज़बान पर रजनीश पहले भी

 

Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

3 comments: on "तुमने बदले हम से गिन-गिन के लिए"

Asha Pandey ojha ने कहा…

वाह कमाल की जानकारी दी बिलकुल अनभिग्य थे .. आभार

Unknown ने कहा…

कमाल है । शुक्रिया

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)