रिश्तों की जटिलता का बारीक फ़िल्मकार
ऋतु कलसी की क़लम से
विज्ञापन की दुनिया से अपना कैरियर शुरू करने वाले ऋतुपर्णो घोष ने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत बाल फ़िल्मों के निर्माण से की। वर्ष 1994 में बाल फ़िल्म 'हिरेर आंग्टी' के निर्देशन से उन्हें शोहरत मिलने लगी थी। इसके बाद 'उनिशे एप्रिल' के लिए उन्हें 1995 में 'राष्ट्रीय पुरस्कार' से नवाज़ा गया था। यह फ़िल्म प्रख्यात फ़िल्म निर्देशक इंगमार बर्गमन की 'ऑटम सोनाटा' से प्रेरित थी। इस फ़िल्म में ऋतुपर्णो घोष ने माँ-बेटी के तनावपूर्ण रिश्तों को बारीकी से रेखांकित किया था। एक कामकाजी महिला अपने व्यावसायिक कैरियर में सफल है, लेकिन अपनी पारिवारिक ज़िंदगी में वह असफल रहती है। इसका असर उसकी बेटी पर होता है और बेटी अपनी माँ से इस बात को लेकर नाराज है कि वह अपने व्यवसाय को कुछ ज़्यादा ही महत्त्व देती है। इस फ़िल्म में अपर्णा सेन, देबश्री राय और प्रसन्नजीत चटर्जी ने अभिनय किया था। इस फ़िल्म को सिने प्रेमियों ने खूब सराहा था। उनके जानने-पहचानने वाले लोग उन्हें 'ऋतु दा' के नाम से पुकारने लगे थे।
ऋतुपर्णो घोष को फ़िल्म मेकिंग की प्रेरणा अपने पिता सुनील घोष से ही मिली थी। सुनील डॉक्युमेंट्री फ़िल्म मेकर और पैंटर थे। ऋतुपर्णो ने अपनी प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा 'साउथ पॉइंट हाईस्कूल' से प्राप्त की। उन्होंने अपनी अर्थशास्त्र की डिग्री 'जादवपुर यूनिवर्सिटी', कोलकाता से प्राप्त की थी। आगे चलकर अपने आधुनिक विचारों को उन्होंने फ़िल्मों के जरिये पेश किया और जल्दी ही अपनी पहचान एक ऐसे फ़िल्म मेकर के रूप में बना ली, जिसने 'भारतीय सिनेमा' को समृद्ध किया। अपनी फ़िल्मों के माध्यम से ऋतुपर्णो घोष ने बहुत लोकप्रियता प्राप्त की। सारे बड़े फ़िल्मी कलाकार उनके साथ काम करने के लिए तुरंत राजी हो जाते थे, क्योंकि उनकी फ़िल्मों में काम करना गर्व की बात थी। रिश्तों की जटिलता और लीक से हट कर विषय उनकी फ़िल्मों की ख़ासियत होते थे। बांग्ला उनकी मातृभाषा थी और इस भाषा में वे सहज महसूस करते थे। इसलिए अधिकतर फ़िल्में उन्होंने बांग्ला भाषा में ही बनाईं। फ़िल्म फेस्टिवल में सिनेमा देखने वाले दर्शक और ऑफबीट फ़िल्मों के शौकीन ऋतु दा की फ़िल्मों का बेसब्री से इंतज़ार करते थे।
ऋतुपर्णो ने अर एकती प्रीमर गोल्पो, मैमोरिज़ इन मार्च और चित्रांगदा में उन्होंने अभिनय भी किया. उन्होंने स्त्री की तरह दिखने के लिए कुछ सर्जरियाँ करवाईं और हॉर्मोन थेरेपी का सहारा भी लिया. इन फिल्मों को बनाने और खुद को सबके निशाने पर रखा उनका व्यक्तित्व फीका और सावधानीपूर्ण हो चुका था, और वह पूरी तरह से स्वयं को अलग-थलग महसूस करने लगे थे. लेकिन वह जानते थे कि वह अपने सेलेब्रिटी हैसियत का इस्तेमाल एलजीबीटी समुदाय के लिए कर सकते हैं.
( रचनाकार परिचय:
जन्म: 9 सितंबर
शिक्षा : एस एम् डी आर एस डी कालेज, पठानकोट से स्नातक
सृजन:पंजाबी की लगभग सभी स्तरीय पत्रिकाओं में कहानियां. दो पुस्तकें जल्द ही प्रकाश्य
रुचि: अध्ययन, लेखन और नृत्य
सम्प्रति:जालंधर से फ़िल्म की पत्रिका ‘सिने वर्ल्ड ’ का संपादन व प्रकाशन
ब्लॉग: पर्यावरण पर हरिप्रिया
संपर्क:reetukalsi@gmail.com)
ऋतु कलसी की क़लम से
विज्ञापन की दुनिया से अपना कैरियर शुरू करने वाले ऋतुपर्णो घोष ने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत बाल फ़िल्मों के निर्माण से की। वर्ष 1994 में बाल फ़िल्म 'हिरेर आंग्टी' के निर्देशन से उन्हें शोहरत मिलने लगी थी। इसके बाद 'उनिशे एप्रिल' के लिए उन्हें 1995 में 'राष्ट्रीय पुरस्कार' से नवाज़ा गया था। यह फ़िल्म प्रख्यात फ़िल्म निर्देशक इंगमार बर्गमन की 'ऑटम सोनाटा' से प्रेरित थी। इस फ़िल्म में ऋतुपर्णो घोष ने माँ-बेटी के तनावपूर्ण रिश्तों को बारीकी से रेखांकित किया था। एक कामकाजी महिला अपने व्यावसायिक कैरियर में सफल है, लेकिन अपनी पारिवारिक ज़िंदगी में वह असफल रहती है। इसका असर उसकी बेटी पर होता है और बेटी अपनी माँ से इस बात को लेकर नाराज है कि वह अपने व्यवसाय को कुछ ज़्यादा ही महत्त्व देती है। इस फ़िल्म में अपर्णा सेन, देबश्री राय और प्रसन्नजीत चटर्जी ने अभिनय किया था। इस फ़िल्म को सिने प्रेमियों ने खूब सराहा था। उनके जानने-पहचानने वाले लोग उन्हें 'ऋतु दा' के नाम से पुकारने लगे थे।
ऋतुपर्णो घोष को फ़िल्म मेकिंग की प्रेरणा अपने पिता सुनील घोष से ही मिली थी। सुनील डॉक्युमेंट्री फ़िल्म मेकर और पैंटर थे। ऋतुपर्णो ने अपनी प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा 'साउथ पॉइंट हाईस्कूल' से प्राप्त की। उन्होंने अपनी अर्थशास्त्र की डिग्री 'जादवपुर यूनिवर्सिटी', कोलकाता से प्राप्त की थी। आगे चलकर अपने आधुनिक विचारों को उन्होंने फ़िल्मों के जरिये पेश किया और जल्दी ही अपनी पहचान एक ऐसे फ़िल्म मेकर के रूप में बना ली, जिसने 'भारतीय सिनेमा' को समृद्ध किया। अपनी फ़िल्मों के माध्यम से ऋतुपर्णो घोष ने बहुत लोकप्रियता प्राप्त की। सारे बड़े फ़िल्मी कलाकार उनके साथ काम करने के लिए तुरंत राजी हो जाते थे, क्योंकि उनकी फ़िल्मों में काम करना गर्व की बात थी। रिश्तों की जटिलता और लीक से हट कर विषय उनकी फ़िल्मों की ख़ासियत होते थे। बांग्ला उनकी मातृभाषा थी और इस भाषा में वे सहज महसूस करते थे। इसलिए अधिकतर फ़िल्में उन्होंने बांग्ला भाषा में ही बनाईं। फ़िल्म फेस्टिवल में सिनेमा देखने वाले दर्शक और ऑफबीट फ़िल्मों के शौकीन ऋतु दा की फ़िल्मों का बेसब्री से इंतज़ार करते थे।
ऋतुपर्णो घोष लेखक और कवि भी थे. बंगाल के सबसे प्रभावशाली लोगों में उनकी गिनती होती थी.कुछ समीक्षकों का यह भी कहना था कि उन्होंने बंगाल के साहित्य और फिल्म शैली को दुनिया तक पहुँचा कर, सत्यजीत रे की विरासत को आगे बढ़ाया था. लेकिन उनकी असमय मौत के कुछ वर्षों पहले वह फिल्म निर्माता कम और एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय के प्रतीक ज्यादा बन गए थे.ऋतुपर्णो ने सार्वजनिक रूप से क्रॉसड्रेसिंग करके, मेकअप लगाकर, पगड़ी और खूबसूरत दुपट्टों का इस्तेमाल शुरू कर पूर्वाग्रहों को चुनौती दी. अपनी लैंगिकता को स्वीकार कर उन्हें एक अलग किस्म का प्रशंसक वर्ग मिला, लेकिन उनके करीबी लोगों ने उनसे कुछ दूरी भी बना ली, और उन्हें मिला एक अकेलापन, जिसे उन्होंने दुखी मन से स्वीकार भी किया.उनके बारे में अप्रिय चुटकुले बनने लगे. हालाँकि शीर्ष अभिनेत्रियाँ (राष्ट्रीय पुरस्कार की उम्मीद में) उनके साथ काम करने के लिए उतावली थीं, लेकिन फिल्म उद्योग में अंतर्निहित होमोफोबिया को समझते हुए वह इस बात को लेकर सतर्क थे कि वह मर्द कलाकारों के साथ कैसे बातचीत कर रहे हैं.
ऋतुपर्णो ने अर एकती प्रीमर गोल्पो, मैमोरिज़ इन मार्च और चित्रांगदा में उन्होंने अभिनय भी किया. उन्होंने स्त्री की तरह दिखने के लिए कुछ सर्जरियाँ करवाईं और हॉर्मोन थेरेपी का सहारा भी लिया. इन फिल्मों को बनाने और खुद को सबके निशाने पर रखा उनका व्यक्तित्व फीका और सावधानीपूर्ण हो चुका था, और वह पूरी तरह से स्वयं को अलग-थलग महसूस करने लगे थे. लेकिन वह जानते थे कि वह अपने सेलेब्रिटी हैसियत का इस्तेमाल एलजीबीटी समुदाय के लिए कर सकते हैं.
फैशन शो हो या फिर पुरस्कार समारोह, ऋतु महिलाओं की पोशाक में नज़र आते थे जिसके लिए वो कई बार मीडिया में चर्चा का पात्र भी बन जाते थे. बावजूद इसके वो बिना किसी झिझक या शर्म के महिलाओं के कपड़े पहनते थे और समलैंगिकता पर अपने विचार खुलकर व्यक्त करते थे.ऋतु की सहकलाकार रही दीप्ति नवल का कहना है अपनी सेक्शुएलिटी को लेकर इतना सहज मैंने किसी को नहीं देखा. उसने मुझे बताया था कि एक बार अभिषेक बच्चन ने उसे ऋतु दा नहीं ऋतु दी कहा और ये बताते हुए उसकी आंखों में चमक थी.--
( रचनाकार परिचय:
जन्म: 9 सितंबर
शिक्षा : एस एम् डी आर एस डी कालेज, पठानकोट से स्नातक
सृजन:पंजाबी की लगभग सभी स्तरीय पत्रिकाओं में कहानियां. दो पुस्तकें जल्द ही प्रकाश्य
रुचि: अध्ययन, लेखन और नृत्य
सम्प्रति:जालंधर से फ़िल्म की पत्रिका ‘सिने वर्ल्ड ’ का संपादन व प्रकाशन
ब्लॉग: पर्यावरण पर हरिप्रिया
संपर्क:reetukalsi@gmail.com)
2 comments: on "ऋतु दा या ऋतु दी मतलब ऋतुपर्णो घोष "
nice
अच्छी जानकारी।
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- अल्लामा जमील मज़हरी