संदर्भ मुस्लिम परिवेश और हिंदी उपन्यास
सुनील यादव की क़लम से
मुस्लिम परिवेश और हिंदी उपन्यास पर बात करने से पहले साहित्य और समाज विशेषकर उपन्यास और समाज और रिश्ते की पड़ताल इसलिए जरूरी हो जाती है कि ''साहित्य की जड़ें समाज में होती हैं । वह स्वयं एक सामाजिक उत्पादन है । वह अपनी सामाजिक भूमिका के कारण ही मानवीय परंपरा का अंग बन सका है । इसी कारण साहित्य में निहित स्थितियों की व्याख्या और मूल्यांकन केवल सौंदर्य रसानुभूति के क्षेत्र में सीमित नहीं होते, उनका सामाजिक अर्थ और प्रभाव बड़ा व्यापक होता है ।’’i साहित्य मनुष्य और उसके समाज को समझने का सूत्र मुहैया कराता है । ''समाज शास्त्र में मनुष्य की सामाजिकता की पहचान के अनेक रास्ते हैं । उनमें से जो रास्ता साहित्य संसार से होकर गुजरता है, वह सबसे सुगम और विश्वसनीय तब होता है जब वह उपन्यास के रचना संसार से गुजरता है, क्योंकि वहाँ न तो कविता की तरह आत्मपरकता की फिसलन होती है और न नाटक के यथार्थ का मायालोक होता है । उपन्यास की कला में मौजूद मनुष्य के समाज संबद्ध और इतिहास सापेक्ष रूप को आसानी से पहचाना जा सकता है ।’’ii आज के समय में सिनेमा को सर्वाधिक प्रतिनिधि कला रूप माना जाता है क्योंकि वह नए मानव की आवश्यकताओं को पूरा करता है, उसकी आशा, आकांक्षाओं को व्यक्त करता है, इस नए मनुष्य की तूफानी दुनिया को चित्रित करता है । लेकिन रैल्फ फॉक्स लिखते हैं कि ''इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक काफी बड़ी हद तक सिनेमा ऐसा करने में सफल हो सकता है किंतु मेरी समझ में वह पूर्णतया ऐसा नहीं कर सकता । कारण कि उपन्यास का पलड़ा इस मायने में सदा भारी रहेगा कि वह मानव का कहीं अधिक पूर्ण चित्र प्रस्तुत कर सकता है, तथा उस महत्त्वपूर्ण आंतरिक जीवन की झाँकी दिखा सकता है जो मानव के निरे नाटकीय क्रियाशील रूप से भिन्न होती है और जो सिनेमा की क्षमता से बाहर की चीज है ।’’iii इस तरह साहित्य एवं समाज के अंतर्संबंध पर बात करते हुए यह कहा जा सकता है कि उपन्यास मनुष्य के जीवन के सबसे नजदीक साहित्यिक विधा है ।
हिंदी उपन्यास अपने उदय के ऐय्यारी और तिलिस्म के दौर से चलकर एक लंबी यात्रा तय कर चुका है । उसने भारतीय समाज के विविध पहलुओं को छुआ है । अब उपन्यास के जनतंत्र में ऐसे लोग जगह पा रहे हैं जो कभी हाशिए पर ढकेल दिए गए थे । यह हिंदी उपन्यास की चौहद्दी का विकास ही है कि आज मुस्लिम, दलित एवं आदिवासियों के जीवन पर उपन्यास लिखे जा रहे हैं । हिंदी उपन्यास की सीमाओं को रेखांकित करते हुए श्यामाचरण दुबे ने लिखा कि ''हिंदी उपन्यास की उल्लेखनीय सफलताओं के बावजूद भारत सामाजिक यथार्थ के आकलन में उसकी सीमाएं और न्यूनताएँ चुभने वाली हैं ।...भूमिहीन खेतिहरों, बंधुआ मजदूरों और औद्योगिक श्रमिकों पर जो लिखा गया है । वह नाकाफी है और संतोष भी नहीं देता । आदिवासियों व दरिद्र समाज का दर्द भी अभिव्यक्ति नहीं पा सका है ।’’iv 1991 ई. में व्यक्त की जा रही डॉ. श्यामाचरण दुबे की इस चिंता को हिंदी उपन्यास ने आज कुछ हद तक अपने अंदर समेट लिया है और दलित, आदिवासी, खेतिहर मजदूर, किसान इत्यादि पर उपन्यास लिखे जा रहे हैं । डॉ. श्यामाचरण दुबे जैसे समाजशास्त्री ''देश विभाजन की त्रासदी पर सशक्त और हिला देने वाले''v उपन्यास की माँग तो करते हैं पर उनकी नजर से भी देश विभाजन के बाद का मुस्लिम जीवन का व्यापक परिवेश छूट जाता है ।
शानी ने सबसे पहले यह सवाल उठाया था कि हिंदी उपन्यास में मुसलमान कहाँ हैं? 'समकालीन भारतीय साहित्य' पत्रिका के 41 वें अंक में नामवर सिंह से बात करते हुए शानी ने सवाल उठाया था कि ''क्या किसी भी देश का भौगोलिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मानचित्र 12-15 करोड़ मुस्लिम वजूद को झुठलाकर पूरा हो सकता है?...नामवर जी कई वर्ष पहले आपने कहा था कि हिंदी साहित्य से मुस्लिम पात्र गायब हो रहे हैं । मुस्लिम पात्र जब थे ही नहीं तो गायब कहाँ हो रहे हैं । प्रेमचंद में नहीं थे, यशपाल में आंशिक रूप से थे । ...गोदान जो लगभग क्लासिकी पर जा सकता है और हमारे भारतीय गाँव का जीवंत दस्तावेज है, उसमें गाँव का कोई मुसलमान पात्र क्यों नहीं हैं? क्या अपने देश का कोई गाँव इनके बिना पूरा हो सकता है? प्रेमचंद फिर भी उदार हैं, जबकि यशपाल के 'झूठा सच’ में नाम मात्र के मुस्लिम पात्र नहीं हाड़-मांस के जीवंत लोग हैं । लेकिन उसके बाद? अज्ञेय, जैनेन्द्र, नागर जी या उनकी पीढ़ी के दूसरे लेखकों में क्यों नहीं? और उससे भी ज्यादा तकलीफ़देह यह है कि आजादी के बाद के मेरी पीढ़ी के कहानीकारों में और उसके बाद के कहानीकारों में भी नहीं हैं । ...हिंदी में ही क्यों नहीं हैं? जबकि तेलुगू में हैं, असमिया में हैं, बँगला में हैं ।’’viइस प्रकार हम देखते हैं कि शानी इस बात को गंभीरता से महसूस कर रहे थे कि हिंदी उपन्यास में मुस्लिम जीवन का चित्रण बहुत कम हुआ हैं । उनकी इसी चिंता का परिणाम था उपन्यास 'कालाजल' (1965), जिसमें उन्होंने बस्तर जैसे पिछड़े क्षेत्र की मुस्लिम मध्यवर्गीय जिन्दगी का प्रामाणिक चित्रण किया है । यह उपन्यास दो मुस्लिम परिवारों की तीन पीढ़ियों की कहानी कहता है । यह मुस्लिम परिवार एक अजीब से ठहराव के बीच जी रहा है, बिल्कुल मोतीतालाब के काला जल की तरह सब कुछ ठहरा हुआ है, हालांकि समय चल रहा है, समय कभी रुकता भी नहीं, इन्द्रा नदी के बहाव की तरह । बहाव और ठहराव को मिलाकर शानी एक ऐसा कन्ट्रास रचते हैं कि मुस्लिम जीवन का पूरा परिदृश्य हमारे सामने खुलने लगता है । 'कालाजल' का समाज, उसका आचार व्यवहार, रूढ़ियाँ, अंधविश्वास, आपसी रिश्ते बिल्कुल वही हैं जो दूसरे भारतीय क्षेत्रों के होंगे लेकिन वहाँ देश के स्वतंत्रता आंदोलन की हलचल न के बराबर है । ''प्रत्यक्षत: यह दो मुस्लिम परिवारों के लगातार टूटने और उनकी घुटन के सघनतर होते जाने की मार्मिक कहानी है । मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों की त्रासदी तथा मुस्लिम मानसिकता और संस्कृति का उद्घाटन करने वाला यह अद्भुत उपन्यास है ।’’vii यह डॉ. श्यामाचरण दुबे की उस समाजशास्त्रीय माँग को भी पूरा करता है, जो उपन्यास विधा को मात्र 'साहित्यिक संरचना' तक ही सीमित न कर उसे 'सामाजिक संरचना' में पढ़े जाने की आग्रह करती है ।
'कालाजल' से पहले शानी का उपन्यास 'कस्तूरी' 1960 में प्रकाशित हुआ था, जो बाद में संशोधन-परिवर्द्धन के साथ 'साँप और सीढ़ी' नाम से प्रकाशित हुआ यह उपन्यास आजादी के बाद संक्रमण के दौर से गुजर रहे आदिवासी जीवन को लेकर लिखा गया है इसमें मुस्लिम परिवेश नहीं है । शानी का दूसरा उपन्यास 'पत्थरों में बंद आवाज' (1964) जो बाद में 'एक लड़की की डायरी' नाम से भी आया । इसमें बानू और अनीसबाजी नामक दो स्त्रियों की दास्तान है, जो अपनी जिन्दगी की जद्दोजहद से गुजरती हैं । इन दोनों का संबंध मुस्लिम परिवारों से है पर यह मुस्लिम परिवेश वाला उपन्यास नहीं है । दांपत्य संबंधों की त्रासदी पर आधारित शानी का उपन्यास 'नदी और सीपियाँ' (1970) मुस्लिम परिवेश का उपन्यास नहीं बल्कि स्त्री-पुरुष संबंधों को प्रश्नांकित करने वाला उपन्यास है ।
शानी के बाद मुस्लिम परिवेश को चित्रित करने वाले दूसरे महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार राही मासूम रज़ा हैं। इस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान के रिश्ते की पड़ताल करते हुए विभाजन की समस्या के ऊपर राही मासूम रज़ा का पहला उपन्यास 'आधा गाँव' सन्1966 में आया । 'आधागाँव' चलती हुई जिन्दगी की एक रील है जिसमें हर चीज़ जो घटने वाली है, उसका चित्रण साफ-साफ होता है । आजादी और विभाजन से पहले तथा उसके बाद के दौर में एक शिया मुस्लिम बहुल गाँव में हो रही हलचलों के साथ पूरी जिन्दगी के बहाव को कथाकार ने उठा लिया है । कहीं कुछ भी जोड़ा गया नहीं लगता, वे हाड़-मांस के लोग अपने गाँव में अपने तरीके से जिंदगी को जी रहे हैं, अपने तमाम दुर्गुणों के साथ, तत्कालीन राजनीति गाँव में कैसे घुसती है और उसके खिलाफ गाँव के लोगों के तर्क अपने हैं, ये घटनाक्रम, ये तर्क कथाकार के थोपे हुए तर्क नहीं हैं । इस प्रकार सामंतवाद तथा जमींदारी के विघटन के बाद भी सामंतवादी सोच और ठसक के साथ लोग जी रहे हैं, रखैलें रख रहे हैं क्योंकि उनके लिए स्त्री सिर्फ एक वस्तु है । उसका कोई नाम नहीं है । झंगटिया चमाइन, दुलरिया भंगिन के साथ मियाँ लोग सो सकते हैं, लड़के पैदा कर सकते हैं पर उनके हाथ का खाना नहीं खा सकते, उन्हें बीबी का दर्जा नहीं दे सकते । इस पितृसत्तात्मक सोच के साथ ‘आधागाँव’ में अशराफ एवं अजलाफ के विभाजन को भी साफ-साफ देखा जा सकता है । ''राही जहाँ अपने उपन्यास में मुस्लिम समुदाय की समरसता व भाईचारे के मिथक का भेदन करते हैं, वहीं अशराफ व सैय्यद वर्ग की नस्ली श्रेष्ठता व इस्लामी पवित्रता के छद्म को भी उघाड़ते हैं ।’’viii‘आधा गाँव’ के बाद राही के 'टोपी शुक्ला' (1969) और ‘हिम्मत जौनपुरी’ (1969) उपन्यास आते हैं । राही ‘टोपी शुक्ला’ में हिंदू-मुस्लिम संबंधों को सही संदर्भ में देखने की कोशिश करते हैं और इस कोशिश में वे इन संबंधों की त्रासद परिणतियों तक भी जाते हैं । 'हिम्मत जौनपुरी' एक ऐसे मुसलमान की कहानी है जो जीवन भर जीने का हक माँगता रहा, सपने बुनता रहा परंतु आत्मा की तलाश में सपना और यथार्थ के संघर्ष में उलझकर रह गया । 'ओस की बूँद' (1971) राही का एक छोटा उपन्यास है जिसमें ''एक ऐसे अंतर्विरोध पूर्ण समय की कहानी है जब आदमी आदमी न रहकर निखालिस हिंदू या मुसलमान बन जाता है और मुल्लाओं-महंतों तथा राजनीतिज्ञों द्वारा फैलाए गए धार्मिक उन्माद और झूठ के फलस्वरूप सारी मानवीय संवेदनाओं को तिलांजित कर वहशी बन जाता है ।’’ix 'दिल एक सादा कागज' (1973) मूलत: मुसलमानों के मोहभंग की कहानी है । 'सीन 75' (1977) में मुंबई महानगर के उस चकाचौंध भरे जीवन को विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न है, जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी संसार है । 1975 में इंदिरा गांधी के द्वारा देश में लगाए आपातकाल तथा उसके बाद के राजनीतिक वातावरण से प्रभावित हो रहे जन जीवन को राही मासूम रज़ा ने 'कटरा बी आर्जू'(1978) में दिखाया है । 'असंतोष के दिन' (1986) उपन्यास में राही मासूम रज़ा ने साम्प्रदायिकता के खूंखार चरित्र को उजागर किया है । हिंदू-सिक्ख, हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिकताएं इस उपन्यास के केन्द्र में हैं । ‘नीम का पेड़’(2003) उनका अंतिम उपन्यास है, इसमें राही ने नीम के पेड़ के बहाने विभाजन तथा उसके बाद के हिंदुस्तान में तेजी से परिवर्तित होते राजनीतिक,सामाजिक समीकरणों के बीच मानवीय संबंधों की त्रासद स्थितियों को चित्रित किया है।
भीष्म साहनी का ‘तमस’ (1973) और उससे पहले यशपाल का ‘झूठासच’ मूलत: सांप्रदायिक विभीषिका का चित्रण करने वाले उपन्यास हैं । इन उपन्यासों में मुस्लिम परिवेश उभर कर नहीं आ पाता । ''यशपाल हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की ऊपरी सतह को खुरचकर उन कुरूप सच्चाइयों को उजागर करते हैं जिनके बिना विभाजन के आख्यान को नहीं समझा जा सकता ।’’x जबकि साहनी 'तमस' में सांप्रदायिकता की जड़ तलाशते हुए अंग्रेजों की 'फूट डालो, राज करो’ की नीति तथा मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रीयता के सिद्धांत तक जाते हैं । इसी विषय को अपने कथा-विन्यास में विन्यस्त करते हुए सांप्रदायिकता का आख्यान रचते हैं । ''तमस उस अंधकार का द्योतक है जो आदमी की आदमीयत और संवेदना को ढक लेता है और उसे हैवान बना देता है ।’’xiमेहरून्निसा परवेज अपने उपन्यासों 'आँखों की दहलीज' (1969) और 'कोरजा' (1977) में मुस्लिम समाज का चित्रण करती हैं । इसमें चित्रित मुस्लिम समुदाय धार्मिक दृष्टि से उदार है पर उसमें पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति गहरी धंसी हुई है । 'कारेजा' में मेहरून्निसा परवेज यह दिखाती हैं कि शोषण के तरीके हर धर्म में समान हैं, चाहे वह मुस्लिम औरत हो या हिंदू पितृसत्तात्मक तथा धार्मिक आडंबर की प्रताड़ना दोनों को झेलनी पड़ती है ।
मुस्लिम जीवन के चित्रण में शानी तथा राही मासूम रज़ा की परंपरा में एक महत्त्वपूर्ण नाम बदीउज्जमाँ का भी है । बिहार से पूर्वी पाकिस्तान गए मुसलमानों के मोहभंग तथा उनके जीवन से घटित होती विडंबनाओं का चित्रण बदीउज्ज़माँ ने 'छाको की वापसी' में किया है । ‘छाको की वापसी’ का एक पात्र कहता है कि ''...यह एक बहुत तकलीफदेह हकीकत है लेकिन है हकीकत कि बिहारी मुसलमानों की बंगाली मुसलमानों के साथ गुजर नहीं हो सकती । बड़ा ही जानलेवा एहसास है यह कि हम जिन आदर्शों को सीने से लगाए हुए थे और जिनसे हमारे दिल और रूह को ताजगी और सुकून मिलता था उन्होंने अचानक जहरीले साँपों की तरह डसना शुरू कर दिया है । मैं सच कहता हूँ कि बिहार के हिंदू इन बंगाली मुसलमानों से यकीनन बेहतर थे... । xii इस प्रकार 'छाको की वापसी', 'आधागाँव' का एक तरह से विकास है । बदीउज्ज़माँ के दूसरे उपन्यास 'सभापर्व' (1994) में मुस्लिम जीवन को इस्लामी संस्कृति के हजारों वर्षों के इतिहास के आइने में प्रस्तुत किया गया है ।
मंजूर एहतेशाम ने अपने उपन्यासों में ''भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह की पीड़ा, अंतर्द्वन्द्व व दुर्बलताओं को भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य के साथ जिस तरह अंतरगुंफित किया है, वह गहरी रचनात्मक आत्मसंलग्नता के बिना संभव नहीं है ।’’xiii आजाद भारत के हिंदू मुस्लिम विमर्श की उपस्थिति के साथ उनका उपन्यास ‘सूखा बरगद’ (1986) स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में मूल्यगत टकराहट का दस्तावेज भी है । भारत-विभाजन की पृष्ठभूमि में प्रेम और अस्मिता की कहानी ‘सूखा बरगद’ में केंद्रीय तत्व के रूप में उपस्थित है । उपन्यास का यह अंत पूरे औपन्यासिक वृत्तांत को एक लय प्रदान करता है- ''जमशेद पुर कर्बला बना हुआ है मुसलमानों का मार-मार नाश कर डाला है । वह जो एक राइटर था-हिंदू-मुसलमान भाई-भाई की थीम पर उर्दू में जिंदगी भर कहानियाँ लिखता रहा, उसे भी निपटा दिया गया है ।’’xiv लेखक अली अनवर की इस हत्या के माध्यम से उपन्यासकार ने मुस्लिम समुदाय की हताशा को दिखाया है साथ ही साझी-संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता सभी कुछ प्रश्नों के घेरे में है । मंजूर एहतेशाम के उपन्यास 'दास्तान-ए लापता' (1995) और 'पहर ढलते' (2007) मुस्लिम जीवन की विडंबना को चित्रित करते हैं । 'बशारत मंजिल' उनका महत्त्वपूर्ण उपन्यास है । इसमें मंजूर एहतेशाम दो सगे भाईयों का मुस्लिम लीगी और राष्ट्रवादी मुसलमान के रूप में द्वि-विभाजन करते हुए इतिहास का एक नया विमर्श रचते हैं । यह उपन्यास स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस तक के काल-खंड को अपने अंदर समेटता है । इतने लंबे कालखंड में बदलते मुस्लिम प्रश्न इस उपन्यास के केंद्र में है साथ ही हिंदू-मुस्लिम संबंधों के टूटने की त्रासद स्थिति को भी यह उपन्यास केंद्रीयता प्रदान करता है ।
मुस्लिम परिवेश की प्रामाणिक अभिव्यक्ति अब्दुल विस्मिल्लाह के उपन्यासों में देखने को मिलती है । मुस्लिम बुनकरों के त्रासद जीवन को अभिव्यक्त करने वाला उनका उपन्यास 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' (1986) काफी चर्चित हुआ । बुनकरों का शोषण, गरीबी, जहालत, मजबूरी की बेबाक प्रस्तुति करते हुए अब्दुल बिस्मिल्लाह उस सच्चाई का पर्दाफाश करते हैं जिसमें शोषक सिर्फ शोषक होता है वह हिंदू या मुसलमान कोई भी है, धर्म विशेष फर्क नहीं डालता । शोषित हिंदू या मुसलमान इससे शोषण में कोई अंतर नहीं पड़ता । यही वास्तविक वर्ग चरित्र है । इस शोषण से बुनकर त्रस्त हैं । ''यतीन को रात में नींद नहीं आती, सिर्फ विचार आते हैं- तरह-तरह के विचार जो उसे सोने नहीं देते । बीवी को टी.वी. है। उसे गिजा चाहिए । भिरस जो है, उन्हें साड़ी में ऐब-ही-ऐब दीखता है । सरकार जो है, वह दाम बढ़ाए जा रही है । यह जो गाड़ी है, जिंदगी की, कैसे चलेगी?''xv बुनकरों के जीवन के ताने-बाने को पूरी संश्लिष्टता में इस उपन्यास में बुना गया है । त्योहार, गीत, रस्मो-रिवाज इस उपन्यास के मुस्लिम जीवन को जीवंत बनाते हैं ।
अब्दुल बिस्मिल्लाह अपने उपन्यास 'मुखड़ा क्या देखें' में मुस्लिम समुदाय के उस वृहत निम्न जन को अपनी औपन्यासिकता का केंद्र बनाते हैं जिसकी पीड़ा के मूल में न तो पाकिस्तान है और न विभाजन की त्रासदी बल्कि ''सामंती ग्राम संबंधों की तार-तार होती बुनावट, परंपरागत पेशों की टूट, जाति-व्यवस्था की जकड़न, सांप्रदायिकता की अंतर्धारा, समाज के निम्न वर्गों में जनतांत्रिक चेतना का उभार, सामाजिक न्याय की अनुगूँज एवं गाँव के मुहाने पर बाजार की दस्तक का अत्यंत सहज चित्रण इस उपन्यास में किया गया है ।’’xvi बिस्मिल्लाह के अगले उपन्यासों 'जहरबाद' में मिर्जापुर अंचल के गाँव में रहने वाले निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार का चित्रण है तो 'अपवित्र आख्यान' में मुस्लिम समाज के अंतर्द्वन्द्व के बहाने मौजूदा सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों का चित्रण । 'अपवित्र आख्यान' में बिस्मिल्लाह, राही मासूम रज़ा के 'टोपी शुक्ला' की तरह भाषाई अस्मिता के सवाल को भी उठाते हैं और उस प्रचलित मिथ का क्रिटिक रचते हैं कि कोई मुस्लिम संस्कृत या हिंदी का या हिंदू उर्दू का विद्वान नहीं हो सकता ।नासिरा शर्मा प्रगतिशील विचारों की लेखिका हैं । उनका पहला उपन्यास 'सात नदियाँ एक समुन्दर' (1984) आधुनिक ईरान की पृष्ठभूमि पर अयातुल्ला खुमैनी की रक्तरंजित इस्लामी क्रांति पर आधारित है । उनके उपन्यास 'शाल्मली' यदि हिंदू दाम्पत्य की विडम्बना को चित्रित करता है तो 'ठीकरे की मंगनी' (1989) मुस्लिम समाज की स्त्री का मर्मांतक दस्तावेज है । यह उपन्यास मुस्लिम समाज के एक रिवाज 'मंगनी' से जुड़ा हुआ है, जिसके अनुसार जन्म के साथ ही किसी लड़की की मंगनी कर दी जाती है फिर शुरू होता दर्द और दमन का लंबा सिलसिला । यह उपन्यास उस मुस्लिम स्त्री की कहानी कहता है जो तमाम रूढ़ियों और घुटन से निकलकर अपनी पहचान बनाने के लिए व्याकुल है । नासिरा शर्मा का उपन्यास 'जीरो रोड' मुस्लिम परिवेश पर आधारित उपन्यास न होकर इलाहाबाद से दुबई तक विस्तृत व्यापार के रफ्तार की कहानी है ।
'जिन्दा मुहावरे' नासिरा शर्मा का एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है । भारत विभाजन के दर्द को समेटता यह उपन्यास, उस मुस्लिम मन की कहानी कहता है जो विभाजन के बाद या तो पाकिस्तान चले गए या भारत में रह गए । दोनों तरफ के मुसलमानों की दर्द भरी जिन्दगी का प्रामाणिक दस्तावेज है 'जिन्दा मुहावरे' । 'जिन्दा मुहावरे' का एक पात्र कहता है कि ''यह तजुर्बा कितना तकलीफदेह होता है कि जहाँ आप पैदा हो, जिस जमीन को आप अपना वतन समझें, उसे बाकी लोग आपका गलत कब्जा बताएं । कदम-कदम पर यह अहसास दिलाएं कि तुम यहाँ के नहीं बाहर के हो ।’’xvii
आबिद सुरती ने अपने उपन्यास 'मुसलमान' (1995) में आत्मकथात्मक पद्धति से मुस्लिम समाज की त्रासदी का वर्णन किया है । इसी क्रम में इकबाल मजीद का 'तेरा और उसका सच' (1999) उपन्यास उल्लेखनीय है जिसमें भारतीय मुसलमान की हैसियत का लेखा- जोखा प्रस्तुत किया गया है । आज जिस तरह भारतीय मुसलमान सिर्फ वोट बनकर रह गया है, भारतीय मुसलमान की दहशत भरी जिंदगी का कोई खिदमतगार नहीं है । इन सभी मुद्दों को यह उपन्यास उठाता है ।
असगर वजाहत के उपन्यास 'सात आसमान' के संदर्भ में ज्योतिष जोशी ने लिखा है कि ''मुस्लिम समाज को उसकी पूरी संरचना में जानने के लिए 'सात आसमान' की कोई दूसरी मिसाल नहीं है । एक ही मुस्लिम परिवार के चार सौ वर्षों की कहानी कहता यह उपन्यास ऐसे चरित्रों के लिए जाना जाएगा जो अपनी संघर्षशीलता और जिजीविषा से किसी भी तरह का समझौता नहीं करते ।’’xviii इस उपन्यास में असगर वजाहत उस ठहरे हुए कुलीन वर्ग की व्यथा कथा कहते हैं जो नवाबी एवं जमींदारी के खात्मे से त्रस्त है । इनके दूसरे उपन्यास 'कैसी आग लगाई' (2007) में सांप्रदायिकता, छात्र जीवन, स्वातंत्र्योत्तर राजनीति, सामंतवाद, वामपंथी राजनीति, मुस्लिम समाज, छोटे शहरों का जीवन और महानगर की आपा-धापी के साथ-साथ सामाजिक अंतर्विरोधों से जन्में वैचारिक संघर्ष का चित्रण है ।उपर्युक्त उपन्यासों के अतिरिक्त हिंदी में कुछ ऐसे उपन्यास भी लिखे गए जिसमें मुस्लिम जीवन तो पूरी तरह नहीं उभर कर आ पाता पर, हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक संदर्भ इन उपन्यासों में केंद्रीय तत्व के रूप में उपस्थित हैं जिसमें विभूति नारायण राय का 'शहर में कर्फ्यू' (1986), प्रियंवद का 'वे वहाँ कैद हैं' (1994) भगवानदास मोरवाल का 'कालापहाड़', भगवान सिंह का 'उन्माद', गीतांजलि श्री का 'हमारा शहर उस बरस', दूधनाथ सिंह का 'आखिरी कलाम', मो. आरिक का 'उपयात्रा', मुशर्रफ आलम जौकी का 'बयान', कमलेश्वर का 'कितने पाकिस्तान' प्रमुख हैं । इन उपन्यासों में सांप्रदायिक राजनीतिक ताकतों के खूंखार मंसूबों, धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ दंगों से प्रभावित होने वाली जनता का चित्रण मिलता है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद की मुस्लिम समाज की मनोदशा को भी इन उपन्यासों ने चित्रित किया है ।
इस प्रकार मुस्लिम जीवन के संदर्भ में हिंदी उपन्यास की विकास यात्रा को रेखांकित करते हुए हम कह सकते हैं कि इन उपन्यासों में मुस्लिम समुदाय में विभाजन का दर्द, मुस्लिमों की भारतीय अस्मिता का प्रश्न, गरीबी, यातना भरी जिंदगी, व्यापक मुस्लिम समाज में स्त्री की नियति और सांप्रदायिकता के बढ़ते खूनी पंजों से नर्क में तब्दील होता जीवन, स्वतंत्र भारत में स्वार्थपूर्ण राजनीति और मुस्लिमों की उपेक्षा इत्यादि सवाल केंद्रीय तत्व के रूप में उपस्थित हैं ।
i परंपरा इतिहास, बोध और संस्कृति- श्यामाचरण दुबे, पृ.159
ii साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका- मैनेजर पाण्डेय, पृ.227
iii उपन्यास और लोक जीवन- रैल्फ फॉक्स, पृ.32
iv परंपरा इतिहास, बोध और संस्कृति- श्यामाचरण दुबे, पृ.139
v वही, पृ.139
vi समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-41 (जुलाई-सितंबर 90) (सं.) शानी, पृ.194-95
vii हिंदी उपन्यास का इतिहास- गोपाल राय, पृ. 290
viii उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता- वीरेन्द्र यादव, पृ.82
ix हिंदी उपन्यास का इतिहास- गोपाल राय, पृष्ठ, 294
x उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता-वीरेन्द्र यादव, पृ.55
xi हिंदी उपन्यास का इतिहास-गोपाल राय, पृ. 303
xii छाको की वापसी-बदीउज्ज़मा, पृ.155
xiii आधुनिक हिंदी उपन्यास-(सं.) नामवर सिंह, पृ.32
xiv सूखा बरगद-मंजूर एहतेशाम, पृ.231
xv झीनी-झीनी बीनी चदरिया- अब्दुल बिस्मिल्लाह, पृ. 17
xvi अब्दुल बिस्मिल्लाह का कथा साहित्य- (सं.) चंद्रदेव यादव, पृ.92
xvii जिंदा मुहावरे- नासिरा शर्मा, पृ.101
xviii उपन्यास की समकालीनता-ज्योतिष जोशी, पृ.109
(लेखक-परिचय:
जन्म: 29 दिसंबर 1984 को गाजीपुर (उ प्र ) में
शिक्षा: आदर्श इंटर कॉलेज गाजीपुर से अरभिक शिक्षा , इलाहाबाद
विशावविद्यालय इलाहाबाद से बीए और एम ए, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय से पी-एच डी की उपाधि (2013)(कंप्लीट है पर उपाधि
अभी मिली नहीं है )
सृजन : पहल जैसी अहम पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित
संप्रति: इलाहाबाद में रहते हुए स्वतंत्र रूप से मुस्लिम समाज और हिंदी साहित्य को लेकर वृहद शोध कार्य में सक्रिय
संपर्क: sunilrza@gmail.com)
1 comments: on " हिंदी साहित्य में कहाँ हैं मुसलमान "
शोध परक आलेख, लेकिन इधर यदि लेखक ने राजकमल से प्रकाशित मेरा उपन्यास 'पहचान' भी अपने अध्ययन में शामिल किये होते तो लगता कि नया काम है....सुनील भाई ने अब तक मुस्लिम विमर्श के रूप में जिन लेखको का ज़िक्र होता है उन्ही लोगों से अपना काम चलाया है...उन्हें अपनी सूचि में नए लेखक भी जोड़ने चाहिए थे....
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी