गुंजेश की कविताएं
1.
तुम जवाब मत दो
मैं सवाल भी नहीं करूंगा
मेरा और तुम्हारा रिश्ता
बादल और धूप का हो
लोग, एक की उपस्थिती में
दूसरे को चाहें
2.
अरसा हो गया
तुमसे मिले हुए
अब तो तुम्हें याद भी नहीं होगा कि
आखरी दिन मैंने शेव किया था या नहीं
आखरी दिन तुमने कौन से रंग का सूट पहना था
अब कुछ ठीक से याद नहीं पड़ता
वैसे भी, कितने तो रंग पहन लेती थी एक साथ
इसलिए याद नहीं अब कोई भी एक
तुम मेजेंटा कहो, पर्पल कहो
मुझे तो सब आसमानी लगते हैं
...
आसमानी रंग, आसमानी ख्वाब
आसमानी साथ
......
अद्भुत तरीके से
तुम्हें
हरा, नीला और लाल
तीनों रंग पसंद थे
ताज्जुब है कि तुम
पसीने के गंध को भी रंगों में ही देखती थी
पहले झगड़े के बाद तुमने मेरे पसीने के पीले
गंध से ही मेरी उदासी पहचानी थी
और दुलार के हरे दुप्पट्टे से
पसीने का पीलापन पोछा था
उस दिन पहली बार मैंने इंद्रधनुष को चूमा था
छुआ था, जाना था.
3.
तुम पड़ी हो
मेरे यादों के बुक शेल्फ में
उस किताब की तरह
जो हर बार दूसरी को ढूँढने में सबसे पहले आती है हाथ
रख दूँ तुम्हें कहीं भी किसी भी कोने में
कुछ भी ढूंढते हुए, पहुंचता हूँ तुम्हीं तक ...
4.
इस शहर में
जहां अब हूँ
तुम्हारे साथ से ज्यादा तुम्हारे बिना
जिसके लिए कहा करता था
'तुम हो तो शहर है, वरना क्या है'
'नहीं, शहर है तो हम हैं
हम, हम नहीं रहेंगे तो भी शहर रहेगा' तुम्हारी हिदायत होती थी.
अपनी रखी हुई कोई चीज़ भूल जाने
रसोई में एक छिपकली से डर कर चाय
बिखेर देने के बावजूद
तुमने बेहतर समझा था इस शहर को
कैसे झूम कर बरसता था यह शहर, उन दिनों में
जिनको अब कोई याद नहीं करता
तुमने ही तो कहा था - 'जब बहुत उमड़-घुमड़ कर शोर मचाते हैं बादल
और बरसते हैं दो एक बूंद ही,
तो लगता है जैसे, खूब ठहाकों के बाद
दो बूंद पानी निकली हो किसी के आँखों
से'..........
5.
हमने कुछ नहीं किया था
बस ढूंढा था
तुम्हारी हंसी को, अपने चेहरे पर
तुमने
मेरे आंसुओं को अपनी आँखों में
…
अब भी कुछ नहीं हुआ
हमने
पेंसिल और इरेज़र की तरह
एक दूसरे की चीज़ें
एक दूसरे को लौटा दी है .....
6.
कमरा ठीक करना भी कविता लिखने जैसा है
जब आप एक कविता लिख रहे हों तो दूसरी नहीं लिखी जाएगी
कवि ठीक नहीं कर पाते हैं
अपना कमरा
कई-कई दिनों तक
ज़रूरी नहीं कि लिख रहे हों कविता ही
मन में अ-कविता की स्थिति हो
तो भी कमरा ठीक कर पाना, बेहद मुश्किल है
कि ऐसे में आप भूल जाएंगे/जाएंगी अपनी ही रखी कोई चीज़......
कि किसी पंक्ति के बीच से गायब
हो जाएगा कोई संयोजक
और बेमेल हो जाएगी
अगली लाइन पिछली से....
कि कमरा ठीक करने के लिए उठते ही
याद आएगा
टिकट के लिए स्टेशन जाना
स्टेशन जाते ही माँ के लिए चश्मा बनवाना, दवाइयाँ ले लेना
अपनी छोटी सी भतीजी के लिए
जिसे पीला रंग इतना पसंद है कि वह पिता के चेहरे से ही पहचान लेती है
कि दिन सुनहरा पीला रहा या उदास पीला
एक बहुरंगी पीला फ्राक....
और इस तरह से रह जाएगी एक कविता
और रह जाएगा एक कमरा
ठीक होते-होते
......
कि कविता लिखना प्रेम करने जैसा है
कि जिसके लिए भूलनी पड़ती है सारी दुनिया
कि जिसके लिए सारी दुनिया याद करती है आपको
कि आपकी सारी दुनिया सिमट आती है आप दोनों के बीच
आपके मन-मस्तिष्क से बाहर
दो हथेलियों के बीच, उलझी हुई उँगलियों में
जैसे गद्य और पद्य की किताबें रखीं हों शेल्फ में
एक बाद एक, अपने रखे होने में बेतरतीब
अनुशासित और अनुशासनहीन दोनों एक साथ
भरे पूरे जीवन की तरह
कि प्रेम करना जीवन को ठीक करना है.......
7.
उसने जैसा सोचा वैसा लिखा
जैसा लिखा वैसा जीया
जैसा जीया वैसा स्वीकार किया
इसलिए वह लगातार अनुपयोगी होता हुआ
पागलों में शुमार किया गया।
……
बहुत ज़रूरी था
कि, वह जैसा सोचे उसमें मिला दे थोड़ी सी
वैसी सोच जो वह नहीं सोचता
कि वह जैसा जिए उसमें मिला दे
थोड़ा सा वैसा जीना जो वह नहीं जीता
कि वह जो स्वीकारे उसमें मिला दे
वह स्वीकृति भी जो उसकी नहीं है
कुल मिला कर यह पैकेजिंग का मामला था
उसे एक पैकेट होना था
एक ऐसे उत्पाद का पैकेट जो कि वह नहीं था
बाजार के विशेषज्ञों का मानना था इससे उपभोक्ता चौंकेगा
'उपभोक्ता का चौंकना' उत्पाद से ज़्यादा अहम था
लेकिन, वह, वह था
जिसने पहली बार प्रेम करने के बाद चौंकना बंद कर दिया था
और अब भी उसे माँ और विचार
दोनों की याद बुरी तरह परेशान कर देती थी
था, था की बहुलता से आप इस बात की तस्सली न कर लें
कि वह आपके बीच नहीं रहा
वह है, अगर आप बर्दाश्त कर सकें उसकी असहमतियों को
तो आपके विचार के विरोध में एक विचार के रूप में
आपकी नफरतों के विरोध में एक प्रेम के रूप में
वह है, तमाम तालाबों में प्यास के रूप में
छायायों में धुप के रूप में
वह है बेटी की होटों में पुकार के रूप में ……
8.
रोज़-ब-रोज़
दर-ब-दर
सार्वजनिकता के एकांत में
बहुमत के उमस से लथपथ
भाषा के बिना अभिव्यक्त होने की आस लिए
कई शब्द हैं, दम तोड़ रहे हैं
और इधर
जो है
और जो नहीं है, उस सबके बीच
तुम्हारा होना एक पुल है
जिससे होकर सारी त्रासदियों को होकर गुज़रना है
(कवि-परिचय:
जन्म: बिहार झरखंड के एक अनाम से गाँव में 9 जुलाई 1989 को
शिक्षा: वाणिज्य में स्नातक और जनसंचार में स्नातकोत्तर महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा से
सृजन: अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं व वर्चुअल स्पेस में लेख, रपट, कहानी, कविता
संप्रति: भास्कर के रांची संस्करण के संपादकीय विभाग से संबद्ध
संपर्क:gunjeshkcc@gmail.com)
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6 comments: on "डुबोया होने ने, न होता तो क्या होता"
कमरा ठीक करना भी कविता लिखने जैसा है........ bahut hi achche
बहुत सुन्दर ।कविताओं को पढ़ते हुए लगा कवि सत्य और संसार के बीच की कड़ी है ।ख़ूबसूरती से,अनूठे ढंग से भावनाओं की अभिव्यक्ति की है ।
बेहतरीन कविताएं! गुंजेश कवि भी है, और इतना अच्छा लिखते हैं, आज मालूम चला!
गुंजेश की कविताएं.....डुबोया होने ने, न होता तो क्या होता.....
आज कल हर किसी का यही सवाल है।
सुन्दर और सरल भाषा में बहुत गहराई है।
कमरा ठीक करना भी कविता लिखने जैसा है.
.....और जो नहीं है, उस सबके बीच
तुम्हारा होना एक पुल है
जिससे होकर सारी त्रासदियों को होकर गुज़रना है
.....हमने कुछ नहीं किया था
बस ढूंढा था
तुम्हारी हंसी को, अपने चेहरे पर....
gunjesh ki kawitaaon ka vistar jaise sab kuchh apne chehre par samet lene ka paryas hai... sahaj..... saral bhasha main... sunder abhivyakti....
sharoz bhai ka shukriya... itni pyaari rachnaaon se ru-b-ru krane ka
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- अल्लामा जमील मज़हरी