शिरीष खरे की क़लम से
बीते दिनों बिट्रेन के मशहूर अख़बार ‘द गार्जियन’ ने मोबाइल से दो मिनिट का ऐसा वीडियो बनाया जिसमें पाकिस्तान की स्वात घाटी के कट्टरपंथियों ने 17 साल की लड़की पर 34 कोड़े बरसाए थे। इसी तरह के अन्य वीडियो के साथ अब यह भी यूटयूब में अपलोड है, जो संदेश देता है कि वहां कोई लड़की अगर पति को छोड़ दूसरे लड़के के साथ भागती है तो उसका अंजाम आप खुद देख लीजिए। मुस्लिम औरत को इस्लाम की कट्टरता से जोड़ने वाला यह कोई अकेला वीडियो नहीं था, मीडिया के कई सारे किस्सों से भी जान पड़ता है कि मुस्लिम औरतों के हक किस कदर ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘लोकत्रांतिकता’ की बजाय ‘साम्प्रदायिकता’ और ‘राष्ट्रीयता’ के बीचोबीच झूल रहे हैं।
कहते हैं कि "जो सच नहीं होता, कई बार वह सच से भी बड़ा सच लगने लगता है।"
वैसे तो अपने देश के विभिन्न समुदायों में भी ऐसी घटनाएं कम नहीं है मगर इधर की मीडिया ने उधर की घटना को कुछ ज्यादा ही जोर-शोर के साथ जगह दी। यह अलग बात है कि उन्हीं दिनों के आसपास, उत्तरप्रदेश के अमरोहा जिले से खुशबू मिर्ज़ा चंद्रयान मिशन का हिस्सा बनी तो ज्यादातर मीडिया वालों को इसमें कोई खासियत दिखाई नहीं दी। देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस स्टोरी को हाईलाईट किया भी तो ऐसी भूमिका बांधते हुए कि ‘उसने मुस्लिम महिलाओं की सभी नकारात्मक छवियों को तोड़ा है।’ अब नकारात्मक छवियां को लेकर कई सवाल हो सकते हैं मगर उन सबसे ऊपर यह सवाल है कि क्या एक औरत की छवि को, उसके मज़हब की छवियों से अलग करके भी देखा जा सकता है या नहीं ? आमतौर से जब ‘मुस्लिम औरतों’ के बारे में कुछ कहने को कहा जाता है तो जवाबों के साथ ‘इस्लाम’, ‘आतंकवाद’, ‘जेहाद’ और ‘तालीबानी’ जैसे शब्दों के अर्थ जैसे खुद-ब-खुद चले आते हैं। पूछे जाने पर ज्यादातर अपनी जानकारी का स्रोत अख़बार, पत्रिका या चैनल बताते हैं। उन्हें लगता है कि मीडिया जो कहता है सच है। इस तरह मुस्लिम औरतों के मुद्दे परधर्मनिरपेक्ष’ चर्चा की बजाय ‘राष्ट्रवाद’ के क्रूर चहेरे उभर आते हैं। ‘
यह सच है कि दूसरे समुदायों जैसे ही मुस्लिम समुदाय के भीतर का एक हिस्सा भी दकियानूसी रिवाजों के हवाले से प्रगतिशील विचारों को रोकता रहा है। इसके लिए वह ‘आज्ञाकारी औरत’ की छवि को ‘पाक साफ औरत’ का नाम देकर अपना राजनैतिक मतलब साधता रहा है। दूसरी तरफ, यह भी कहा जाता है कि पश्चिम की साम्राज्यवादी ताकतें दूसरे समुदाय की नकारात्मक छवियों को अपने फायदे के लिए प्रचारित करती रही हैं। ऐसे में इस्लाम की दुनिया में औरत की काली छाया वाली तस्वीरों का बारम्बार इस्तेमाल किया जाना जैसे किसी छुपे हुए एजेंडे की तरफ इशारा करता है। जहां तक भारतीय मीडिया की बात है, तो ऐसा नहीं है कि वह पश्चिप के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर-तरीकों से प्रभावित न रहा हो।
अन्यथा भारतीय मीडिया भी मुस्लिम औरतों से जुड़ी उलझनों को सिर्फ मुस्लिम दुनिया के भीतर का किस्सा बनाकर नहीं छोड़ता रहता। ज्यादातर मुस्लिम औरतें मीडिया में तभी आती हैं जब उनसे जुड़ी उलझनें तथाकथित कायदे कानूनों से आ टकराती हैं। मीडिया में ऐसी सुर्खियों की शुरूआत से लेकर उसके खात्मे तक की कहानी, मुसलमानों की कट्टर पहचान को जायज ठहराने से आगे बढ़ती नहीं देखी जाती। इस दौरान देखा गया है कि कई मज़हबी नेताओं या मर्दों की रायशुमारियां खास बन जाती हैं। मगर औरतों के हक़ के सवालों पर औरतों के ही विचार अनदेखे रह जाते हैं। जैसे एक मुस्लिम औरत को मज़हबी विरोधाभास से बाहर देखा ही नही जा सकता हो। जैसे भारतीय समाज के सारे रिश्तों से उसका कोई लेना-देना ही न हो। विभिन्न आयामों वाले विषय मज़हबी रंगों में डूब जाते हैं। इसी के सामानान्तर मीडिया का दूसरा तबक़ा ऐसा भी है जो प्रगतिशील कहे जाने वाली मुस्लिम संस्थानों के ख्यालातों को पेश करता है और अन्तत : मुस्लिम औरतों से हमदर्दी जताना भी नहीं भूलता।
मीडिया के सिद्धांत के मुताबिक मीडिया से प्रसारित धारणाएं उसके लक्षित वर्ग पर आसानी से न मिटने वाला असर छोड़ती हैं। खास तौर पर बाबरी मस्जिद विवाद के समय से भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष तेवर अपेक्षाकृत तेजी से बदले और उसी हिसाब से मीडिया के तेवर भी। नतीजन, खबरों में चाहे तिहरा तलाक़ आए या बुर्का पहनने की जबर्दस्ती, उन्हें धार्मिक-राजनैतिक चश्मे से बाहर देखना नहीं हो पाया। यकीनन जबर्दस्ती बुर्का पहनाना, एक औरत से उसकी आजादी छिनने से जुड़ा हुआ मामला है, उसका विरोध अपनी जगह ठीक भी है। मगर दो कदम बढ़कर, उसे तालीबानी नाम देने से तो बुनियादी मुद्दा गुमराह हो जाता है। यह समझने की जरूरत है कि मुस्लिम औरतों के हक़ों से बेदखली के लिए पूरा इस्लाम जिम्मेदार नहीं है, वैसे ही जैसे कि गुजरात नरसंहार का जिम्मेदार पूरा हिन्दू समुदाय नहीं है। मगर अपने यहां इस्लाम ऐसा तवा है जो चुनाव के आसपास चढ़ता है, जिसमें मुस्लिम औरतों के मामले भी केवल गर्म करने के लिए होते हैं।
मामले चाहे मुस्लिम औरतों के घर से हो या उनके समुदाय से, भारतीय मीडिया खबरों से रू-ब-रू कराता रहा है। मुस्लिम औरतों के हकों के मद्देनजर ऐसा जरूरी भी है, मगर इस बीच जो सवाल पैदा होता है वह यह कि खबरों का असली मकसद क्या है, क्या उसकी कीमत सनसनीखेज या बिकने वाली खबर बनाने से ज्यादा भी है या नहीं ?? मामला चाहे शाहबानो का रहा हो या सानिया मिर्जा का, औरतों से जुड़ी घटनाओं के बहस में उनके हकों को वरीयता दी जानी चाहिए थी। मगर ऐसे मौकों पर मीडिया कभी शरीयत तो कभी मुस्लिम पासर्नल ला के आसपास ही घूमता रहा है। इसके पक्ष-विपक्ष से जुड़े तर्क-वितर्क भाषा की गर्म लपटों के बीच फौरन हवा होते रहे। नई सुर्खियां आते ही पुरानी चर्चाएं बीच में ही छूट जाती हैं, मामले ज्यादा जटिल बन जाते हैं और धारणाओं की नई परतें अंधेरा गहराने रह जाती हैं।
अक्सर मुस्लिम औरतों की हैसियत को उनके व्यक्तिगत कानूनों के दायरों से बाहर आकर नहीं देखा जाता रहा। इसलिए बहस के केन्द्र में ‘औरत’ की जगह कभी ‘रिवाज’ तो कभी ‘मौलवी’ हावी हो जाते रहे। इसी तरह नौकरियों के मामले में, मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन को लेकर कभी ‘धार्मिक’ तो कभी ‘सांस्कृतिक’ जड़ों में जाया जाता रहा, जबकि मुनासिब मौकों या सहूलियतों की बातें जाने कहां गुम होती रहीं। असल में मुस्लिम औरतों के मामलों की पड़ताल के समय, उसके भीतरी और बाहरी समुदायों के अंतर्दन्द और अंतर्सबन्धों को समझने की जरूरत है। जाने-अनजाने ही सही मीडिया में मुस्लिम औरतों की पहचान जैसे उसके मजहब के नीचे दब सी जाती है।
जिस तरह डाक्टर के यहां आने वाला बीमार किसी भी मजहब से हो उसकी बीमारी या इलाज कर तरीका नहीं बदलता- इसी तरह मीडिया भी तो मुस्लिम औरतों को मजहब की दीवारों से बाहर निकालकर, उन्हें बाकी औरतों के साथ एक पंक्ति में ला खड़ा कर सकता है। जहां डाक्टर के सामने इलाज के मद्देनजर सारी दीवारें टूट जाती हैं, सिर्फ बीमारी और इलाज का ही रिश्ता बनता है जो प्यार, राहत और भरोसे की बुनियाद पर टिका होता है- ऐसे ही मीडिया भी तो तमाम जगहों पर अलग-थलग बिखरीं मुस्लिम औरतों की उलझनों को एक जगह जमा कर सकता है।
मुस्लिम महिलाओं के कानूनों में सुधार की बातें, औरतों के हक़ और इस्लाम पर विमर्श से जुड़ी हैं। इसलिए मीडिया ऐसी बहसों में मुस्लिम औरतों को हिस्सेदार बना सकता है। वह ऐसा माहौल बनाने में भी मददगार हो सकता है जिसमें मुस्लिम औरतें देश के प्रगतिशील समूहों से जुड़ सकें और मुनासिब मौकों या सहूलियतों को फायदा उठा सकें। कुल मिलाकर मीडिया चाहे तो मज़हब के रंगों में छिपी मुस्लिम औरतों की पहचान को रौशन कर सकता है।
[लेखक-परिचय
जन्म:३०जून, 1981
शिक्षा: माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से स्नातक.
शुरुआत के चार साल विभिन्न डाक्यूमेंट्री फिल्म आरगेनाइजेशन में शोध और लेखन के साथ-साथ मीडिया फेलोशिप . उसके बाद के दो साल "नर्मदा बचाओ आन्दोलन, बडवानी" से संबद्धता.
सम्प्रति :'चाइल्ड राईट्स एंड यू, मुंबई के संचार विभाग में
संपर्क:shirish2410@gmail.com ]
सम्प्रति :'चाइल्ड राईट्स एंड यू, मुंबई के संचार विभाग में
संपर्क:shirish2410@gmail.com ]
19 comments: on "मीडिया में मुस्लिम औरत"
शिरीष भाई एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं, उनके आलेखों का मैं एक अदना सा प्रशंसक हूँ। उनके विचार मन को उद्वेलित करते हैं और बदलाव के लिए अकुलाहट भी जगाते हैं।
…………..
प्रेतों के बीच घिरी अकेली लड़की।
साइंस ब्लॉगिंग पर 5 दिवसीय कार्यशाला।
आपकी बात तब अमल में लायी जा सकती है शिरीष जब शबनम और श्वेता के सरोकार ,अधिकार और पहचान एक जैसे हों ,मुस्लिम महिलाओं को मजहब की दीवार से निकालकर देखना मौजूदा समय में बेहद कठिन है ,जब कभी देखा जाते हैं खुद बन खुद ख़बरें बन जाति हैं |ख़ुशी ये है कि ये दीवार हिंदुस्तान में तेजी से धसक रही है ,जब तक ये नहीं हो पाता ,मीडिया को अपना काम करने दीजिये |मजबूरी ये है कि इलाज का रास्ता भी हिन्दू और मुसलमानों दोनों ही तरह की कट्टरता की गलियों से होकर गुजरता है ,ऐसे में जटिलता स्वाभाविक है
वैसे तो अपने देश के विभिन्न समुदायों में भी ऐसी घटनाएं कम नहीं है मगर इधर की मीडिया ने उधर की घटना को कुछ ज्यादा ही जोर-शोर के साथ जगह दी। यह अलग बात है कि उन्हीं दिनों के आसपास, उत्तरप्रदेश के अमरोहा जिले से खुशबू मिर्ज़ा चंद्रयान मिशन का हिस्सा बनी तो ज्यादातर मीडिया वालों को इसमें कोई खासियत दिखाई नहीं दी। देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस स्टोरी को हाईलाईट किया भी तो ऐसी भूमिका बांधते हुए कि ‘उसने मुस्लिम महिलाओं की सभी नकारात्मक छवियों को तोड़ा है।’ अब नकारात्मक छवियां को लेकर कई सवाल हो सकते हैं मगर उन सबसे ऊपर यह सवाल है कि क्या एक औरत की छवि को, उसके मज़हब की छवियों से अलग करके भी देखा जा सकता है या नहीं ?
आमतौर से जब ‘मुस्लिम औरतों’ के बारे में कुछ कहने को कहा जाता है तो जवाबों के साथ ‘इस्लाम’, ‘आतंकवाद’, ‘जेहाद’ और ‘तालीबानी’ जैसे शब्दों के अर्थ जैसे खुद-ब-खुद चले आते हैं। पूछे जाने पर ज्यादातर अपनी जानकारी का स्रोत अख़बार, पत्रिका या चैनल बताते हैं। उन्हें लगता है कि मीडिया जो कहता है सच है। इस तरह मुस्लिम औरतों के मुद्दे पर ‘धर्मनिरपेक्ष’ चर्चा की बजाय ‘राष्ट्रवाद’ के क्रूर चहेरे उभर आते हैं।
great !
जिस तरह डाक्टर के यहां आने वाला बीमार किसी भी मजहब से हो उसकी बीमारी या इलाज कर तरीका नहीं बदलता- इसी तरह मीडिया भी तो मुस्लिम औरतों को मजहब की दीवारों से बाहर निकालकर, उन्हें बाकी औरतों के साथ एक पंक्ति में ला खड़ा कर सकता है। जहां डाक्टर के सामने इलाज के मद्देनजर सारी दीवारें टूट जाती हैं, सिर्फ बीमारी और इलाज का ही रिश्ता बनता है जो प्यार, राहत और भरोसे की बुनियाद पर टिका होता है- ऐसे ही मीडिया भी तो तमाम जगहों पर अलग-थलग बिखरीं मुस्लिम औरतों की उलझनों को एक जगह जमा कर सकता है।
मुस्लिम महिलाओं के कानूनों में सुधार की बातें, औरतों के हक़ और इस्लाम पर विमर्श से जुड़ी हैं। इसलिए मीडिया ऐसी बहसों में मुस्लिम औरतों को हिस्सेदार बना सकता है। वह ऐसा माहौल बनाने में भी मददगार हो सकता है जिसमें मुस्लिम औरतें देश के प्रगतिशील समूहों से जुड़ सकें और मुनासिब मौकों या सहूलियतों को फायदा उठा सकें। कुल मिलाकर मीडिया चाहे तो मजहब के रंगों में छिपी मुस्लिम औरतों की पहचान को रौशन कर सकता है।
शिरीष जी ने जिस सच्चाई के साथ मुस्लिम औरतों की मीडिया में स्थिति को रखा है, काबिले तारीफ़ है.काश मुस्लिम लेखक इनसे सबक लेते !
अब शिरीष जी को ढूंढ कर पढ़ा होगा और पढवाना होगा !
शहरोज़ साहब आपका शुक्रिया कुछ तो सीखिए.
shahi likha hai.nice
jnaab aapne shi likhaa lekin meri dusri soch he midiyaa avvl to mulmaanon se dur he dusre muslmaan orton ko voh achche triqe se pesh nhin krnaaa chaahtaa isliyen agr midiyaa vishv ki sbhi orton men khel kud pdhaayi likhaayi phnne odhne khaana bnaane ki prtiyogitaa krvaa le or fir ko avvl aata he khud hi dekh le aaj mulim midiyaa chaahe muslim mhilaaon kaa mzaaq udhaaye lekin fir bhi voh or mhilaaon ke muqaaable men aage hen . akhar khan akela kota rajsthan
अच्छा लेख...... बहुत खूब!
वैसे तो अपने देश के विभिन्न समुदायों में भी ऐसी घटनाएं कम नहीं है मगर इधर की मीडिया ने उधर की घटना को कुछ ज्यादा ही जोर-शोर के साथ जगह दी। यह अलग बात है कि उन्हीं दिनों के आसपास, उत्तरप्रदेश के अमरोहा जिले से खुशबू मिर्ज़ा चंद्रयान मिशन का हिस्सा बनी तो ज्यादातर मीडिया वालों को इसमें कोई खासियत दिखाई नहीं दी। देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस स्टोरी को हाईलाईट किया भी तो ऐसी भूमिका बांधते हुए कि ‘उसने मुस्लिम महिलाओं की सभी नकारात्मक छवियों को तोड़ा है।’ अब नकारात्मक छवियां को लेकर कई सवाल हो सकते हैं मगर उन सबसे ऊपर यह सवाल है कि क्या एक औरत की छवि को, उसके मज़हब की छवियों से अलग करके भी देखा जा सकता है या नहीं ? आमतौर से जब ‘मुस्लिम औरतों’ के बारे में कुछ कहने को कहा जाता है तो जवाबों के साथ ‘इस्लाम’, ‘आतंकवाद’, ‘जेहाद’ और ‘तालीबानी’ जैसे शब्दों के अर्थ जैसे खुद-ब-खुद चले आते हैं। पूछे जाने पर ज्यादातर अपनी जानकारी का स्रोत अख़बार, पत्रिका या चैनल बताते हैं। उन्हें लगता है कि मीडिया जो कहता है सच है। इस तरह मुस्लिम औरतों के मुद्दे पर ‘धर्मनिरपेक्ष’ चर्चा की बजाय ‘राष्ट्रवाद’ के क्रूर चहेरे उभर आते हैं।
@ tm zeya
agree with u
शीरीष जी,
आपकी बात से सहमत हूँ...
मैंने खुद एक फिल्म बनायीं है..'नूर-ए-जहाँ' जिसमें मेरा विषय था 'मुस्लिम महिलाओं की उपलब्धियां'...
समाज हिन्दुस्तान का हो या पकिस्तान का मुस्लिम महिलाओं की उब्लाब्धियों को नकारा नहीं जा सकता है...किसी भी क्षेत्र को ले लीजिये उनकी पहुँच ...ऊँचे से ऊँचे मकाम तक हो चुकी है...आज मुस्लिम महिलाएं ....अपने हुनर, अपने शौर्य और अपनी काबिलियत से वो सब कुछ हासिल कर ले रहीं हैं.....जो वो चाह रहीं हैं.....यह अलग बात है कि मिडिया इस बात पर तवज्जो न दे ..तो न दे ....इतने बंधन और इतनी रुकवाटों के बावजूद जिस मुक़ाम पर आज ये महिलाएं हैं...मैं नहीं सोचती कि उन्हें इस दो टकिया मिडिया की ज़रुरत भी है....जो अपना सारा वक्त इस बात पर जाया करता है कि ऐश्वर्या राय को चाँद दिखा या नहीं....
मिडिया और न्यूज़ एक जोक बन कर रह गया है....
बहुत बढ़िया प्रस्तुती...
आपका आभार...
सार्थक लेख ....मीडिया यदि अपनी ज़िम्मेदारी सही से निबाह ले तो फिर बात ही क्या है...मीडिया एक सक्षम साधन है ...पर आज कल उसका दुरुपयोग ही हो रहा है ..
बहुत अच्छा आलेख है. मुस्लिम महिलाओं की छवि को आमतौर पर धर्म से जोड़कर ही देखा जाता है, जबकि हमारे आस-पास ही कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे, जिन्होंने एक सामजिक व्यक्ति होने की अपनी जिम्मेदारी निभाई है, बिना लिंगभेद और धार्मिक पूर्वाग्रहों के.
और मीडिया के क्या कहें? सभी जानते हैं कि हमारे देश में बहुसंख्यक हिंदू हैं और वो भी आधे से अधिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त. इनके समाचार उन्ही लोगों के लिए बनते हैं और विदेशों में नाइन इलेवन के बाद इस्लाम-विरोधी भावना को भुनाया जा रहा है... ज़रूरत है कि मीडिया की आलोचना भी एक विधा के रूप में सामने आये... मीडिया के ही कुछ जागरूक लोग उसे नियंत्रित करें.
दु:ख होता है औरत से पहले विषेशण जुड़े पढ़कर. समाज, औरत को बस औरत की ही तरह रहने दे तो कहीं अच्छा.
"इधर की मिडिया ने उधर की घटना को कुछ ज्यादा ही ........"
इसका क्या मतलब है ! आप उधर की बात पर तिलमिला क्यों गए.......
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी