बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

'ओटत रहे कपास' प्रभाष जोशी से कुलदीप मिश्र का खुला संवाद




















याद रहे कि 7 सितम्बर 2009 की बात है। चलती कार में कुलदीप जैसे युवा से एक शिखर बतिया रहा था.जैसे चौपाल में किसी  बुज़ुर्ग की  हौले-हौले किसी के कान में फुसफुसाहट. साथ थे पत्रकारिता के छात्र प्रशांत चहल भी.
 


एक वक़्त था जब सारा गाँव आपको लेजेंड मानता था, स्वाभाविक तौर पर आप भविष्य में क्या करना है, पर उलझे होंगे. लोगों ने कहा कि आप राजनीति में आयेंगे. फिर पत्रकारिता में आगमन कैसे हुआ?
आपकी पहली वाली बात सही है। लेकिन मैं राजनीति में कभी नहीं जाना चाहता था। लोगों को ऐसा लगा होगा।

पसंदीदा टीवी पत्रकार कौन है?
आदमी अच्छा लिख या बोल लेने से अच्छा पत्रकार नहीं बन जाता। पत्रकार वह है जो नजरिया ठीक रखे। टीवी पत्रकारों में मुझे प्रणय रॉय ठीक लगते हैं। हाँ, सभी चैनलों में एनडीटीवी बेहतर है।

आप अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
(थोडा सोचकर) इमानदारी से कहूं तो अपनी ऐसी कोई उपलब्धि है नहीं, जिसको माना जाए कि अपना जीवन सार्थक हो गया।

लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को परिभाषित करने वाले आप, क्यों अपना आत्म-वृत्तांत नहीं लिखते, जबकि वह पत्रकारिता जगत और भावी पत्रकार छात्रों के लिए एक आदर्श साबित हो सकता है?
लिखूंगा। मैं उसका शीर्षक देना चाहता हूँ-'ओटत रहे कपास' कबीर ने कहा है-'निकले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास।' वह तो हरिभजन के लिए निकला था, जुलाहा हो गया तो कपास ओटने लगा। और मैं साहित्य और समाजसेवा करना चाहता था और पत्रकारिता में गया। पत्रकारिता साहित्य और समाज सेवा की तुलना में कपास ओटने की तरह है।

कोई ऐसा अनुभव या संस्मरण जिसे भुलाना चाहते हों?
(काफी देर सोचकर) हाँ एक अनुभव ऐसा है। उस समय अर्जुन सिंह की बाई-पास सर्जरी हुई थी। मैं उनसे मिलने अस्पताल गया तो वह मेरी ही किताब पढ़ रहे थे। उस किताब में जो जो उनके खिलाफ था उन पंक्तियों को उन्होंने लाल पेन से अंडरलाइन किया था। मुझे लगा कि यार यह सब पढ़ कर इस आदमी को दुःख तो हुआ होगा।

आप मैं की जगह 'अपन' प्रयोग करते हैं। इसके पीछे भी कोई वैचारिक दूरदर्शिता है या सिर्फ क्षेत्रीय प्रभाव है?
नहीं नहीं, क्षेत्रीय प्रभाव ही है। यह तो हर किसी का अपना अलग-अलग होता है। बिहार में मुजफ्फरपुर में एक इलाका ऐसा भी है जहां सीधा वाक्य बोला ही नहीं चाहता।' आया जाए हुज़ूर, बैठा जाए हुज़ूर' ' करो' के स्थान पर 'किया जाए हुज़ूर' हर बोली का अपना अंदाज़ है।

आपको लगता है की भारतीय दृश्य मीडिया अपनी शक्तियों का सदुपयोग नहीं कर पा रहा?
बिलकुल। इतना ही नहीं, दृश्य मीडिया नकारात्मक चीज़ें भी फैला रहा है.

इंटरनेट को संवाद का कैसा माध्यम मानते हैं?
टेलिविज़न से बेहतर। बीबीसी के लोग मुझसे टीवी के बारे में मेरी राय लेने आये थे. मैंने उनसे कहा-"टीवी इज मीडियम ऑफ़ ट्रीविलाइजेशन विच रिड्युसेस कालिदास टू खुशवंत सिंह एंड मीरा बाई टू शोभा डे."

एक प्रश्न है जो कई लोगों से पूछा पर किसी उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ। आस्था और अन्धविश्वास में क्या अंतर है?
विवेक, तर्क और ज्ञान से होकर गुजरने के बाद आस्था आती है। कोई क्रिकेटर अच्छा खेलने पर यदि यह सोचता है कि मैंने बाएँ पैर पर पैड पहले बाँधा था इसलिए मैं अच्छा खेला। इसके बाद वह जब भी खेलने जाएगा तो बाएँ पैर पर पहले पैड बांधेगा। लेकिन, यह उस आदमी का कांफिडेंस बढ़ाता है। इसलिए अन्धविश्वास की भी अपनी उपयोगिता निश्चित है। होता क्या है यार, कि आदमी अपना कांफिडेंस, अपना हौंसला, अपना विश्वास ये सब बनाये रखने के लिए इस तरह के काम-काज करता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति रोज जिस रास्ते से कहीं जाता है लेकिन किसी दिन किसी कारणवश यदि वह दूसरे रास्ते से जाता है तो वह हमेशा अनिश्चित होता है। वहां उसे अधिक सजग होकर काम करना पड़ता है। फिर वह कई प्रकार की चेष्टाएं करता है जिसमें उससे गड़बड़ भी हो जाती है। फिर वह सोचता है कि यह रास्ता उसके लिए खराब है और वह अच्छा है। जबकि प्रश्न सिर्फ आदत का है।

हिंदुत्व एक ऐसी चीज़ है जिसको लोगों ने अपने अपने तरीके से परिभाषित किया है। कल मैं सोच रहा था तो मुझे तीन तरह के हिन्दू समझ आए। पहला, लौकिक हिन्दू, जो जन-व्यवहार के हिन्दू हैं, जिसे फर्क नहीं पड़ता कि उसका वकील मुसलमान है या मालिक मुसलमान है। दूसरे, मदन मोहन मालवीय जैसे हिन्दू और तीसरे कांग्रेसी हिन्दू। आप भी हिंदुत्व की बात करते हैं लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं आपके लिए हिन्दू होने के मायने भाजपा और संघ से अलग हैं। तो आप स्वयं को उपरोक्त में से कौन सी श्रेणी में रखेंगे?
देखो भाई, ये जो तीन श्रेणियां आपने बताई, इसमें सबसे ज्यादा तो मैं लौकिक हिन्दू हूँ। क्योंकि सामाजिक रूप से हिन्दू तो मैं लौकिक होकर ही रह सकता हूँ। और आध्यात्म में या आस्था में जो मेरा विश्वास है, उसके लिए मुझे हिन्दू होने की ज़रुरत नहीं है। क्योंकि इन मूल्यों के लिए आपको धार्मिक होना ज़रूरी नहीं है। आप आध्यात्मिक होकर भी अपनी आस्था को कायम रख सकते हैं। ये कतई जरूरी नहीं कि आप रोज़ मंदिर जाकर पूजा करें। मैं तो कभी किसी मंदिर में नहीं जाता। और रोज सवेरे उठकर कोई प्रार्थना भी नहीं करता। मेरी जब मरजी होती है तब मैं गीता पढता हूँ, जब मर्जी होती है मैं प्रार्थना करता हूँ। क्योंकि मैं अपने जीवन के उत्तर खोजने के लिए यह सब करता हूँ। इसलिए नहीं कि वह मेरे धर्म का कृत्य है।

यही बात शाहरुख खान ने कुछ दिनों पहले कही थी कि मैं अल्लाह के इस्लाम को मानता हूँ, मुल्लाओं के इस्लाम को नहीं।
हाँ बिलकुल। मुल्ला जो है वो संगठित धर्म चलाता है और अल्लाह धर्म में मेरे विश्वास का नाम है। अल्लाह में मेरी आस्था स्वैच्छिक है लेकिन मुल्ला या पंडित का बताया हुआ रास्ता आपकी आत्मा या विवेक से मेल खाए यह ज़रूरी नहीं।

देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर क्या कहेंगे?
देखिए मैं तो यह मानता हूँ कि कोई भी आदमी कोई भी धर्म मानकर अपना जीवन व्यतीत करने को स्वतंत्र है। और यह बात मैं कोई सरकारी धर्मनिरपेक्षता के कारण नहीं कह रहा हूँ। अपने ऋग्वेद में भी यही कहा गया है कि सत्य एक ही है जिसको अलग अलग लोग अलग अलग तरीकों से मानते हैं। अगर मैं कहूँ कि मेरा सत्य ही अंतिम सत्य है और तुम मेरे सत्य को मानो वरना मैं तलवार उठाऊंगा तो इस से बढ़कर गलत बात और कुछ नहीं हो सकती।

(इस बीच प्रभाष जी कुछ गुनगुनाने लगते हैं। फिर रूककर कहते हैं की अपने एक कवि हुए हैं-नीरज। मैंने कहा-जी, गोपाल दास नीरज।
"हाँ, नाम सुना होगा" "उनकी एक कविता है - इस घाट क्यूँ न जाऊं, उस घाट क्यूँ न जाऊं, पानी पिया है मैंने गागर बदल बदल के।
फिर 'नीरज' की ही चार लाइनें और सुनाईं- आदमी को आदमी बनाने के लिए, ज़िन्दगी में प्यार की कहानी चाहिए,
और कहने के लिए कहानी प्यार की, स्याही नहीं आँखों वाला पानी चाहिए।
बातचीत में प्रभाष जी को भी आनंद आने लगा था और हम तो अपने सपने को जी रहे थे। )

आपने कहा है कि 2012 के बाद आप कागद-कारे नहीं लिखेंगे. क्यों?
क्योंकि 2012 में कागद-कारे के 20 वर्ष पूरे हो जायेंगे. अपन 75 (उम्र) तक सब निपटा देंगे.

अगला प्रश्न  प्रशांत का था


आपने अभी कॉलेज में अपने व्याख्यान में कहा कि आदमी जब योग्यता के चरम पर पहुँच जाता है तो कई बार उसका घमंड उसे पागलपन की ओर ले जाता है और यह पागलपन कई बार बरबादी की तरफ ले जाता है। इस सन्दर्भ में आपने विनोद काम्बली का उदहारण दिया। तो ऐसा क्या होता है की इंसान कामयाबी को संभाल नहीं पाता?
जब आप बहुत टैलेंटेड आदमी होते हैं तो आप सबक नहीं सीखते। आप सोचते है कि मैं जो कर रहा हूँ वही सही है। (एक लम्बा विराम) अपने यहाँ माना जाता है कि बिना विनम्रता के कोई सीख ही नहीं सकता। अपने यहाँ बहुत अच्छी एक कहावत है। जिसमें कुछ नहीं होता है वो ठूँठ की तरह खड़ा रहता है और फलदार वृक्ष हमेशा झुका रहता है।

(प्रभाष जी पानी मांगते हैं। मैं कहता हूँ कि नाश्ता भी कर लीजिये। इस डिब्बे में और भी कुछ है। बोले- अच्छा वो ले लो टुकड़े बचे हुए थे फलों के। मैंने डिब्बा खोल कर दे दिया। पहले प्रशांत को खिलाया। फिर मुझे। फिर उसी चम्मच से खुद भी खाया। मना करने के बावजूद बीच बीच में खिलाते ही रहे। अचानक प्रमोद रंजन और उमेश जोशी याद गए जिनका दम्भी और दलित विरोधी ब्राह्मण, बिना हमारी जाति जाने हमारा जूठा खा रहा था। स्वेच्छा से पूरे प्रेम के साथ।)

26-11
अटैक के दौरान मीडिया ने टीवी पर लाइव कवरेज दिखाया. बाद में आरोप लगे कि इस हरक़त से आतंकियों कोफायदा ही हुआ. उस समय मीडिया के सामने चुनौती यह थी कि देशभक्ति कुछ और कह रही थी और पत्रकारिता का फ़र्ज़ कुछऔर याद दिला रहा था. इस स्थिति को कैसे देखते हैं?
देखो भाई, जब कभी भी ऐसा हमला हो तो दो बात की चिंता तो आपको करनी ही पड़ेगी. एक तो आपके किसी भी काम से हिंसा को बढ़ावा मिले. क्योंकि हिंसा और पत्रकारिता साथ साथ नहीं हो सकते. दूसरा, आप पत्रकारिता करने में कोई ऐसा काम करें की उससे आतंकवादियों को मदद मिले. लाइव दिखाकर लोगों ने निश्चित रूप से गड़बड़ की है.

अभी किशोर आजवानी ने (गोष्ठी में) कहा की इंडियन मीडिया का यह पहला अनुभव था. हमें कोई बताने वाला नहीं थाइसलिए यह गलती हुई. आखिर मानक कौन तय करे? देखिये दृश्य मीडिया का जो ब्रॉडकास्टिंग एसोसियेशन है. उसकी एक मीटिंग में जब सिद्धांतों और मानकों को तय करने की बात आई तो इंडिया टीवी के रजत शर्मा मीटिंग से उठकर चले गए. बाद में लोग उन्हें मना कर लाये. जब तक लोग इस तरह की धौंस देते रहेंगें, तो चीज़ें ठीक कहाँ से होंगी.
इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपने बचाव में एक तर्क हमेशा देता है- डिमांड और सप्लाई का. यानी हम तो वही दिखाते है जोलोग देखना चाहते हैं. यह बात तो बड़ी अतार्किक लगती है क्योंकि इसका मतलब यह भी तो हो सकता है की आप जो दिखा रहेहैं उसे ही देखना लोगों की मजबूरी बन चुका है?
यह तर्क के नाम पर गड़बड़ जो हो सो हो, देश में 25 करोड़ घर हैं. जिनमें से सात करोड़ घरों में टीवी है. और टीआरपी को जज करने वाली मशीनें सिर्फ 13000 घरों में लगी हैं. और उनमें से एक भी मशीन गाँव-देहात के इलाके में नहीं लगी है. यानी 13000 घरों के लोग क्या देख रहे हैं उससे आप 25 करोड़ लोगों की पसंद-नापसंद तय कर रहे हैं. और उन 13000 घरों के आंकडें भी सार्वजनिक नहीं किए जाते. इसलिए टीआरपी का यह सिस्टम एक फ्रॉड है.

राजनीति से जुड़े कुछ प्रश्नों के उत्तर भी चाहता हूँ. भाजपा की इस हालत का जिम्मेदार किसे मानते हैं? आपको ऐसा नहींलगता की भाजपा की मूल विचारधारा से जुड़े नेताओं और पार्टी में बाद के दिनों में आए नेताओं के बीच शीतयुद्ध चल रहा हैऔर बाद के दिनों में पार्टी में आए नेता हाशिये पर धकेले जा रहे हैं?
हाँ ऐसा ही है. सीधे सीधे कहें तो संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं और अन्य नेताओं के बीच विवाद चल रहा है.

जिन्ना-जसवंत प्रकरण पर आप क्या सोचते हैं? आपकी राय में विभाजन के ज़िम्मेदार जिन्ना ही हैं या कोई और है? विभाजन का सबसे बड़ा अपराधी अगर कोई है तो वह जिन्ना हैं. उसके बाद आप जवाहर लाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं. जिन्ना के प्रति भारत के आम आदमी का रोष है. और जसवंत को पार्टी से निकालने का कारण उनकी किताब है ही नहीं. वह नेतृत्व के खिलाफ प्रश्न खड़े कर रहे थे. जेटली को राज्य सभा अध्यक्ष बनाये जाने से नाराज़ थे. जसवंत सिंह ने मुझे किताब भेजी थी. मैं अभी पूरी नहीं पढ़ पाया हूँ. लेकिन टेलीविज़न पर हर जगह मैंने उन्हें डिफेंड किया, तो वह बहुत खुश थे. मुझसे मिलना भी चाहते थे.

आरक्षण एक ऐसी प्रणाली है जिसके विरोधी भी उतने हैं, जितने समर्थक. आरक्षण पर आप क्या सोचते हैं?
आरक्षण कुछ अवधि के लिए तो ठीक है. इसमें कोई शक नहीं. वंचित वर्ग समाज की मुख्य धारा में सकें इसकी सुविधा उन्हें देनी चाहिए. लेकिन आरक्षण स्थायी बनाए रखने की चीज़ नहीं. आरक्षण में लोगों के राजनीतिक स्वार्थ निहित हैं. इसलिए वे उसको बनाए रखना चाहते हैं.

(जुर्रत से साभार )

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21 comments: on "'ओटत रहे कपास' प्रभाष जोशी से कुलदीप मिश्र का खुला संवाद"

शेरघाटी ने कहा…

अपने ब्लॉग पर कुलदीप भाई ने लिखा है कि बातचीत के बीच उनसे बहुत सकुचाते हुए फोन नंबर माँगा तो तीन लैंडलाइन नंबर लिखा दिए.
"ये निर्माण विहार का है, बाक़ी दोनों यहीं (वसुंधरा) के हैं. मोबाइल फोन तो मैं रखता नहीं. घर पर रहूँगा तो तीनों में से किसी न किसी पर मिल ही जाऊँगा. "
उनकी सादगी ने चमत्कृत कर दिया था. आज किसी सूटेड-बूटेड सेलिब्रिटी पत्रकार से नंबर मांगिये तो कन्नी काट लेगा. ..... नाम लेना ठीक नहीं. अगर बहुत निवेदन करने पर देगा भी तो अपने ऑफिस का देगा. लेकिन प्रभाष जी इसके बिलकुल उलट थे.

शेरघाटी ने कहा…

उत्तर मांगो उत्तर मिलेगा, ज्ञान मांगो ज्ञान मिलेगा, नंबर मांगो, फोटो मांगो जो मांगो सो ले लो. संदेह होता है कि उन्होंने कभी किसीको किसी चीज़ के लिए मना भी किया होगा या नहीं. जितना महान व्यक्तित्व, उतना विनम्र स्वभाव. ज़मीनी आदमी. सादगी ही उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत थी. 'डाउन टू अर्थ' जैसे विशेषण उन्हीं के लिए लिखे गए होंगें. धरती पर जितने लोगों से मिला हूँ पहली मुलाक़ात में किसी ने इतना प्रभावित नहीं किया. मैं उन्हें कितना प्रभावित कर पाया, यह वह ही जानें. लेकिन बातचीत के बीच, प्रशंसा के दो शब्द अमृत हो गए. जनसत्ता अपार्टमेन्ट आया तो नीचे से जाने नहीं दिया. बोले घर चलो. लिफ्ट का बटन दबाकर खड़े हो गए-"जल्दी अन्दर आ जाओ वरना गेट बंद हो जायेगा". घर पहुंचकर छेने का लड्डू खिलाया. एक अनोखी मिठाई, अक अदभुत आदमी के घर. दूसरे कमरे में ले गए. लाइब्रेरी दिखाई. दशकों पुरानी वह टेबल दिखाई, जिस पर वह इन्डियन एक्सप्रेस के लिए काम किया करते the.
अपने ब्लॉग पर कुलदीप भाई ने यह सब आगे लिखा है

शेरघाटी ने कहा…

कुलदीप भाई ने आगे लिखा है.
मैंने और प्रशांत ने यह तय किया था कि कुछ भी हो उनके साथ एक फोटो तो खिंचवाएँगे ही. बस यादों को संजोना चाहते थे. लेकिन दिक्कत यह थी कि घर पहुंचकर उन्होंने अपना कुरता उतार दिया था. वह गंजी (आंधी बांह की बनियान) पहने हुए थे. ऐसे में हमें डर था कि वह फोटो के लिए तैयार होंगें या नहीं. प्रशांत मुझसे कह चुका था कि तुम ही कहना फोटो के लिए. हम हाथ जोड़कर खड़े हो गए. जाते-जाते अपनी इच्छा बताई. बोले फोटो कोलेज में खिंचवाई तो थी. मैंने कहा हम नहीं थे उस समय, आपके साथ सिंगल फोटो चाहते हैं. बोले ले लो. प्रशांत के कंधे पर हाथ रखकर खड़े हो गए और मैंने फोटो ली. फिर मेरे साथ भी इसी तरह फोटो खिंचवाई. प्रभाष जी से पहले और बाद में भी पत्रकारिता और अन्य क्षेत्रों से जुड़े नामचीन लोगों से मिला हूँ. लेकिन किसी स्पर्श में वह आत्मीयता महसूस नहीं हुई. उनके और उनकी पत्नी के चरण छूकर हमने आशीष लिए. जाते जाते मुख नहीं माना और कह ही दिया कि आज का दिन सपने के सच होने जैसा रहा. चेहरे पर चौड़ी मुस्कान लिए हमने विदा ली. और हो भी क्यूं न. अट्ठारह की उमर में उपलब्धि के नाम पर बहुत कुछ मिल गया था.
उनके जाने के बाद लगता है कि कौन है जिससे धर्म पर चर्चा की जाए, अध्यात्म पर बात की जाए. कौन है जो राजनीति बता दे. कौन है जो जिज्ञासाएं मिटा दे. सच कह दे. किसको आदर्श माना जाए. किसकी बात को प्रामाणिक मानकर चला जाए. उनका नाम बौद्धिकता का ही नहीं, नैतिकता और विनम्रता का भी मानक है और रहेगा. वाक्य को तोड़-तोड़ कर सरलतम भाषा में समझाते प्रभाष जी, देश भर के पत्रकारों के अभिभावक प्रभाष जी, कभी छात्रों की कभी किसानों की आवाज़ बनते प्रभाष जी, घुमक्कड़ प्रभाष जी, विनम्र प्रभाष जी, आध्यात्मिक प्रभाष जी, पहले हमें खिलाकर फिर खुद खिलाते प्रभाष जी बहुत याद आएँगे. अब कोई अखबार 'उनने', 'इनने' और 'अपन' जैसे शब्दों से गुलज़ार नहीं होगा. प्रभाष जी से बातचीत के दौरान कवि गोपालदास 'नीरज' चर्चा में आये थे. उन्होंने 'नीरज' की चंद लाइनें हमें सुनाई थीं. बदले में मैंने भी उनकी एक पंक्ति सुनाई थी. कभी नहीं सोचा था की वही पंक्ति आज इस स्मृतिलेख का शीर्षक हो जायेगी- "हमको लग जाएंगी सदियाँ तुम्हें भुलाने में.........."

talib د عا ؤ ں کا طا لب ने कहा…

कोई भी आदमी कोई भी धर्म मानकर अपना जीवन व्यतीत करने को स्वतंत्र है। और यह बात मैं कोई सरकारी धर्मनिरपेक्षता के कारण नहीं कह रहा हूँ। अपने ऋग्वेद में भी यही कहा गया है कि सत्य एक ही है जिसको अलग अलग लोग अलग अलग तरीकों से मानते हैं। अगर मैं कहूँ कि मेरा सत्य ही अंतिम सत्य है और तुम मेरे सत्य को मानो वरना मैं तलवार उठाऊंगा तो इस से बढ़कर गलत बात और कुछ नहीं हो सकती।

क्या बात है....बड़े लोग ऐसे ही होते हैं.

talib د عا ؤ ں کا طا لب ने कहा…

आरक्षण कुछ अवधि के लिए तो ठीक है. इसमें कोई शक नहीं. वंचित वर्ग समाज की मुख्य धारा में आ सकें इसकी सुविधा उन्हें देनी चाहिए. लेकिन आरक्षण स्थायी बनाए रखने की चीज़ नहीं. आरक्षण में लोगों के राजनीतिक स्वार्थ निहित हैं. इसलिए वे उसको बनाए रखना चाहते हैं.

shabd ने कहा…

बिलकुल। मुल्ला जो है वो संगठित धर्म चलाता है और अल्लाह धर्म में मेरे विश्वास का नाम है। अल्लाह में मेरी आस्था स्वैच्छिक है लेकिन मुल्ला या पंडित का बताया हुआ रास्ता आपकी आत्मा या विवेक से मेल खाए यह ज़रूरी नहीं।

Unknown ने कहा…

मजा आ गया ये साक्षात्कार पढकर ,प्रभाष जी के जन्मदीन पर हमजबान की सुन्दर जबान

Spiritual World Live ने कहा…

पत्रकार वह है जो नजरिया ठीक रखे। टीवी पत्रकारों में मुझे प्रणय रॉय ठीक लगते हैं। हाँ, सभी चैनलों में एनडीटीवी बेहतर है।

sahi achche log hi aisi bat kar sakte hain.

prabhat ranjan ने कहा…

बहुत अच्छा लगा. परिचय करवाने के लिए शहरोज़ भाई का आभार.

Spiritual World Live ने कहा…

- इस घाट क्यूँ न जाऊं, उस घाट क्यूँ न जाऊं, पानी पिया है मैंने गागर बदल बदल के।
फिर 'नीरज' की ही चार लाइनें
आदमी को आदमी बनाने के लिए, ज़िन्दगी में प्यार की कहानी चाहिए,
और कहने के लिए कहानी प्यार की, स्याही नहीं आँखों वाला पानी चाहिए।
prbhash sahab ko salam ! aaj bhi ham jansatta padh lete hain to sirf unki yaad mein hi.ki kuch asar ho

नईम ने कहा…

: विवेक, तर्क और ज्ञान से होकर गुजरने के बाद आस्था आती है। कोई क्रिकेटर अच्छा खेलने पर यदि यह सोचता है कि मैंने बाएँ पैर पर पैड पहले बाँधा था इसलिए मैं अच्छा खेला। इसके बाद वह जब भी खेलने जाएगा तो बाएँ पैर पर पहले पैड बांधेगा। लेकिन, यह उस आदमी का कांफिडेंस बढ़ाता है। इसलिए अन्धविश्वास की भी अपनी उपयोगिता निश्चित है। होता क्या है यार, कि आदमी अपना कांफिडेंस, अपना हौंसला, अपना विश्वास ये सब बनाये रखने के लिए इस तरह के काम-काज करता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति रोज जिस रास्ते से कहीं जाता है लेकिन किसी दिन किसी कारणवश यदि वह दूसरे रास्ते से जाता है तो वह हमेशा अनिश्चित होता है। वहां उसे अधिक सजग होकर काम करना पड़ता है। फिर वह कई प्रकार की चेष्टाएं करता है जिसमें उससे गड़बड़ भी हो जाती है। फिर वह सोचता है कि यह रास्ता उसके लिए खराब है और वह अच्छा है। जबकि प्रश्न सिर्फ आदत का है।
wah sahab kya bat hai.

नईम ने कहा…

PRBHASH JEE KEE AMAR PANKTI:
आध्यात्म में या आस्था में जो मेरा विश्वास है, उसके लिए मुझे हिन्दू होने की ज़रुरत नहीं है। क्योंकि इन मूल्यों के लिए आपको धार्मिक होना ज़रूरी नहीं है। आप आध्यात्मिक होकर भी अपनी आस्था को कायम रख सकते हैं। ये कतई जरूरी नहीं कि आप रोज़ मंदिर जाकर पूजा करें। मैं तो कभी किसी मंदिर में नहीं जाता। और रोज सवेरे उठकर कोई प्रार्थना भी नहीं करता। मेरी जब मरजी होती है तब मैं गीता पढता हूँ, जब मर्जी होती है मैं प्रार्थना करता हूँ। क्योंकि मैं अपने जीवन के उत्तर खोजने के लिए यह सब करता हूँ। इसलिए नहीं कि वह मेरे धर्म का कृत्य है।

Rangnath Singh ने कहा…

यह साक्षत्कार अच्छा लगा। प्रभाष जी ने बड़े छोटे और सटीक जवाब दिए हैं ।

The Straight path ने कहा…

अच्छी पोस्ट

Shah Nawaz ने कहा…

अच्छा साक्षात्कार और बेहतर प्रयास! बहुत खूब!

girish pankaj ने कहा…

janm din par prabhash ji ko iss tarah yaad karnaa achchha laga. unke vichaar to khair achchhe aur prerak hote hi they.

swayambara ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट .........धन्यवाद्

एमाला ने कहा…

किसी बड़ी शख्सियत से बात करना मिलना बड़ी बात है अब प्रभाष जी को पढना बेहद ज़रूरी हो गया है.

rashmi ravija ने कहा…

बहुत ही बढ़िया लगा साक्षात्कार...प्रभाष जोशी के बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिला.

कुलदीप मिश्र ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
कुलदीप मिश्र ने कहा…

आप लोगों की प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ. अट्ठारह की उम्र में प्रभाष जी जैसे धुरंधरों का इंटरव्यू करना हमें बड़ा मुश्किल लगता था. अंधे के हाथ बटेर लगने वाली बात थी. लेकिन यकीन मानिए, उस शख्स ने एक बार भी अपने धुरंधर होने का एहसास नहीं कराया. शहरोज़ जी का विशेष तौर पर शुक्रिया, अपने ब्लॉग से यह लेख हमज़बान के लिए देते वक़्त मैंने उनसे यही कहा था कि यदि मेरे ज़रिये प्रभाष जी सैंकड़ों तक पहुंचेंगे, तो सौभाग्य समझूंगा.
सभी साथियों का शुक्रिया.

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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