बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

व्यवस्थाविरोधी हर पत्रकार नक्सली नहीं होता















फर्जी मुठभेड़ पुलिस का चरित्र-सा बन गया है. अपनी असफलताओं 
की खीझ निकलने के लिए पुलिस ऐसा करती है. पत्रकार हेमचंद्र पांडे उर्फ हेमंत पांडे की मौत हमें सोचने पर विवश करती है. लेकिन मै इस बात का पक्षधर हूँ, कि चाहे पत्रकार हो, लेखक हो, कोई भी हो, वह हिंसा के साथ कभी न खडा हो. मैं सरकारी हिंसा का भी प्रबल विरोधी हूँ. नक्सली हिंसा का भी मै समर्थन नहीं कर सकता. बहुत से बुद्धिजीवी समर्थक नज़र आते है. नक्सलियों ने मासूम बच्चो के गले तक काटे है. यह दुःख की बात है. हमें अन्याय का प्रतिकार करनाही है. मैं लगातार सरकार के चरित्र पर लिखता ही रहाहूं. यह कोई छोटी पंक्ति नहीं है,कि 
लोकतंत्र शर्मिंदा है 
राजा अब तक ज़िंदा है


सत्ता में एक सामंती मिजाज़ काम कर रहा है अब तक. उसकी निंदा होनी चाहिए.मगर इसकारण हम हिंसक हो कर नक्सली हो जाएँ, हत्याएं करने लगें, यह भी ठीक नहीं. स्वतंत्र पत्रकार पांडे को प्रेस मालिकों ने अपना मानने से इंकार कर दिया, यह दुखद बात है. प्रेस का चरित्र ही ऐसा है.पांडे की मौत कि उच्च स्तरीय जांच होनी चाहिए. विश्वास है, कि वे नक्सलियों के साथ नहीं रहे होंगे. निसंदेह वे वैचारिक आदमी रहे होंगे. व्यवस्थाविरोधी हर पत्रकार नक्सली नहीं होता. व्व्यवस्था गलत कर रही है तो प्रतिकार हमारा धर्म है. कर्त्तव्य है. यह हमारा संवैधानिक अधिकार भी है.

पिछली पोस्ट पर वरिष्ठ पत्रकार-व्यंग्यकार गिरीश जोशी ने उक्त प्रतिक्रिया व्यक्त की है.
अब कल हुई पत्रकारों और प्रबुद्ध तबक़े की बैठक की रपट पढ़ें : 

सभी ने कहा अघोषित आपातकाल है!

गांधी शांति प्रतिष्ठान, नयी दिल्‍ली में 20 जुलाई की शाम नवगठित समूह जर्नलिस्‍ट फॉर पीपुल के बैनर तले एक सभा हुई, जिसमें देश में अघोषित आपातकाल को कई घटनाओं के जरिये समझने की कोशिश की गयी। साथ ऐसे वक्‍त में पत्रकारों की भूमिका क्‍या हो सकती है, इस पर चर्चा की गयी।
सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने कहा कि आज ही नहीं, हमेशा से देश में आपातकाल जैसी स्थितियां रही हैं। स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय और भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता कॉमरेड आजाद की कथित मुठभेड़ में की गयी हत्‍या पर सवाल उठाते हुए अग्निवेश ने कहा कि किसी भी कीमत साहस और सच का साथ नहीं छोड़ना है।
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के सलाहकार संपादक और सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय और भाकपा माओवादी के प्रवक्ता आजाद की हत्या को शांति प्रयासों के लिए धक्का बताया। गौतम ने कहा कि आज राजसत्ता का दमन अपने चरम पर है। देश के अलग अलग हिस्सो में सरकार अलग-अलग तरीके से पत्रकारों का दमन कर रही है। इसके खिलाफ चलने वाले हर संघर्ष को एक करके देखना होगा।
समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि अब सरकारें अपने बताये हुए सच को ही प्रतिबंधित कर रही हैं और जो भी इसे उजागर करने की कोशिश करता है, उसे गोली मार दी जाती है या देशद्रोही करार दे दिया जाता है।
अंग्रेजी पत्रिका हार्ड न्यूज के संपादक अमित सेनगुप्ता भी मौजूद थे। उन्‍होंने कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता कॉरपोरेट घरानों के मालिकों के इशारे पर संचालित हो रही है। देश के अलग अलग हिस्से में हुई घटनाओं को अलग अलग तरीके से पेश किया जाता है। खासकर एक संप्रदाय विशेष के लिए मुख्यधारा का मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। गुजरात दंगों और बाटला हाउस एनकाउंटर की रिपोर्टिंग पर भी अमित ने सवाल उठाये।
कवि नीलाभ ने कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता को बचाने के लिए एक सांस्‍कृतिक आंदोलन की जरूरत है। सरकारी दमन के मसले पर हिंदी के लेखकों की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए उन्‍होंने संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों, चित्रकारों को आह्वान किया कि वे अपने माध्‍यमों का इस्‍तेमाल सरकारी नीतियों को बेनकाब करने के लिए करें।
युवा पत्रकार पूनम पांडेय ने कहा कि आपातकाल केवल बाहर ही नहीं है बल्कि समाचार पत्रों के दफ्तर के अंदर भी एक किस्म के अघोषित आपातकाल का सामना करना पड़ता है।
इस मौके पर हिंदी के तीन अखबारों (नई दुनिया, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण) के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास किया गया। इन अखबारों ने पत्रकार हेमचंद्र पांडेय को न सिर्फ पत्रकार मानने से इनकार कर दिया था बल्कि इसका खुलासा होने पर कि हेमचंद्र हेमंत नाम से इन अखबारों के लिए कभी कभार लिखता था, इन अखबारों ने अलग से खबर छाप कर ये स्‍पष्‍टीकरण दिया था कि हेमचंद्र पांडे से उनके अखबार का कभी कोई रिश्‍ता नहीं रहा।
सभा में पत्रकार हेमचंद्र की याद में हर साल दो जुलाई को एक व्याख्यानमाला शुरू करने की घोषणा की गयी।
इस सभा को सामयिक वार्ता की मेधा, उत्तराखंड पत्रकार परिषद के सुरेश नौटियाल, जेयूसीएस के शाह आलम, समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट, पीयूसीएल के संयोजक चितरंजन सिंह ने भी संबोधित किया।
सभा का संचालन पत्रकार भूपेन ने किया। इस कार्यक्रम में बड़ी तादाद में पत्रकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता भी मौजूद थे।
मोहल्ला से साभार
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12 comments: on "व्यवस्थाविरोधी हर पत्रकार नक्सली नहीं होता"

shabd ने कहा…

जिसने समझौते नहीं किये बाज़ार को उसकी ज़रुरत नहीं.और सत्ता चाहे जिसकी हो...उसके लोलुप रहे हैं पत्रकार और लेखक भी.लेकिन जिसने सत्ता का, उसकी भ्रष्ट व्यवस्था का बहिष्कार किया.उसकी बखिया उधेड़ी...वैसे साहसी पत्रकार ही हमेशा निशाने पर रहते हैं.

shabd ने कहा…

हिम्मत के साथ अपने फ़र्ज़ को पूरा करते हुए जो सच लिखने की जुर्ररत कर रहे हैं मारे जा रहे हैं.यानी उसकी कीमत चुका रहे हैं.
गिरीश पंकज जी से सहमत.

नईम ने कहा…

आज राजसत्ता का दमन अपने चरम पर है। देश के अलग अलग हिस्सो में सरकार अलग-अलग तरीके से पत्रकारों का दमन कर रही है। इसके खिलाफ चलने वाले हर संघर्ष को एक करके देखना होगा।
agree with navlakha jee.

नईम ने कहा…

पत्रकारिता को बचाने के लिए एक सांस्‍कृतिक आंदोलन की जरूरत है।

Spiritual World Live ने कहा…

आपातकाल केवल बाहर ही नहीं है बल्कि समाचार पत्रों के दफ्तर के अंदर भी एक किस्म के अघोषित आपातकाल का सामना करना पड़ता है।
पूनम पांडेय jee ne sahi kaha sau feesdee!!

Spiritual World Live ने कहा…

LEKIN DOSTON किसी भी कीमत साहस और सच का साथ नहीं छोड़ना है।

शेरघाटी ने कहा…

हम सभी जिसे मुख्य धारा की पत्रकारिता कहते हैं.....वहाँ अब क्या है...नंगी तस्वीरें, चीखती आवाजें मानो कोई चूरन बेच रहा हो....ऐसी कोइखबर नहीं जिसका सच से वास्ता हो.यदि है भी तो उसके हित होते हैं.

शेरघाटी ने कहा…

दूसरी तरफ आज भी ऐसे लोग हैं जो सच को सच की तरह लिखने का साहस रखते हैं और दर असल ऐसे लोग ही उसकी कीमत भी चुका रहे हैं.
सलाम उनकी लेखनी को !!

एक विचार ने कहा…

पत्रकारिता को बचाने के लिए एक सांस्‍कृतिक आंदोलन की जरूरत है।

एमाला ने कहा…

जिसने समझौते नहीं किये बाज़ार को उसकी ज़रुरत नहीं.और सत्ता चाहे जिसकी हो...उसके लोलुप रहे हैं पत्रकार और लेखक भी.लेकिन जिसने सत्ता का, उसकी भ्रष्ट व्यवस्था का बहिष्कार किया.उसकी बखिया उधेड़ी...वैसे साहसी पत्रकार ही हमेशा निशाने पर रहते हैं.

एमाला ने कहा…

हिम्मत के साथ अपने फ़र्ज़ को पूरा करते हुए जो सच लिखने की जुर्ररत कर रहे हैं मारे जा रहे हैं.यानी उसकी कीमत चुका रहे हैं.
गिरीश पंकज जी से सहमत.

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