गिरीश पंकज की क़लम से
बाजारवाद के गहरे दबाव के कारण अब समकालीन हिंदी मीडिया अपने मूल्यों से हटता जा रहा है। बाजार में बने रहने के लिए मीडिया हर तरह के सौदे करने पर आमादा है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ही अचेत हो कर दौड़ लगा रहे हैं। बात उलटबाँसी की तरह लगती है, लेकिन सच है। क्योंकि सचेत व्यक्ति सही दिशा में दौड़ता है, जबकि मीडिया बौराए घोड़े की तरह इधर-उधर भागता नजर आ रहा है। मीडिया में साहित्य की जगह की तलाश किसी तप्त मरुभूमि में जल-कुंड की तलाश जैसी है। विज्ञापन की चलताऊ भाषा में कहें, तो माडिया में साहित्य..? ढूँढ़ते रह जाओगे। वह दौर अब अतीत की मधुर स्मृतियों जैसा है, जब मीडिया और साहित्य का अन्योन्याश्रित संबंध हुआ करता था। स्वतंत्रता के पूर्व का इतिवृत्त देखें तो तमाम बड़े-बड़े पत्रकार साहित्यकार भी हुआ करते थे। फिर चाहे वे माधवराव सप्रे हों या माखनलाल चतुर्वेदी। स्वतंत्रता के पश्चात ग.मा. मुक्तिबोध या परसाई जैसे साहित्यकारों के भी मीडिया से गहरे सरोकार रहे। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, कमलेश्वर, मनोहरश्याम जोशी से लेकर कन्हैयालाल नंदन तक की पीढ़ी के अनेक लेखक पत्रकारिता और साहित्य के मध्य सेतुबंध की तरह काम करते रहे हैं। इन सबके कारण ही मीडिया में साहित्य के लिए जगह निकल जाया करती थी।
धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और दिनमान आदि तो खैर अलग किस्म की पत्रकारिता कर रहे थे, लेकिन नवभारत टाइम्स और दैनिक हिंदुस्तान जैसे राष्ट्रीय समाचार पत्र रोजमर्रा की हलचलों से जुड़े होने के बावजूद साहित्य को अपने केंद्र में रखा करते थे। इनमें साहित्यिक विमर्श के लिए पर्याप्त पृष्ठ हुआ करते थे, लेकिन अब प्रिंट की दुनिया से भी धीरे-धीरे साहित्य खारिज होता चला गया : और जब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का तथाकिथत बूम आया है, वहाँ साहित्य के लिए कोई जगह ही नहीं बची। तर्क यही है, कि ज्यादातर चैनल न्यूज चैनल है, गोया न्यूज का साहित्य से जनम-जनम को बैर हो। साहित्य या साहित्यिक सृजन विषयक कोई सूचना तक ये चैनल नहीं देते। प्रिंट मीडिया से जुड़े अनेक साहित्यकार-पत्रकार अब हाशिये पर कर दिए गए हैं, और वे जीविकोपार्जन के लिए अनेक जद्दोजहद से गुजर रहे हैं। उपभोक्ता-संस्कृति के इस भयावह दौर में अब मीडिया में साहित्य की उपस्थिति एक बंद अध्याय है।
सन् 1900 में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने कालजयी पत्रिका सरस्वती का प्रकाशन शुरू किया था। (इसी वर्ष पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ से छत्तीसगढ़ मित्र की भी शुरुआत की थी) यह वह समय था जब एक तरह से हिंदी नवजागरण का दूसरा दौर शुरू हुआ। अनके साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत हुई। इन सबकी विविधवर्णी सामग्री में साहित्य की उपस्थिति अनिवार्य हुआ करती थी। लेकिन धीरे-धीरे रचनात्मकता से उस दौर की पत्रकारिता का भी मोहभंग होता गया। लेकिन ऐसा मुख्यधारा की पत्रकारिता के साथ नहीं हुआ था। अधकचरी समझ के साथ शुरु की गई उस दौर की कुछ पत्रिकाओं को हम पलटते हैं, तो वहाँ भी सनसनी या सुविधापरस्ती नजर आती है, लेकिन गंभीर किस्म की पत्रिकाएँ साहित्य-संस्कृति और समाज के जागरण के लिए कार्य करती रहीं। उस दौर में जब बाबूराव विष्णु पराड़कर ने पत्रकारिता का विचलन देखा तो तो वे समझ गए थे, कि आने वाले कल में पत्रकारिता की तस्वीर कैसी बनेगी। इसीलिए उन्होंने आज से लगभग अस्सी साल पहले कहा था, कि भविष्य के अखबार पहले से ज्यादा रंगीन और चमकदार होंगे लेकिन उनमें आत्मा का अभाव होगा। उन अखबारों में महाप्राण संपादक नहीं रहेंगे। हम देख रहे हैं, कि पराड़कर जी की भविष्यवाणी सच साबित हुई है। नई पीढ़ी के सूटेड-बूटेड और औचित्य न होने के बावजूद टाई लगा कर इधर-उधर मंडराने वाले और एक तरह की हीनता के बोध से भरे संपादक साहित्य को अछूत मानने लगे हैं क्योंकि मीडिया का मालिक ऐसा सोचता है। साहित्य से संबंध रखने वाले कुछ पत्रकार अब मीडिया के नए प्रबंधन-तंत्र के सुर से सुर मिलाते हुए (ताकि उनकी नौकरी सलामत रहे) मीडिया में साहित्य की उपस्थिति को गैरज़रूरी बताने पर आमादा हैं। साहित्य-संस्कृति की चर्चा करने वाला मीडियाकर्मी उन्हें नागवार लगता है। ये लोग साहित्य और साहित्यकार दोनों से घृणा करते हैं। कारण बेहद सा$फ है। दरअसल ये वे लोग हैं, जो बौद्धिकता से सरोकार ही नहीं रखना चाहते क्योंकि इसके लिए उन्हें एकाग्रचित्त होना पड़ेगा। दो मरे, चार घायल किस्म के समाचार बनाना या फिर दोयम दर्जे के नेताओं या राजनीति पर विश्लेषणात्मक लेखन ही उनका ध्येय-बिंदु है। ऐसा करने में बहुत अधिक बुद्धि खर्च नहीं करनी पड़ती। असाहित्यिक लेखन करके वे यशार्जन करते हैं और व्यवस्था के बीच अपना प्रभाव भी बढ़ाते हैं जबकि साहित्य-सृजन के लिए तो खून सुखाना पड़ता है। मौलिक चिंतन मजाक नहीं। कौन करे मशक्कत? ऐसे में केवल हल्की-फुल्की चीजें ही भाती हैं। साहित्य जैसा गंभीर-कर्म भला क्यों रास आने लगा? यही कारण है, कि औसत मीडिया कर्मी साहित्य से दूर भागता है। अब तो पूरे कुएँ में भाँग पड़ी है तब क्या कीजै? ऐसे परिदृश्य में स्वाभाविक है, कि साहित्य विरोधियों का वर्चस्व बढ़ेगा।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो चाहे प्रिंट मीडिया, इनसे जुड़े लोग यह समझना ही नहीं चाहते, कि वे जो कुछ लिख रहे हैं, वह भी प्रकारांतर से साहित्य ही है। पत्रकारिता को हड़बड़ी में रचा गया साहित्य भी कहा जाता है। हम कह सकते हैं, कि पत्रकारिता अल्पकालीन साहित्य है और साहित्य दीर्घकालीन पत्रकारिता है। साहित्य में आखिर होता क्या है? रचनाकार अपनी कृतियों के माध्यम से मानवीय प्रवृत्तियों का विश्लेषण ही तो करता है। समाचार पत्रों में अनेक बार किसी घटना-दुर्घटना की सुंदर-सजीली भाषा में कोई रिपोर्टिंग पढऩे को मिलती है, तो लगता है, कि किसी कहानी का अंश पढ़ रहे हैं। लेकिन अब तो एक नए तरह की यांत्रिक भाषा विकसित की जा रही है। यह सब जानबूझ कर हो रहा है। सबसे शर्मनाक बात यह है, कि यह सब अँगरेज नहीं, हिंदी के पत्रकार ही कर रहे हैं क्योंकि वे मानकर चलते हैं, कि यही समकालीन नई पत्रकारिता है। साहित्यप्रेमी पत्रकारों का निरंतर मजाक उड़ाने या उनकी उपेक्षा की कोशिशें भी होती रहती हैं।
आखिर मीडिया से साहित्य बहिष्कृत क्यों होता चला जा रहा है? इसके लिए जिम्मेदार है, पश्चिम से पढ़कर आई मीडिया-मालिकों का वह नई पीढ़ी, जो मान कर चलती है, कि साहित्य अब जीवन के केंद्र में नहीं है। इस बाजारवाद के दौर में मीडिया अब मीडिया नहीं रहा, एक उत्पाद हो गया है। इसे किसी भी तरीके से बेचना है। मीडिया के मालिक यह मान कर चलते हैं, कि साहित्य के जरिए तो अखबार कतई नहीं बेचा जा सकता। इसे बेचना है तो दूसरे हथकंडे अपनाने होंगे। ऐसे में साहित्य-वाहित्य छाप कर 'स्पेस किल' करने से क्या होगा? उतनी जगह में हम विज्ञापन छापेंगे तो ज्यादा मुनाफा होगा। ख़बरे छूटें तो छूटें, विज्ञापन बिल्कुल न छूटे। साहित्य छूट जाए तो छूट जाए, किसी नेता, दल या उससे उपजे विवाद-संवाद को हर हालत में जगह मिलनी चाहिए। दरअसल राजनीति लाभ पहुँचा सकती है, साहित्य नहीं। राजनीति विज्ञापन देती है। राजनीति सम्मान दिलाती है। राजनीति सौ तरह के लाभ वाले कार्य करवाती है। नकारात्मक चिंतन के कारण अब मीडिया में तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, सेक्स, तरह-तरह की नग्नता, हिंसा-बलात्कार और घोषित रूप से समाजविरोधी लोगों पर फीचर प्रस्तुत किए जाते हैं। खलनायक नायक बना कर पेश किए जाते हैं और सजृक को जगह ही नहीं मिल पाती। इससे शर्मनाक घटना और क्या हो सकती है, कि साहित्यकार की मृत्यु की खबर भी मीडिया में जगह नहीं पाती। रवींद्रनाथ त्यागी जैसे सुपरिचित व्यंग्यकार की मृत्यु की खबर अनेक राष्ट्रीय समाचार पत्रों में छपी ही नहीं। बाद में इक्का-दुक्का लेख कहीं छप गए तो छप गए। ऐसे अनेक उदाहरण है। ऐसा इसलिए होता है, कि अब मीडिया ने पूरी निर्ममता के साथ साहित्य की ओर पीठ कर ली है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो चाहे प्रिंट मीडिया, इनसे जुड़े लोग यह समझना ही नहीं चाहते, कि वे जो कुछ लिख रहे हैं, वह भी प्रकारांतर से साहित्य ही है। पत्रकारिता को हड़बड़ी में रचा गया साहित्य भी कहा जाता है। हम कह सकते हैं, कि पत्रकारिता अल्पकालीन साहित्य है और साहित्य दीर्घकालीन पत्रकारिता है। साहित्य में आखिर होता क्या है? रचनाकार अपनी कृतियों के माध्यम से मानवीय प्रवृत्तियों का विश्लेषण ही तो करता है। समाचार पत्रों में अनेक बार किसी घटना-दुर्घटना की सुंदर-सजीली भाषा में कोई रिपोर्टिंग पढऩे को मिलती है, तो लगता है, कि किसी कहानी का अंश पढ़ रहे हैं। लेकिन अब तो एक नए तरह की यांत्रिक भाषा विकसित की जा रही है। यह सब जानबूझ कर हो रहा है। सबसे शर्मनाक बात यह है, कि यह सब अँगरेज नहीं, हिंदी के पत्रकार ही कर रहे हैं क्योंकि वे मानकर चलते हैं, कि यही समकालीन नई पत्रकारिता है। साहित्यप्रेमी पत्रकारों का निरंतर मजाक उड़ाने या उनकी उपेक्षा की कोशिशें भी होती रहती हैं।
आखिर मीडिया से साहित्य बहिष्कृत क्यों होता चला जा रहा है? इसके लिए जिम्मेदार है, पश्चिम से पढ़कर आई मीडिया-मालिकों का वह नई पीढ़ी, जो मान कर चलती है, कि साहित्य अब जीवन के केंद्र में नहीं है। इस बाजारवाद के दौर में मीडिया अब मीडिया नहीं रहा, एक उत्पाद हो गया है। इसे किसी भी तरीके से बेचना है। मीडिया के मालिक यह मान कर चलते हैं, कि साहित्य के जरिए तो अखबार कतई नहीं बेचा जा सकता। इसे बेचना है तो दूसरे हथकंडे अपनाने होंगे। ऐसे में साहित्य-वाहित्य छाप कर 'स्पेस किल' करने से क्या होगा? उतनी जगह में हम विज्ञापन छापेंगे तो ज्यादा मुनाफा होगा। ख़बरे छूटें तो छूटें, विज्ञापन बिल्कुल न छूटे। साहित्य छूट जाए तो छूट जाए, किसी नेता, दल या उससे उपजे विवाद-संवाद को हर हालत में जगह मिलनी चाहिए। दरअसल राजनीति लाभ पहुँचा सकती है, साहित्य नहीं। राजनीति विज्ञापन देती है। राजनीति सम्मान दिलाती है। राजनीति सौ तरह के लाभ वाले कार्य करवाती है। नकारात्मक चिंतन के कारण अब मीडिया में तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, सेक्स, तरह-तरह की नग्नता, हिंसा-बलात्कार और घोषित रूप से समाजविरोधी लोगों पर फीचर प्रस्तुत किए जाते हैं। खलनायक नायक बना कर पेश किए जाते हैं और सजृक को जगह ही नहीं मिल पाती। इससे शर्मनाक घटना और क्या हो सकती है, कि साहित्यकार की मृत्यु की खबर भी मीडिया में जगह नहीं पाती। रवींद्रनाथ त्यागी जैसे सुपरिचित व्यंग्यकार की मृत्यु की खबर अनेक राष्ट्रीय समाचार पत्रों में छपी ही नहीं। बाद में इक्का-दुक्का लेख कहीं छप गए तो छप गए। ऐसे अनेक उदाहरण है। ऐसा इसलिए होता है, कि अब मीडिया ने पूरी निर्ममता के साथ साहित्य की ओर पीठ कर ली है।
- [लेखक-परिचय:शुरू से ही साहित्य और कला-संस्कृति के लिए खून-ऐ-जिगर करने वाले गिरीशजी ने आख़िर उस पेशे से मुक्ति पा ही ली जिसे पत्रकारिता कहते हैं.भला, आप जैसा संवेदनशील और विवेकी शायर-कवि, लेखक-संपादक, समीक्षक-व्यंग्यकार वहाँ रह भी कैसे सकता है.अखबार में रह कर भी आपने ज़मीर से समझौते कभी नहीं किए.और अपनी प्रतिबद्धता बरक़रार रखी.
- छत्तीसगढ़ के मूल निवासी पंकज जी फिलहाल साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, के सदस्य और छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,के प्रांतीय अध्यक्ष हैं। रायपुर में रहते हुए भारतीय एवं विश्व साहित्य की सद्भावना दर्पण जैसी महत्वपूर्ण अनुवाद-पत्रिका और बच्चों के लिए बालहित का सम्पादन-संचालन बरसों से कर रहे हैं।
- अब तक आपकी 31 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है.उनसे girishpankaj1@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।]
17 comments: on "मीडिया में साहित्य : मरुभूमि में जल-कुंड की तलाश"
बाजारवाद के गहरे दबाव के कारण अब समकालीन हिंदी मीडिया अपने मूल्यों से हटता जा रहा है। बाजार में बने रहने के लिए मीडिया हर तरह के सौदे करने पर आमादा है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ही अचेत हो कर दौड़ लगा रहे हैं। बात उलटबाँसी की तरह लगती है, लेकिन सच है। क्योंकि सचेत व्यक्ति सही दिशा में दौड़ता है, जबकि मीडिया बौराए घोड़े की तरह इधर-उधर भागता नजर आ रहा है।
माडिया में साहित्य..? ढूँढ़ते रह जाओगे। वह दौर अब अतीत की मधुर स्मृतियों जैसा है, जब मीडिया और साहित्य का अन्योन्याश्रित संबंध हुआ करता था। स्वतंत्रता के पूर्व का इतिवृत्त देखें तो तमाम बड़े-बड़े पत्रकार साहित्यकार भी हुआ करते थे।
प्रिंट की दुनिया से भी धीरे-धीरे साहित्य खारिज होता चला गया : और जब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का तथाकिथत बूम आया है, वहाँ साहित्य के लिए कोई जगह ही नहीं बची। तर्क यही है, कि ज्यादातर चैनल न्यूज चैनल है, गोया न्यूज का साहित्य से जनम-जनम को बैर हो।
GAMBHEER LEKH PADHWAANE KE LIYE SHAHROZ SAHAB AAPKA SHUKRIYA
AUR GIRISH JI BADE HAIN KYA KAHUN BAS HAM SABHI KO UNSE SEEKHNA HAI.BAHUT HI ACHCHA LIKHA AAPNE.
स्पेस की समस्या और व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता ने अखबारों के स्वरुप को बदल कर रख दिया। अब साहित्य के लिए इनमें जगह नहीं है और मालिकों के शरीर में आत्मा।
सारगर्भित लेख के लिए गिरीश भैया एवं आपका आभार
बाबूराव विष्णु पराड़कर ने लगभग अस्सी साल पहले कहा था, कि भविष्य के अखबार पहले से ज्यादा रंगीन और चमकदार होंगे लेकिन उनमें आत्मा का अभाव होगा। उन अखबारों में महाप्राण संपादक नहीं रहेंगे। हम देख रहे हैं, कि पराड़कर जी की भविष्यवाणी सच साबित हुई है।
KYA BAT HAI......aapne atyant sateek vishleshan karte huye ..aankhen khol di hain ham sabhi ki.
वह दौर अब अतीत की मधुर स्मृतियों जैसा है, जब मीडिया और साहित्य का अन्योन्याश्रित संबंध हुआ करता था। स्वतंत्रता के पूर्व का इतिवृत्त देखें तो तमाम बड़े-बड़े पत्रकार साहित्यकार भी हुआ करते थे। फिर चाहे वे माधवराव सप्रे हों या माखनलाल चतुर्वेदी। स्वतंत्रता के पश्चात ग.मा. मुक्तिबोध या परसाई जैसे साहित्यकारों के भी मीडिया से गहरे सरोकार रहे। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, कमलेश्वर, मनोहरश्याम जोशी से लेकर कन्हैयालाल नंदन तक की पीढ़ी के अनेक लेखक पत्रकारिता और साहित्य के मध्य सेतुबंध की तरह काम करते रहे हैं। इन सबके कारण ही मीडिया में साहित्य के लिए जगह निकल जाया करती थी।
प्रिंट मीडिया से जुड़े अनेक साहित्यकार-पत्रकार अब हाशिये पर कर दिए गए हैं, और वे जीविकोपार्जन के लिए अनेक जद्दोजहद से गुजर रहे हैं। उपभोक्ता-संस्कृति के इस भयावह दौर में अब मीडिया में साहित्य की उपस्थिति एक बंद अध्याय है।
bhayankar afsoshak sthiti hai.GRISH JEE ne bebaki ke saath apni tahreer me jo bhi byaan kiya hai...AMDEED AAMDEEd kahne ka man karta hai,
मिडिया ? ये क्या होता है? अब तो सब टी आर पी है ..जैसे भी मिले.
बेहतरीन और विचारोत्तोक लेख.
शानदार पोस्ट
प्रिंट मीडिया से जुड़े अनेक साहित्यकार-पत्रकार अब हाशिये पर कर दिए गए हैं, और वे जीविकोपार्जन के लिए अनेक जद्दोजहद से गुजर रहे हैं। उपभोक्ता-संस्कृति के इस भयावह दौर में अब मीडिया में साहित्य की उपस्थिति एक बंद अध्याय है।
बेहतरीन और शानदार पोस्ट !
बहुत सुंदर लिखा सभी के विचारो से ओर आप के लेख स सहमत हुं
बिलकुल सही कहा है....और गिरीश जी से परिचय अच्छा लगा ...
... प्रभावशाली व प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!!
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी