दलित की बेटी से बैर क्यों !
सैयद एस क़मर की क़लम से
ज्योति बाफूले ,पेरियार स्वामी और बाबा साहब आंबेडकर दलित आन्दोलन के आदर्श और प्रेरक माने जाते हैं.कालांतर में बाबू जगजीवन राम और कांशीराम ने आन्दोलन को दिशा देने में अपनी महती भूमिका निभाई.आज दलित वोट के दावेदार तो कई हैं लेकिन अतिरंजना नहीं कि कांशीराम की उतराधिकारी और बहुजन समाज पार्टी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की मुखिया मायावती की पहुँच दलित समाज में सीधी है.
मुसलमान भी उनसे इस मसले पर खफा रहा कि उन्होंने कुख्यात मुख्यमंत्री को समर्थन किया था.जिसके रहनुमाई में गुजरात जैसा मुस्लिम विरोधी नरसंहार हुआ.क्या मुसलमान इस सच से अनजान हैं कि सबसे पहले जनता पार्टी ने ही पुरानी भाजपा जनसंघ को बढ़ावा दिया.और तब के जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने भी सार्वजानिक रैलियों को खिताब किया था.क्या आप उसके बाद यह भी भूल गए कि वी पी सिंह के दौर में ही भाजपा सरकार में आई और उसकी संख्या अचानक उछाल पर आई.आप यह भी नज़र अंदाज़ कर रहे हैं कि बिहार में भाजपा के साथ कौन है!
आप यह न भूलें कि बहुजन वाहिद दल रहा जिसने सबसे पहले सबसे ज़्यादा लोकसभा या विधान सभा की टिकटें मुसलमानों को दी.उत्तर प्रदेश में जीत कर आने वाले इस दल से मुसलमान अधिक रहे.
मायावती पर तरह तरह के आरोप लगे हैं और लगते रहते हैं. प्रदेश की सियासत में अब सत्ता भोग चुके और दल करीब-करीब दूसरे ,तीसरे या चौथे पाइदान पर हैं.स्वाभाविक है, उन पर आरोप लगेंगे.सबसे ज़्यादा धन-सम्पत्ती रखने के साथ दलितों का ही उत्थान नहीं करने के आरोप उन पर हैं.लेकिन उनके समर्थकों ने इन सारे आरोपों को सवर्ण मीडिया की उपज बताया है.आप असहमत हो सकते हैं !आप यह न भूलें कि बहुजन वाहिद दल रहा जिसने सबसे पहले सबसे ज़्यादा लोकसभा या विधान सभा की टिकटें मुसलमानों को दी.उत्तर प्रदेश में जीत कर आने वाले इस दल से मुसलमान अधिक रहे.
डी एस फॉर से बहुजन समाज पार्टी तक का सफ़र निसंदेह बहुत कंटीला है.कांशीराम के जीवन को होम कर इस समाज को जो शक्ती और ऊर्जा मिली है उसमें मायावती का भी योगदान है किंचित सही , आप इस से इनकार नहीं कर सकते.राजनीति में आने से पहले एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाली मायावती इतनी धनवान कैसे बन गई सवाल के साथ आरोप है! लेकिन लोग भूल जाते हैं कि इस पार्टी का सिद्धांत शुरू से ही रहा है एक वोट और एक नोट.कांशीराम कहा करते थे. इस नोट के साथ उस व्यक्ति का जुड़ाव अपने आप समाज और दल के साथ हो जाता है.आज स्थितियां बदली हैं, और जुड़ाव के तरीके भी.देश और समाज में इधर दो दशक से वैभव आया है.मायावती अगर धन लेती हैं तो इसका उपयोग सिर्फ निजी नहीं होता, सार्वजानिक भी होता है.यानी दल के लिए आज पैसा ज़रूरी है.देश की हर राजनितिक पार्टी बड़े उद्योगपतियों से धन लेती है.बहुजन लेती है तो खुजली क्यों !और दलों या सियासी लोगों की तरह बहन जी गुप्त तरीके से न पैसे की उगाही करती हैं न ही उन्हें जमा करती हैं देश से बाहर किसी हसीं वादियों वाले देश में. पार्टी समर्थक खुद पैसा देते हैं.सब कुछ पारदर्शी होता है. अपना जन्मदिन हो या पार्टी की रैली, तोहफे के रूप में कार्यकर्ताओं से बड़ी-बड़ी रकम सार्वजनिक रूप से ग्रहण करने की अनूठी कला सिर्फ मायावती ही जानती हैं। बाबा साहब आम्बेडकर और कांशीराम के सपनों को साकार करते हुए दलित उत्थान की बातें करने वाली मायावती क्या यह बता सकती हैं कि उनके सत्ता में आने के बाद किसका उत्थान हो रहा है। उन दलितों का, जो उन्हें वोट और नोट के साथ कुर्सी पर बिठाते हैं, या फिर सत्ता भोग रहे मायावती और उन जैसे चन्द नेताओं का। ऐसे सवाल और दलों से क्यों नहीं !दरअसल पहले होता यह था कि कुछ लोग मैदान में खेला करते थे और दूसरे सिर्फ देखा करते.उन्हें सिर्फ तालियाँ बजाने दिया जाता.आज वही तालियाँ बजानेवाला तबका खुद खेलने लगा है और धीरे-धीरे पहले के खिलाड़ी धकियाये जा रहे हैं.सहज है उनका कोफ़्त होना .जहां तक कुछ कमियों का सवाल है तो व्यवस्था अभी वही है, सदियों पुरानी.सरकार बदल जाने से सम्पूर्ण व्यवस्था में आमूल परिवर्तन नहीं हो जाता.और जो समाज सदियों से शोषित रहा उस से आप अचानक संभ्रात शालीनता या अनुशासन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. सार्वजनिक रैलियों में करोड़ों रूपए की माला पहनने वाली मायावती को कार्यकर्ता पैसा देते हैं । राजनीति में रहने वालों के लिए जनता का स्नेह और विश्वास ही सबसे बड़ी पूंजी होती है, और यह बड़ी धनराशि बताती है कि उस पूंजी की मायावती के पास कोई कमी नहीं है।
महज 54 साल की उम्र में उत्तरप्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य का चौथी बार मुख्यमंत्री बनना यह जताने के लिए पर्याप्त है कि जनता का विश्वास उनमें है। जनता ने उनमें जो आस्था जताई है उसे काम के जरिये मायावती उन्हें लौटाना भी जानती हैं और लौटा भी रही हैं.हाँ यह आरोप किसी हद तक सही हो सकता है उन्होंने विकास के लिए अधिकाँश उन्हीं क्षेत्रों का चयन किया जहां दलितों की आबादी ज़्यादा हो.। केंद्र की बैठकों से प्राय: दूर रहने वाली मायावती पिछले दिनों आयोजित राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक भले नहीं आई। लेकिन उनके प्रतिनिधि के बतौर शामिल हुए प्रदेश के वित्त मंत्री लालजी वर्मा ने बहन जी का जो भाषण पढ़ा। उसमें यह साफ़ है कि उनकी सरकार राज्य में समाज के बिल्कुल पायदान पर खड़े दलित, शोषित, पिछड़े वंचित व उपेक्षित तथा सर्वण समाज के गरीब लोगों को सबसे पहले सहारा देकर उनकों आगे बढ़ने का मौका देन की कोशिश कर रही है। मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारी हर नीति और फैसले के केंद्र में इन्हीं वर्गो को रखा गया है। इन्हीं वर्गो की बुनियादी सुविधाओं को सबसे अधिक तहजीह दी गई है। जमीनी जरूरतों के साथ साथ सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय की अपनी नीति से जोड़ा है। मायावती की सफलता इसमें मानी जाएगी कि वे जनता से किए वादों को कितना पूरा कर पाती हैं और राज्य को कितना आगे ले जा पाती हैं।
स्कूलों में दलित रसोइया हो या नहीं प्रदेश का ताज़ा मुद्दा है. पहले भी यह विवाद हो चुका है, जब 2007 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव के 24 अक्टूबर 2007 के रसोइये के चयन मे आरक्षण लागू करने के आदेश के बाद ये चिंगारी भड़क गयी थी| और कन्नौज जनपद के मलिकपुर प्राथमिक और जूनियर विद्यालय में प्रधान ने पहले से खाना बना रही पिछड़ी जाति की महिला को हटाकर दलित महिला को लगा दिया था| राजनितिक विश्लेषकों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में इस साल पंचायत के चुनाव होने है| ऐसे में वर्तमान प्रधानो/सरपंचो को गाँव में जातीय राजनीती करने के स्कूल के मिड डे मील का अखाडा मिल गया है| व्यवस्था को सामान्य रूप से चलाने के लिए पिछले उत्तर प्रदेश सरकार के आरक्षण आदेश को पिछले तीन साल से अनदेखा करने वाले प्रधान अब अपनी प्रधानी के अंतिम चरण में इसे लागू क्यूँ करना चाहते है| लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई ग्राम पंचायत में अचानक यह दलित प्रेम जागना वोटो की राजनीती भी हो सकती है| अभी-अभी खबर जो कहती है , उसके मुताबिक शासन ने मिडडे मील पकाने वाले रसोईयों की नियुक्ति में लागू आरक्षण व्यवस्था को समाप्त कर दिया है। दरअसल , स्कूल छोड़ देंगे, लेकिन दलित के हाथ का बना खाना नहीं खायेंगे। जैसे जातिवादी नारे गली-गली में लगवाए जा रहे थे. यह सब अपने अपने वोटो को इकठ्ठा रखने का बढ़िया हथियार भी हो सकता है| अब नियुक्तियों में विधवा, निराश्रित, और तलाकशुदा महिलाओं को प्राथमिकता दी जायेगी।
पिछले महीनों कांग्रेस के युवा और चर्चित हस्ताक्षर राहुल गाँधी ने कहा, 'देश का भविष्य गाँव और गरीबों के हाथ में है, केंद्र से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत करोड़ों रुपए आ रहे हैं, जिससे दलितों और गरीबों को फायदा होता है, लेकिन राज्य सरकार इस दिशा में ठीक से काम नहीं कर रही है।'
बहन जी उलटवार कर कहती हैं कि केंद्र सरकार चाह कर भी महंगाई को रोकने में नाकाम है। गरीबों का जीना दूभर हो गया है। लिहाजा केंद्र गरीबों को राहत के लिए पर्याप्त व्यवस्था करे। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा से नीचे [बीपीएल] जीवन-यापन करने वाले परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई है। उनका राशन कार्ड बनाने के लिए केंद्र अब भी 2002 की ही सूची पर अटका हुआ है। इस बाबत राज्य सरकार का प्रस्ताव अर्से से केंद्र के पास लंबित है। बहनजी ने सारा ठीकरा केंद्र पर ही उतारा है और विकास के असमान वितरण के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया है.
15 comments: on "बहुजन माया नहीं हक़ीक़त"
मायावती अगर धन लेती हैं तो इसका उपयोग सिर्फ निजी नहीं होता, सार्वजानिक भी होता है.यानी दल के लिए आज पैसा ज़रूरी है.देश की हर राजनितिक पार्टी बड़े उद्योगपतियों से धन लेती है.बहुजन लेती है तो खुजली क्यों
दरअसल पहले होता यह थे कि कुछ लोग मैदान में खेला करते थे और दूसरे सिर्फ देखा करते.उन्हें सिर्फ तालियाँ बजाने दिया जाता.आज वही तालियाँ बजानेवाला तबका खुद खेलने लगा है और धीरे-धीरे पहले के खिलाड़ी धकियाये जा रहे हैं.सहज है उनका कोफ़्त होना .जहां तक कुछ कमियों का सवाल है तो व्यवस्था अभी वही है, सदियों पुरानी.सरकार बदल जाने से सम्पूर्ण व्यवस्था में आमूल परिवर्तन नहीं हो जाता.और जो समाज सदियों से शोषित रहा उस से आप अचानक संभ्रात शालीनता या अनुशासन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. सार्वजनिक रैलियों में करोड़ों रूपए की माला पहनने वाली मायावती को कार्यकर्ता पैसा देते हैं ।
आम्बेडकर और कांशीराम के सपनों को साकार करते हुए दलित उत्थान की बातें करने वाली मायावती क्या यह बता सकती हैं कि उनके सत्ता में आने के बाद किसका उत्थान हो रहा है। उन दलितों का, जो उन्हें वोट और नोट के साथ कुर्सी पर बिठाते हैं, या फिर सत्ता भोग रहे मायावती और उन जैसे चन्द नेताओं का!!!!!
@ talib
ऐसे सवाल और दलों से क्यों नहीं
'देश का भविष्य गाँव और गरीबों के हाथ में है, केंद्र से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत करोड़ों रुपए आ रहे हैं, जिससे दलितों और गरीबों को फायदा होता है, लेकिन राज्य [माया]सरकार इस दिशा में ठीक से काम नहीं कर रही है।'
मुख्यमंत्री मायावती :
उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा से नीचे [बीपीएल] जीवन-यापन करने वाले परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई है। उनका राशन कार्ड बनाने के लिए केंद्र अब भी 2002 की ही सूची पर अटका हुआ है। इस बाबत राज्य सरकार का प्रस्ताव अर्से से केंद्र के पास लंबित है।
YANEE
सारा ठीकरा केंद्र पर और विकास के असमान वितरण के लिए कांग्रेस को दोषी
जनता ने उनमें जो आस्था जताई है उसे काम के जरिये मायावती उन्हें लौटाना भी जानती हैं और लौटा भी रही हैं.हाँ यह आरोप किसी हद तक सही हो सकता है उन्होंने विकास के लिए अधिकाँश उन्हीं क्षेत्रों का चयन किया जहां दलितों की आबादी ज़्यादा हो.।
lekin sathiyo koi bhi siyasat dan ho musalmanon k liye kisi ne kuch bhi bhala nahin kiya !!
aur bahanji bhi aisi hi neta hain !
CONFUSED......?
what for you are confused mr sahespuria ?
आपकी पोस्ट उन स्वर्णो के प्रश्नो के उत्तर है जो उन्होने मेरे ब्लाग पर उठाए हैं
पता नहीं भारत में कब और कैसे ये छुआ-छूत का विषधर सांप घुस गया? पूर्वाग्रहों को छोड़ कर ज़रा तथ्यों व प्रमाणों की रोशनी में देखें तो पता चलता है कि भारत में जातियां तो थीं पर छुआ- छूत नहीं. स्वयं अंग्रेजों के द्वारा दिए आंकड़े इसके प्रमाण हैं.
भारत को कमज़ोर बनाने की अनेक चालें चलने वाले अंग्रेजों ने आंकड़े जुटाने और हमारी कमजोरी व विशेषताओं को जानने के लिए सर्वे करवाए थे. उन सर्वेक्षणों के तथ्यों और आज के झूठे इतिहास के कथनों में ज़मीन आस्मान का अंतर है.
सन १८२० में एडम स्मिथ नामक अँगरेज़ ने एक सर्वेक्षण किया. एक सर्वेक्षण टी. बी. मैकाले ने १८३५ करवाया था. इन सर्वेक्षणों से ज्ञात और अनेक तथ्यों के इलावा ये पता चलता है कि तबतक भारत में अस्पृश्यता नाम की बीमारी नहीं थी.
यह सर्वे बतलाता है कि—
# तब भारत के विद्यालयों में औसतन २६% ऊंची जातियों के विद्यार्थी पढ़ते थे तथा ६४% छोटी जातियों के छात्र थे.
# १००० शिक्षकों में २०० द्विज / ब्राह्मण और शेष डोम जाती तक के शिक्षक थे. स्वर्ण कहलाने वाली जातियों के छात्र भी उनसे बिना किसी भेद-भाव के पढ़ते थे.
# मद्रास प्रेजीडेन्सी में तब १५०० ( ये भी अविश्वसनीय है न ) मेडिकल कालेज थे जिनमें एम्.एस. डिग्री के बराबर शिक्षा दी जाती थी. ( आज सारे भारत में इतने मेडिकल कालेज नहीं होंगे.)
# दक्षिण भारत में २२०० ( कमाल है! ) इंजीनियरिंग कालेज थे जिनमें एम्.ई. स्तर की शीशा दी जाती थी.
# मेडिकल कालेजों के अधिकांश सर्जन नाई जाती के थे और इंजीनियरिंग कालेज के अधिकाँश आचार्य पेरियार जाती के थे. स्मरणीय है कि आज छोटी जाती के समझे जाने वाले इन पेरियार वास्तुकारों ने ही मदुरई आदि दक्षिण भारत के अद्भुत वास्तु वाले मंदिर बनाए हैं.
# तब के मद्रास के जिला कलेक्टर ए.ओ.ह्युम ( जी हाँ, वही कांग्रेस संस्थापक) ने लिखित आदेश निकालकर पेरियार वास्तुकारों पर रोक लगा दी थी कि वे मंदिर निर्माण नहीं कर सकते. इस आदेश को कानून बना दिया था.
# ये नाई सर्जन या वैद्य कितने योग्य थे इसका अनुमान एक घटना से हो जाता है. सन १७८१ में कर्नल कूट ने हैदर अली पर आक्रमण किया और उससे हार गया . हैदर अली ने कर्नल कूट को मारने के बजाय उसकी नाक काट कर उसे भगा दिया. भागते, भटकते कूट बेलगाँव नामक स्थान पर पहुंचा तो एक नाई सर्जन को उसपर दया आगई. उसने कूट की नई नाक कुछ ही दिनों में बनादी. हैरान हुआ कर्नल कूट ब्रिटिश पार्लियामेंट में गया और उसने सबने अपनी नाक दिखा कर बताया कि मेरी कटी नाक किस प्रकार एक भारतीय सर्जन ने बनाई है. नाक कटने का कोई निशान तक नहीं बचा था. उस समय तक दुनिया को प्लास्टिक सर्जरी की कोई जानकारी नहीं थी. तब इंग्लॅण्ड के चकित्सक उसी भारतीय सर्जन के पास आये और उससे शल्य चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी सीखी. उसके बाद उन अंग्रेजों के द्वारा यूरोप में यह प्लास्टिक सर्जरी पहुंची.
### अब ज़रा सोचें कि भारत में आज से केवल १७५ साल पहले तक तो कोई जातिवाद याने छुआ-छूत नहीं थी. कार्य विभाजन, कला-कौशल की वृद्धी, समृद्धी के लिए जातियां तो ज़रूर थीं पर जातियों के नाम पर ये घृणा, विद्वेष, अमानवीय व्यवहार नहीं था. फिर ये कुरीति कब और किसके द्वारा और क्यों प्रचलित कीगई ? हज़ारों साल में जो नहीं था वह कैसे होगया? अपने देश-समाज की रक्षा व सम्मान के लिए इस पर खोज, शोध करने की ज़रूरत है. यह अमानवीय व्यवहार बंद होना ही चाहिए और इसे प्रचलित करने वालों के चेहरों से नकाब हमें हटनी चाहिए. साथ ही बंद होना चाहिए ये भारत को चुन-चुन कर लांछित करने के, हीनता बोध जगाने के सुनियोजित प्रयास. हमें अपनी कमियों के साथ-साथ गुणों का भी तो स्मरण करते रहना चाहिए जिससे समाज हीन ग्रंथी का शिकार न बन जाये. यही तो करना चाह रहे हैं हमारे चहने वाले, हमें कजोर बनाने वाले. उनकी चाल सफ़ल करने में‚ सहयोग करना है या उन्हें विफ़ल बनाना है? ये ध्यान रहे!
पता नहीं भारत में कब और कैसे ये छुआ-छूत का विषधर सांप घुस गया? पूर्वाग्रहों को छोड़ कर ज़रा तथ्यों व प्रमाणों की रोशनी में देखें तो पता चलता है कि भारत में जातियां तो थीं पर छुआ- छूत नहीं. स्वयं अंग्रेजों के द्वारा दिए आंकड़े इसके प्रमाण हैं.
भारत को कमज़ोर बनाने की अनेक चालें चलने वाले अंग्रेजों ने आंकड़े जुटाने और हमारी कमजोरी व विशेषताओं को जानने के लिए सर्वे करवाए थे. उन सर्वेक्षणों के तथ्यों और आज के झूठे इतिहास के कथनों में ज़मीन आस्मान का अंतर है.
सन १८२० में एडम स्मिथ नामक अँगरेज़ ने एक सर्वेक्षण किया. एक सर्वेक्षण टी. बी. मैकाले ने १८३५ करवाया था. इन सर्वेक्षणों से ज्ञात और अनेक तथ्यों के इलावा ये पता चलता है कि तबतक भारत में अस्पृश्यता नाम की बीमारी नहीं थी.
यह सर्वे बतलाता है कि—
# तब भारत के विद्यालयों में औसतन २६% ऊंची जातियों के विद्यार्थी पढ़ते थे तथा ६४% छोटी जातियों के छात्र थे.
# १००० शिक्षकों में २०० द्विज / ब्राह्मण और शेष डोम जाती तक के शिक्षक थे. स्वर्ण कहलाने वाली जातियों के छात्र भी उनसे बिना किसी भेद-भाव के पढ़ते थे.
# मद्रास प्रेजीडेन्सी में तब १५०० ( ये भी अविश्वसनीय है न ) मेडिकल कालेज थे जिनमें एम्.एस. डिग्री के बराबर शिक्षा दी जाती थी. ( आज सारे भारत में इतने मेडिकल कालेज नहीं होंगे.)
# दक्षिण भारत में २२०० ( कमाल है! ) इंजीनियरिंग कालेज थे जिनमें एम्.ई. स्तर की शीशा दी जाती थी.
# मेडिकल कालेजों के अधिकांश सर्जन नाई जाती के थे और इंजीनियरिंग कालेज के अधिकाँश आचार्य पेरियार जाती के थे. स्मरणीय है कि आज छोटी जाती के समझे जाने वाले इन पेरियार वास्तुकारों ने ही मदुरई आदि दक्षिण भारत के अद्भुत वास्तु वाले मंदिर बनाए हैं.
# तब के मद्रास के जिला कलेक्टर ए.ओ.ह्युम ( जी हाँ, वही कांग्रेस संस्थापक) ने लिखित आदेश निकालकर पेरियार वास्तुकारों पर रोक लगा दी थी कि वे मंदिर निर्माण नहीं कर सकते. इस आदेश को कानून बना दिया था.
# ये नाई सर्जन या वैद्य कितने योग्य थे इसका अनुमान एक घटना से हो जाता है. सन १७८१ में कर्नल कूट ने हैदर अली पर आक्रमण किया और उससे हार गया . हैदर अली ने कर्नल कूट को मारने के बजाय उसकी नाक काट कर उसे भगा दिया. भागते, भटकते कूट बेलगाँव नामक स्थान पर पहुंचा तो एक नाई सर्जन को उसपर दया आगई. उसने कूट की नई नाक कुछ ही दिनों में बनादी. हैरान हुआ कर्नल कूट ब्रिटिश पार्लियामेंट में गया और उसने सबने अपनी नाक दिखा कर बताया कि मेरी कटी नाक किस प्रकार एक भारतीय सर्जन ने बनाई है. नाक कटने का कोई निशान तक नहीं बचा था. उस समय तक दुनिया को प्लास्टिक सर्जरी की कोई जानकारी नहीं थी. तब इंग्लॅण्ड के चकित्सक उसी भारतीय सर्जन के पास आये और उससे शल्य चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी सीखी. उसके बाद उन अंग्रेजों के द्वारा यूरोप में यह प्लास्टिक सर्जरी पहुंची.
### अब ज़रा सोचें कि भारत में आज से केवल १७५ साल पहले तक तो कोई जातिवाद याने छुआ-छूत नहीं थी. कार्य विभाजन, कला-कौशल की वृद्धी, समृद्धी के लिए जातियां तो ज़रूर थीं पर जातियों के नाम पर ये घृणा, विद्वेष, अमानवीय व्यवहार नहीं था. फिर ये कुरीति कब और किसके द्वारा और क्यों प्रचलित कीगई ? हज़ारों साल में जो नहीं था वह कैसे होगया? अपने देश-समाज की रक्षा व सम्मान के लिए इस पर खोज, शोध करने की ज़रूरत है. यह अमानवीय व्यवहार बंद होना ही चाहिए और इसे प्रचलित करने वालों के चेहरों से नकाब हमें हटनी चाहिए. साथ ही बंद होना चाहिए ये भारत को चुन-चुन कर लांछित करने के, हीनता बोध जगाने के सुनियोजित प्रयास. हमें अपनी कमियों के साथ-साथ गुणों का भी तो स्मरण करते रहना चाहिए जिससे समाज हीन ग्रंथी का शिकार न बन जाये. यही तो करना चाह रहे हैं हमारे चहने वाले, हमें कजोर बनाने वाले. उनकी चाल सफ़ल करने में‚ सहयोग करना है या उन्हें विफ़ल बनाना है? ये ध्यान रहे!
पता नहीं भारत में कब और कैसे ये छुआ-छूत का विषधर सांप घुस गया? पूर्वाग्रहों को छोड़ कर ज़रा तथ्यों व प्रमाणों की रोशनी में देखें तो पता चलता है कि भारत में जातियां तो थीं पर छुआ- छूत नहीं. स्वयं अंग्रेजों के द्वारा दिए आंकड़े इसके प्रमाण हैं.
भारत को कमज़ोर बनाने की अनेक चालें चलने वाले अंग्रेजों ने आंकड़े जुटाने और हमारी कमजोरी व विशेषताओं को जानने के लिए सर्वे करवाए थे. उन सर्वेक्षणों के तथ्यों और आज के झूठे इतिहास के कथनों में ज़मीन आस्मान का अंतर है.
सन १८२० में एडम स्मिथ नामक अँगरेज़ ने एक सर्वेक्षण किया. एक सर्वेक्षण टी. बी. मैकाले ने १८३५ करवाया था. इन सर्वेक्षणों से ज्ञात और अनेक तथ्यों के इलावा ये पता चलता है कि तबतक भारत में अस्पृश्यता नाम की बीमारी नहीं थी.
यह सर्वे बतलाता है कि—
# तब भारत के विद्यालयों में औसतन २६% ऊंची जातियों के विद्यार्थी पढ़ते थे तथा ६४% छोटी जातियों के छात्र थे.
# १००० शिक्षकों में २०० द्विज / ब्राह्मण और शेष डोम जाती तक के शिक्षक थे. स्वर्ण कहलाने वाली जातियों के छात्र भी उनसे बिना किसी भेद-भाव के पढ़ते थे.
# मद्रास प्रेजीडेन्सी में तब १५०० ( ये भी अविश्वसनीय है न ) मेडिकल कालेज थे जिनमें एम्.एस. डिग्री के बराबर शिक्षा दी जाती थी. ( आज सारे भारत में इतने मेडिकल कालेज नहीं होंगे.)
# दक्षिण भारत में २२०० ( कमाल है! ) इंजीनियरिंग कालेज थे जिनमें एम्.ई. स्तर की शीशा दी जाती थी.
# मेडिकल कालेजों के अधिकांश सर्जन नाई जाती के थे और इंजीनियरिंग कालेज के अधिकाँश आचार्य पेरियार जाती के थे. स्मरणीय है कि आज छोटी जाती के समझे जाने वाले इन पेरियार वास्तुकारों ने ही मदुरई आदि दक्षिण भारत के अद्भुत वास्तु वाले मंदिर बनाए हैं.
# तब के मद्रास के जिला कलेक्टर ए.ओ.ह्युम ( जी हाँ, वही कांग्रेस संस्थापक) ने लिखित आदेश निकालकर पेरियार वास्तुकारों पर रोक लगा दी थी कि वे मंदिर निर्माण नहीं कर सकते. इस आदेश को कानून बना दिया था.
# ये नाई सर्जन या वैद्य कितने योग्य थे इसका अनुमान एक घटना से हो जाता है. सन १७८१ में कर्नल कूट ने हैदर अली पर आक्रमण किया और उससे हार गया . हैदर अली ने कर्नल कूट को मारने के बजाय उसकी नाक काट कर उसे भगा दिया. भागते, भटकते कूट बेलगाँव नामक स्थान पर पहुंचा तो एक नाई सर्जन को उसपर दया आगई. उसने कूट की नई नाक कुछ ही दिनों में बनादी. हैरान हुआ कर्नल कूट ब्रिटिश पार्लियामेंट में गया और उसने सबने अपनी नाक दिखा कर बताया कि मेरी कटी नाक किस प्रकार एक भारतीय सर्जन ने बनाई है. नाक कटने का कोई निशान तक नहीं बचा था. उस समय तक दुनिया को प्लास्टिक सर्जरी की कोई जानकारी नहीं थी. तब इंग्लॅण्ड के चकित्सक उसी भारतीय सर्जन के पास आये और उससे शल्य चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी सीखी. उसके बाद उन अंग्रेजों के द्वारा यूरोप में यह प्लास्टिक सर्जरी पहुंची.
### अब ज़रा सोचें कि भारत में आज से केवल १७५ साल पहले तक तो कोई जातिवाद याने छुआ-छूत नहीं थी. कार्य विभाजन, कला-कौशल की वृद्धी, समृद्धी के लिए जातियां तो ज़रूर थीं पर जातियों के नाम पर ये घृणा, विद्वेष, अमानवीय व्यवहार नहीं था. फिर ये कुरीति कब और किसके द्वारा और क्यों प्रचलित कीगई ? हज़ारों साल में जो नहीं था वह कैसे होगया? अपने देश-समाज की रक्षा व सम्मान के लिए इस पर खोज, शोध करने की ज़रूरत है. यह अमानवीय व्यवहार बंद होना ही चाहिए और इसे प्रचलित करने वालों के चेहरों से नकाब हमें हटनी चाहिए. साथ ही बंद होना चाहिए ये भारत को चुन-चुन कर लांछित करने के, हीनता बोध जगाने के सुनियोजित प्रयास. हमें अपनी कमियों के साथ-साथ गुणों का भी तो स्मरण करते रहना चाहिए जिससे समाज हीन ग्रंथी का शिकार न बन जाये. यही तो करना चाह रहे हैं हमारे चहने वाले, हमें कजोर बनाने वाले. उनकी चाल सफ़ल करने में‚ सहयोग करना है या उन्हें विफ़ल बनाना है? ये ध्यान रहे!
हमारे देश में 10 लाख मंदिर हैं। उनमें अरबों खरबों का सोना चांदी, हीरे मोती और भूमि आदि खराब पड़ी सड़ रही है। संत माया को छोड़ना सिखाते हैं , नर में नारायण देखना बताते हैं, इसलिये सबसे पहले मंदिरों का सोना सम्पत्ति गरीबों में बांट देनी चाहिये। बाबरी मस्जिद अब दोबारा वहां बनेगी नहीं और ज्यादा रौला मचाओगे तो दूसरी बनी हुई भी तोड़ दी जायेंगी। मुसलमान जिनसे उलझ रहे हैं वे पूरी हड़प्पा सभ्यता को नष्ट करके द्रविड़ों को ऐसा दास बनाकर सदियों रख चुके हैं कि वे अपनी ब्राहुई भाषा तक भूल चुके हैं। हम अतीत के दलित हैं और मुसलमान वर्तमान के । दोनों एकसाथ हैं इसीलिये आज एक दलित सी. एम. है। न्याय के लिये समान बिन्दुओं पर सहमति समय की मांग है। अगर आपके लीडर दगाबाज हैं तो हमारे लीडर को आजमाने में क्या हर्ज है ?
समय कठिन है एक गलत ‘न‘ पूरा भविष्य चैपट कर सकती है। एक दुखी ही दूसरे दुखी का दर्द समझ सकता है। हमें मंदिर मस्जिद से जो न मिला वह हमें बाबा साहब के संघर्ष से मिला इसलिये सारे मुद्दे फिजूल लगते हैं केवल बाबा साहब का आह्वान में दम लगता है।
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी