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जिस भाव-भंगिमा और तेवर के साथ यह युवा कवि-शायर शायरी कर रहा है.इस उम्र की दीवानगी उसे ज़रूर मंज़िल-
मुक़ाम तक ले जायेगी.कुछ उस्ताद बहार-मात्रा की मीनमेख निकाल सकते हैं.लेकिन शुरूआती वक्त है, सो इसे नज़र अंदाज़ किया जाना चाहिए। आज़ादी के उत्सव के वक्त इस शायर की बेचैनी, उसका आक्रोश, सामाजिक विसंगतियां उसे कहाँ ले जाती है.उसी की तस्वीर इस नज़्म में देखी जा सकती है। कविता यूँ लम्बी है, ज़रा आपको धैर्य रखना होगा, वरना आप अच्छी शायरी से वंचित हो जायेंगे.
उन्होंने
हमज़बान के लिए रचना दी , हम शुक्र-गुज़ार हैं.
अपने बारे में उनका कहना है:
नाम
भवानी सिंह चारण और तखल्लुस
'बेकस' , परिचय तो बस इतना ही है मेरा, राजस्थान के बाड़मेर जिले के एक छोटे से गाँव में पला बढ़ा जहाँ टेलीफोन आए अभी पूरा १ साल हुआ नही है। परिवार में काव्यात्मक माहौल मिलने के कारण लिखने की प्रेरणा मिली, अभी पांडिचेरी में सुजलोन एनर्जी लिमिटेड में नौकरी करता हूँ। लिखना अभी १-२ महीने पहिले ही प्रारम्भ किया है।
'यह शहरोज़ भाई की मेहरबानी है की मुझे आप लोगों के सामने आने के लिए अवसर दिया, उन्हें आप सब जानते होंगे फिर भी उनका परिचय में इन शब्दों में देता हूँ...
'मत पूछिए कि क्या क्या हैं शहरोज़ के हुनर,
वो जानता है ज़र्रे को सितारा बना देना....'
-सं.
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इस शहर में कलियों से लहू टपकता देखकर,
डर गया मैं अमन को घुट घुट के मरता देखकर,
और जिंदा लाशों के ख़्वाबों को जलता देख कर,
जाता हूँ मालिक अब तुम्हारी रहनुमाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
स्याह रातों में गमजदा नाचती वो औरतें,
कौडियों के मोल बिकती हुई सैकड़ों गैरतें,
और हैवानों के हाथों बिखरती सी जीनतें,
वो गलियां जहाँ दिए घुँघरू सुनाई, देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
भूख से गिरते हुए और प्यास से मरते हुए,
कंकाल से वो जिस्म दम आखिरी भरते हुए,
डरते हुए जान से और मौत को तरसते हुए,
उन जिस्मों से होती हुई जां की विदाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
उन लक्ष्मीपुत्रों के घर रहती हैं सदा दीवालियाँ,
और साकी के लिए हैं मोतियों की थालियाँ,
पर हम गरीबों के लिए हर रोज़ मिलती गालियाँ,
उन श्वेत चेहरों पर पुती काली सियाही देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
उजले लिबासों वाले वो सेठ और वो शाहजी,
कोठों में छुप गए जब रात की नौबत बजी,
और फिर नाचीं हैं कुछ लाशें गहनों में सजी,
उन पर्दानशीं चेहरों की मैंने बेहयाई देखली।
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
इन महल वालों पे मैं पत्थर उठा सकता नही,
तेरी तरह खून की नदियाँ बहा सकता नही,
और मजहब के लिए खंज़र चला सकता नही,
बात ज़ब दम की चली अपनी कलाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
सुन नही सकता हूँ में पंडित की झूठी आरती,
और वो अज़ाने मुल्ला तुझको ही है पुकारती,
या के ईसा के जनों की प्रार्थना दिल हारती,
मैंने अब तक तुझको सुन, दे दे दुहाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
दिखता है जिसमे अक्स-ऐ-रब मैं वो शीशा तोड़ दूँ,
या के दीवारों से सर टकरा के अपना फोड़ दूँ,
दिल चाहता है आज मैं ख़ुद को तड़पता छोड़ दूँ,
उम्र भर कर के मुकद्दर से लडाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
मैं चाहता हूँ आज जहन्नुम और जन्नत फूँक दू,
इक बार मेरा दिल अगर दे दे इजाज़त फूँक दूँ,
मुझ पर तेरी जितनी है सारी इनायत फूँक दूँ,
आग इस दुनिया में है किसने लगाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
मेरा ख्वाब था कि मैं कभी दिन के उजाले देखता,
सूरज की किरणों कि चादर सर पे डाले देखता,
बैठता मैं छाँव में फिर पांवों के छाले देखता,
बेकस ने तो सिर्फ अपनी शिकस्तापाई देख ली
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।
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