बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

देशभक्तों ज़रा इधर भी देखो!





चाँद की फ़िज़ा में खुशबू
किसी एक मुसलमान के आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने पर पानी पीपी कर सारे मुसलामानों को आतंकवादी बताने वाले देशभक्तों क्या आपने कभी ऐसे लोगों पर भी नज़र-ऐ-इनायत की है।
पाठको, सम्भव है किसी भी खबरिया ने अमरोहा की खुशबू मिर्ज़ा पर कोई फीचर नहीं दिखाया होगा.हाँ मैं उस लड़की का ज़िक्र कर रहा हूँ जो चंद्रयान-१ के मिशन में शामिल बारह लोगों में एक है.खुशबू गत सालभर से इस टीम में है.उसका काम चंद्रयान की उड़ान भरने से पहले भी था और उसका काम चंद्रयान उपग्रह में लगने वाले विभिन्न पेलोड की सम्पूर्ण कार्यप्रणाली की टेस्टिंग और मानिटरिंग है.इस समय वो हरिकोटा में ही है।
महज़ २३ साल की ये लड़की कमाल अमरोही के शहर के मोहल्ला चाहगौरी के स्व.सिकंदर मिर्जा की बेटी है.उसने अलीगढ मुस्लिम विश्व विद्यालय (जामिया मिल्लिया की तरह इसे भी आतंकवादियों की शरणस्थली बताया जाता रहा है!) से बीटेक इलेक्ट्रानिक्स की पढ़ाई की.९६ फीसदी अंक पाकर उसने गोल्ड मैडल हासिल किया.उसका चयन टीसीएम अकेंटरी और अडोब जैसी कंपनियों में भी हो गया था लेकिन उसने वहाँ जाने से इनकार कर दिया।
मुझको जाना है अभी ऊंचा हद-ऐ-परवाज़ से
नवम्बर २०६ में उसका चयन इसरो में बतौर वैज्ञानिक हो गया.और उसकी अम्मी फ़रहत मिर्ज़ा खुश हो हुईं।
वो अपनी कामयाबी का श्रेय अपनी अम्मी को ही देती है.साथ ही भाई और छोटी बहन की हौसला अफज़ाई को.
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शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

अब पत्रकार निशाने पर


अभी हम सब लगातार हुए बम-विस्फोटों की तबाहियों और मासूमों की असामयिक मौत से पूरी तरह उबर भी नहीं पाये थे कि कंधमाल और कर्णाटक में दहशतगर्दों(जिन्हें पुलिस और मीडिया उग्र भीड़ कहती हैजबकि अरविन्द शेष जैसा प्रबुद्ध तबका कुछ और )के तांडव से रूबरू हुए.कंधमाल में अब तक ५० आदिवासी-दलित ईसायिओं को धर्म-परिवर्तन करने का सबक सिखाया गया है.अर्थात वो सारे चमकते त्रिशूल-तलवार का शिकार हो चुके हैं.कईयों को ज़िंदा जलाए जाने तक की ख़बर है।
इक नन के साथ कई लोगों ने बलात्कार किया फिर उसे नंगा घुमाया गया।
असम में छोटी-सी बात को लेकर बोडो के लोग मुसलमानों पर टूट पड़े.जिन्हें ये बँगला देशी कहते हैं।
सरकारी आंकडे के अनुसार दो दिन में ३६ लोग मारे गए।
वहाँ से लौटे स्वयं-सेवी संगठनं के लोगों ने बताया कि मामूली-सी बात इक बहाना थी.ख़ास मानसिकता के लोग और उनका संगठन बहुत दिनों से बोडो संगठन को बरगला रहा था।
अब मालेगाँव, धोलिया, थाने जैसे महाराष्ट्र के कस्बे दंगे की चपेट में हैं।
कई दुकाने और जानें जा चुकी हैं।
गाज अब भी लटक रही है.लेकिन प्रशाशन कभी लिखी गई हमारी ही दो पंक्ति का ब्यान है:
तालाबों से लाश मिली है
शहर लेकिन अमन में है
लेकिन सबसे खतरनाक है पत्रकारों को सताया जाना ।
मध्य प्रदेश पुलिस प्रताड़ना नसीब हुई युवा-पत्रकार नदीम अहमद को.लेकिन थाने के बुजुर्ग-पत्रकार (उम्र:७० साल) सलमान माह्मी का कुसूर क्या है कि वहाँ की पुलिस उन्हें गिरफ्तार करना चाहती है धरा ३०० के तिहत.उनपर मिटटी का तेल छिड़क कर फसादी जला रहे थे.उनके घर पर हमला हुआ था.और उनका कुसूर यही था कि उन्हों ने पुलिस में मामला दर्ज करवा दिया था।
हिन्दुस्तान टाईम्स के पत्रकार आफताब खान ने अपने अखबार के ७ अक्टूबर के अंक में अपनी रुदाद दर्ज की है ।
वो धुले रिपोर्टिंग के लिए पहुंचे हैं.कर्फियु लगा है.वो कलेक्टर के दफ्तर से महज़ आधा किलो मीटर स्थित खड़े हैं.अब उनकी जुबानी :
और मौत छूकर गुज़र गई
मैं हालत का जायज़ा ले रहा था। रिपोर्ट लिख रहा था.और साथ ही तस्वीरें भी खींच रहा था, जोकि एक संवाददाता
का मामूल होता है। वहाँ पर दूसरे संवाद दाता भी मौजूद थे, इसलिए घबराने और परेशान होने की कोई बात नहीं थी। लेकिन अचानक एक आदमी ने मुझ से सवाल किया, क्या तुम पत्रकार हो? मैं ने कहा, हाँ तो उसका अगला सवाल था कि मेरे ख्याल में इस फसाद में किस सम्प्रदाय के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हुए होंगे। हिंदू या मुसलमान? ये एक गैर-डिप्लोमैटिक सवाल था.मैं जानता था कि मुसलमान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए होंगे । लेकिन मैं ने ख़ुद को तटस्थ रखना ही उचित समझा। शायद इस लिए कि अपनी रिपोर्ट में ज्यादा से ज्यादा सचाई लिख सकूं।
जब उन्हों ने जवाब जान ने की जिद की, तो मैं ने गैर-जानिबदारी का सबूत देते हुए कहा, मेरे ख्याल से दोनों सम्प्रदाय के लोगों का बराबर नुकसान हुआ होगा। सामान्यत: इस प्रकार के दंगे में ऐसा ही होता है। है कि नहीं?
यह एक ऐसा जवाब था जो वहाँ पर मौजूद किसी भी व्यक्ति को पसंद नहीं आया। मेरा जवाब सुनते ही वहाँ की फ़िज़ा में अचानक तनाव सा पैदा हो गया। हथित्यारों से लैस वहाँ पर मौजूद एक समूह मेरे पास आने लगा। यह लोग मेरी शर्ट में पिन से लगे कर्फियु -पास में मेरा नाम पढने की कोशिश करने लगे.और जैसे ही उन्हों ने मेरा नाम आफताब खान पढ़ा अपने-अपने हथियारों को हवा में लहराने लगे।
इन में से एक व्यक्ति ने आधे-अधूरे शब्दों में कहा, तुम चाहे जो कर लो ......चारों तरफ़ से मेरे साथ धक्का-मुक्की की जाने लगी। मुझे ऐसा लगा कि मेरी ज़िन्दगी का आखिरी दिन आ पहुँचा है। पहले तो यह ख्याल किया कि यह लोग मुझे मार-पीट कर छोड़ देंगे। लेकिन जब इनके हाथों में चाकू देखा तो यकीन हो गया कि यह लोग मेरी हत्या कर देंगे।
लेकिन ठीक इसी समय वहाँ पुलिस वाले आ गए । उन्हों ने हमलावरों को रोका । पुलिस वालों की उनसे कहा-सुनी चल ही रही थी कि मोटर सयकिल पर सवार एक स्थानीय पत्रकार सुनील बहलकर तेज़ गाड़ी चलाता हुआ भीड़ के बीच पहुँचा , उसने पुलिस वालों और दंगाईयों से कहा कि वोह मुझे पहले से जानता है। और मुझे मोटर साइकिल पर बिठाकर वहाँ से निकल गया।
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शनिवार, 13 सितंबर 2008

अब फिर दिल्ली...हाय-हाय मुजाहिदीन!



तुम कुछ भी हो मुसलमान नहीं हो सकते!!!









घर पर टीवी नही रखता .ये मुझे दस सालों से हम आम लोगों को बेवकूफ समझता है, साथ ही साथ हमारी भावनाओं और विश्वास के साथ भी समय-समय पर खिलवाड़ करता रहता है.विशेष कर समाचार चैनल।

इन्हें सिर्फ़ रहस्य चाहिए, रोमांच और सेक्स इनकी टीआर पी बढ़ाता है.खैर ये अलग बहस का मुद्दा है.बात टी वी की कर रहा था.शाम मेल चेक करने बैठा तो अम्रीका में फिलहाल, ब्लोगर-मित्र बहन प्रज्ञा की खिड़की खुली.और जब पता चला कि राजधानी में सिलसिलेवार बम धमाका करने में देशद्रोही फिर सफल हो गए हैं. और अब तमाम खबरिया चैनल पिल पड़े हैं अपनी -अपनी दूकान के साथ....

उन्हें पता चल चुका है , इसके मास्टर माईंड का आयी बी एन सेवेन पर प्रबल प्रताप सिंह ने आक्रामक और विश्वास के साथ कहा कि सुभान उर्फ़ तौकीर इसका मास्टर माईंड है।

मुझे लगता है कि सरकार को इन चमकीले समाचार प्रस्तोताओं से खुफिया का काम ज़रूर लेना चाहिए।


खैर मास्टर माईंड सुभान हो या तौकीर न उसको देशवासी बख्स सकते हैं और न ही उनका अल्लाह और रसूल।

चाहे वो सीमी के हों या इंडियन मुजाहदीन के।

पैगम्बर मोहम्मद ने जिहाद में भी औरतों, बूढों,मासूम बच्चों की हिफाज़त की बात कही है।

उन्होंने ऐसे मुसलमान की आलोचना की है जो बेक़सूर ही गैर-मुस्लिमों पर ज़ुल्म ढाए और आपने अल्लाह की अदालत में उन बेक़सूर गैर-मुस्लिमों की वकालत करने का वादा किया है।


ऐ इस्लाम के नाम पर लड़ने वालों और बेगुनाहों कि जान लेनेवालों कान खोलकर सुन लो।


अल्लाह कहता है:


धर्म के विषय में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है -२:२५६


और ऐ ईमान वालों ये लोग जो अल्लाह के सिवा जिनको पुकारते हैं उन्हें गालियाँ न दो -६:१०८


अल्लाह अपने नबी से संबोधित है : और हे नबी, भलाई और बुराई समान नहीं है.तुम बुराई को उस नेकी से टालो, जो उत्तम हो.तुम देखोगे कि जिसका वैर था वोह आत्मीय मित्र बन गया है.-४१:३४




ईमान और मोमिन शब्द जिस मूल धातु से बने हैं अर्थार्त अ-म-न उसका उच्चारण अमन ही है. इस प्रकार इश्वर पर पूरा विश्वास, जो ज़ुल्म से मुक्त हो, शान्ति का कारण और गारंटी है.शान्ति और वास्तविक सम्मान की रक्षा ईमान वाले का फ़र्ज़ है.
ऐ मुजाह्दीनों तुम कुछ भी हो सकते हो मुसलमाँ तो हरगिज़-हरगिज़ नहीं हो सकते.
इस लरजते रूह और दिल से निकली दुआ है, जिस ने भी ये खूंरेजी की है वो जहन्नुम की आग में इस से भी बुरी तरह जले.
क्योंकि :
ये सोच-सोच कर परीशाँ है क़मर यारो
कटेगा कौन सा सब अपना सर लगे है मुझे
चित्र:बी बी सी से
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बुधवार, 10 सितंबर 2008

आर एस एस बनाम भाजपा की राष्ट्रीयता


खुली बहस की मांग करते सवाल
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लेखक का परिचय : पेशे से पत्रकार।करीब 6 साल तक दैनिक जागरण(पटना) में बतौर संवाददाता रह चुके युवा पत्रकार राकेश पाठक का जन्म मगध अंचल , बिहार के रानीगंज हल्क़े में 01 मार्च 1977 को हुआ। आपने नक्सल प्रभावित क्षेत्रो पर विशेष रिपोर्टिंग और कुछ पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता भी की । कुछ कविताओं का यत्र-त्रत प्रकाशन ...फिलवक्त एक निजी कंपनी में अजमेर में ऑफिसर(प्रशासन) के पद पर कार्यरत.............


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राकेश पाठक की क़लम से






नब्बे के पूर्वाध में भारतीय राजनीती में धुव्रतारा की तरह चमकी 'भाजपा' क्या सांप्रदायिक पार्टी है ?
क्या यह भारतीय संस्कृति के पुरातन तानेवाने को छिन्न -भिन्न कर रही है ?
कट्टर हिन्दुत्त्व से जुड़े इसके विचार क्या देश में हिंदू और मुसलमानों के बीच वैमनस्य की खाई बढ़ाने का काम कर रहे हैं ?
'विविधताओं में एकता ' का भारतीय नारा क्या भाजपा व इसके तथाकथित संघ संगठनों के कट्टरतावाद की भेट चढ़ चुका है ?
आज कितना यथार्थपरक है भाजपा व संघ का राष्ट्रवाद ?
ऐसे अनगिनत सवाल हैं जो प्रबुद्ध तबके के ज़हन में आकर उन्हें व्यथित और उद्वेलित करते रहते हैं.
कुछ ऐसे ही विचार जो बर्तमान में मुस्लिम अल्पसंख्यको में घुमड़कर उनमे अलगावाद की भावना पैदा कर रहे है ? मुसलमानों के बीच क्यों सीमी या लश्करतैय्यबा जैसे संगठनों को कुछ जगह मिल जा रही है? आखिर क्या सोचता है ? मुस्लिम समाज इन मुद्दों पर।
क्यों शकील शम्सी जैसा पत्रकार-कवि कहने को मजबूर होता है :
नफरतों की आग भड़काई है जिसने मुल्क में
कोई कैसे मान ले वो मुल्क का हमदर्द है
खून बहाता है उडीसा से जो आज़मगढ़ तक
ऐ वतनवालो वही टोला तो दहशतगर्द है
क्यों पकडे गए आंतंकवादियों में सिर्फ मुस्लिम का ही नाम नज़र आता है? और अभी के कानपुर, इससे पहले नागपुर, नांदेड में हिन्दू संगठनों जे जुड़े लोगों से मिली विष्फोटक सामग्री पर सीमी-सीमी रटने वाला मीडिया चुप रह जाता है?
गुजरात को लोग भूल नहीं सकते और अभी उडीसा में हुई हिंसा में किस संगठन का हाथ है? क्या कभी मुस्लिम लोग हथियार सीखने के लिए गाँव, कस्बों या शहर के मैदान में रोज़ सुबह-सुबह इकठ्ठे होते हैं?आर एस एस खुले आम शाखा लगता है और ये देशभक्ति की श्रेणी में क्यों?।
आइये गौर करे संघ, इसके गठन व स्वतंत्रता आन्दोलन में इनके संघटक नेताओं की भूमिका पर ? आख़िर इसे संयोग कहे या कारण --आज़ादी के बाद सर्वाधिक दंगे भाजपा के भारतीय राजनीति पर उभरने के बाद ही हुए है . बम बिस्फोट एवं दंगे के पीछे का कारण धार्मिक वैमनस्यता का बढ़ना तो नही है ? क्या बाबरी मस्जिद का तोडा जाना हिंदू -मुस्लिम भाईचारे का अंत नही था ? धार्मिक भावनाओ को आंदोलित करके दंगा जैसे हिंसक कामों को अंजाम देने जाने वाली पार्टी भाजपा को सचमुच में राष्ट्रभक्त पार्टी कहा जा सकता है ? क्या राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ व इनके नेताओ का भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में अमूल्य योगदान रहा है ? स्वतंत्रता आन्दोलन में आर.एस.एस की भूमिका पर अक्सर उँगली उठती रही है .और इनके नेताओ की गतिविधियाँ भी अंग्रेजो के समर्थको की रही है तब क्या हम इन्हे आज़ादी में जान न्योछाबर करने वाले राष्ट्रभक्त कह सकते है ? माना जाता है कि आर.एस .एस की स्थापना हिंदू -मुस्लिम को बाटने के उदेश्य से अंग्रेज वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा करवाई गई थी .क्योकि गठन के एक वर्ष के अन्दर ही वर्ष 1926 में नागपुर में दो सम्प्रदायों के बीच दंगे हुए थे ."हिंदू धर्म ही राष्ट्र धर्म है " जैसा नारा ही तात्कालिक दंगों का कारण बना था. आज हिंदुत्व को फुटबाल की तरह उछालती भाजपा व आर .आर. एस. से मुस्लिम ही नही हिन्दुओं का बुद्धिजीवी वर्ग कई सवाल पूछ रहा है --
१.भारतीय आज़ादी के लिए किए गए किस आन्दोलन में आर.आर. एस. ने सक्रिय भूमिका निभाई है ?
२ साइमन कमीशन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, भारत छोडो आन्दोलन,शाही नौसेना का विद्रोह,आजाद हिंद सेना के खिलाफ चलाये जाने वाले मुकदमों पर नागरिक प्रदर्शन ,धरना आदि संघर्ष में जब पूरा भारत अंग्रेजो का विद्रोह कर रहा था तब आर.आर.एस. के नेता कहाँ थे ?
३ शहीद भगत सिंह , एवं काकोरी षडयन्त्र के आरोपियो की फाँसी पर जब पुरे भारत में विद्रोह किए जा रहे थे तो संघ व इसके नेता मौन क्यो थे ?
जब आर. आर. एस. का गठन हुआ उस समय देश में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ नागरिक आन्दोलन की शुरुआत हो चुकी थी.गरम -नरम दल में विभाजीत संघटन व कांग्रेस के साथ आन्दोलनों में सभी वर्गों ने बढ़- चढ़कर हिस्सा लिया ,परन्तु संघ इन आंदोलनों से दूर रहा. कांग्रेस नेताओं ने हजारों की तादाद में गिरफतारिया दी पर संघ इन आंदोलनों से अपने को दूर रखा तथा अंग्रेजो के समर्थक बने रहे ।
दलितों के साथ छुआ- छूत जैसे आंय कुरीतियों के खिलाफ ,पेरियार ,आम्बेडकर जैसे नेताओं ने विरोध प्रदर्शन किया पर संघ मौन रहा ।
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है की संघ ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कभी आवाज उठाई हो .अगर आवाज बुलन्द की भी तो हिन्दुओं को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने में ,द्वेष पैदा करने में ,घृणा और शत्रुता फैलाने में जिसमे प्रतक्ष्य भूमिका अंग्रेजो की भी रही. आख़िर क्या कारण था की एक तरफ अंग्रेज किसी भी पत्रिका प्रकाशन ,आन्दोलन, सभा ,सोसायटी सभी को प्रतिबंधित कर दिया तथा इनसे जुड़े लोगो को जेल के सीखचों के पीछे कर दिया वही दूसरी ओर संघ को युवको को संगठित करने एवं सैनिक प्रशिक्षण देने की अनुमति दे दी. ये शाखा लगा सकते थे ,मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ भाषण दे सकते थे इसी से प्रतीत होता है की संघ अंग्रेजो के पिट्ठू बन आन्दोलनकारियों के लिए जयचंद का काम कर रहे थे . हिंदू महासभा ने जब सनातन हिंदू युवको के लिए सैनिक अकादमी स्थापित की तो इसे प्रतिबंधित करना तो दूर इन्हे भरपूर आर्थिक व अन्य मदद अंग्रेजी हुकूमत ने की .......आख़िर क्यों
यह कह सकते है की भारत -पाकिस्तान और हिंदू -मुस्लमान बटवारे की नीव संघ परिवार द्वारा ही रखी गई जिसका खामियाजा आजतक कश्मीर समस्या के रूप में भुगतना पड़ रहा है ...आज संघ व इसकी समर्थक पार्टी भाजपा जिस राष्ट्रिय एकता की बात करते है उस एकता के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने में इनकी ही महती भूमिका रही है .....
इतिहास में संघ को घृणा ,द्वेष, वैमनस्य, जातीय भेदभाव , धार्मिक असंतुलन छुआ -छूत और मतभेद के लिए याद किया जाना चाहिए न की राष्ट्रिय एकता के संघटक के रूप में ॥
भोथरी दलीले देने वाले संघ के लोगों जवाब दो ???
आपकी संदिग्ध कारगुजारियों का आज जनता आप से जवाब मांग रही है ...............
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इस सिलसिले में आप समाजवादी चिन्तक अफ़लातून" href="http://samatavadi.wordpress.com/author/afloo/">अफ़लातून का आलेख एक हिटलर-प्रेमी ‘गुरुजी’ भी पढ़ सकते हैं .-सं
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गुरुवार, 4 सितंबर 2008

पानी में डूबा बिहार

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अल्प समय में ही साहित्यिक गलियारों में अपना मक़ाम बना चुकी पत्रिका बया के संपादक और कथाकार-मित्र गौरीनाथ अभी -अभी बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों से लौटे हैं.उनकी रुदाद सिर्फ़ मार्मिक ही नहीं बल्कि सियासतदानों की कलई खोल देती है.वो आक्रोश में कहते हैं कि ये बाढ़ आई नहीं लायी गई है.और जिन्हों ने लाया अब वो करोड़ों लूट रहे हैं.उनका कहना है कि अगर समय रहते बाँध की मरम्मत कर ली जाती तो ऐसी नौबत हरगिज़ न आती।

रियाजुल हक़ युवा पत्रकार साथी हैं.फिलवक्त पटना में प्रभात ख़बर से संबंद्ध हैं. उन्होंने पत्रकारिता के लिए समर्पित
साथी आलोक प्रकाश पुतुल की वेब पत्रिका रविवार के लिए बहुत प्रभावी रपट पानी बढ़ रहा है कलमबंद किया है, इसका कुछ अंश हम साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
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सुपौल और मधेपुरा के बाढ़ग्रस्त इलाकों से लौटकर
रियाजुल हक़




70 साल के बूढे जोगेंदर ने सामान तो मचान पर चढा दिया है, लेकिन गेहूं-मकई नहीं चढा पाये। अकेले हैं. दोनों बेटे बहुओं-बच्चों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाने गये हैं. खैनी ठोंकते हुए वे हंसते हैं- उदास हंसी-“ यही तेजी रही तो कल तक सडक पार कर जायेगा पानी.” 65-70 साल की जिदंगी में पहली बार देखा है अपने घर में पानी भरते हुए. घर गया. अनाज गया. उनके खेत उन्हें खाने लायक अनाज दे देते हैं- गेहूं, धान, मकई. इस बार सब खत्म. खेत में खडी धान की फसल को बाढ लील गयी, घर में रखा अनाज पानी में डूब गया.... लोग जुट आये हैं. वे सुनाते हैं- “ सौ साल पहले यहां कोसी बहती थी. अब लगता है, वह फिर लौट आयी है.” बेचन यादव, कारी, तेजनारायण, रामदेव, संजय व शैलेंद्र ... दर्जनों लोग, सबके पास कई-कई कहानियां. किसी के आंगन में पोरसा भर पानी है, तो किसी के घर में सांप घुस आया है. अभी लेकिन सब शांत हैं-चिंता की एक रेख तक नहीं है. कहते हैं- अभी सड़क तो है ही सोने के लिए. ज्यादा डूबने लगेगा तो प्लान करेंगे निकलने का....लेकिन बूढे जोगेंदर को यह भी चिंता नहीं. वे अपनी खैनी होठों के नीचे दाब चुके हैं-“ हम अकेले आदमी, मर जायेंगे तो क्या होगा ? सांप भी कांट लेगा, तो क्या होगा ?”
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ऐसा मंजर कभी नहीं...
मधेपुरा जिले के सिंहेश्र्वर मंदिर धर्मशाला से निकलती दलित औरतों के मुंह से कुछ अस्फुट से बोल फूटते हैं-सगरे समैया हे कोसी माई, सावन-भादो दहेला... पूजा गीत। औरतों के चेहरों पर उदासी मिश्रित भय है... हर मंगल को दीप जलाने-संझा दिखाने के बाद भी नहीं मानीं कोसी माई. ...परसा, हरिराहा, कवियाही, रामपुर लाही... शंकरपुर व कुमारखंड प्रखंडों के दर्जनों जलमग्न गांवों से उजडे हजारों लोग पिछले चार दिनों से धर्मशाला में डेरा डाले हुए हैं. यहां रहने के लिए पक्के कमरे हैं. मूढी, चूडा, चीनी, खिचडी व बिस्कुट सबका इंतजाम है. बच्चे चूडा-गुड़ पाकर खुश हैं...बेवजह शोर मचा रहे हैं. बूढे-बुजुर्ग माथे पर जोर देकर याद करने की कोशिश करते हैं कोई पुरानी बात... बाप-दादों की स्मृतियों को भी खंगाल रहे हैं- “ उंहू. ऐसी बाढ मेरे देखे में तो कभी नहीं आयी. बाप-दादे भी कुछ नहीं बता गये. 30 साल पहले पानी भरा था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि पाट की पूरी फसल डूब जाये फुनगी तक.”
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नई खबर, नया दुख...

कटैया बाजार पर पंडा नगर से भैंसे हांक कर ला रहे किसानों ने बताया- वीरपुर बाजार में कमर भर पानी है। भीमनगर बाजार में सरकारी राहत शिविर के सामने आधे घंटे से रोटियों के लिए खडे विकास कुमार राम ने आग्रह करते हुए लिखाया-“ वीरपुर के कुमार चौक में 50 आदमी फंसे हुए हैं.” विकास आज ही वीरपुर से निकला है किसी तरह. कोसी ने लगभग पूरी तरह लील लिया है वीरपुर को. क्या बचा है वहां अब. जो दशा है वहां की ... एक-एक कर नयी सूचनाएं मिल रही हैं वीरपुर से-मानो एक अंधकार से परदा उठ रहा हो. वीरपुर से कुसहा की दूरी महज छह किलोमीटर है और सोमवार को बांध टूटने के बाद भारत में पहला बडा आघात वीरपुर को झेलना पडा. सुपौल जिले के इस इलाके में लोगों के बीच लगातार अफवाहों का बाज़ार गर्म था. सोमवार की सुबह से ही वीरपुर बाजार में अफवाहें थीं कि बांध को खतरा है, लेकिन अधिकारिक तौर पर कोई सूचना नहीं थी. इससे लोगों ने निकलने की तैयारी भी नहीं की. बूढ-पुरनियों ने इन अफवाहों को चुटकी में उडा दिया-पानी तो आता ही रहता है. इस बार भी आया है, तो पहले की तरह ही निकल जायेगा. ...खतरे की गंभीरता का अंदेशा किसी को नहीं था.लेकिन शाम साढे छह बजे पानी शहर में घुसा और घंटे भर में पूरा शहर तीन से चार फुट पानी से भर गया. किसी को निकलने का मौका नहीं मिला. पूरा हफ्ता निकल जाने पर भी वीरपुर में आधा से अधिक लोग फंसे हुए हैं. राहत अब कुछ जाने भी लगी है, तो वह सिर्फ वीरपुर तक सीमित है. आसपास के गांव अब भी अछूते हैं. भीमनगर में मिले परमानंदपुर के एक निवासी ने बताया कि उधर अब तक कोई पहुंचा ही नहीं. रानीपट्टी से आ रहे रंजीत पासवान ने सूचना दी-सारे आदमी फंसे हुए हैं गांव में. बसमतिया रोड पर 30-40 फुट जगह बची है. उसी पर डेढ-दो हजार आदमी रह रहे हैं. खाने-पीने का कोई सामान नहीं. दो-तीन आदमी मर भी गये हैं. कटैया से वीरपुर आठ किलोमीटर है और भीमनगर से पांच. अब नावें वीरपुर तक पहुंचने लगी हैं, लेकिन वे बहुत महंगी हैं. एक नाव एक बार वीरपुर जाने के लिए पांच से छह हजार रुपये लेती है. उसमें भी पानी की धार देखते हुए इन छोटी नांवों से वहां जाना जोखिम भरा है. कटैया में एक चाय दुकान पर मिलते हैं, दिलीप कुमार गुप्ता. उनके पास वीरपुर से आज सुबह तक की सूचनाएं हैं-अब भी हरेक कॉलोनी में सात फुट पानी है. वीरपुर कोसी पुल के हॉस्टल की छत पर तीन सौ आदमी हैं. फतेहपुर स्कूल पर 50-60 आदमी हैं. कहीं कोई मदद नहीं मिल पायी है.वे सुनाते हैं-पूरा गांव भंस गया है फतेपुर का. वीरपुर बाजार में अरबों की संपत्ति का नुकसान है. क्वार्टरों में चोरियां बढ गयी हैं. जो नाववाला दिन में वीरपुर से कटैया पहुंचाता है, वही रात में जा कर खाली घरों पर हाथ साफ करता है. तीन महला मकान गिर रहे हैं. दिलीप कटैया में वीरपुरवालों को सूचना देते हैं चिल्ला कर : चानो मिस्त्री, रमेश कुमार, अख्तर बैंड, दुक्खी बैंड, मनोज पाठक के मकान टूट गये हैं.कुछ दूसरी सूचनाएं भी मिली हैं- वीरपुर जेल में 87 कैदी थे. असुरक्षित. चार दिनों से उनका खाना बंद था. जेल के कर्मचारी भाग चुके थे. अंत में कैदियों ने धोतियां-चादरें जोडीं और भाग गये. उनमें से कितने बचे-कितने डूब गये, अभी कौन बता सकता है? सिविल कोर्ट, अनुमंडल ऑफिस के हजारों रेकॉर्ड पानी में खत्म. धान और पाट की खेती डूब गयी. बीसियों हजार लोग बरबाद हो गये.
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जीना भूल गए

भीमनगर से कटैया आनेवाली सड़क राहगीरों से भरी है. उजडे-बरबाद हुए परिवार छोटे ठेलों पर, कंधे पर सामान लिये जानवर हांकते आ रहे हैं. थके-हारे चेहरे-उदास आंखें. लोग हंसना भूल गये हैं. गलती से कोई बाहरी आदमी हंस दे, तो लोग चौंक उठते हैं. जानवर तक डकरना भूल गये हैं. बूढी, कमर झुकी औरतें भी, बच्चे भी गठरियां उठाये तेजी से चल रहे हैं. कहां पहुंचना है, पता नहीं. कोसी ने उन्हें कहीं का नहीं छोडा.सडक के किनारे बाढ का पानी तेजी से थांप मारता है. कभी-कभी कोई गाड़ी भीड के बीच से गुजर जाती है सीटी बजाती हुई... एक औरत रास्ते की दूसरी ओर अपने किसी परिचित से कह रही है-वीरपुर तो अब सपना हो गया.
... कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता।
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........ राज्य के आपदा प्रबंधन मंत्री नीतीश मिश्रा बलुआ के निवासी हैं। बलुआ से आये लोग बताते हैं कि वहां न कोई नाव है, न राहत। बलुआ हाइ स्कूल पर 200 लोगों ने शरण ली थी. शुक्रवार 22 अगस्त को छत गिर गयी. उनमें से कम ही होंगे, जो बच पाये होंगे.लेकिन जो जीवित हैं, वे भी हताश हो रहे हैं. एक टेंट में सूखा चूड़ा फांक रहे उपेंद्र प्रसाद कहते हैं-“ और दो चार दिन कुछ नहीं मिला तो लोग भूखे मर जायेंगे. अभी तो जिंदा देख रहे हैं न, चार दिन बाद लाश देखियेगा लोगों की.”
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गुरुवार, 14 अगस्त 2008

पोंडिचेरी के भवानी सिंह चारण की नज़्म


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जिस भाव-भंगिमा और तेवर के साथ यह युवा कवि-शायर शायरी कर रहा है.इस उम्र की दीवानगी उसे ज़रूर मंज़िल-मुक़ाम तक ले जायेगी.कुछ उस्ताद बहार-मात्रा की मीनमेख निकाल सकते हैं.लेकिन शुरूआती वक्त है, सो इसे नज़र अंदाज़ किया जाना चाहिए। आज़ादी के उत्सव के वक्त इस शायर की बेचैनी, उसका आक्रोश, सामाजिक विसंगतियां उसे कहाँ ले जाती है.उसी की तस्वीर इस नज़्म में देखी जा सकती है। कविता यूँ लम्बी है, ज़रा आपको धैर्य रखना होगा, वरना आप अच्छी शायरी से वंचित हो जायेंगे.


उन्होंने हमज़बान के लिए रचना दी , हम शुक्र-गुज़ार हैं.
अपने बारे में उनका कहना है:
नाम भवानी सिंह चारण और तखल्लुस 'बेकस' , परिचय तो बस इतना ही है मेरा, राजस्थान के बाड़मेर जिले के एक छोटे से गाँव में पला बढ़ा जहाँ टेलीफोन आए अभी पूरा १ साल हुआ नही है। परिवार में काव्यात्मक माहौल मिलने के कारण लिखने की प्रेरणा मिली, अभी पांडिचेरी में सुजलोन एनर्जी लिमिटेड में नौकरी करता हूँ। लिखना अभी १-२ महीने पहिले ही प्रारम्भ किया है।
'यह शहरोज़ भाई की मेहरबानी है की मुझे आप लोगों के सामने आने के लिए अवसर दिया, उन्हें आप सब जानते होंगे फिर भी उनका परिचय में इन शब्दों में देता हूँ...
'मत पूछिए कि क्या क्या हैं शहरोज़ के हुनर,
वो जानता है ज़र्रे को सितारा बना देना....'
-सं.

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इस शहर में कलियों से लहू टपकता देखकर,
डर गया मैं अमन को घुट घुट के मरता देखकर,
और जिंदा लाशों के ख़्वाबों को जलता देख कर,
जाता हूँ मालिक अब तुम्हारी रहनुमाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

स्याह रातों में गमजदा नाचती वो औरतें,
कौडियों के मोल बिकती हुई सैकड़ों गैरतें,
और हैवानों के हाथों बिखरती सी जीनतें,
वो गलियां जहाँ दिए घुँघरू सुनाई, देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

भूख से गिरते हुए और प्यास से मरते हुए,
कंकाल से वो जिस्म दम आखिरी भरते हुए,
डरते हुए जान से और मौत को तरसते हुए,
उन जिस्मों से होती हुई जां की विदाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

उन लक्ष्मीपुत्रों के घर रहती हैं सदा दीवालियाँ,
और साकी के लिए हैं मोतियों की थालियाँ,
पर हम गरीबों के लिए हर रोज़ मिलती गालियाँ,
उन श्वेत चेहरों पर पुती काली सियाही देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

उजले लिबासों वाले वो सेठ और वो शाहजी,
कोठों में छुप गए जब रात की नौबत बजी,
और फिर नाचीं हैं कुछ लाशें गहनों में सजी,
उन पर्दानशीं चेहरों की मैंने बेहयाई देखली।
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

इन महल वालों पे मैं पत्थर उठा सकता नही,
तेरी तरह खून की नदियाँ बहा सकता नही,
और मजहब के लिए खंज़र चला सकता नही,
बात ज़ब दम की चली अपनी कलाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

सुन नही सकता हूँ में पंडित की झूठी आरती,
और वो अज़ाने मुल्ला तुझको ही है पुकारती,
या के ईसा के जनों की प्रार्थना दिल हारती,
मैंने अब तक तुझको सुन, दे दे दुहाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

दिखता है जिसमे अक्स-ऐ-रब मैं वो शीशा तोड़ दूँ,
या के दीवारों से सर टकरा के अपना फोड़ दूँ,
दिल चाहता है आज मैं ख़ुद को तड़पता छोड़ दूँ,
उम्र भर कर के मुकद्दर से लडाई देख ली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

मैं चाहता हूँ आज जहन्नुम और जन्नत फूँक दू,
इक बार मेरा दिल अगर दे दे इजाज़त फूँक दूँ,
मुझ पर तेरी जितनी है सारी इनायत फूँक दूँ,
आग इस दुनिया में है किसने लगाई देखली,
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

मेरा ख्वाब था कि मैं कभी दिन के उजाले देखता,
सूरज की किरणों कि चादर सर पे डाले देखता,
बैठता मैं छाँव में फिर पांवों के छाले देखता,
बेकस ने तो सिर्फ अपनी शिकस्तापाई देख ली
जा खुदाया आज तेरी भी खुदाई देख ली।

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शनिवार, 9 अगस्त 2008

झूठ का कमाल ! वाह! भाई वाह!

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युवा पत्रकार हैं आशीष कुमार 'अंशु' , जनाब में गज़ब का नज़रिया है.उनके ब्लॉग पर
ऐसी खबरें और संघर्ष से आपका साबका होगा , जहाँ धूप, धूप-सी और अन्धकार
बिल्कुल घुप!! उनके ब्लॉग से साभार इस ख़बर से आप भी परिचित हों सो मैं रशीद
भाई को यहाँ ले आया. -सं.
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वाह! भाई वाह!
भाई साहब का नाम है रशीद सद्दीकी। बांदा के बड़े पत्रकार हैं। इनकी कृपा से इन दिनों बांदा की कई सड़कें चमक उठी हैं। हुआ यूँ कि जनाब ने अपने विश्वस्त सूत्रों के हवाले से यह ख़बर छाप दी कि राहुल गाँधी हवाई रास्ते से नहीं सड़क के रास्ते से बांदा आयेंगे ।बस इस ख़बर के छपने भर की देर थी। रातों-रात सड़कें दुरुस्त कर दी गई। वैसे कौन सा राहुल को सड़क के रास्ते आना था।
जय हो रशीद साहब की।
रशीद भाई-जिंदाबाद!

मीडिया स्कैन से साभार

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रविवार, 3 अगस्त 2008

विकलांगता का अभिशाप झेलते आदिवासी






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अभी जल और जीने की अन्य अत्यन्त मूलभूत चीज़ें भी जिस मुल्क के लोगों को मयस्सर नहीं वहां करोड़ों की लागत से परमाणु बिजली का ओचित्य समझ से परे ही है।



और आप जानते हैं।


-इस हालिया करार से महज़ ५-७ फीसदी ही बिजली मुहय्या हो पायेगी ।

-अम्रीका की दो कंपनियों को दस साल के अन्दर चालीस खरब का कारोबारी लाभ मिलेगा।
-अपने देश में बने बिजली कारखाने से वहां के ५००० लोगों को स्थायी रोज़गार और १५००० को अस्थायी काम मिलेगा.


और हमें मिलेगा:


अब तक विश्व में हुए परमाणु परिक्षण से दुगुना विकिरण-कचरों का सोगात।सर्वों से ये सच भी आया है रेडिओधार्मिता से विकलांगता,कैंसर,नपुंसकता में इजाफा होता है।इसकी जिंदा मिसाल राजस्थान के परमाणु बिजली घर के आस-पास और झारखण्ड में जादुगोडा की आबादी है।


इसी सिलसिले की कड़ी और है जहाँ सरकार की उदासीनता की वजह्कर प्रदूषित-जल का उपयोग करने को विवश उत्तर-प्रदेश के सुल्तानपुर के टपरी गाँव और सोनभद्र जिले के दर्जन-भर गाँव विकलांगता का दंश झेल रहे हैं।


युवा पत्रकार अवेश तिवारी इलाहबाद के हैं। सम्प्रति इक अख़बार से सम्बद्ध.मूल्यों को व्यवहार और लेखन-पत्रकारिता में भी बरकरार रखने के आप हिमायती हैं.प्रतिबद्धता की खातिर इन्होने इक अख़बार की नोकरी तक त्यागने में संकोच नहीं किया.-सं.


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सोनभद्र से अवेश तिवारी की रपट

सोनभद्र सदमे मे है । अभाव,उपेक्षा और सरकारी अक्षमता की बानगी बन चुके इस जनपद में शासन एवं सत्ता की काली करतूत एक त्रासदी पर परदा डालकर समूची पीढ़ी को विकलांग,नपुंसक और नेस्तनाबूद करने जा रही है ।
यहाँ के चोपन ,दुधी व म्योरपुर ब्लाक के आधा दर्जन गाँव फ्लोराइड के चपेट में हैं. प्रदूषित जल के कारण हजारों आदिवासी स्त्री पुरूष व बच्चे स्थायी विकलांगता के शिकार हो रहे हैं ,माताओं की कोख सूनी पड़ी है । तमाम जिंदगियों में छाया अँधेरा अनवरत गहराता जा रहा है राज्य पोषित विकलांगता का हाल ये है कि जलनिधि समेत तमाम योजनाओं मे करोड़ों रुपए खर्च किए जाने के बावजूद यहाँ के आदिवासी गिरिजनों के हिस्से में एक बूँद भी स्वच्छ पानी नहीं । फ्लोराइड रूपी जहर न सिर्फ़ इनकी नसों मे घूल रहा है ,बल्कि निर्बल व निरीह आदिवासियों के सामाजिक -आर्थिक ढाँचे को भी छिन्न-भिन्न कर रहा है
सोनभद्र के आदिवासी बाहुल्य पूर्वी इलाकों मे फ्लोरोसिस का कहर अपाहिजों की बस्ती तैयार कर रहा है । यहाँ के पड़वा-कोद्वारी ,पिप्रह्वा ,कथौदी ,कुस्मुहा ,रास्पहरी,भात्वारी,राजो,नेमा ,राज मिलन ,बिछियारी समेत २ दर्जन गावों मे हिंडालको व एन।टी,पी।सी से निकलने वाले प्रदूषित जल का भयावह असर देखने को मिल रहा है। आलम ये है की लगभग १०० परिवारों के टोले पड़वा-कोद्वारी मे हर एक स्त्री -पुरूष व बच्चे को फ्लोराइड रूपी विष रोज बरोज मौत ओर धकेल रहा है । केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा विगत पाँच वर्षों में इस समूचे क्षेत्र मे फ्लोराइड मेनेजमेंट के नाम करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बावजूद न तो ओद्योगिक प्रदुषण पर लगाम लगाई जा सकी और न ही स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता को लेकर कोई कवायद की गई
इस वर्ष भी अप्रैल माह मे कहने को तो फ्लोराइड मुक्त जल की व्यवस्था के नाम पर ५० लाख रुपए खर्च किए जाने का प्रशासन दावा करता रहा ,परन्तु जमीनी हकीकत ये है कुछ भी नहीं बदला हाँ,ये जरुर है की इन इलाकों के सैकडों ,तालाबों व कुओं पर लाल रंग का निशान लगाकर लोगों को पानी न पीने देने की चेतावनी देने का थोथा ज़रूर किया गया,मगर जबरदस्त पेयजल संकट से जूझ रहे इस जनपद मे नौकरशाही से थकहार चुके आदिवासियों ने अन्य कोई समानांतर व्यवस्था के अभाव में प्रदूषित जल का सेवन जारी रखा स्थिति इस हद तक गंभीर है कि हर एक परिवार फ्लुओरोसिस की अन्तिम अवस्था से जूझ रहा है कोद्वारी के रामप्रताप का शरीर इस कदर अकडा कि वो चारपाई से कभी उठ नही पाते उनकी पत्नी व लड़का भी इस भयावह रोग की चपेट मे हैं।
कमोबेश यही हाल रामवृक्ष ,चन्द्रभान ,हरिकृष्ण समेत अन्य परिवारों का है बच्चों मे जहाँ फ्लोराइड की वजह से विषम अपंगता,व आंशिक रुग्नता देखने को मिल रहा है ,वहीं गांव के विवाहितों ने अपनी प्रजनन व कामशक्ति खो दी है गांव के रामनरेश,कैलाश आदि बताते हैं :
अब कोई भी अपने लड़के लड़कियों की शादी हमरे गांव मे नही करना चाहता ,देखियेगा एक दिन हमरे गांव टोलों का नामो,निशाँ मिट जाएगा
महिलाओं मे फ्लोराइड का विष कहर बरपा रहा है । इलाके मे गर्भस्थ शिशुओं के मौत के मामले सामने आ रहे हैं ,स्त्रियाँ मातृत्व सुख से वंचित हैं,वहीं घेंघा ,गर्भाशय के कंसर समेत अन्य रोगों का भी शिकार हो रहे हैं ,लगभग ८० फीसदी औरतों ने शरीर के सुन्न हो जाने की शिकायत की है ।
नई बस्ती की लीलावती,शांति,संतरा इत्यादी महिलाएं कहती हैं की हम बच्चे पैदा करने से डरते हैं हमें लगता हैं की वो भी कहीं इस रोग का शिकार न हो जाए ।
फ्लुओरोसिस ने आदिवासी-किसानों को पूरी तरह से तबाह कर डाला है अपंगता की वजह से स्त्री पुरूष काम पर नही जा पाते हजारों हेक्टेयर परती भूमि कौडी के भाव बेची जा रही है ,नक्सल प्रभावित इन गांव मे अब तक प्राथमिक चिकित्सा की भी सुविधा उपलब्ध नही है ,पीडितों के लिए स्वास्थ्य विभाग द्बारा एक टेबलेट भी मुहैया नही करायी गई पिपरहवा के रामधन कहते हैं की अब हमें कूच नहीं चाहिए हमने मरना सीख लिया है
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बुधवार, 23 जुलाई 2008

ख़तरे में इस्लाम नहीं

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आजकल कुछ ब्लॉग पर मुस्लिम रचनाकारों पर साम्प्रदायिक होने के आरोप -प्रत्यारोप ज़ोर-शोर से पढनेको मिले. दोस्तों-दुश्मनों के गलयारे में भी गाहे-बगाहे समय-समय पर ऐसे इल्जामों का सामना मुस्लिम लेखक-कवि अक्सर करते रहे हैं।

मुस्लिम लेखक-कवियों पर एक आरोप ये भी है कि वे उतने प्रगतिशील नहीं होते या यूँ कहें कि वे अपने मज़हब-समाज की आलोचना करने से परहेज़ करते हैं.यथार्थ जबकि इसके बिल्कुल विपरीत है.भारत में मुस्लिम लोगों की अच्छी संख्या रही है औरये प्रगतिशील और सेकुलर भी रहे हैं.प्रेमचंद और रविन्द्रनाथ ठाकुर के साथ सज्जाद ज़हीर का नाम प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में अव्वल रहा है.और ज़्यादा तफसील में मैं जाना मुनासिब नहीं समझता.पिछले दिनों फहमिदा रियाज़ की नज़्म आपने पढ़ी .मुस्लिम कवियों के इन क्रांतिकारी शेरों को क्या कोई नज़र अंदाज़ कर सकता है:

तलाक दे तो दिया है,गुरूरो-कहर के साथ
मेरा शबाब भी लोटा दो,मेरे मेहर के साथ
या
अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां
ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा

इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस दफा
उर्दू के विख्यात क्रांतिकारी शायर हबीब जालिब
की ये नज़्म पेश-खिदमत है ।

२२मर्च,१९२८ को म्यानी अफ्गना, होशयारपुर,पंजाब में पैदा हुआ ये ऐसा शायर हुआ जिसने तमाम जिंदगी दबे-कुचले लोगों के लिए समर्पित कर दी थी.जिसे कई बार सलांखों के पीछे डाला गया.तीन-तीन किताबें ज़प्त की गयीं.पासपोर्ट ज़ब्त किया गया .झूठे इल्जाम में फंसाया गया।
थोडी बहुत जो भी शिक्षा हासिल की वो दिल्ली में ही .१९४१ में शायरी की शुरुआत .४३-४४ में रोज़ी के लिए मजदूरी.विभाजन के बाद परिवार पाकिस्तान ।
एक बच्चा दवा के अभाव में मरा. एक बीमार बच्ची को छोड़कर जेल भी गये ।
१२-१३ मार्च की रात लाहौर के ज़ैद अस्पताल में निधन.--सं .
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ख़तरे में इस्लाम नहीं







खतरा है ज़र्दारों को
गिरती हुई दीवारों को
सदियों के बीमारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं


सारी ज़मीं को घेरे हुए हैं
आख़िर चंद घराने क्यों
नाम नबी का लेनेवाले
उल्फत से बेगाने क्यों




खतरा है खूंख्वारों को
रंग-बिरंगी कारों को
अमरीका के प्यारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं


आज हमारे नारों से लर्जां है बपा एवानों में
बिक न सकेगें हसरतो-अरमाँ ऊँची सजी दुकानों में



खतरा है बटमारों को
मगरिब के बाज़ारों को
चोरों को,मक्कारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं





अमन का परचम लेकर उट्ठो
हर इंसान से प्यार करो
अपना तो मन्शूर है जालिब
सारे जहाँ से प्यार करो




खतरा है दरबारों को
शाहों के गम्ख्वारों को
नव्वाबों,गद्दारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं





(शबाब=जवानी, ईदे-कुर्बां=कुर्बानी का दिन , सवाब=पुन्य ,ज़र्दारों=पूंजीपतियों,
नबी=पैगम्बर मोहम्मद,एवानों=संसद,मगरिब=पश्चिम,मन्शूर=घोषणा-पत्र
गम्ख्वारों=हमदर्दों)
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रविवार, 20 जुलाई 2008

प्रज्ञा राठौर की कहानी

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नए लिखने वाले कथाकारों में मुझे प्रज्ञा ने प्रभावित किया .ये वे लोग हैं जो कहानी के वर्तमान-परिदृश्य से लगभग अनजान हैं।लेकिन इनमें भरपूर संभावनाएं हैं.सोचने-विचारने और कहने का इनका एक अपना अंदाज़ है।

प्रज्ञा का आभार कि हमारे आग्रह का उन्होंने मान रखा और हमज़बान को कहानी उपलब्ध करायी

अपने बारे में वह कहती हैं:

मेरे बारे में कुछ ख़ास नहीं है बताने को. जन्म मध्य प्रदेश के शहर ग्वालियर में हुआ . घर में माँ-डैडी, १ बड़ी दीदी और १ छोटी बहन. माता-पिता शिक्षा विभाग में थे. मेरे डैडी का कहना है, लड़कियों को पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए और लड़कों को अपना पेट भरने लायक खाना बनाना आना चाहिए :) उन्होंने हम बहनों को भी अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाई. ग्वालियर की ही जीवाजी यूनिवर्सिटी से Electronics में M.Sc. किया. उसके बाद २००० से २००५ तक दिल्ली में ही एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी की. इसी बीच २००३ में शादी हुई. मेरे पति एक भारतीय Software MNC में कार्यरत हैं. २००५ में काम के सिलसिले में उन्हें जापान जाना था और हमारे घर नया मेहमान (मेरी बेटी अम्या ) भी आने वाली था. इसीलिए नौकरी छोड़ दी. २ साल जापान में रहने के बाद इसी फरवरी में USA के Iowa state के Cedar Rapids नामक छोटे से शहर में आए हैं।

पढने का शौक मुझे बचपन से ही था. माँ हिन्दी साहित्य की लेक्चरार थीं. उनके सानिध्य में अच्छी अच्छी किताबें पढने का मौका । उनकी कवितायें और कहानियाँ पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता था. मैंने लिखना अभी शुरू किया है ३-४ महीने पहले. हालाँकि बचपन में कुछ लिखा था पर वह सब बचपना ही था। अब वह डायरी पता नहीं कहाँ गयी?? या तो उन पन्नों में बच्चे अब मूंगफली खाते होंगें या फिर घुल घुल कर उसका कुछ और ही बन गया होगा :)


यह शहरोज़ भाई का बड्डपन ही है जो मुझे इस काबिल समझा और आप लोगों के सामने आने मौका दिया। आशा है आप मेरी गलतियों को नज़रंदाज़ करके मेरा हौसला बढायेंगे.

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मोहभंग



"बस!! बहुत हो गया॥ रोज़ की ही बात है। अब नहीं सहा जाता।"


पूर्णिमा ने निश्चय कर लिया।
" आर या पार। यह भी कोई जीवन है?? ना मन का खाना, न पहनना, न कहीं घुमने जाना। बस रात दिन खटते रहो ऑफिस या घर में। उस पर भी कोई क़द्र करने वाला नहीं। जब घर से चली जाऊंगी न, तब पता चलेगा सब को। अभी बैठे बैठे बहुत बातें बनाना आता है। कहते हैं न घर की मुर्गी...."


"बस बस... ज्यादा मत बोलो। अगर तुम्हारे माँ-बाप होते तो?" बीच में टोका शाश्वत ने।

"मेरे माँ बाप ऐसे हर बात पर टांग नहीं अडाते। भइया भाभी को पूरी छूट है अपना जीवन जीने की।"
"अरे!! तो तुम्हें कौन सी रोक है? सारे काम तो अपने मन के ही करती हो। कभी कभी उनकी बात मान भी लोगी तो क्या बिगड़ जाएगा??"
"और अगर तुम्हारी बहन एक हफ्ते बाद आ जायेगी तो उसका क्या बिगड़ जायेगा?? अच्छा खासा प्रोग्राम बना था घूमने का... बीच में कबाब में हड्डी..."
"पूर्णिमा........." इतनी ज़ोर से चीखा शाश्वत कि माँ-बाबूजी आ गए दूसरे कमरे से।
"बस अब कुछ और कहने की कोई ज़रूरत नहीं है। जिसे आना है आए, मैं ही चली जाऊंगी यहाँ से तब रहना आप सब लोग अपनों के साथ... एक मैं ही पराई हूँ न यहाँ.." रोती हुई चली गयी पूर्णिमा दूसरे कमरे में।
माँ ने समझाया शाश्वत को "अगर हम नेहा को १ हफ्ते बाद आने को कह दें, तब ठीक रहेगा। तुम और पूर्णिमा भी घूम आओगे और उसका मन भी लग जाएगा।"
"नहीं माँ कोई ज़रूरत नहीं है नेहा को कुछ कहने की. उसका कार्यक्रम बहुत पहले तय हो गया था। पूर्णिमा ने ही बीच में गोवा जाने की रट लगा दी। उसके ऑफिस के लोग जा रहे हैं। मैं और पूर्णिमा बाद में भी जा सकते हैं। तुम नेहा को कुछ मत कहो। चुपचाप जा कर सो जाओ। वह सुबह तक ठीक हो जायेगी।"
"हम्म कल ही चली जाऊंगी तब पता चलेगा। सच ही कहा था सबने यहाँ शादी मत करो। तब तो इश्क सवार था सर पर। पता नहीं क्यों मति मारी गयी थी मेरी। सच है, रिश्ता हमेशा बराबर वालों में होना चाहिए।" सोचते सोचते सो गयी थी पूर्णिमा।



पूर्णिमा और शाश्वत.....बहुत मशहूर हो चले थे कॉलेज में। सब उन्हें 'एक दूजे के लिए' कह कर पुकारते थे।

उनके परिवारों में ज़मीन आसमान का अन्तर था।

पूर्णिमा शहर के जाने माने उद्योगपति सुदर्शन लाल गुप्ता की एकलौती और मुंहलगी बेटी थी। कई मिलें थी। शहर में कई दुकानें थीं।

शाश्वत सीधे सादे किंतु आदर्शवादी नारायण चंद अग्रवाल का पुत्र था, जो कि उसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे।


नारायण बाबु ने शाश्वत को कई बार इशारों में समझाया था कि पूर्णिमा से मिलना जुलना ज्यादा ठीक नहीं है। उसके घर वाले कभी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे। पर कुछ तो पूर्णिमा का प्रेम था और कुछ उसका साहस जो कि उसे पूर्णिमा से दूर ही नहीं होने देता था। यह सच था पूर्णिमा बहुत साहसी थी। या फिर कहें कि जिद्दी थी। बचपन से अब तक उसने जिस चीज़ पर हाथ रख दिया, वह उसकी हो जाती थी। यही कारण था कि जब शाश्वत का सवाल आया तो उसने किसी की नहीं सुनी। उसका कहना था कि प्रेम के आगे जाति-धर्म, रूपया-पैसा, खानदान-औकात जैसी बातें तुच्छ हैं। यहाँ तक कि उसने अपने माँ-बाप से कह दिया कि उसे उनकी जायदाद में से कुछ नहीं चाहिए। वह अपने बलबूते पर नौकरी करने के काबिल है। और शाश्वत से ही शादी करेगी।


यह बात सच थी कि पूर्णिमा बचपन से ही पढ़ाई में मेधावी रही थी। शायद यही गुण उसे शाश्वत के करीब लाया था। शाश्वत भी मेधावी होने के साथ कॉलेज की अन्य गतिविधियों में सक्रिय था। जब वह वाद-विवाद में बोलने के लिए मंच पर आता था, तब सारा माहौल खामोश हो जाता था। पूर्णिमा भी उसकी ओजस्विता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी।


उन दोनों की शादी हालाँकि परिवार वालों की उपस्थिति में हुई थी। किंतु जहाँ एक ओर शाश्वत के घर वालों में खुशी का माहौल था, वहीँ पूर्णिमा के परिवार में किसी को इस शादी से खुशी नहीं थी। उन्हें चिंता थी कि बाकी रिश्तेदारों के आगे उनकी गर्दन झुक गयी। पूर्णिमा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।
शादी के बाद कुछ दिन तो सही निकले पर उसके बाद पूर्णिमा को एहसास होने लगा कि उसके घर और ससुराल में ज़मीन आसमान का अन्तर है। उसे कई बार खीज होती थी जब देखती कि ऑफिस से आने के बाद सब उसके इन्तेज़ार में भूखे बैठे हैं। शुरू शुरू में उसने कहा कि वह लोग उसका इंतज़ार ना किया करें। उसे समय पर खाने कि आदत है। इसीलिए जब देर हो रही होती है तो वह ऑफिस की कैंटीन में खा सकती है। पर शाश्वत ने उसे बोला कि दिन का खाना तो हर कोई अलग ही खाता है इसीलिए परिवार के लोग रात का खाना साथ ही खाना पसंद करते हैं। शुरू-शुरू में उसे यह बात अच्छी लगी पर धीरे धीरे यह बंधन लगने लगा। इस वजह से शाश्वत रात को बाहर खाना पसंद नहीं करता था। उसे बहुत बुरा लगता था। उसके घर तो ऐसा कुछ नहीं था। सब आज़ाद थे। जिसको जो करना है करे। शाश्वत का कहना था कि आज़ादी और लापरवाही दो अलग अलग बातें हैं। पूर्णिमा ज्यादा कुछ तो नहीं समझ पाती थी पर धीरे धीरे उसने फ़ोन करना शुरू कर दिया कि ऑफिस में देर हो रही है और खाने के मामले में समय की पाबन्द होने के कारण वह ऑफिस में ही खाना खा लेगी। कोई उसका इंतज़ार नहीं करे।


शाश्वत की एक बड़ी बहन थी। उनका ससुराल चेन्नई में था। दूरी ज्यादा होने के कारण वह २-३ सालों में ही आ पाती थीं मायके। जबसे उनके बच्चे बड़े हो गए थे, उन्हें उनके स्कूल का कार्यक्रम भी देखना पड़ता था। इसीलिए उनका आना बहुत कम हो पाता था। इस बार वह शाश्वत की शादी के बाद ही आ रहीं थीं। सारा घर खुश था। पूर्णिमा को भी अच्छा लग रहा था। कुछ दिनों के लिए ही सही, घर में कुछ रौनक तो होगी। वरना इस घर में तो वह अपने दोस्तों को बुलाने की, पार्टी करने की सोच भी नहीं सकती। कोई भी आयोजन हो, मन्दिर से शुरू और खीर पर ख़तम। इसी बीच उसके ऑफिस के सहयोगियों का गोवा जाने का कार्यक्रम बना। उन लोगों ने उसको भी बोला साथ चलने को। उसने बिना सोचे समझे हाँ कर दी। बाद में याद आया कि उसी समय तो दीदी आ रहीं हैं। अब मन करने में उसकी शान के खिलाफ होता। ऐसा कितनी बार हुआ कि कोई न कोई कार्यक्रम बना और बाद में उसने मना किया। इस बार उसने निश्चय किया कि चाहे कुछ हो जाए, वो जायेगी ही जायेगी। शाश्वत ने सुना तो वही हुआ जिसका डर था। बात नोंक-झोंक से शुरू हुई और अबोले पर समाप्त हुई।


अगले ही दिन उसने घोषणा की कि वह अपने मायके जा रही है। और तभी लौटेगी जब शाश्वत उसके साथ गोवा जाने को मान जाएगा। माँ-बाबूजी ने कितना रोका?? पर वह भी पूरी जिद्दी ही थी। हाँ शाश्वत के रोकने का इंतज़ार ज़रूर किया। पर ऐसा ना तो होना था, ना ही हुआ। और अगले घंटे वह अपने मायके की दहलीज़ पर खड़ी थी। माँ ने पूछा भी कि ऐसे कैसे अचानक?? कोई फ़ोन नही, कोई सूचना नहीं?? पूर्णिमा ने बता दिया कि वह रूठ कर आयी है। शायद उसे पूरा विश्वास था कि शाश्वत उसे लेने आज नहीं तो कल ज़रूर आएगा।


धीरे धीरे दिन बीतने लगे। पूर्णिमा का विश्वास कमज़ोर पड़ता जा रहा था। पर उसमें भी गज़ब का गुरूर था। उसने कोई कोशिश नहीं की शाश्वत से संपर्क करने की। उसके घरवालों का कहना था कि अगर वो झुक जाती है तो उसका कोई मान नहीं रह जाएगा ससुराल में। शुरू शुरू में तो पूर्णिमा को अच्छा लग रहा था घर में। किसी बात पर कोई रोक-टोक नहीं। ऑफिस के बाद अक्सर सहेलियों के साथ कहीं घूमने निकल जाती थी। इसी बीच गोवा वाला टूर भी हो गया। वह अकेली ही चली गयी। हालाँकि वहां जाकर उसे पछतावा हुआ कि उसे नहीं आना चाहिए था। वहां सभी जोडियों में थे। बस पूर्णिमा ही अकेली थी। सब जैसे तरस खाते थे उसपर। वह बीच टूर से ही वापस आ गई। माँ को आश्चर्य हुआ कि वह जल्द ही लौटा आई। भाभी ने भी सवालिया नज़रों से उसे देखा। पर उसने महसूस कर लिया कि भाभी की नज़रों में सवाल के साथ जवाब भी है और जवाब पता होने के कारण भाभी नज़रों में ही मुस्कुरा रही थीं। पूर्णिमा से वह मुस्कराहट सहन नहीं हुई। चुपचाप अपने कमरे में चली गयी। अब उसे हर दिन उस फ़ोन का इंतज़ार रहता जो नही आता। उसे खीज होने लगी थी अपने निर्णय पर। घर में जब भी कोई आने वाला होता, माँ किसी ना किसी बहाने से कोशिश करतीं कि पूर्णिमा उनके सामने नहीं पड़े वरना फिर अनचाहे सवालों का जवाब देना पड़ेगा। वह भी अपना ज्यादा से ज्यादा समय ऑफिस में बिताती। हालाँकि सहकर्मियों की नज़रों में भी उसे ताने, सवाल दिखते पर वहां कम से कम काम तो रहता था उन सबको भूलने के लिए। छुट्टी का दिन उसके ऊपर भारी पड़ता। सारा दिन या तो कमरे की सफाई में लगी रहती या फिर फालतू की खरीदारी करती रहती।
इसी बीच उसके घर की कामवाली ने छुट्टी मांगी। भाभी ने साफ़ इनकार कर दिया। उसने कामवाली का पक्ष लेते हुए भाभी से कहा कि उन्हें छुट्टी दे देनी चाहिए। भाभी ने खीजते हुए बोला कि वह चुपचाप ही बैठी रहे। इस घर का काम उसके घर के जैसा नहीं है कि कैसे भी चल जायेगा। रोज़ कोई न कोई आता है, चाय नाश्ता, कई काम होते हैं।

वह अवाक रह गयी!! यह वही भाभी थीं जो उसे पलकों पर बैठा कर रखती थीं। उसने माँ को बोला कि भाभी को समझाए कि उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए। माँ ने कहा कि गलती भाभी की नहीं, पूर्णिमा की है जो दूसरों के घर के मामले में बोल रही है।

पहली बार एहसास हुआ कि अब यह उसका घर नहीं है।
अगले दिन कामवाली ने भाभी को बोल दिया कि वह यह नौकरी नहीं कर सकती। उसकी जितनी पगार बनती हो, दे दें।

पूर्णिमा ने पूछा -- नौकरी क्यों छोड़ रही है??
"दीदी, मेरी ननद की शादी है। भाभी छुट्टी नही दे रहीं। तो मैं क्या करूँ?"
"अरे तो ननद की शादी है तो नौकरी छोड़नी जरूरी है? तेरे घरवाले क्या कर रहे हैं?" पूर्णिमा ने पूछा। "घर वाले सभी व्यस्त होंगे न?? मेरी एक ही ननद है। उसको ही ढंग से विदा नहीं कर पाऊंगी तो जिंदगी भर मुझे ख़राब लगेगा। वैसे भी बेटियाँ पराई ही होती हैं। अब जितने दिन बचे हैं शादी में, मैं उसके साथ हमेशा रहना चाहती हूँ. नौकरी तो और भी मिल जायेगी। ननद तो विदा होकर पता नहीं कब आयेगी??"
कुछ अन्दर से दरक गया पूर्णिमा के भीतर।

अगले दिन उसका खाना खाने का मन नहीं हुआ। किसी ने ज्यादा कहा भी नहीं। सब जानते थे कि उसे मनाना कोई आसान काम नहीं है और फिर सबको अपने अपने ज़रूरी काम थे। वह पानी पीने के लिए अपने कमरे से बाहर निकली तो उसके कानों में घरवालों की बातें पड़ीं।
"ऐसे कब तक चलेगा?? उसे अपने घर तो जाना ही होगा न??" माँ की आवाज़ थी।
"मैंने पहले ही कहा था कि यह लड़की उस घर में नहीं रह पाएगी। आखिर इतना अन्तर है हमारे और उस घर में। " पापा बोले।
"क्षमा करें पापा पर पूर्णिमा किसी भी घर में जाती तो ऐसा ही होता। गुस्सा तो नाक पर रखा रहता है। किसी की बात नहीं मानना। हमेशा अपने हिसाब से सबको चलाना।" यह भाभी थीं जो कभी उसकी बहुत अच्छी सहेली हुआ करती थीं और जिनका हिसाब वह पिछले कुछ दिनों से माँ के साथ, अपने साथ किए जा रहे बर्ताव में देख रही थी।
"मैं आज ही बात करता हूँ शाश्वत से। कुछ पैसे वैसे का नाटक है तो ले जाओ पैसे और अपनी बीवी को भी। भई हमें भी समाज में उठना बैठना है।" भइया ने अपना मत दिया।
पूर्णिमा सन्न रहा गयी। शाश्वत पर इतना घिनौना आरोप!!!! और माँ-बाबूजी भी कुछ नहीं कह रहे??आखिर उससे और नहीं सुना गया।

सामने आकर बोली "आप लोगों को किसी से कुछ कहने कि ज़रूरत नहीं है। शाश्वत इतने गिरे हुए नहीं हैं कि पैसे के लिए अपनी बीवी को अलग करें। मैं ही बेवकूफ थी जो आप लोगों को अपना समझ कर यहाँ आ गयी थी। अब समझ आया कि अपना घर क्या होता है?? आप लोगों को धन्यवाद ।"
आगे नहीं बोल पायी। सबको वहीँ छोड़ कर शाश्वत को फ़ोन करने चल दी।

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शनिवार, 12 जुलाई 2008

कविता:अरविन्द व्यास प्यास

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क्या कहते हैं अपने बारे में अरविन्द व्यास नाम है, प्यास तख़ल्लुस है । 1979 में M.Tech. किया था भोपाल M.A.C.T से ।
कल्यान महाराष्ट्र में जन्मा हूँ , मथुरा , राजस्थान से, वांशीक सम्बन्ध हैं ,
साहित्यकार नहीं हूँ, पर गुरू कबीरा देते हैं , वही लोगो तक पहुँचने की कोशिश करता हूँ ।
किताबें तैयार कर रहा हू , उनमें खास खास हैं । भक्ति की बूँदें , ओस की बूँदें , पहेलियाँ ,
करामाती कहावतें, मायामय मस्ती की पाठशाला इत्यादि ।
18 साल से UAE में रहता हूँ व कार्यस्थ [Engineering Consultant] हूँ ।
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संपादक भी अजब जिव होता है.उसके ऊपर कई तरह की ज़िम्मेदारी होती है .वो रचना का आलोचक भी होता है और प्रशंसक भी।
हमज़बान उन तमाम लोगों की पत्रिका है ,जिन्हें मुख्य धारा के कथित सुरमा हमेशा अनदेखी करते आए हैं। पाठकों का हमें अपेक्षा से अधिक सहयोग मिला .हम आभारी हैं , उनके भी और रचनाकारों के भी जो हमें मनमांगी मुराद से सरफ़राज़ कर रहे हैं।
अरविन्दजी परम्परावादी साहित्यिक संस्कार के अहम गीतकार हैं .उनहोंने हमें रचना उपलब्ध करायी , शुक्रगुजार हैं हम। लेकिन कुछ पंक्तियाँ जो गैर-ज़रूरी लगीं हमने हटा दीं.ये उन्हें नागवार गुज़रा.हलाँकि मेरी कमअक्ली की राय ये रही कि कविता ज़्यादा प्रभावी हो गई है .
लेकिन अंतत: सब से बड़ा आलोचक और प्रशंसक पाठक ही होता है ।
इसलिए हम रचना के दोनों रूप यहाँ दे रहे हैं ।पहले संपादित प्रति ,फिर लेखकीय प्रति.
अदालत पाठक की फ़ैसला भी आपका .



1
बाप की छाप
बनी बर्फ़ या भाप
अपने अंदर देखे
कहाँ, क्या है आप

उनके साथ साथ चलते,
लगती बिलकुल धूप नही ।
उनके साये से सुन्दर,
दूजा कोई रूप नहीं ।

जीवन दे कर,
बचपन साथ बह कर,
जवानी सह कर,
सब सही करे,
कुछ न कह कर ।



गोद में पाला, गिरते संभाला
कहानी कहते बचपन ढाला
ज्ञान दिया, हर संकट टाला
वो प्यार का गुस्सा ,
वो हाथो का स्पर्श निराला

बुढापे को जो न सहे
जीवन पर बोझ कहे
जीवन कतर्व्य नही
सिर्फमौज मौज कहे

साथ होलो, सेवा करलो
कर्म धोलो, खुशियॉ भरलो

उनके साथ से बडा कोई जप तप नहीं
उनकी सेवा से बडा कोई जप तप नहीं
उनके पुजन से बडा कोई जप तप नहीं
मां, बाप की छाप
बनी बर्फ़ या भाप
अपने अंदर झांके
कहाँ, क्या है आप
उनके साथ साथ चलते,
लगती बिलकुल धूप नही ।
उनके साये से सुन्दर,
दूजा कोई रूप नहीं ।
जीवन दे कर,
बचपन साथ बह कर,
जवानी सह कर,
सब सही करे,कुछ न कह कर ।
कौन कहता है, उनमे भगवान का स्वरूप नहीं
गोद में पाला, गिरते संभाला
कहानी कहते बचपन ढाला
ज्ञान दिया, हर संकट टाला
वो प्यार का गस्सा ,
वो हाथो का स्पर्श निराला
कौन कहता है, वह जवानी कुरूप नहीं
बुढापे को जो न सहे
जीवन पर बोझ कहे
जीवन कतर्व्य नही
सिर्फ मौज मौज कहे
कौन कहता है, वह जवानी कुरूप नहीं
साथ होलो, सेवा करलो
कर्म धोलो, खुशियॉ भरलो
उनके साथ से बडा कोई जप तप नहीं
उनकी सेवा से बडा कोई जप तप नहीं
उनके पुजन से बडा कोई जप तप नहीं
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सोमवार, 7 जुलाई 2008

सरहद पार से : किश्वर नाहिद की नज़्म





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उर्दू की इस ख्यात पाकिस्तानी कवयित्री का जन्म दिल्ली से कुछ ही फासले पर स्थित उत्तर प्रदेश के शहर बुलंद यानी बुलंदशहरमें आज़ादी से सात साल क़ब्ल 1940 में हुआ .बँटवारे की त्रासदी ने इन्हें भी हमसे छीन लिया .औरों की तरह इनके परिवार को भी मुहाजिर होने का दंश भोगना पड़ा .लाहोर से आपने उच्च शिक्षा हासिल की .सरकारी नोकरी की ।
माहे-नो जैसी पत्रिका की संपादक बनीं। पाकिस्तानी आर्ट काउंसिल की अगुवाई की। पाकिस्तानी मुस्लिम औरतों की आवाज़ को दुन्या में बुलंद करनेवाली कवयित्रियों में इनका नाम सरे-अव्वल है।
औरत ख्वाब और खाक के दरम्यान और ख़याली शख्स से मुक़ाबला इनकी चर्चित किताब है।
आपने सीमोन दी बुव्वा की विश्व विख्यात पुस्तक सेकंड सेक्स का उर्दू में अनुवाद किया और लैला खालिद
का जिंदगीनामा भी कलमबंद किया।
फिलहाल इस्लामाबाद में रहकर स्वतंत्र-लेखन ।
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शहरज़ाद का सवाल



मेरी छत की मुंडेर पे मुनीर नियाजी ने
लड़कियाँ देखी थीं
धानी चुनरिया ओढे हुए
मेरी छत पे क़तील शिफाई ने
लड़कियाँ देखी थीं
पायल छनकाती हुई
मेरी छत पे अहमद फ़राज़ ने
लड़कियाँ देखी थीं
इश्क़ नहाती हुई
मेरी छत पे ज़हरा आपा ने
लड़कियाँ देखी थीं
परचम लहराती हुई
मेरी छत पे फ़हमीदा और आसिमा ने
लड़कियाँ देखीं थीं
नारे मारती , आगे बढती हुई







मैं देख रही हूँ
अब मेरी छत पे काले बुर्क़े
लंबे डंडे शरियत फतवे
काले अमामे पहने लड़के
खून कि जिनकी आंखों में है
ज़हर कि जिनके लफ्जों में है
दीवारों पे क्लाश्न्कोफ़ की goli नाच रही है
खोफ़ -सा हर हंसती लड़की के माथे पे लिखा है
डरती-डरती , सहमी-सहमी पूछ रही है
मैं फतवों के जाल से कैसे निकलूँ
हब्स के इस माहोल में
कैसे जिंदा रहूँ



( कंप्यूटर रेखांकन चार वर्षीय आयेश लबीब )








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बुधवार, 2 जुलाई 2008

आलोक प्रकाश पुतुल की कविता

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पिछले 19 सालों से पत्रकारिता के पेशे में। ग्रामीण पत्रकारिता और नक्सल आंदोलन में कुछ शोधपरक काम. कविताई कभी-कभार .ज्यादातर छद्म नामों से कवितायेँ प्रकाशित .दरअसल जब भी इनके साहित्यिक परिशिष्ट के लिए कवितायेँ अनुपलब्ध रहीं , कविता लिख मारी .वाह! रे आशु कवि और ग़ज़ब का मजदूर !!.इन नामों में आफताब अहमद ज्यादा लोकप्रिय रहा है .
कुछ पत्रिकाओं, अखबारों, संदर्भ ग्रंथों का संपादन,देशबंधु ,अक्षरपर्व और सन्दर्भ छत्तीसगढ़ आदि . वृत्तचित्रों में भी सक्रिय. बीबीसी समेत कई देशी-विदेशी मीडिया संस्थानों के लिए कार्य. कभी-कभी विश्वविद्यालयों में अध्यापन. कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान, पुरस्कार और फेलोशीप.
इन दिनों वेब पत्रिका http://www.raviwar.com/ का संपादन।
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भाई की तलाश


मैं घर का सबसे छोटा बेटा नहीं हूँ
मुझसे भी छोटा एक भाई है
है और था के बीच झूलता एक भाई, नीली आँखों वाला,
मुझसे कुछ ऊँचा ६ फुट लम्बा कद्दावर
कालेज से घर और घर से कालेज
कुल मिला कर यही थी उसकी दुनिया


ठंड की एक रात उसे पुलिस उठा कर ले गयी
कहाँ, यह किसी को नहीं पता

अगले दिन सब तरफ कोहरा छाया हुआ था
चाकू के धार वाले इस समय में
मैं अपने पिता के साथ
शहर के एक थाने से दूसरे थाने तक
भाई को तलाश रहा था।


पूरे दिन तलाश के बाद भी
हम यह पता लगाने में असफल रहे कि मेरा भाई कहाँ है

हर थाने से एक रटा रटाया जवाब मिलता.. हमें पता नहीं


ऐसे गुजर गए
कई कई दिन और कई कई रातें
भाई का पता नहीं चला

फिर सप्ताह महीने और साल
तलाश जारी रही लेकिन भाई का पता नहीं चला

इस बात को १४ साल गुजर गए
लेकिन कमबख्त कोहरा है कि खत्म नहीं होता


आप में से कोई
मेडिकल साइंस से जुड़ा हो तो उसके लिए

एक रोचक केस हमारे घर में है
१४ सालो से माँ एक क्षण सोई नहीं
७० की उम्र में रात -रात भर कुर्सियों पर बैठ कर
सुनने की कोशिश करती है कोई आहट


कहीँ भी ईश्वर के ना होने के अपने दृढ़ विश्वास के बाद भी
हर रोज करता हूँ प्रार्थना
हे ईश्वर, बचा रहे माँ का विश्वास
कि एक दिन लौटेगा मेरा छोटा भाई
और लिपट कर माँ को गोद में उठा , आँगन भर में घूमेगा
फिर छूटते ही पूछेगा.. दद्दा को दवाई दी कि नहीं
और जब होगा बड़े भैया से सामना
शरारतन आँगन से कमरे में जाते हुए
सर खुजलाते हुए कहेगा...नोट्स लेने थे, इसलिए देर हो गई

मैं भी कहना चाहता हूँ उससे
छोटे, बहुत देर हो गई

इतनी देर गोया देर के बादकेवल खाली जगह हो
या अब दुनिया में देर के बाद कोई जगह नहीं होती
लेकिन यह सुनने के लिए छोटे तक घर नहीं लौटा है

मेरा सबसे ज्यादा वक्त जाता लावारिस लोगों
की सूचना अखबारों में पढ़ने में
रेल लाइन के पास पड़ी कोई लाश ही
सड़क किनारे किसी पागल की मौत की खबर

पागलों की तरह
सब जगह जा कर हमने तलाशा है
कोई भी शक्ल मेरे भाई से नहीं मिलती

और आप हँसेंगे शायद कि रेल गाड़ियों में जाते या यूँ ही सड़कों पर
कई कई बार पीछे सेकई कई नौजवानों के कंधे छू कर इन्हें पलटा है
कि ये अपना छोटा है लेकिन नहीं
लोग हँस कर कह देते हैं .. कोई बात नहीं, होता है, होता है

मैं अपनी गलती पर सकुचाने के बाद
अचरज से भर जाता हूँ
कि कैसे कोई किसी के बारे में
इतनी गैरजिम्मेदाराना ढ़ंग से कह सकता है , कि कोई बात नहीं....

हर दीवाली, होली और ऐसे ही त्यौहारों पर
बचा कर रख दी जाती है
उसके हिस्से की मिठाई


बेबसी एक शब्द भर नहीं है
छोटी छोटी मुस्कानों के बीच
कभी आप तलाशे तो वहाँ मिलेगी


माफ करें , मुझको मालूम है कि आप भी ऊब रहे होंगे

जैसा कि हर कोई हमारे किस्से सुन सुन कर ऊब चुका है
सिवाय मेरे घर वालों के

मेरा एक खास मित्र है
जो देर रात तक हमारे साथ घर में बैठा रहता है
लम्बीसाँस लेता हुआ मित्र
अक्सर ठंडे स्वर में कहता है... जीवन बहुत कठिन है मित्र
मैं धीरे से आकाश की ओर देखता हूँ और बुदबुदाता हूँ
मरना और भी कठिन


फिर आकाश में ही तलाशने लगता हूँ
छोटे का चेहरा

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बुधवार, 25 जून 2008

श्रद्धा जैन की दो ग़ज़ल








(कवि- परिचय बक़लम ख़ुद : विदिशा एक छोटे से शहर से आई हुई श्रद्धा, बस इतना ही परिचय है मेरा शायद आप में से बहुत से लोगों ने इसका नाम भी ना सुना हो , तो बताती चलूं कि ये मध्यप्रदेश में भोपाल के पास एक बहुत छोटा सा शहर है जहाँ आज भी ब्रॉडबॅंड नही पहुँचा है अंतरजाल की उतनी जानकारी नहीं है (MSc) केमिस्ट्री में अपनी शिक्षा पूरी की और आजकल यहाँ अंतरराष्ट्रीय विद्यालय में हिन्दी अपनी भाषा को सब तक पहुँचाती हुई दिन गुज़ार रही हूँबच्चों के मुँह से I love Hindiसुनकर जो मीठी सी मुस्कान आती है जो सकुन मिलता है उसको शब्दों में कहना मुमकिन ही नहीं है वक़्त की हवा ने सिंगापुर पहुँचा दिया यहाँ आकर देश की सभ्यता की खूबियों को ,जाना जाना रिश्ते क्या हैं , अपनो का साथ कैसा होता है और अपने देश की मिट्टी में कितना सकुन है कुछ एहसास कलम से काग़ज़ पर उतर आए और मैं आप सबके बीच आ गयी .
शहरोज जी की महानता है कि उन्होंने मुझ जैसी उगती शायरा को इतना सम्मान दिया मैं तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूं)








1

काँटे आए कभी गुलाब आए
जो भी आए वो बेहिसाब आए
रंग उड़ जाए उनके चेहरे का
जब भी मेरी वफ़ा के बाब आए
अब्र दानाई का हो फिर ओझल
ज़िंदगी में जो एक अज़ाब आए
दोस्त बन कर मिले या दुश्मन हो
सामने जब तो बेनक़ाब आए
गम-ए-रोज़गार लिख रही है श्रद्धा
ऐसे आलम में कैसे ख्वाब आए


किसने जाना कि कल है क्या होगा
qurbat या कि फासला होगा
रोता जो ज़ार-ज़ार उसे रोने दो
हो ना हो खुद से वो मिला होगा
चाँद जो पल में बन गया हैं धूल
usne पैरों तले कुचला होगा
ज़ुल्म करता नहीं वो सबका रहीम
आज दुनिया का रब जुदा होगा
श्रद्धा ना यूँ सकून तलाश यहाँ
बद ओ वीरान ये रास्ता होगा
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मंगलवार, 24 जून 2008

नसर हमीद ख़लिश की ग़ज़ल







(कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि उर्दू को जिंदा रखने में बिहार सरे-फ़ेहरिस्त है .ज़ाहिर इसकी तहज़ीब को बरक़रार रखने में अदब का अदब यानी सम्मान ग़ज़ल चहारसु शमा- शमा है . शायरी के नाते भी वहां की ज़मीन zarkhez yaani उर्वर है .हालत की सितम ज़रिफी कि कईयों को वो मक़ाम न मिल सका जिसके वो हक़दार रहे .असलम सादीपुरी , सिराज शम्सी और रम्ज़ अज़ीमाबादी जैसे कई अहम लोग हुए जिन्हें गर्दिशे-दोरां ने भुला दिया .नसर हमीद ख़लिश भी चरागां से दूर तामीर- फ़न में लगें हैं .इनका अपना इक अलग अंदाज़ है .आप की पैदाइश तो लक्मनिया , बेगुसराय में हुई ,लेकिन शिक्षा- दीक्षा और रोज़ी -रोटी की तलाश में कई शहर के कूचों की ख़ाक नसीब हुई लेकिन आपने अपना आबो-ताब कायम रखा .अंग्रेज़ी में मास्टर डिग्री और कीट्स जैसे कवि के प्रेम पत्रों पर डॉक्टरेट की सनद हासिल की .गया में बरसों रहे .वहीँ के मिर्ज़ा ग़ालिब कॉलेज से अंग्रेज़ी के प्रोफेसर पड़ से सेवामुक्त हो फिलहाल हजारीबाग में रहकर स्वतंत्र -लेखन ।)







खुलूस दिल की रिफ़ाक़त की बात करता है
वो शख्श मुझसे मुहब्बत की बात करता है
उजाला आता है जब भी गरीब खाने में
तमाम शब् तेरी चाहत की बात करता है


नक़ब लगा के जो आया पड़ोस के घर में
वो शख्श मेरी हिफाज़त की बात करता है
ये इसकी लत है कि जंगल हो शहर हो कुछ हो
वो क़त्लो -खूँ की हलाकत की बात करता है

दिखाए मुझ को कभी ख़ुद भी आदमी बनकर
जो देवताओं की अज़मत की बात करता है

तुम्हारे शहर में बिखरा हुआ हर इक पत्थर
मेरे लहू की हरारत की बात करता है


निगाह दिल में गए मोस्मों का अक्स लिए
ख़लिश तुम्हारी इनायत की बात करता है
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सोमवार, 23 जून 2008

The Post-American world by Fareed Zakaria

"This is not a book about the decline of America, but rather about the rise of everyone else." So begins Fareed Zakaria's important new work on the era we are now entering. Following on the success of his best-selling The Future of Freedom, Zakaria describes with equal prescience a (world in which the United States will no longer dominate the global economy, orchestrate geopolitics, or overwhelm cultures. He sees the "rise of the rest"—the growth of countries like China, India, Brazil, Russia, and many others—as the great story of our time, and one that will reshape the world. The tallest buildings, biggest dams, largest-selling movies, and most advanced cell phones are all being built outside the United States. This economic growth is producing political confidence, national pride, and potentially international problems. How should the United States understand and thrive in this rapidly changing international climate? What does it mean to live in a truly global era? Zakaria answers these questions with his customary lucidity, insight, and imagination._Syed Mohammad Raghib)

The American economy might surprise us by the year-end. Many economists and businessmen believe that although the current slowdown could turn into a recession, a financial collapse is now highly unlikely. Bruce Kasman, the chief economist at JPMorgan, is an optimist. He believes that even though the economy has been hit by some big problems, it also has strengths that will encourage recovery. (American exports, which now account for most of the country's economic growth, are booming.) But Kasman is a short-term optimist; he has a much gloomier view of the longer term.For the past 15 years, the U.S. economy has outperformed all other rich countries, averaging real GDP growth of 3.2 percent and monthly job gains of 150,000. This remarkable economic run, which took place as Japan slumped and Europe staggered, has been critical to the country's economic vitality and to the preeminent role Washington has played in the world. Kasman argues—with careful research to back him up—that this period of high productivity and GDP growth has ended. "U.S. growth rates for the next decade or more are going to look more like those in Europe and Japan," he says. Current projections suggest that the long-term growth rate will fall to 2.5 percent at best. If so, that will have huge implications for jobs, incomes and America's general well-being.Why is this happening? The biggest reason is that there are now fewer workers in the American economy. The baby boomers are beginning to retire, the entry of women into the work force—a phenomenon that boomed in the 1990s—has slowed down and, since 9/11, immigrants, particularly skilled ones, are coming to America at lower rates. In addition, the productivity gains from technology have dwindled; business has gotten the bulk of the benefits of the information revolution.Capital spending has slowed. Companies are no longer confident that new investments in plants and equipment will produce profits, and despite having large piles of cash, they are not investing much in either. In fact, after the tech boom ended in 2001, capital spending dropped more sharply than at any point since the Great Depression, and still remains abnormally low. Also, money that used to surge into the United States is now going to emerging markets like China, India and Brazil, where the returns on investment are higher. Add to these facts the sky-high prices for oil and commodities, and you have the recipe for a long, 1970s-style slowdown (which may or may not be accompanied by inflation).The policy debate in Washington is focused on the wrong question: how to spark a short-term, cyclical recovery. Congress has already passed a fiscal stimulus bill, and the Federal Reserve has cut interest rates. All we can do now is wait for these policies to have their effect, which they will. The real debate should be about how to move the American economy back onto a high-growth trajectory. It can be done, but it would require large-scale and smart government policies across a whole range of issues.The problems are obvious. The retirement of the baby boomers is going to have a crippling effect on all government budgets—federal, state and local. Unless entitlements are trimmed substantially, America is headed for fiscal bankruptcy. Immigration policy needs reform, most urgently so that the United States can once again attract the world's most talented people. Spending on research, technology and infrastructure needs a big boost. (U.S. spending on infrastructure as a percentage of GDP is the lowest in the industrialized world today.) Energy policy needs to be overhauled. Trade policy needs to be revitalized. Tax and regulatory codes need to be simplified in order to keep America a competitive place to do business.In most of these areas, the solution involves some short-term pain in exchange for long-term gain. But Washington has become incapable of that. Passing a pork-laden bill takes no time. Trimming subsidies, raising taxes or making strategic investments are near impossible.During the 1980s, the United States tackled many of the problems it faced through bipartisan compromises. The government passed a massive tax reform, with Ronald Reagan and Democrat Dan Rostenkowski championing the bill. It revamped Social Security and passed immigration reform, as well as a series of trade deals—all with strong bipartisan support. These policies were crucial in setting the stage for two decades of strong economic growth. The contrast with today is stark. Now Washington can argue about everything and solve nothing. A can-do country has been saddled with a do-nothing political system."With the end of the cold war, we saw a new, destructive kind of partisanship," says David Gergen, who has worked in Republican and Democratic White Houses. "And for much of the past decade, we've kicked the can down the road on our big problems." Some of this is because of the narrowcasting of American politics, a process in which the extreme ends of the spectrum have been magnified and the center gets lost. Part of it, Gergen argues, is generational. "I have a distinct memory that the World War II generation really put country ahead of party. That is simply not the case with the generation in power now."Compromise is hard. No one gets all or even most of what they want. But in a vast, continental land of 300 million, people are going to disagree. No compromise means nothing will get done. And America will slowly drift down in the roll of nations.
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शुक्रवार, 20 जून 2008

जाकिर हुसैन की कविता

(मुराद नगर में १९ फ़रवरी १९७४ को जन्मे जाकिर दिल्ली में
एक विज्ञापन एजेंसी में कॉपी राईटर हैं .विज्ञान में स्नातक
इस युवा रचनाकार ने हिन्दी में स्नातकोत्तर करने के बाद
जामिया मिल्लिया से जन -संचार और सर्जनात्मक लेखन
में डिप्लोमा हासिल किया ।)

सपनों पर प्रतिबन्ध नहीं
अच्छा -बुरा
छोटा -बड़ा
कलर या ब्लैक एंड व्हाइट
जैसी मर्ज़ी देखो
आँखें तुम्हारी हैं
और नींद भी
सपने भी तो तुम्हारे ही हैं
साकार हों ये जिद क्यों
जिंदगी को नींद में नहीं
जगी हालत में देखो
सपनों से उलट
लेकिन खूबसूरत हैं
सपने तालाब हैं
और जिंदगी
संघर्षों के बहाव में
बहने वाली
नदी का नाम है .
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रमेश राज आनंद की ग़ज़ल


(भारत सरकार के एक महत्वपूर्ण विभाग में अधिकारी
रमेश राज आनंद का जन्म १२ अगस्त १९६० को उ प्र के
मुज़फ्फर नगर में हुआ .आप भूगोल में स्नातकोत्तर हैं ।
जंग लगे पत्थर आपका कविता संग्रह है ।)

इश्क़ रहज़न न सही इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखि हैं बरातें अक्सर

हमसे इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर

हमने उन तुंद हवाओं में जलाएं हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर
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गुरुवार, 12 जून 2008

उनवान क्या हो !


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काम की बात


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सोमवार, 9 जून 2008

अरब की डाक से

कैसर जमाल से प्राप्त एक मेल .लगा इसे आप लोगों के बीच भी आना चाहिए

One of the Indian came from India to Saudi ArabiaSay's:

Bees' साल pehle Saudi aaya tha to ek Riyal TeenRupiye ka tha।

Socha tha
do लाख hojaayengay to waapas chala jaoonga।
Ke chand laakh जमा hojaye waapas chala jaoon।

In bees saalon mein mujhe

Bacchon se doori,mohabbat mein kami,
rishte daaron ka bantwaara,bacche waha main yahan,
Pahle teen mein guzaara hota tha ab 15 hazaar bhi nakaafi.

Ghar banaya, bacchon को padhaya


Abhi na idhar ka hoon,न udhar ka।

Wahan koi janta nahin,yahan koi manta nahin.

Bacche khoobsoorat मकान mein rahte hain,

main ek bed का mehmaan, कमर का dard badhta jaa raha hai।

Jawani dekhi nahin,burapha jaldi dikh gaya .

Koi uncle कहते hain to ghussa aata hai,

aaine me dekhta hoon टू soonchta hoon ke usne theek hi kaha।

Phir bhi koi acchi ख़बर nahi milti।
Aaj chachi mar gayi, taayaabbu bimaar ho gaye,

maamu ko dil ka daura pad gaya,bacche aawaara -गर्दी karte hain,

Khaalu ka inteqaal hogaya.
petrol महँगा ho gaya,
aaj bijli phir महेंगी हो gayi, rasoyi gas ka bill dugna
currency ki qeemat गिर gayi.
Mai किसी bacche ko गोद mein utha kar pyar nahi kar saka,
ungli pakad kar स्चूल chod na saka.
Mere saare dost बिचाद gaye.
rishte daaron ki nazar mere saaman par hoti hai.
Kisi ko hamdardi नही
बच्चे kahte hain --abbu जब aap aate hain to hamari saari routine kharab ho jaati hai।


Biwi hukm -raani hai ghar par
jaata hoon to use is qadar ehsaas hota hai ke
agar aayega to yahi hukm-raan hoga.
Basti mein sab ka राव्या hairaan –kum hota hai,
Biwi kahti hai ek - do saal aur arab mein rah lijiye kuch पैसे aur jama hojayegen .
Betiyaan kahti hain
jahan bees saalon mein kuch nahi banaya
do- char saalon mein kya हो जाए गा ।

Bees Saalon Mein Mujhe Kya Mila ?
Come on Don't cry it's happen toeveryone who comes to Kingdom of Saudi Arabia.
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Ansari releases Muslims of India Since Partition

By Correspondent
New Delhi, June 07: Education is very important for a man. No service for a community is better than education. If you give education to a child and make him able to stand on his own then it is a great work. These were the expressions of Sirajuddin Quraishi who was speaking at the inauguration of free training classes for the Muslim Student which will be run by India Islamic Cultural Centre, Noble Education Foundation and Daily Siasat of Hyderabad. Here Muslim students will be trained for outsourcing and BPO jobs.
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BPO training for Muslim students launched

By Correspondent
New Delhi, June 09: Education is very important for a man. No service for a community is better than education. If you give education to a child and make him able to stand on his own then it is a great work. These were the expressions of Sirajuddin Quraishi who was speaking at the inauguration of free training classes for the Muslim Student which will be run by India Islamic Cultural Centre, Noble Education Foundation and Daily Siasat of Hyderabad. Here Muslim students will be trained for outsourcing and BPO jobs.
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शनिवार, 7 जून 2008

Dumping ground for banned Drugs

Please Read Very Carefully
INFORM ALL YOUR FRIENDS & FAMILY MEMBERS
SYED MD RAGHIB

India has become a dumping ground for banned drugs; also the business for production of banned drugs is booming। Plz make sure that u buy drugs only if prescribed by a doctor(Also, ask which company manufactures it, this would help to ensure that u get what is prescribed at the Drug Store) and that also from a reputed drug store। Not many people know about these banned drugs and consume them causing a lot of damage to themselves. We forward Jokes and other junk all the time. This is far more important. DANGEROUS DRUGS HAVE BEEN GLOBALLY DISCARDED BUT ARE AVAILABLE IN INDIA . The most common ones are action 500 & Nimulid. PHENYLPROPANOLAMINE: cold and cough. Reason for ban : stroke. Brand name : Vicks Action-500 ________________________________________________________________________ ANALGIN: This is a pain-killer. Reason for ban: Bone marrow depression. Brand name: Novalgin ___________________________________________________________ CISAPRIDE: Acidity, constipation. Reason for ban : irregular heartbeat Brand name : Ciza, Syspride ____________________________________________________________ DROPERIDOL: Anti-depressant. Reason for ban : Irregular heartbeat. Brand name : Droperol ______________________________________________________________ FURAZOLIDONE: Antidiarrhoeal. Reason for ban : Cancer. Brand name :


Furoxone, Lomofen _____________________________________________________________ NIMESULIDE: Painkiller, fever. Reason for ban : Liver failure. Brand name : Nise, Nimulid ________________________________________________________________________ NITROFURAZONE: Antibacterial cream. Reason for ban : Cancer. Brand name : Furacin ________________________________________________________________________ PHENOLPHTHALEIN: Laxative. Reason for ban : Cancer. Brand name : Agarol ______________________________ __________________________________________ OXYPHENBUTAZONE: Non-steroidal anti-inflammatory drug. Reason for ban : Bone marrow depression. Brand name : Sioril _______________________________________________________________________ PIPERAZINE: Anti-worms. Reason for ban : Nerve damage. Brand name : Piperazine ________________________________________________________________________ QUINIODOCHLOR: Anti-diarrhoeal. Reason for ban : Damage to sight. Brand name: Enteroquinol PLZ SPREAD THE INFO....IF U CAN......FOR BETTER FUTURE - let us save some lives
Bottom of Form
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)