बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 20 जून 2008

रमेश राज आनंद की ग़ज़ल


(भारत सरकार के एक महत्वपूर्ण विभाग में अधिकारी
रमेश राज आनंद का जन्म १२ अगस्त १९६० को उ प्र के
मुज़फ्फर नगर में हुआ .आप भूगोल में स्नातकोत्तर हैं ।
जंग लगे पत्थर आपका कविता संग्रह है ।)

इश्क़ रहज़न न सही इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखि हैं बरातें अक्सर

हमसे इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर

हमने उन तुंद हवाओं में जलाएं हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर

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1 comments: on "रमेश राज आनंद की ग़ज़ल"

Anil Pusadkar ने कहा…

shukriya shahroz bhai,aapke zariye achha padhne ko mil raha hai.han agar word verificatin ka tag hata den to behtar hoga

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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