दो चुनावी व्यंग्य
सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से
शरमा जाए गिरगिट भी
हम सियासत के कभी कायल न थे
तुमको देखा तो मक्कारी याद आई।
चचा दुखन यूं तो शायरी करते नहीं, पर जब मेरी खटारा बाइक की मरम्मत करने के दौरान दुआ-सलाम हुई, तो उनके लब पर कमर सादीपुरी का यह शेर बेसाख्ता आ गया। हम भी पूछ बैठे, काहे चचा खफा बैठे हैं। इतना कहना था कि मानो उनके अंदर बरसों से जमा गुबार सर्दी में हुदहुद की तरह फट पड़ा। का पूछते हैं, पत्रकार बाबू। आप लोगों से कुछो छुपल है का। देखिये न रहे हैं, ई नेतवा सब हम सबके मूरखे समझ ले है। सुबह में कुछ और बोलता है, तो दोपहर ढलते-ढलते इसकी बोलती कुछ और। शाम व रात तक तो जिसको जिंदगी भर गरियाता रहा, उसको माला पहनाते हुए फोटो खिंचवा लेता है। चचा से जरा चुहल सूझी, देखिये दुखन चा अब आपके नेता जी सेकुलर हो गए। लेकिन चचा चिढ़ गए। ई अऊ सेकुलर। अरे बबुआ आपसी प्रेम मोहब्ब्त के लिए दिल की जरूरत पड़ती है। पार्टी-वार्टी की अदला-बदली से फरक नहीं पड़ता। ई सबबे नेता बस छटल मक्कार है। अपन फायदा की खातिर ई पार्टी से ऊ पार्टी डगरा के बैगन की तरह भागल फिर रहा है। बात गांधी की करेगा, काम गोडसे का। बिरसा भगवान की मूरत पर फूल तो चढ़ाएगा, पर अबुआ दिशुम-अबुआ राज के लिए डोंबारी व सारंडा को गिरवी रखने में परहेज नहीं करेगा.. उनकी बात अधूरी ही थी कि अचानक दुकान की दीवार पर गिरगिट महाराज प्रकट हो गए। हम दोनों की नजर गिरगिट से होते हुए परस्पर टकरा गई, तो दुखन चा मुस्कुरा दिए। आंखों बोल पड़ीं, देखिये ;gनेता जी पधार दिये। मुझे अचानक रूसी लेखक चेखव की कहानी गिरगिट का स्मरण हो आया।
(भास्कर के 5 नवम्बर 2014 के अंक में प्रकाशित)
कौए के बीच कोयल की खोज
कांव ! कांव !! कांव !!! कभी यह आवाज़ कानों में पड़ते ही हम बच्चे उछल कर कहते थे, उड़ कौआ उड़ संदेसा आएगा! लेकिन अब घर की मुंडेर पर कौए नहीं आते. कहते हैं कि पेड़ों के साथ इनका भी सफाया हो गया. वहीं कुछ विद्वानों की राय है कि कौए का मनुष्य की एक विशेष प्रजाति में पुनर्जन्म हो गया है. इनका रहना-सहना भी बदल चुका है. यह एक ख़ास मौसम में बड़े-बड़े शहरों के अपने वातानुकूलित प्रासादों से विचरण को निकलते हैं. कंदराओं से उनके बाहर निकलने का यह सही समय है. कांव ! कांव !! कांव !!! यह गूंज अब हर सड़क-गलियारे में शोर बनकर उभर रही है. लेकिन बचपन में सुने और अब के इनके कांव-कांव में काफी विभिन्नताएं हैं. अब हालत यह है कि कौए को महज़ उड़ने के लिए नहीं बल्कि रफू-चक्कर होने की दुआ की जा रही है. लेकिन वे हैं कि रोज़ नई टेर रेघा रहे हैं. हालांकि कुछ ने शहरों में जाकर गले की सर्जरी करा ली है. रंग-रूप भी बदला है. लेकिन गौर कीजिये तो चेहरे पर उनकी करतूत काली दिख जाएगी। इनमें एक और विशेषता देखी जा सकती है, कि राजधानी की दौड़ में यह काकरोच का कवच ओढ़ लेते हैं. दूसरे को आगे जाता देख तुरंत उनके सदस्य उसकी टांग खींच कर नीचे गिरा देते हैं. लेकिन ख़ुदा-न-खास्ता इन किसी भी खद्दर धारी की मौत हो जाती है, तो सारे अपने समूह और खेमे को भूल कर एक जुट हो जाते हैं. वहीं राज्य से लेकर देश की राजधानी और शहर लेकर गाँव-पंचायत तक के कौओं को इकट्ठे कर इतना कांव-कांव मचाते हैं कि एहसास पुख्ता होता है कि इन्होने शहर को तो पहले ही जंगल बना रखा है. नित्य ही कंक्रीट के गगन चुंबी पेड़ खड़े किये जा रहे हैं. इधर, कांव ! कांव !! कांव !!! के बीच हंस को तिनके का भी टोटा है. वहीं कहते हैं कि कौए को मूर्ख सिर्फ कोयल ही बना सकती है. उसकी तलाश जारी है.
(भास्कर के 14 नवम्बर 2014 के अंक में प्रकाशित)
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- अल्लामा जमील मज़हरी