बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 1 नवंबर 2014

महिला का दलित और दमित होना

कोई इक शमा तो जलाओ यारो!

 
 










फ़रहाना रियाज़ की क़लम से


नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था, ‘तुम मुझे एक योग्य माता दो, मैं तुमको एक योग्य राष्ट्र दूंगा.'  किसी भी समाज का स्वरूप वहां महिलाओं की स्थिति  पर निर्भर करता है,  अगर उसकी  स्थिति मज़बूत  और सम्मानजनक है,  तो समाज भी स्वाभिमानी  होगा. अगर हम इस बात को भारतीय संदर्भ में देखें, तो मालूम होगा कि आज़ादी के बाद शहरी और सवर्ण महिलाओं की  स्थिति में तो सुधार हुआ है , लेकिन पिछड़े ग्रामीण इलाकों की और दलित महिलाओं की  स्थिति क्या है ? इस बात का अंदाज़ा हम राजस्थान में दलित महिला भंवरी देवी के साथ हुई घटना से लगा सकते हैं. 22 दिसम्बर 1992 को राजस्थान की दलित महिला भंवरी देवी का सामूहिक बलात्कार हुआ था. लेकिन इनके द्वारा पुलिस में अपनी शिकायत व्यक्त करने के बावजूद पुलिस ने F.I.R. दर्ज करने से इनकार कर दिया.
इस मामले में हाई कोर्ट की भूमिका भी बहुत शर्मनाक रही,  जिसने अपने आदेश में कहा था:  ‘जब कोई सवर्ण व्यक्ति दलित को छू नहीं सकता, तो भला वह दलित महिला के साथ बलात्कार कैसे कर सकता है .’ यह तो एक बानगी भर है. आज आज़ादी के छः दशक बाद भी दलित महिलों को हिंसा,  भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है .
2011 के जनसंख्या  आंकड़ों के मुताबिक भारत की 1.2 बिलियन आबादी का क़रीब 17.5 फीसदी अथवा 210 मिलियन लोग दलित हैं.  ग़रीब, दलित,  महिला ये तीनों फैक्टर इनके शोषण में मुख्य भूमिका निभाते हैं. दुर्व्यवहार की शिकार सबसे ज़्यादा दलित महिलाएं होती हैं. इनके साथ सामाजिक  स्थिति की वजह से भेदभाव किया जाता है. आए दिन दलित  महिलाओं पर सवर्ण समाज द्वारा ज़ुल्म ढाने की घटनाएँ सामने आती रहती हैं.
 2006 के एक अध्ययन के तहत जिन 500 दलित महिलाओं का साक्षात्कार किया गया. उनमें से 116 ने दावा किया कि उनका एक अथवा ज़्यादा पुरुषों ने बलात्कार किया , जिनमें ज़्यादातर ज़मींदार , उन्हें काम देने वाले उच्च जाति के लोग थे.
दलित महिलाओं को प्रताड़ित करने वाले मामलों में सिर्फ 1 फीसद अपराधियों को ही अदालत सजा सुनाती है. अदालत में अपराधियों  को सज़ा से मुक्त करना भी एक बडी समस्या है, जो दलित महिलाओं को बहुत सालती है. जब भी किसी  पीड़ित महिला ने  ज़ुल्म का विरोध किया है,  तो इन्हें जिंदा जला डालने, कभी निर्वस्त्र कर गाँव में घुमाने , उनके परिजनों को बंधक बनाने और मल खिलाने जैसे पाशविक और पैशाचिक  कृत्य वाली घटनाएँ सामने आती हैं. हैरत की बात ये है कि आर्थिक , वैज्ञानिक और सांस्कृतिक रूप से सभ्य होने का दावा करने वाले भारतीय समाज को इन घटनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. दलित महिलाओं पर मीडिया का ध्यान भी तब जाता है , जब वे बलात्कार या सामूहिक बलात्कार का शिकार होती हैं या फिर उन्हें निर्वस्त्र कर के सड़कों पर घुमाया जाता है. बात अकेले मीडिया की नहीं है.  सारा समाज ही दलित महिलाओं के साथ हुई इस तरह की घटना पर इसी तरह का व्यवहार करता है. अभी हाल ही में बिहार के भोजपुर ज़िले की छह दलित महिलाओं के साथ गैंग रेप का मामला सामने आया है. भोजपुर ज़िले के सिकरहटटा थाने के कुरकुरी गाँव में हुए इस गैंग रेप पीड़ितों में 3 नाबालिग़ भी शामिल हैं. प्रशासन ने पहले तो इस मामले को दबाने की कोशिश की फिर बाद में घटना की पुष्टि करते हुए प्राथमिकी दर्ज की.
 दूर ग्रामीण क्षेत्र में दलित महिलाओं के साथ हुए इस इतने बड़े गैंग रेप पर कहीं कोई हलचल नहीं दिखाई दी , न ही कोई खास विरोध.  न ही  इन महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए कहीं कोई आवाज़. क्या अगर ये महिलाएं किसी बड़े शहर या सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न किसी सवर्ण समाज से होतीं, तो तब भी मीडिया , राजनेता और समाजसेवी संगठनों  में इसी तरह की ख़ामोशी होती ?
निर्भया केस में केंडल मार्च निकाल कर अपना विरोध दर्ज करने वाले देश के प्रबुद्ध नागरिक और आंसू बहाने वाले लोग, और 24 घंटे प्रसारण कर न्याय दिलाने वाली मीडिया देश के ग्रामीण क्षेत्र में दलित महिलाओं के साथ हो रहे ऐसे अत्याचारों पर क्यूँ खामोश हो जाती  हैं ?
भारत के अर्थशास्त्री और नोबेल पुरुस्कार विजेता अमर्त्य सेन कहते हैं, ' दलित महिलाओं की सहायता के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया जाता.  मैं इस बात से खुश हूँ कि आख़िरकार महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का मामला ध्यानाकर्षण पा रहा है.'  सेन ने अपने एक भाषण में दिल्ली में हुए निर्भया केस के बाद सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन का हवाला देते हुए कहा था ‘लेकिन मैं तब और ज़्यादा प्रसन्न होता अगर ये मान लिया जाता कि दलित महिलाएं अरसे से असल हिंसा का सामना कर रहीं हैं. उनके हक में न तो कोई विरोध प्रदर्शन होता है और न ही कोई संगठन उनकी हिमायत करता है , मैं समझता हूँ कि इस तस्वीर में एक निरपेक्ष खाई है.’

आज अगर देखा जाये तो हर रोज़ कहीं न कहीं कोई न कोई महिला इसी तरह अपमानित और प्रताड़ित की जा रही है. बात सिर्फ ये नहीं है कि महिला दलित थी या संभ्रात. असल बात ये है कि जिस तरह किसी बड़े शहर की एक महिला के लिए पूरा देश उमड़ आता है. ऐसे ही पिछड़े ग्रामीण इलाक़ों की और दलित होने के कारण महिलाओं को और उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए. क्यूंकि महिला की कोई जाति नहीं होती है , महिला होना ही उसकी जाति है. महिला कहीं भी हो कैसी भी हो,  अगर उसके साथ अत्याचार होता है, तो आवाज़ को उठाना ही होगा.
हो कहीं  भी पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
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(रचनाकार-परिचय:
 जन्म:11 अप्रैल 1985 को मेरठ( उत्तर प्रदेश) में
शिक्षा: बीए ( चौ .चरण सिंह विश्विद्यालय मेरठ)
सृजन: समसायिक विषयों पर कुछ पोर्टल पर लेख
संप्रति: अध्ययन और स्वतंत्र लेखन
संपर्क : farhanariyaz.md@gmail.com)

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1 comments: on "महिला का दलित और दमित होना "

ज़ाकिर हुसैन ने कहा…

परिस्थितियां वाकई खतरनाक होती जा रही हैं। सबसे बडी बात है कि कथित बुद्धिजीवी और महिला अधिकारों के लिये लडने वाली महिलाएं भी ऐसे मामलों पर चुप्पी साधे रहती हैं।
भंवरी देवी के मामले में जजमेंट निस्संदेह शर्मनाक और हैरत भरा है।

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