बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 26 नवंबर 2014

ख्वाजा अहमद अब्बास और अलीगढ़

 वसुधैव कुटुंबकम के सच्चे पैरोकार 












सैयद एस.तौहीद की क़लम से


ख्वाजा अहमद अब्बास इस सदी के मकबूल पत्रकार,कथाकार एवं फिल्मकार थे। आपको वाकिफ होगा कि अब्बास अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ताल्लुक रखते हैं। अलीगढ से पढकर निकलने वाले महान विद्यार्थियों में आपका एक मुकाम था। अलीगढ को अब्बास सरीखा छात्रों पर नाज है।  अब्बास साहेब के परिवार का अलीगढ से एक पुराना रिश्ता रहा है। आपके परनाना ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली जनाब सर सैयद अहमद के करीबी दोस्त थे। आपके नाना ख्वाजा सज्जाद का ताल्लुक अलीगढ की पहली नस्ल से था। ख्वाजा सज्जाद ने मोहम्मडन एंग्लो इंडियन कालेज से स्नातक किया था। अब्बास के पिता ख्वाजा गुलाम भी विश्वविद्यालय से जुडे रहे। विश्वविद्यालय रिकार्ड अनुसार अब्बास का जन्म हरियाणा के पानीपत में हुआ था। तीस के दशक में आप अलीगढ में शिक्षा ले रहे थे। आपके चचाज़ात भाई ख्वाजा अल सैयद भी अलीगढ के छात्र थे। बाद में जाकर आपके यह भाई वहीं प्रोफेसर भी नियुक्त हुए। 
अलीगढ में अब्बास पहली बार ख्वाजा सज्जाद संग सन पच्चीस के जुबली समारोह में आए । सामारोह में मुसलमानों के सबसे मशहूर नेता व शख्सियतें शामिल थी । इन शख्सियतों में मुहम्मद अली जिन्ना एवं इक़बाल तथा अली इमाम फिर आगा खान का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। मशहूर लीडर अली इमाम से आप पहली मर्तबा इसी सामारोह में मिले। विश्वविद्यालय के जुबली सामारोह व दिलकश फिजा ने अब्बास को बहुत प्रभावित किया। जुबली सामारोह में पेश वाद-विवाद प्रतियोगिता ने दिल जीत लिया था। शानदार इमारतों और जुबली के हंगामों के बीच वाद-विवाद का कार्यक्रम सबसे हटकर था। जुबली डिबेट कंपीटिशन में आपके चचाज़ात भाई हीरो बनकर उभरे। वो  घटना ने जिसने आपकी जिंदगी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यही डिबेट कंपीटिशन था । तकरीबन पांच हजार लोगों की भीड थी । मंच पर मुसलमानों के सबसे मशहूर नेता मौजूद थे। डिबेट का विषय ‘हिन्दुस्तान के मुसलमानों को क़ौमी सियासत में बाक़ी लोगों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, अथवा अलग पार्टी भी बनानी चाहिए’।  पक्ष में  बात आपके भाई ने रखी जिसको वहां आए सभी मशहूर लोगों ने काटने की कोशिश की। आपके चचाज़ात भाई  ख्वाजा अल सैयद की तक़रीर अलीगढ के इतिहास में  यादगार है। इसने आपकी जिंदगी का रुख मोड दिया । तक़रीर खत्म होते ही पंडाल तालियों से गूंज उठा।  विपक्ष में बोलने वाले मिस्टर अली इमाम ने आपके विजेता भाई को गले लगा लिया था। इस पर उनके धडकते हुए दिल ने कहा ‘भाईजान ने बहुत खूबसुरत व काबिले तारीफ तक़रीर पेश की है, एक दिन मैं भी इनकी तरह बनूंगा। बडे भाई की तरह ओजस्वी तकरीरें दूंगा । लेकिन इसके लिए बहुत कुछ पढना-लिखना पढेगा, बडे आदमियों का मुक़ाबला करना पडेगा…सब करूंगा…सब करूंगा’। 
अब्बास अपने एक आलेख में लिखते हैं 
‘कभी इंजन ड्राईवर बनने का ख्वाब था, फिर जज बनना चाहता था, डाक्टर बनकर लोगों की खिदमत करने का दिल आया । डिप्टी कमीशनर होने का भी ख्वाब सजाया। इल्म ताल्लुक इस मंथन उपरांत पत्रकार, नेता व वक्ता बनने का सपना देखने लगा। इनके अलावा वो शख्सियत भी जिनसे मेरी उम्र के करोडों हिन्दुस्तानी प्रभावित हुए । जिनकी छाप हजारों युवाओं की जिंदगी व किरदार पर कायम रही । महात्मा गांधी…इनको पहली बार जब देखा तो उस वक्त मेरी उम्र पांच या छह बरस की थी ,लेकिन उस बचपन में भी उनकी महान शख्सियत ने मुझे प्रभावित किया। भगत सिंह जिनकी शहादत के दिन मैं और मेरे कालेज के बहुत से साथी इस तरह फूट-फूट कर रोए कि हमारा सगा भाई शहीद कर दिया गया है...।

इंटर कालेज के दिनों में एक रोज आप दोस्तों के साथ साइकल पर ताजमहल को चांदनी रात में देखने निकल पड़े । रास्ते में साइकल का टायर फट जाने की वजह से एक गांव में रुके। उस गांव के लोगों की आर्थिक बदहाली ने आपके दिल में पीडा व संवेदना का समुद्र जगा दिया। आप इसे ज़ाहिर  करने का जरिया तलाश करने लगे। इन हालातों ने आपको हांथ बांधे चुपचाप वक्त गुजारने नहीं दिया। तीस दशक में अलीगढ विश्वविद्यालय मुसलमानों की उभरती नस्ल का चिंतन स्थल एवं सांस्कृतिक केंद्र था। प्रगतिशील आंदोलन ने साहित्य को नया भविष्य दिया, अलीगढ आंदोलन का एक मुख्य स्रोत था।  अख्तर रायपुरी, ख्वाजा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, जानिसार अख्तर एवं मजाज तथा अली सरदार जाफरी सब अलीगढ के छात्र थे। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक कुंवर अशरफ उस्तादों में से थे। उस जमाने में अलीगढ में कम्युनिज्म की लहर थी। छात्रों की कोशिश यह थी कि लहर की रफ्तार तेज कर दिया जाए। मुल्क को आज़ाद करने का हर जतन लोग दीवाने कर रहे थे। 
अलीगढ तराना के लेखक मजाज की बहन के अनुसार
 विश्वविद्यालय का हर जमाना प्रकाशवान जमाना था।  इसके क्षितिज पर जगमगाने वाले सितारों की रोशनी देश के हर कोने में पहुंची। शिक्षा साहित्य चिंतन व आंदोलन में अलीगढ के छात्रों का नाम था।  ऐसा मालूम होता था मानो यहां प्रेरणा की रोशनी फूट रही हो। अलीगढ के अहाते से आजादी के दीपक को खुराक मिल रही हो। कोई जोशीला सामाजिक कार्यकर्ता, कोई आजादी का दीवाना…कुछ युं फिजा रही जिसमें सब अपने-अपने शस्त्रों से विदेशी निजाम को जडों से उखाडने पर आमादा थे। एक नया सवेरा…एक नयी जिंदगी जन्म ले रही थी। उस वक्त अलीगढ में जोशीले युवाओं का दल उभर चुका था जिसके कार्यों को विश्वविद्यालय का इतिहास कभी भूला नहीं सकेगा।  पत्रकारिता के माध्यम से आंदोलन की पहल अख्तर रायपुरी ने की । आपने हांथ से लिखा साप्ताहिक अखबार निकाला। हांथ से लिखे इस अखबार की प्रतियों को हरेक हास्टल पर चिपकाया जाता था। इस हफ्तावार की खबरें व आलेख आज़ादी के जददोजहद के सरमाया था। सामग्री अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ तेवर की थी। अख्तर रायपुरी से सीख लेकर ख्वाजा अहमद अब्बास ने भी हांथ से लिखा अखबार ‘अलीगढ मेल’  निकाला। अखबार अब्बास की पत्रकारिता का पहला तेजाब था।  वकालत की पढाई के दरम्यान आपने Aligarh Opinion नामक अखबार भी निकाला। 
शुक्रवार का आधा दिन व रविवार का आधा दिन इन उत्तरदायित्वों को संभालने में गुजर जाता था। इसके अलावे अब्बास विश्वविद्यालय से जुडी खबरों को खुफिया तरीके से Hindustan Times एवं Bombay Chronicle को भेजा करते थे। इन खबरों पर विश्वविद्यालय पर्दा डालने की कोशिश करता था।  खुफिया खबरों को प्रकाश में लाने के लिए प्रशासन की ओर से धमकियां भी मिलती थी। अखबार विश्वविद्यालय प्रशासन व शिक्षकों व अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आम राय को प्रकाश में लाता था। अब्बास प्रशासन द्वारा बाग़ी करार दिए जाने लगे। अली सरदार जाफरी लिखते हैं…अलीगढ में तहरीक-ए-आजादी का तेजाब उठ रही थी। अब्बास ऐसे ही एक तेजाब थे। आप अपने जमाने के बेबाक वक्ता थे। अब्बास व मजाज तथा उनके साथी रात गए रेलवे प्लेटफार्म पर तफरीह करना पसंद था। प्राक्टर आफिस द्वारा लगाई गयी पाबंदियों को तोडने का मजा था ही साथ ही उम्मीद रहती कि हसीन लडकियों का दीदार होगा। जाडों की रातों में स्टेशन की गरम चाय में भी एक खास लुत्फ था। उन दिनों आप बाछु भाई के नाम विख्यात थे। अब्बास के हवाले से अलीगढ से ताल्लुक रखने वाले एक किस्से अनुसार अब्बास अपने जिगरी अंसार भाई को प्लेटफार्म गर्दी के लिए देर रात बुलाने आते थे। दोस्तों में तय था कि वो खिडकी पास आकर भौंकने की आवाज़ निकालेंगे और इस आवाज़ पर अंसार भाई खामोशी साथ बाहर निकलेंगे। एक मर्तबा रात प्लेटफार्म पर किसी रेलवे कर्मचारी से खबर मिली कि रेल से अलगे दिन जवाहर लाल नेहरू देहली से इलाहाबाद जाने वाले हैं। अब्बास और अंसार भाई दोनों ने ही तय किया कि खुर्जा पहुंचा जाए। अलीगढ में मेल दो मिनट के लिए रूकेगी। पुलिस एवं नगर के कांग्रेसियों का हुजूम होगा। पंडित जी का चेहरा भी मुश्किल से देखने को मिलेगी। यह सोंचकर दोनों दोस्त खुर्जा पहुंच गए। वो चलती गाडी में किसी तरह नेहरू जी के पहले दर्जा कंपार्टमेंट तक पहुंचने में सफल रहे। इनकी काली शेरवानियां अलीगढ की खास पहचान थी । आपने पंडित नेहरू से अलीगढ आने का आग्रह किया, जिसे नेहरू जी ने कुबूल किया।
एक मर्तबा डिबेट प्रतियोगिता सिलसिले में बंबई से भी छात्र अलीगढ आए। इन्होंने विश्वविद्यालय स्वीमिंग पूल पास रानी विक्टोरिया की तस्वीर टंगी देखने बाद कुछ युं कहा ‘हमने अपने यहां फाउंटेन पर बनी रानी की प्रतिमा की तोड दी। यहां के छात्र अब भी अंग्रेजपरस्त हैं।  अगली ही रात अब्बास व दोस्तो ने स्वीमिंग पर टंगी रानी की तस्वीर को फ्रेम से निकाल फेंका। प्रशासन ने समझदारी का तकाजा दिखाते हुए मामले को तूल नहीं दिया।  महान शख्सियतों में अब्बास महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रभावित थे। अलीगढ में ग़ांधी जी से अपनी दूसरी मुलाकात के बारे में अब्बास ने लिखा…महात्मा गांधी विश्वविद्यालय छात्र युनियन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में तकरीर देने आए थे।  हाल हाऊसफुल था…लेकिन मैं डायस के फर्श पर गांधी जी के कदमों पास बैठने में कामयाब रहा। युनियन के प्रेसीडेंट के भाषण दौरान मेरा ध्यान गांधी जी तरफ था। बापू बेफिक्री से इधर-उधर देख रहे थे। कुछ युं जैसे यह बातें किसी दूसरे वयक्ति के बारे में कही जा रही हों। एक बार इक नजर मेरी ओर डाली तो उन्होंने शायद देखा कि यह युवा टकटकी बांधे इन्हें देख रहा। मेरा अंदाज देखकर वह मुस्कुराए,पहले तो मैं घबराया जैसे चोर पकडा गया हो। लेकिन शायद मेरे चेहरे पर भी मुस्कुराहट उभर आई । गांधी जी मासूम मुस्कुराहट तो हरेक आदमी के लिए थी। यह अलग बात है कि हरेक यही समझता कि यह मुस्कुराहट…यह मां की ममता समान मुहब्बत सिर्फ उसके लिए है। फिर वो समय भी आया जब जनवरी तीस की शाम को बंबई के मरीन ड्राईव पर टहलते हुए किसी ने बताया कि किसी सिरफिरे ने महात्मा गांधी को गोलियां चलाकर मार डाला है। सुनकर ऐसा लगा कि चलती दुनिया रुक गयी…जिंदगी थम गयी है। अब्बास खुद को वतन एवं कौम की संतान तस्व्वुर करते थे। गांधीजी व पंडित नेहरू के परिवार को अपना परिवार समझते थे। इंसानियत व समाज के नजरिए से पूरी दुनिया को रिश्तेदार मानते थे।

















(रचनाकार-परिचय
 जन्म: 2 अक्टूबर 1983 को पटना( बिहार) में
शिक्षा : जामिया मिल्लिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म रिव्युज
संप्रति : सिनेमा लेखन
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )


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2 comments: on "ख्वाजा अहमद अब्बास और अलीगढ़ "

Unknown ने कहा…

और आगे क्या हुआ? जानकर अच्छा लगा।

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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