बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

शेरघाटी जो इक शहर है आलम में इंतिख़ाब

वाया  रंग लाल के प्रेमिल क्षण




  







सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से


हमें हमारे बचपन से जुड़ी हर
चीज़ से दूर ले जाया गया
हमें हमारी गलियों पटियों
और महफ़िलों से
बाहर ले जाया गया
बहुत टुच्ची ज़रूरतों के
बदले छीना गया हमसे
इतना सारा सब-कुछ!


किसी को बताएं तो कहेगा
व्यर्थ ही भावुक हो रहे हो तुम
इसमें तो ऐसा ख़ास कुछ भी नहीं
जगहों से प्यारा करने का रिवाज तो
कब का ख़त्म हो चुका!

-राजेश जोशी की एक कविता का अंश

लेकिन जब रिटायर्ड अडिश्नल मजिस्ट्रेट काजी हसन साहब का काजी हाउस से जनाजा उठा, तो हजारों की भीड़ देखते-देखते जुट गई। जबकि नौकरी के सबब उन्हें बिहार के कई शहरों में रहना पड़ा था। शेरघाटी आना-जाना भी बहुधा कम होता था। तब जूनियर इंजीनियर खलीक साहब ने कहा था कि उनकी भी तमन्ना है कि उन्हें भी अपने ही घर-गांव में दफ्न किया जाए। दिल्ली जो इक शहर है आलम में इंतिखाब शीर्षक लेख में मशहूर अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह ने लिखा है कि अपने शहर को कौन प्यार नहीं करता? आखिर जिस शहर में आप जन्मते और बड़े होते हैं, उससे लगाव हो ही सकता है। लेकिन कितने लोग होते हैं, जो उस शहर के बीते कल को जानते हैं। दरअसल, बीते कल की जानकारी से शहर और लोगों के बीच का रिश्ता मजबूत होता है। सन् 1992की गर्मियों में जब मुझे पसीने से लथपथ इमरान अली मिले, कहा कि भाई नेहरु युवा केंद्र की एक स्मारिका निकाल रहा हूं।कुछ रचनाएं दो। शेरघाटी पर केंद्रित करने का प्रयास है। तब भी लगा था कि रिश्ता जड़ों से छूटता नहीं। शिक्षा और रोजगार के कारण देश के कई राज्यों और शहरों में डोलता रहा हूं। इस दरम्यान कुछ किताबें भी प्रकाशित हुईं। कई पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशनों में ऊर्जा खपाई। पर आज भी मेरी कहानियां शेरघाटी की जमीन पर ही खड़ी होती हैं। तब दिल्ली में था। एक ईद पर घर आया, तो गुरुवर नमर्देश्वर पाठक के स्नेहिल कंधों ने हौले से थपथपाया, मेरी पुस्तक कब आएगी। बाबा, जब आप चाहें, मैं तो यही चाहता हूं कि जल्द आ जाए। बोले, इसे तुम संपादित करोगे। इसके बाद सारी सामग्री मुझे सौंप दी। ये अदब से अदब का रिश्ता ही नहीं, मिट्‌टी की ललक रही कि इंकार न कर सका। दिल्ली पहुंच जब उनकी पांड़ुलिपि तैयार करने में था कि दैनिक भास्कर के रांची संस्करण से मेरा बुलावा आ गया। अम्मी पास थीं, बोलीं, बेटा बहुत हो गया परदेस, अब घर चलो। फिर 6 सितंबर 2010 को रांची आ गया। बाबा की किताब प्रकाशक के यहां रह गई। उसके नखरे माशा अल्लाह। पर मोहब्बत शय है आखिर वतन की कि तमाम मुश्किलों के दोबारा कविताओं का चयन किया। पिछले साल उनका कविता-संग्रह जिंदगी पोर-पोर उन्हें समर्पित कर दिया। इसकी प्रतियां उन्हें देते समय भाई इमरान बोले, रंगलाल हाईस्कूल स्थापना के सौ साल पूरे करने जा रहा है। इसपर बाबा, अनुपम, इमरान और मेरी सहमति बनी कि शताब्दी समारोह में क्यों न इसका विमोचन कराया जाए। बाबा स्कूल के शिक्षक ही नहीं, प्राचार्य तक रहे। 

इसके बाद लगातार इमरान के फोन आते रहे कि यार समारोह को लेकर शहर बड़ा उदासीन है। लेकिन पिछले दिनों हमारे युवा विधायक व बिहार के पंचायती राज्य मंत्री विनोद प्रसाद यादव की फेस बुक वाल पर समारोह को लेकर हुई बैठक की तस्वीरें दिखीं, तो सूरज की तरह रंग लाल सामने आ गया। इसी रंग ने तो हमेशा उष्मा और ऊर्जा दी है। तब वेदनारायण सिंह यानी वेदनारायण बाबू हेड मास्टर थे। अचानक एक दोपहर हमारी नौवीं की क्लास में आ धमके। उनकी बहुत दहशत थी। तब यही समझते थे। अब इसे सम्मान कहता हूं। वेदनारायण बाबू बोले, बच्चो कुछ भी पूछो। और किसी से कभी घबराओं नहीं। लेकिन यह भी कहा, सवाल करना बहुत सरल होता है, जवाब देना कठिन। उनसे ग्रहण किया आत्मविश्वास, तो मेरी पहली लघु कथा के संशोधक गुरुवर पाठक जी की सहजता, सिराज सर से मिली बेतकल्लुफी, मौलाना फकरू की बेबाकी और नसीम सर से हासिल तीक्ष्णता ने पल-पल मेरे होने को सार्थक किया है। इसके अलावा शायद ही कोई होगा जिसे शशिनाथ सर का गामा-बीटा, तो गोपी बाबू की अंग्रेजी का ठेठ देशज लहजा याद न हो। गर रामअवतार बाबू न होते, तो मुझ जैसे डेढ़-पसली को कौन एनसीसी में लेता। लेकिन जब हमलोगों की टीम पुराने कोल्ड स्टोरेज के पास मोरहर नदी किनारे फायरिंग के लिए पहुंची, तो दस में से नौ फायरिंग निशाने पर का कमाल इसी नाजुक कंधे का रहा था।

स्कूल की स्मारिका के प्रकाशन पर रंग लाल बार-बार प्रेमिल कर रहा है। भूलते-भागते उन क्षणों की स्मृतियों में लाल रंग के क्रोध और आवेश का मानो लोप ही हो गया हो। कभी स्कूल की लाइब्रेरी, तो कभी आंगन की तुलसी। बुलाती है बार-बार। उसी तुलसी के पास पहली बार मैंने अंग्रेजी में बिदाई संदेश पढ़ा था, पायजामें में घुसी टांग लगातार कांप रही थी। इसी स्कूल का छात्र होने के नाते ट्रेनिंग कॉलेज में आयोजित अनुमंडल युवा उत्सव में भाषण देकर अव्वल आया था। स्कूल में होनेवाली मिलाद की शीरनी, तो सरस्वती पूजा के प्रसाद की मिठास अब कहां मिलेगी। दरअसल यह मिठास मेरे शहर की हर गली-कूचे में है। मस्जिद की अजान से हटिया मोहल्ला में पौ फटती है, तो लोदी शहीद में मंदिर की घंटियों के साथ ही उजास फैलता है। वैदिक काल में भी हमारे शहर का ज़िक्र मिलता है, ऐसा कुछ लोग मानते हैं। वहीं गढ़ के अवशेष आदिवासी मुंडाओं के अतीत बनकर खड़े हैं। एतिहासिक सन्दर्भ मुग़ल काल के अवश्य मिलते हैं। किंवदंती है कि शेरशाह ने यहाँ एक वार से शेर के दो टुकड़े किए थे। जंगलों और टापुओं से घिरे इस इलाके को तभी से शेरघाटी कहा जाने लगा। शेरशाह ने यहाँ कई मस्जिदें , जेल , कचहरी और सराय भी बनवाया था। लेकिन जिस एन.एच-2 पर यह स्थित है। इसे पांच साल पहले तक जीटी रोड या शेरशाह सूरी मार्ग कहा जाता रहा है। पेशावर से कोलकता तक इसे शेरशाह सूरी ने बनवाया था। तब शेरघाटी मगध संभाग का मुख्यालय था। संभवता बिहार-विभाजन तक यही दशा रही। कालांतर में धीरे-धीरे ये ब्लाक बनकर रह गया। 1983में इसे अनुमंडल बनाया गया। जिला बनाने के लिए आंदोलन भी होते रहे हैं। मुस्लिम संतों और विद्वानों की ये स्थली रही है। वहीं प्राचीन शिवालयों से मुखरित ऋचाएं इसके सांस्कृतिक और आद्यात्मिक कथा को दुहराती रहती हैं। 1857 के पहले विद्रोह से गाँधी जी के '42 के असहयोग आन्दोलन में इलाके के लोगों ने अपनी कुर्बानियां दी हैं।




( रंग लाल हाई स्कूल, शेरघाटी  के साल पूरे होने पर प्रकाशित स्मारिका में )




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सोमवार, 22 दिसंबर 2014

41 अनाम शवों की अंत्येष्टि में रो पड़ा रांची का जुमार पुल भी

संवेदनाएं शेष हैं अभी
















शहरोज़ जुमार पुल

तब अंग्रेजों का समय था। आवागमन भी कम था। तभी जुमार नदी को पार करने के लिए मेसरा के पास मुझे(जुमार पुल)बनाया गया। जब  घोड़ों पर सवार आजादी के दीवाने की टोलियां इधर से गुजरती थीं, तो मेरी छाती चौड़ी हो जाया करती थी। रविवार को जब मुर्दा कल्याण समिति, हजारीबाग के मोहम्मद खालिद और मुक्ति रांची के प्रवीण लोहिया की टीम पहुंची, तो छाती फिर चौड़ी हो गई। लगा शहीद उमराव टिकैत और शहीद शेख भिखारी की टोली आई हो। देश के उन बांकुरों ने जहां विदेशी शासन से मुक्ति दी और कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। वहीं इन युवाओं ने आज अनाम 41 शवों की अंत्येष्टि कर उनकी  आत्माओं को मुक्ति दी। इनमें दो महिलाओं के शव भी थे। पुलकित मैं तब भी हुआ था, जब सितंबर 2010 में खालिद व तापस ने मिलकर पचास अनाम शवों का एक साथ अंतिम संस्कार किया था। लेकिन तब सिर्फ हजारीबाग के नेक लोग थे, आज रांची के युवाओं की संवेदनशीलता उनके इंसानी जज्बे से लबरेज थी।

शोक में गिरे पेड़ों के पत्ते
 
 सुबह ही मुर्दा कल्याण समिति की टीम हजारीबाग से रिम्स, रांची पहुंच गई थी। जाति, धर्म और संप्रदाय के दायरे को लांघ कर मुर्दाघर में शवों को बाहर निकालने के लिए खालिद, डॉ. राजेंद्र हाजरा, मुकेश, रोहित, धनंजय व गौतम आदि आगे आए। रिम्स के किसी कर्मचारी के नहीं रहने और बिजली के अभाव ने भी इनके दायित्व निर्वहन में कमी न आने दी। कटे-छंटे मुर्दा जिस्मों में रसायनिक लेप लगाया गया। सभी शवों को पैक किया गया। वहीं इनकी मदद कर माला पांडेय, रचना बाड़ा और राखी कुमारी ने ममत्व को चरितार्थ किया। कई वाहनों पर 41 अनाम लाशों को लेकर जब टीम दिन के 1:45 बजे श्मसान घाट पहुंची, तो हमारी आंखें नम हो गईं। वहीं आसपास के पेड़ों से झर-झर पत्ते गिरने लगे। नदी का पानी भी कल-कल करने लगा।

नहीं पहुंचा कोई सरकारी नुमाइंदा
इधर,  प्रवीण लोहिया,अमरजीत गिरधर, आशीष भाटिया, दीपक लोहिया, पंकज चौधरी, परमजीत सिंह टिकु और हरीश नागपाल आदि मुक्ति के ढेरों सदस्य पहले ही चिता के लिए एक 407 और दो ट्रैक्टर से लकड़ी और तेल ,धूप आदि अन्य सामान के साथ घाट पर तैयार थे। शव यात्रा के पहुंचते ही सभी ने जनाजे को वाहन से उतारा। अरविंद, निजाम, तापस आदि ने चिता सजाई। शवों को उसपर लिटाने के बाद सभी ने पुष्पांजलि अर्पित की। चिता की परिक्रमा के बाद सुनील, फिरोज व मेराज ने इन्हें मुखाग्नि दी, तो सभी आंखें डबडबा गईं। ये सभी शव उनके थे, जो अलग-अलग हादसों में मारे गए। वे कहां के थे। किन-किन गांव-शहरों में उनका बचपन मुस्कुराया, जवानी की उमंग ने कहां अंगड़ाई ली, तो मौत उन्हें कहां से कहां ले आई। ये कोई नहीं जानता। कहीं उनके भाई इन्हें ढूंढ रहे होंगे, तो कहीं उनके मां-पिता की आंखें इंतजार में पत्थर हो चुकी होंगी। कोई मासूम पापा-पापा की रट लगाए रोज मां की गोद में सो जाता होगा। प्रशासन ने उनके दाह-संस्कार की अनुमति जरूर दी, पर उसका कोई प्रतिनिधि उन्हें नमन करने तक नहीं पहुंचा।


भास्कर झारखंड के 22 दिसंबर 2014 के अंक में प्रकाशित
 
   
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रविवार, 14 दिसंबर 2014

नीलेश रघुवंशी को मिला शैलप्रिया स्मृति सम्मान



















बहुमुखी सृजनशीलता के लिए मशहूर युवा कवयित्री व लेखिका नीलेश रघुवंशी को रविवार को रांची में दूसरे शैलप्रिया स्मृति सम्मान से अलंकृत किया गया। वन सभागार, डोरंडा में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि ख्यात लेखिका अलका सरावगी ने उन्हें मान पत्र से नवाज़ा। उन्हें पंद्रह हजार रुपए की राशि पुरस्कार स्वरूप भेंट की। गौरतलब है कि रांची की प्रतिभावान कवयित्री शैलप्रिया का 1 दिसंबर 1994, को महज 48 साल की उम्र में कैंसर से जूझते हुए निधन हो गया था। गत वर्ष उनके परिजनों ने शैलप्रिया स्मृति न्यास का गठन किया। पहला शैलप्रिया सम्मान निर्मला पुतुल को दिया गया था। शैलप्रिया के पुत्र व कवि-पत्रकार प्रियदर्शन ने कहा कि शैलप्रिया के सरोकारों से लैस नीलेश रघुवंशी जीवन की भट्ठी से निकली हुई रचनाकार हैं। हाशिये के लोगों के पक्ष में उनकी रचना खड़ी होती है। शैलप्रिया के छोटे  बेटे व कवि-पत्रकार  अनुराग अन्वेषी ने मान पत्र पढ़कर सुनाया। लेखकीय वक्तव्य में नीलेश ने सोचना आैर होना, हाय दइया, हुट जाएं, पिता की स्मृति में, सांकल, बेखटके और खेल का मैदान शीर्षक कविताओं का पाठ किया। अंतिम कविता में उन्होंने कहा, मैं बेखटके जीना चाहती हूं। आदिवासी लेखक और न्यास के सदस्य महादेव टोप्पो ने कहा कि भविष्य में अन्य भाषाओं में भी  स्त्री लेखन को सम्मानित किया जाएगा। अध्यक्षता सुख्यात उपन्यासकार मनमोहन पाठक ने की, वहीं पहले सत्र का संचालन सुशील अंकन ने किया।

महिला लेखन का बदलता परिदृश्य
दूसरे सत्र में समकालीन महिला लेखन का बदलता परिदृश्य विषय पर हिस्सा लेते हुए रविभूषण ने कहा कि इंदिरा गांधी जबकि बरसों तक प्रधानमंत्री रहीं, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद स्त्री लेखन ज्यादा सामने आया। इसमें हंस और राजेंद्र यादव की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हंस ने दलित और महिला लेखन को प्रमुखता दी। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में स्त्री लेखन अधिक मुखर हुआ। महिलाओं ने कई विधाओं में अभिव्यक्त करना शुरू किया। प्रियदर्शन बोले कि परंपरा व आधुनिकता दोनों स्त्री विरोधी हैं। परंपरा घर में बंद कर, तो आधुनिकता बाजार में खड़ा कर स्त्री को मारना चाहती है। कलिकथा बायपास जैसे अपने चर्चित उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार पा चुकीं अलका सरावगी ने लेखन स्त्री या पुरुष नहीं होता। स्त्री लेखन के नाम से कहीं हमारा एक घेटो तो नहीं बनाया जा रहा है। ठीक है कि स्त्री कई स्तरों पर शोषित है। लेकिन स्त्री सिर्फ स्त्री जीवन पर ही क्यों लिखे। वह इससे इतर संसार पर क्यों न लिखे। नीलेश ने महिला लेखन को अलग खांचे में देखे जाने से इंकार किया। कहा कि गांवों में स्त्रियों को आजादी मिल रही है, वहीं साहित्य में संघर्ष जारी है। राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष व लेखिका महुआ माजी ने अपने दोनों उपन्यास के मार्फत अपनी बात शुरू की। कहा कि उन्होंने पुरुष पात्रों के माधम से स्त्री जीवन को दिखाने की कोशिश की है। हालांकि उन्होंने जानबूझकर नहीं किया, लेकिन उनके स्त्री किरदार शोषित नहीं, बल्कि पुरुष को प्रताड़ित करते हैं।

शैलप्रिया की बिटिया की किताब हुई  लोकार्पित

अंतिम सत्र में अनामिका प्रिया की आलोचना पुस्तक हिंदी का कथा साहित्य और झारखंड लोकार्पित की गई। इसका प्रकाशन क्राउन बुक ने किया है। इस पर रांची विवि के प्रो. मिथिलेश ने बोलते हुए कहा कि यह किताब हिंदी साहित्य के कई अनजाने तथ्य सामने लाती है। । मौके पर विद्याभूषण, हरेराम त्रिपाठी चेतन, अशोक प्रियदर्शी, बालेंदु शेखर तिवारी, डॉ. माया प्रसाद, शैलेश पंडित, दिलीप तेतरवे, कलावंती, डॉ. भारती कश्यप, एमजेड खान, कामेश्वर श्रीवास्तव निरंकुश, रश्मी शर्मा, शिल्पी, अालोका, सुनील भाटिया, जसिंता और प्रशांत गौरव आदि ढेरों साहित्य प्रेमी मौजूद थे।

नीलेश की रचना यात्रा काफी विपुल और बहुमुखी: निर्णायक मंडल
 इस सम्मान के निर्णायक मंडल में रविभूषण, महादेव टोप्पो और प्रियदर्शन शामिल थे। इन्होने  कहा  है, ‘नब्बे के दशक में अपनी कविताओं से हिंदी के युवा लेखन में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली कवयित्री नीलेश रघुवंशी की रचना यात्रा पिछले दो दशकों में काफी विपुल और बहुमुखी रही है। इसी दौर में भूमंडलीकरण के चौतरफ़ा हमले में जो घर, जो समाज, जो कस्बे अपनी चूलों से उख़ड़ रहे हैं, उन्हें नीलेश रघुवंशी का साहित्य जैसे फिर से बसाता है। जनपक्षधरता उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता भर नहीं, उनकी रचना का स्वभाव है जो उनके जीवन से निकली है। कमजोर लोगों की हांफती हुई आवाज़ें उनकी कलम में नई हैसियत हासिल करती हैं। 2012 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स’ के साथ उनके लेखकीय व्यक्तित्व का एक और समृद्ध पक्ष सामने आया है। समकालीन हिंदी संसार में यह औपन्यासिक कृति अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है जिसमें एक कस्बे के भीतर बेटियों से भरे एक मेहनतकश घर की कहानी अपनी पूरी गरिमा के साथ खुलती है। कहना न होगा कि इस पूरे रचना संसार में स्त्री-दृष्टि सक्रिय है जो बेहद संवेदनशील और सभ्यतामुखी है।‘


नीलेश : इक नज़र
जन्म: 4 अगस्त 1969, गंज बासौदा (म.प्र.)
सृजन: घर-निकासी, पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में (कविता संग्रह ), एक कस्बे के नोट्स (उपन्यास),  छूटी हुई जगह (स्त्री कविता पर नाट्य आलेख), अभी ना होगा मेरा अंत  (निराला पर नाट्य आलेख), ए क्रिएटिव लीजेंड (सैयद हैदर रजा एवं ब. व. कारंत पर नाट्य आलेख), एलिस इन वंडरलैंड,  डॉन क्विगजोट,  झाँसी की रानी (बाल नाटक )
सम्मान: भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान, केदार सम्मान, शीला स्मृति पुरस्कार, युवा लेखन पुरस्कार (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता), डीडी अवार्ड 2003 और 2004
संप्रति: भोपाल दूरदर्शन से सम्बद्ध 

भास्कर के  15 दिसंबर 2014 के अंक में संपादित अंश प्रकाशित
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गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

भगवद गीता वाया सुषमा @ संघ






 









कॅंवल भारती की क़लम से 




गीता पर ख़तरनाक  राजनीति


तवलीन सिंह वह पत्रकार हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग अन्धविश्वासी पत्रकारिता की थी। लेकिन अब वे भी मानती हैं कि ‘मोदी सरकार ने जब से सत्ता सॅंभाली है, एक भूमिगत कट्टरपंथी हिन्दुत्व की लहर चल पड़ी है।’ उनकी यह टिप्पणी साध्वी निरंजन ज्योति के ‘रामजादे-हरामजादे’ बयान पर आई है। लेकिन इससे कोई सबक लेने के बजाए यह भूमिगत हिन्दू एजेण्डा अब ‘गीता’ के बहाने और भी खतरनाक साम्प्रदायिक लहर पैदा करने जा रहा है। 
मोदी सरकार की विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग की है। उन्होंने गीता की वकालत में यह भी कहा है कि मनोचिकित्सकों अपने मरीजों का तनाव दूर करने के लिए उन्हें दवाई की जगह गीता पढ़ने का परामर्श देना चाहिए। इससे भी खतरनाक बयान हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खटटर का है, जिन्होंने यह मांग की है कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। इसका साफ मतलब है कि खटटर भारतीय संविधान की जगह गीता को भारत का संविधान बनाना चाहते हैं।

दरअसल, मोदी के प्रधानमन्त्री बनते ही संघपरिवार का हिन्दुत्व ऐसी कुलांचे मार रहा है, जैसे उसके लिए भारत हिन्दू देश बन गया है और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत में पेशवा राज लौट आया है। शायद इसीलिए गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग करके संघपरिवार और भाजपा के नेता भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं। जिस तरह पाकिस्तान में कटटर पंथियों के दबाव में ईश-निन्दा कानून बनाया गया है, और उसके तहत अल्लाह और कुरान की निन्दा करने वालों के विरुद्ध फांसी तक की सजा का प्राविधान है, जिसके तहत न जाने कितने बेगुनाहों को वहां अब तक मारा जा चुका है। ठीक वही स्थिति भारत में भी पैदा हो सकती है, यदि कटटर हिन्दुत्व के दबाव में गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है। शायद कटटरपंथी हिन्दू पाकस्तिान जैसे ही खतरनाक हालात भारत में भी पैदा करना चाहते हैं, क्योंकि गीता के राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने का मतलब है, जो भी गीता की निन्दा करेगा, वह राष्ट्र द्रोह करेगा और जेल जाएगा। इस साजिश के आसान शिकार सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी होंगे, क्योंकि ये दोनों समुदाय गीता के समर्थक नहीं हैं। इसके तहत अन्य अल्पसंख्यक, जैसे मुस्लिम, ईसाई और सिख समुदाय भी हिन्दू कटटरपंथियों के निशाने पर रहेंगे। वैसे इस खतरनाक मुहिम की शुरुआत नरेन्द्र मोदी ने ही जापान के प्रधानमन्त्री को गीता की प्रति भेंट करके की थी।

सवाल यह भी गौरतलब है कि गीता में ऐसा क्या है, जिस पर आरएसएस और भाजपा के नेता इतने फिदा हैं कि उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करना चाहते हैं? सुषमा जी कहती हैं कि उससे मानसिक तनाव दूर होता है। मानसिक तनाव तो हर धर्मग्रन्थ से दूर होता है। ईसाई और मुस्लिम धर्मगुरुओं की मानें, तो बाइबिल और कुरान से भी तनाव दूर होता है। सिखों के अनुसार ‘गुरु ग्रन्थ साहेब’ के पाठ से भी तनाव दूर होता है। अगर तनाव दूर करने की विशेषता से ही गीता राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने योग्य है, तो बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब को भी राष्ट्रीय ग्रन्थ क्यों नहीं घोषित किया जाना चाहिए। लेकिन, यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब में सामाजिक समानता का जो क्रान्तिकारी दर्शन है, क्या वैसा क्रन्तिकारी दर्शन गीता में है? क्या गीता के पैरोकार यह नहीं जानते हैं कि गीता में वर्णव्यवस्था और जातिभेद का समर्थन किया गया है और उसे ईश्वरीय व्यवस्था कहा गया है? यदि गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाया जाता है, तो क्या वर्णव्यवस्था और जातिभेद भी भारत की स्वतः ही राष्ट्रीय व्यवस्था नहीं हो जाएगी? क्या आरएसएस और भाजपा के नेता इसी हिन्दू राष्ट्र को साकार करना चाहते हैं, तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि भारत में लोकतन्त्र है और जनता ऐसा हरगिज नहीं होने देगी।

यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा के नेताओं का गीता-शिगूफा यादव समाज को, जो अपने को कृष्ण का वंशज मानता है, भाजपा के पक्ष में धु्रवीकृत करने की सुनियोजित राजनीति है। उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों की काफी बड़ी संख्या है, जो वर्तमान राजनीति में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के वोट बैंक बने हुए हैं। लेकिन आरएसएस और भाजपा के नेता प्रतीकों की जिस राजनीति में अभी भी जी रहे हैं, उसका युग कब का विदा हो चुका है। आज की हिन्दू जनता 1990 के समय की नहीं है, जो थी भी, उसमें भी समय के साथ काफी परिवर्तन आया है। कुछ मुट्ठीभर कटटरपंथियों को छोड़ दें, तो आज के समाज की मुख्य समस्या शिक्षा, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं की है, मन्दिर और गीता-रामायण की नहीं है। अतः यदि भाजपा गीता के सहारे यादव समाज को लक्ष्य बना रही है, तो उसे सफलता मिलने वाली नहीं है। (8 दिसम्बर 2014)






गीता, कृष्ण और भाजपा

ऐसा लगता है कि आरएसएस और भाजपा ने उत्तर भारत के यादवों को पार्टी से जोड़ने के लिए गीताका कार्ड खेला है। इसमें उन्हें सफलता तो मिलनी नहीं है, पर इस बहाने गीता, कृष्ण और यादव बहस के केन्द्र में जरूर आ गए हैं।

1.
पूर्ण बहुमत की सत्ता में आते ही आरएसएस और भाजपा के नेताओं को लगने लगा कि गीताको राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित किया जाना चाहिए। इससे पहले ऐसी आवाज न उठी थी और न उठाने की उन्होंने हिम्मत की थी। चूँकि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इस अलोकतान्त्रिक मांग का विरोध नहीं किया है, इसलिए यह मानना होगा कि उनकी स्वीकृति भी इस खेल में है, अन्यथा क्या मजाल कि सुषमा स्वराज गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग करें और मरीजों को गीता पढ़ाने का परामर्श देने के लिए मनोचिकित्सकों को कहें। और, क्या मजाल हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खटटर की कि वे यह बेहूदा वक्तव्य दें कि गीता का स्थान भारत के संविधान से ऊपर होना चाहिए। यह दो नेताऔं का खेल नहीं है, वरन् इसके पीछे एक सोची-समझी योजना काम कर रही है। कोई खटटर से पूछे कि क्यों होना चाहिए संविधान से ऊपर गीता का स्थान? इसका कोई तार्किक जवाब है उनके पास? अगर होगा भी, तो वही रटटू तोता वाला घिसा-पिटा जवाब कि यह आस्था का सवाल है, कि आस्था संविधान से ऊपर होती है, और यह कि गीता पर करोड़ों हिन्दुओं की आस्था है। अब आस्था है, तो क्या उसे संविधान से ऊपर कर दोगे? संविधान में आस्था का कोई महत्व नहीं है क्या? जब इसी आस्था का तर्क देकर कोई कटटरपंथी मुसलमान अपने कुरान को संविधान से ऊपर बताता है, तो आरएसएस और भाजपा के लोग ही ज्यादा हाय-हाय करते हैं।

2.
सुषमा स्वराज के भी तर्क देखिए, कितने हास्यास्पद हैं! वे कहती हैं कि गीता को पढ़ने से मानसिक तनाव दूर होता है, शान्ति मिलती है। तनाव से मुक्ति और शान्ति तो कुरान को पढ़ने से भी मिलती है, बाइबिल को पढ़ने से भी मिलती है और गुरुग्रन्थ साहेब का पाठ करने से भी मिलती है। इस बात की तस्दीक मुसलमानों, ईसाईयों और सिक्खों से की जा सकती है। अगर वे इसकी तस्दीक कर दें, तो सुषमा जी गीता के साथ ही कुरान, बाइबिल और गुरुग्रन्थ साहेब को भी राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दीजिए। क्या कर सकेंगी ऐसा?

3.
एक सवाल मेरे जहन में यह पैदा हो रहा है कि अगर मोदी सरकार ने गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया, हालांकि ऐसा होना सम्भव नहीं है, तो क्या हो सकता है? मेरा जवाब यह है कि अगर ऐसा हुआ, तो भारत में पाकिस्तान जैसे फासीवादी हालात पैदा हो जाएंगे । जिस तरह वहाँ कटटरपंथियों के दबाव में ईश-निन्दा कानून बना है, जिसकी आड़ में वहाँ के मौलवी अपने विरोधियों पर ईश-निन्दा करने का इलजाम लगाकर उन्हें ठिकाने लगवा देते हैं, उसी तरह की स्थिति भारत में हो भी जाएगी। यहाँ भी गीता की निन्दा करने वाले को राष्ट्र-द्रोह के अपराध में जेल में डाल दिया जाएगा। इसकी आड़ में कटटरपंथी हिन्दू अपने विरोधियों को ही ठिकाने लगाने का काम करेंगे और उनकी हिंसा के आसान शिकार दलित और आदिवासी ही ज्यादा होंगे, क्योंकि वे स्वयं को हिन्दू फोल्ड में नहीं मानते हैं। उनकी हिंसा की जद में मुसलमान और ईसाई तो पहले से ही हैं, तब वे और भी उनके निशाने पर आ जाएंगे।

4.
चूँकि ब्राह्मणों ने कृष्ण की असुर-विरोधी छवि पहले ही बनाई हुई है, इसलिए आरएसएस उसी का लाभ उठा रही है। उसके सारे कथावाचक आजकल इसी अभियान में लगे हुए हैं। कल ही मेरे शहर के एक ग्रामीण अंचल में कथावाचिका मंजू शास्त्री प्रचार कर रही थीं कि असुरों ने पृथ्वी पर देवताओं का जीना मुश्किल कर दिया था, जिनके विनाश के लिए कृष्ण को जन्म लेना पड़ा था। यह एक ऐसा मिथ्या प्रचार है, जिसका कृष्ण के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। ब्राह्मणों ने कंस के संहारक के रूप में जिस कृष्ण को पुराणों में गढ़ा है, वे वास्तविक नहीं हैं। वास्तविक कृष्ण इन्द्र विरोधी, आर्य विरोधी, देवता विरोधी और उनकी पशुबलि तथा यज्ञ-संस्कृति के विरोधी थे। कृष्ण का जिस इन्द्र से भयानक संघर्ष चला था, उसका वर्णन कोई कथावाचक नहीं करता। आरएसएस के इतिहासकार भी इसे बताना नहीं चाहते। अगर वे उसे बता देंगे, तो कृष्ण के नाम से जो मिथकीय लीलाधाम उन्होंने खड़ा किया है, वह ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा और उसी के साथ उनका भोगेश्वर भी समाप्त हो जाएगा।
कृष्ण पाण्डवों का समकालीन समझे जाते हैं, पर यह भूल है। धर्म-दर्शन और इतिहास के महाविद्वान धर्मानन्द कोसम्बी ने अपने ग्रन्थ भारतीय संस्कृति और अहिंसा’ (1948) में लिखा है कि कुरु देश में कौरवों और पाण्डवों का साम्राज्य होना और उसी के पड़ोस में, उसी समय, कंस का साम्राज्य होना सम्भव ही नहीं है। उनके अनुसार, महाभारत में कंस और कौरवों का कोई भी सम्बन्ध नहीं दिखाया गया है। पौराणिक काल में कृष्ण की और पाण्डवों की कथाओं का मिश्रण किया गया, पर उसे विश्वसनीय मानने के लिए कोई आधार नहीं है। कोसम्बी लिखते हैं कि कृष्ण गोरक्षक थे, जबकि इन्द्र के यज्ञों में गोहत्या होती थी। इसी गोहत्या को रोकने के लिए कृष्ण ने इन्द्र के साथ युद्ध किया था, जिसमें इन्द्र की पराजय हुई थी। कोसम्बी ने लिखा है कि यदि कृष्ण ने इन्द्र की अधीनता स्वीकार करके उसके नाम से यज्ञ-याग आरम्भ कर दिए होते, तो कृष्ण भी दिवोदास की तरह ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध व्यक्ति होते। पर, गायें मारकर यज्ञ करना कृष्ण को पसन्द नहीं था, इसलिए इन्द्र ने उन्हें शत्रु माना और उनकी गणना असुर-राक्षसों में की गई। लेकिन कोसम्बी कहते हैं कि मध्य हिन्दुस्तान में कृष्ण की पूजा बराबर जारी थी। इसीलिए ब्राह्मण उन्हें अवतार बनाने पर मजबूर हुए, पर उनका विकृतीकरण करके। कोसम्बी के अनुसार, दास और आर्यों के संघर्ष से उत्पन्न बलिपूर्वक यज्ञ करने की प्रथा का एकमात्र विरोधी देवकीनन्दन कृष्ण ही था।
कोसम्बी के अन्य विवरण से पता चलता है कि सप्तसिंधु प्रदेश पर कब्जा करने के बाद जब इन्द्र पूर्व की ओर बढ़ा, तो उसका सामना कृष्ण से ही हुआ था। कृष्ण ने दस हजार सेना के साथ अंशुमति नदी के समीप, जहाँ उनकी छावनी थी, इन्द्र से मुकाबला किया था। इसका उल्लेख ऋग्वेद के आठवें मण्डल में सूक्त 85 में मिलता है। यहाँ कृष्ण को तेज चलने वाला असुरकहा गया है। कृष्ण की व्यूह रचना जबरदस्त थी, जिससे इन्द्र को पराजय का सामना करना पड़ा था। इससे बौखला कर इन्द्र ने कृष्ण के देश में एक प्रसूतिगृह में घुसकर वहाँ सभी गर्भवती स्त्रियों को मार डाला था। भागवत के दशवें स्कन्ध से यह भी पता चलता है कि इन्द्र ने कृष्ण समर्थक कुछ अन्य स्त्रियों पर तेज पानी की बारिश करके (धार छोड़कर) उन्हें मारने की कोशिश की थी, तब कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर (स्त्रियों को किसी पर्वत की आड़ में ले जाकर) उनकी रक्षा की थी। ये वर्णन बताते हैं कि जो कृष्ण स्वयं असुर या अनार्य थे, वह असुरों का वध कैसे कर सकते थे?

5.
यह भी देख लेना चाहिए कि क्या गीता से कृष्ण का कोई सम्बन्ध बनता है? गीता गुप्तकाल में किसी समय लिखी गई रचना है, जिसे बाद में महाभारत में जोड़ा गया होगा। गीता की रचना से कृष्ण का कोई भी सम्बन्ध नहीं है। कृष्ण का समय ऋग्वेद का समय है, जबकि गीता के अध्याय 13 के चैथे श्लोक में ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमöिर्विनिश्चितैःमें ब्रह्मसूत्रका उल्लेख स्वयं बताता है कि गीता की रचना ब्रह्मसूत्रके बाद हुई थी। ब्रह्मसूत्रके रचयिता वादरायण माने जाते हैं, जिनका समय 300 ई. था। वह जैमिनी के समकालीन थे। पौराणिक परम्परा वादरायण और वेदव्यास को एक मानती है और पांच हजार साल पहले के महाभारत काल में ले जाती है, पर राहुल सांकृत्यायन कहते हैं कि इसका खण्डन स्वयं वेदान्त सूत्रकार के सूत्र करते हैं, जिनमें सिर्फ बुद्ध के दर्शन का ही नहीं, बल्कि उनकी मृत्यु (483 ई.पू.) से छह-सात सदियों से भी पीछे अस्तित्व में आने वाले बौद्ध दार्शनिक सम्प्रदायों- वैभाषिक, योगाचार, माध्यमिक- का खण्डन है। बुद्धवचनों में, जो ऐतिहासिक माने जाते हैं, कहीं भी राम-रावण और कृष्ण-कंस का जिक्र नहीं है, पर पांचवी शताब्दी में लिखी गईं अट्ठकथाओं में जरूर उनका उल्लेख मिलता है। इस प्रकार  गीता चैथी या पांचवी सदी की रचना होनी चाहिए, जिसका देवकीनन्दन कृष्ण से कोई ऐतिहासिक मेल नहीं बैठता है।

6.
गीता का धर्म वर्णव्यवस्था और जातिभेद का धर्म है। गीता में कृष्ण के मुॅंह से अध्याय 4 के श्लोक 13 में कहलवाया गया है कि चातुर्वर्ण व्यवस्था का कर्ता मैं ही हूॅं, यह मेरे द्वारा ही रचा गया है।दूसरे शब्दों में गीता में वर्णव्यवस्था ईश्वरीय व्यवस्था है। ऐसे ग्रन्थ को अगर राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है तो वर्णव्यवस्था भी स्वतः ईश्वरीय व्यवस्था घोषित हो जाएगी, जबकि कृष्ण की वर्णव्यवस्था में कोई आस्था नहीं थी। (9 दिसम्बर 2014) 

कॅंवल भारती हमज़बान में भी
 

(लेखक-परिचय:
प्रगतिशील -अम्बेडकरवादी विचारक, कवि, आलोचक और पत्रकार
जन्म: 4 फ़रवरी 1953 को उत्तर प्रदेश के रामपुर  में
शिक्षा: स्नात कोत्तर
सृजन: पंद्रह वर्ष की उम्र से  ही कविताई। दलित इतिहास, साहित्य,  राजनीति और पत्रकारिता पर हिंदी में अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित.
ब्लॉग:   कँवल भारती के शब्द 
संप्रति: स्वतंत्र लेखक व पत्रकार
संपर्क: kbharti53@gmail.com) 


   

 
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सोमवार, 8 दिसंबर 2014

अयोध्या : एक तहज़ीब के मर जाने की कहानी


  









वसीम अकरम त्यागी की क़लम से

कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे. वहीं खेले-कूदे बड़े हुए. बनवास भेजे गए. लौट कर आए तो वहां राज भी किया. उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया. जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है. जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर हैं. जहां बैठकर राज किया वहां मंदिर है. जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है. जहां भरत रहे वहां मंदिर है. हनुमान मंदिर है. कोप भवन है. सुमित्रा मंदिर है. दशरथ भवन है. ऐसे बीसीयों मंदिर हैं. और इन सबकी उम्र 400-500 साल है. 
यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुगल या मुसलमानों का राज रहा. अजीब है न! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर! उन्हें तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किया जाता है. उनके रहते एक पूरा शहर मंदिरों में तब्दील होता रहा और उन्होंने कुछ नहीं किया! कैसे अताताई थे वे, जो मंदिरों के लिए जमीन दे रहे थे. 
शायद वे लोग झूठे होंगे जो बताते हैं कि जहां गुलेला मंदिर बनना था उसके लिए जमीन मुसलमान शासकों ने ही दी. दिगंबर अखाड़े में रखा वह दस्तावेज भी गलत ही होगा जिसमें लिखा है कि मुसलमान राजाओं ने मंदिरों के बनाने के लिए 500 बीघा जमीन दी. निर्मोही अखाड़े के लिए नवाब सिराजुदौला के जमीन देने की बात भी सच नहीं ही होगी. सच तो बस बाबर है और उसकी बनवाई बाबरी मस्जिद! 
अब तो तुलसी भी गलत लगने लगे हैं जो 1528 के आसपास ही जन्मे थे. लोग कहते हैं कि 1528 में ही बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई. तुलसी ने तो देखा या सुना होगा उस बात को. बाबर राम के जन्म स्थल को तोड़ रहा था और तुलसी लिख रहे थे मांग के खाइबो मसीत में सोइबो. और फिर उन्होंने रामायण लिखा डाली. राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने क्या तुलसी को जरा भी अफसोस न रहा होगा! कहीं लिखा क्यों नहीं! 
अयोध्या में सच और झूठ अपने मायने खो चुके हैं. मुसलमान पांच पीढ़ी से वहां फूलों की खेती कर रहे हैं. उनके फूल सब मंदिरों पर उनमें बसे देवताओं पर.. राम पर चढ़ते रहे. मुसलमान वहां खड़ाऊं बनाने के पेशे में जाने कब से हैं. ऋषि मुनि, संन्यासी, राम भक्त सब मुसलमानों की बनाई खड़ाऊं पहनते रहे. सुंदर भवन मंदिर का सारा प्रबंध चार दशक तक एक मुसलमान के हाथों में रहा. 1949 में इसकी कमान संभालने वाले मुन्नू मियां 23 दिसंबर 1992 तक इसके मैनेजर रहे. जब कभी लोग कम होते और आरती के वक्त मुन्नू मियां खुद खड़ताल बजाने खड़े हो जाते तब क्या वह सोचते होंगे कि अयोध्या का सच क्या है और झूठ क्या? अग्रवालों के बनवाए एक मंदिर की हर ईंट पर 786 लिखा है. उसके लिए सारी ईंटें राजा हुसैन अली खां ने दीं.

किसे सच मानें? क्या मंदिर बनवाने वाले वे अग्रवाल सनकी थे या दीवाना था वह हुसैन अली खां जो मंदिर के लिए ईंटें दे रहा था? इस मंदिर में दुआ के लिए उठने वाले हाथ हिंदू या मुसलमान किसके हों, पहचाना ही नहीं जाता. सब आते हैं. एक नंबर 786 ने इस मंदिर को सबका बना दिया. क्या बस छह दिसंबर 1992 ही सच है! जाने कौन. छह दिसंबर 1992 के बाद सरकार ने अयोध्या के ज्यादातर मंदिरों को अधिग्रहण में ले लिया. वहां ताले पड़ गए. आरती बंद हो गई. लोगों का आना जाना बंद हो गया. बंद दरवाजों के पीछे बैठे देवी देवता क्या कोसते होंगे कभी उन्हें जो एक गुंबद पर चढ़कर राम को छू लेने की कोशिश कर रहे थे? सूने पड़े हनुमान मंदिर या सीता रसोई में उस खून की गंध नहीं आती होगी जो राम के नाम पर अयोध्या और भारत में बहाया गया? अयोध्या एक शहर के मसले में बदल जाने की कहानी है. अयोध्या एक तहजीब के मर जाने की कहानी है.
( वसीम अकरम त्यागी के फ़ेस बुक  स्टेटस से. खेद है कि कबाड़खाना जैसे ब्लॉग ने इसे संजीव भट्ट के नाम से पोस्ट किया है)  

(रचनाकार -परिचय:
जन्म :  उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में 12 अक्टूबर 1988 को ।
शिक्षा : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व  संचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर।
सृजन : समसामायिक और दलित मुस्लिम मुद्दों पर ढेरों  रपट और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
 संप्रति :  मुस्लिम टुडे में उपसंपादक/ रिपोर्टर
संपर्क : wasimakram323@gmail.com
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बुधवार, 3 दिसंबर 2014

16 मई के बाद बदलते रंग हज़ार



लोकतंत्र का भगवाकरण















कृष्णकांत की क़लम से

 हमारे संविधान की उद्देशिका कहती है कि भारत एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना धर्म नहीं होगा। संविधान भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन कुछ राज्यों में पहले से मौजूद राज्य सरकारें और अब केंद्र में पूर्ण बहुमत की नरेंद्र मोदी सरकार लगातार प्रशासनिक संस्थाओं, शिक्षा और संस्कृति के भगवाकरण का प्रयास कर रही है. हालांकि नरेंद्र मोदी कहते हैं कि 'भारत इक्कीसवीं सदी में विश्वगुरु बनेगा', लेकिन लक्षण इसके विपरीत दिख रहे हैं. केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद एक तरफ तो देशभर के शिक्षण संस्थानों में एक खास तरह का राजनीतिक एजेंडा बड़ी खामोशी से लागू करने का प्रयास किया जा रहा है, तो दूसरी ओर प्रशासन पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के नियंत्रण की कोशिश के क्रम में संघ के हिंदूवादी कार्यक्रमों में मंत्रियों व अधिकारियों को शामिल किया जा रहा है.

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ हमेशा यह दावा करता रहा है कि वह सरकारों के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करता। लेकिन संघ की ओर से एक नई पहल चर्चा में है. केंद्रीय मंत्रियों के सभी निजी स्टाफ को सप्ताह में एक दिन संघ की शाखा में शामिल होने को कहा गया है. मीडिया में आई खबरों में कहा गया कि हाल ही में संघ के कर्ता-धर्ताओं और केंद्रीय मंत्रियों के बीच मीटिंग हुई, जिसमें संघ ने मंत्रियों से कहा कि वे अपने निजी स्टाफ को रविवार को संघ की शाखा में जरूर भेजें. संघ के इस प्रस्ताव पर मंत्री राजी भी हैं. मंत्रियों के निजी स्टाफ को हर रविवार सुबह संघ की शाखा में पहुंचना होता है. इसके लिए उन्हें एक दिन पहले मोबाइल से जानकारी दे दी जाती है.

दिल्ली में वर्ल्ड हिंदू फाउंडेशन के तत्वावधान में 21 नवंबर को तीन दिवसीय विश्व हिंदू कांग्रेस शुरू हुई, जिसमें विश्व हिंदू परिषद के प्रमुख अशोक सिंघल ने घोषणा की कि 'दिल्ली में 800 साल बाद पहली बार दिल्ली में हिंदू स्वाभिमानियों के हाथ सत्ता आई है.' सिंघल ने कहा कि विहिप का उद्देश्य निर्भीक अजेय हिंदू बनाना है। हिंदू राष्ट्र की घोषणा करने वाले इस सम्मेलन में दलाई लामा और संघ प्रमुख मोहन भागवत व अन्य लोगों के अलावा सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी, वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण को भी शिरकत करनी है.

दूसरी तरफ संघ और केंद्र सरकार के बीच समन्वय के लिए एक समिति बनाई गई है और उस समिति की हाल ही में बैठक हुई। बैठक में सरकार का नेतृत्‍व कृषिमंत्री राधा मोहन सिंह ने किया। श्रम मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल, कृषि राज्य मंत्री संजीव कुमार बालियान केंद्र की ओर से शामिल होने वाले अन्य मंत्री थे। आरएसएस की ओर से बैठक में संघ और भाजपा के बीच समन्वय के लिए हाल ही में नियुक्त कृष्‍ण गोपाल, वरिष्ठ संघ पदाधिकारी सुरेश सोनी, भाजपा महासचिव राम लाल, राम माधव और पी मुरलीधर राव मौजूद थे। बैठक में संघ से जुड़े संगठनों स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, लघु उद्योग भारती और सहकार भारती के पद‌ाधिकरियों ने भी हिस्सा लिया। खबरों के मुताबिक, सरकार और संघ के बीच समन्यव की दिशा में पहल की जा चुकी है। बैठक में आर्थिक गतिविधियों से जुड़े मंत्रियों और संघ पदाधिकारियों के बीच नीतिगत पर चर्चा हुई. मंत्रियों ने संघ पदाधिकारियों के मशविरों को नोट किया. बैठक में शामिल एक पदाधिकारी का कहना था कि हाल में सरकार के कई फैसले संघ की नीतियों के अनुरूप नहीं रहे, ऐसे मुद्दों पर संघ की नीतियों को लेकर समझ बनाने के लिए यह बैठक हुई और आगे भी होती रहेगी।

शिक्षा की बात करें तो हालत और बदतर हैं. शिक्षा के लिए ऐसे ऐसे तर्क और ज्ञान पेश किए जा रहे हैं कि कोई हाईस्कूल पास व्यक्ति भी अपना सिर पीट ले. हरियाणा में भाजपा सरकार बनते ही बच्चों से बीस—बीस रुपये लेकर गोसेवा पर लि​खी गई दो किताबें बांटी गई हैं. बीते 30 जून को गुजरात सरकार ने सर्कुलर जारी कर राज्य के 42,000 सरकारी स्कूलों को निर्देश दिया कि वह पूरक साहित्य के तौर पर दीनानाथ बत्रा की नौ किताबों के सेट को शामिल करें। इन्हें पढ़ना सब बच्चों के लिए अनिवार्य होगा। दीनानाथ बत्रा संघ से जुड़ी संस्था विद्या भारती के मुखिया हैं। ये किताबें पूरी तरह संविधान की उस भावना की धज्जियां उड़ाती हैं कि सरकार वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देगी. यह किताबें घोर अज्ञान को बढ़ावा देने वाली और बेहद हास्यास्पद हैं. किताब की कुछ बानगियां देखें— 'भारत के नक्शे में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, बांगलादेश, श्रीलंका और म्यांमार अर्थात बर्मा भी शामिल है। ये सब 'अखंड भारत' का हिस्सा हैं।'

बत्रा साहेब की किताब ‘तेजोमय भारत’ का एक हिस्सा देखें—'अमेरिका आज स्टेम सेल रिसर्च का श्रेय लेना चाहता है, मगर सच्चाई यह है कि भारत के बालकृष्ण गणपत मातापुरकर ने शरीर के हिस्सों को पुनर्जीवित करने के लिए पेटेंट पहले ही हासिल किया है. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस रिसर्च में नया कुछ नहीं है और डा मातापुरकर महाभारत से प्रेरित हुए थे. कुंती के एक बच्चा था जो सूर्य से भी तेज था. जब गांधारी को यह पता चला तो उसका गर्भपात हुआ और उसकी कोख से मांस का लंबा टुकड़ा बाहर निकला. व्यास को बुलाया गया जि‍न्होंने मांस के उस टुकड़े को कुछ दवाइयों के साथ पानी की टंकी में रख दिया. बाद में उन्होंने मांस के उस टुकड़े को 100 भागों में बांट दिया और उन्हें घी से भरी टंकियों में दो साल के लिए रख दिया. दो साल बाद उसमें से 100 कौरव निकले. महाभारत में इस किस्से को पढ़ने के बाद मातापुरकर को अहसास हुआ कि स्टेम सेल की खोज उनकी अपनी नहीं है बल्कि वह महाभारत में भी दिखती है. (पृष्ठ 92-93)

इसी किताब में वे दावा करते हैं कि 'हम जिसे मोटरकार के नाम से जानते हैं उसका अस्तित्व वैदिक काल में बना हुआ था. उसे ‘अनश्व रथ’ कहा जाता था. अनश्व रथ ऐसा रथ होता था जो घोड़ों के बिना चलता था, यही आज की मोटरकार है, ऋग्वेद में इसका उल्लेख है.' (पृष्ठ 60) बत्रा की यह किताब ऐसे हास्यास्पद आख्यानों से भरी है. यह विश्वगुरु बनने की तैयारी कर रहे देश के बच्चों को दी जानी वाली अनिवार्य शिक्षा की बानगी है. यह संयोग नहीं है कि संघ परिवार से संबंधित तमाम साहित्य ऐसे असाधारण ज्ञान विज्ञान से भरा पड़ा है. क्या स्मृति ईरानी जैसी कम शिक्षित टेलीविजन अदाकारा को इसीलिए मानव संसाधन मंत्रालय दिया गया ताकि संघ परिवार बेरोकटोक ऐसी पोंगापंथियों का प्रसार कर सके? 

संघ की स्थापना से ही उसका सपना रहा है कि इतिहास को हिंदूवादी नजरिये से लिखा जाए. केंद्र में नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के बाद येल्लाप्रगदा सुदर्शन राव को भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद का अध्यक्ष बनाया गया. राव इतिहासकार के तौर पर इस बात के हिमायती हैं कि महाभारत और रामायण को 'ऐतिहासिक घटनाएं' सिद्ध किया जाए. अध्यक्ष बने राव ने हास्यास्पद दुस्साहस दिखाते हुए ‘भारतीय जाति व्यवस्था’ की अच्छाइयां खोज लीं और घोषणा भी कर डाली कि उनका एजेंडा महाभारत की घटनाओं की तारीख निश्चित करने के लिए शोध कराने का है.
यह सब इत्तेफाक नहीं है. गुजरात और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकारें पहले से ही ऐसी कोशिश करती रहीं हैं. करीब एक दशक से मध्य प्रदेश के मिस्टर क्लीन मुख्यमंत्री शिवराज चौहान शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण की कोशिश में लगे हैं. अगस्त 2013 में मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने राजपत्र के जरिये  अधिसूचना जारी कर मदरसों में भी गीता पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया था. इसमें प्रदेश मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त सभी मदरसों में कक्षा तीन से आठ तक सामान्य हिंदी की तथा पहली और दूसरी की विशिष्ट अंग्रेजी और उर्दू की पाठ्यपुस्तकों में भगवतगीता में बताए प्रसंगों पर एक एक अध्याय जोड़े जाने की अनुज्ञा की गई थी और इसके लिए राज्य के पाठ्य पुस्तक अधिनियम में बाकायदा जरूरी बदलाव भी किए गए थे. विवाद पैदा हुआ तो अपने को भाजपा के अटल विहारी वाजपेयी साबित करने की कोशिश कर रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यह निर्णय वापस ले लिया.

इसके पहले 2011 में ​ही शिवराज सरकार स्कूलों के पाठ्यक्रम में गीता लागू करवा कर चुकी थी. शिवराज सरकार ने शासकीय स्कूलों में योग के नाम पर ‘सूर्य नमस्कार’ भी अनिवार्य किया था, बाद में उसे ऐच्छिक विषय बना दिया गया. स्कूल शिक्षकों को ऋषि कहकर संबोधित करना हो या मिड डे मील के पहले भोजन मंत्र पढ़ाने का आदेश, यह सब संस्थानों के भगवाकरण की ही कड़ी थे. वर्ष 2009 में मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका देवपुत्र को सभी स्कूलों में अनिवार्य तौर पर पढ़ाए जाने का फैसला लिया था. संघ और भाजपा की प्राथमिकता शिक्षा का स्तर सुधारने और उसे वैज्ञानिक बनाने के बजाय हिंदू शिक्षा देने की है जिसकी वकालत आए दिन दीनानाथ बत्रा या बाबा रामदेव करते रहे हैं.

शिक्षा का अधिकार कानून अब तक पूरे देश में लागू नहीं हो सका है. पूरे देश के बच्चे कुपोषण और अशिक्षा से जूझ रहे हैं. ऐसे में संघ के रिमोट से चल रही केंद्र और राज्य सरकारें देश भर के संस्थानों में हिंदू एजेंडा लागू करने में जुटी हैं. यह देश के सौ सालों के स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत और भारतीय संविधान की आत्मा को ध्वस्त करने की कोशिशें हैं. कालांतर में इनके परिणाम भयावह होंगे. (जनपथ से )
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(रचनाकार-परिचय:
जन्म:  30 अगस्त 1986 को  उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले में।
शिक्षा: इलाहाबाद विवि से पत्रकारिता में एमए।
सृजन: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं और कहानियां प्रकाशित
संप्रति:  दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में बतौर चीफ सब एडीटर कार्यरत
संपर्क : krishnkant1986@gmail.com)
  
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मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

ख़्वाजा अहमद अब्बास को याद करते उनके नवासे

 आज़ाद  क़लम का  आख़िरी पन्ना














मंसूर रिज़वी की क़लम से
मेरी परवरिश बंबई के उसी घर में में हुई,जहां बाबा रहा करते थे। अब्बास साहब को हम मुहब्बत से ‘बाबा’ ही पुकारा करते थे । जुहु के उनके मकान में सन सत्तासी तक रहा, जोकि अफसोस से उनके इंतक़ाल का साल भी था। बाबा को हमेशा उस इंकलाबी शख्सियत के तौर पर याद करता हूं… जो लकवे का झटका बर्दाश्त कर भी पहली मुहब्बत क़लम पर कायम रहे। उन मुश्किल दिनों में आप साप्ताहिक बिलिट्ज़ के लिए हिंदी व अंग्रेजी मजमून लिख रहे थे। आप मरते वक्त तक वहां ‘आज़ाद  क़लम’  नाम से ‘आख़िरी पन्ना’ कालम लिख रहे थे। 
बहुत सी फीचर फिल्मों को बनाने के अलावा बाबा ने वतनपरस्ती जज्बे को जगाने वाली खास फिल्में भी बनाई। अब्बास साहेब वतन को लेकर बहुत गंभीरता से सोंचा करते थे। आप जज्बा-ए-वतन अर्थात देशभक्ति के जबरदस्त पैरोकार थे। आपकी लघु फिल्म ‘दो दोस्त’ में मेरे अलावा एक मजदूर के बेटे ने भी काम किया
था। कहानी में अमीर व  ग़रीब लडकों की तस्वीर-ए-जिंदगी के बरक्स पनप रही गहरी दोस्ती को विषय बनाया गया। इनकी प्यारी दोस्ती बन रही इमारत के पूरा हो जाने के  साथ जज़्बाती अंत को पा गयी। अम्मी आपको
मामूजान कहकर बुलाया करती थी। हम भी आपको कभी कभी मामूजान कहा करते थे। आप यकीन ना करें लेकिन अमिताभ भी अब्बास साहेब को इसी नाम से पुकारा करते। अमिताभ बच्चन से मिलना मुझे अब भी याद है। शहंशाह रिलीज होने की खुशी में एक महफिल जमा हुई थी। उन दिनों बाबा बहुत सख्त बीमारी से गुजर रहे थे। अमिताभ साहेब ने हमारी फिक्रों को साझा किया| आपको बताऊं कि अस्पताल के खर्च की जिम्मेदारी अमिताभ उठा रहे थे|
एकता के जज्बे को सलाम करते हुए बाबा ने ‘Naked Fakir’ डाक्युमेंट्री बनाई थी । महात्मा गांधी की इज्जत में सदर विंस्टन चर्चिल के इस्तकबाल ‘Naked Fakir’ के नाम से महात्मा गांधी पर फ़िल्म बनाई । बाबा परवरदिगार को अपनी इबादत व अकीदत अदा करने के लिए उसके किसी घर से परहेज नहीं करते थे । धर्म के संकीर्ण भेदभाव से विरोध का यह नायब तरीका था|

 काम की तालाश में आए फरियादी नौजवानों को आप अपने दर से खाली नहीं लौटाया करते थे। जिंदगी की राह में इनके जुनूं को जिंदा रखना जानते थे| फिल्मों में तक़दीर आजमाने आए इन युवाओं को शायद मालूम ही था कि बाबा ने सुपरस्टार अमिताभ बच्चन  की तक़दीर बनाई। वो जाने अनजाने अमिताभ की किस्मत पा लेने की कोशिश में दीवाने से  थे। इंटरव्यु में इन लोगों से बाबा का सवाल रहता, आपने मेरी कौन सी फिल्में देखी? सबसे ज्यादा पसंद आने वाली फिल्म? इसका रटा रटाया जवाब ‘सात हिन्दुस्तानी’ हुआ करती थी। आगे बाबा इसी से जुडा हुआ सवाल रखते मसलन  आपको किस किरदार ने सबसे अधिक प्रभावित किया? इसका जवाब अक्सर अमिताभ बच्चन का किरदार ‘अनवर अली ‘ हुआ करता था। बहुत से लोग ऐसा ही जवाब देते तो बाबा उलटकर पूछ लेते कि सिर्फ अमिताभ ही क्यों? जवाब ...युवा इम्तिहान में लड़खड़ाने लगते| वहां मौजूद हमलोग तब हंसी रोक नहीं पाते थे! बाबा नेहरू के विचारों को कटटरता से मानने वालों में से थे। 
आप जवाहरलाल नेहरू के वक्त से नेहरू-गांधी खानदान से गहरे रूप से प्रभावित रहे। इस खानदान पर आपने बहुत सी किताबें भी लिखीं। फिर भी इमरजेंसी की वजह से इंदिरा गांधी की पालिसियों की जबरदस्त आलोचना करने से नहीं चूके । इंदिरा जी पर लिखी आपकी दो किताबें इस सिलसिले में अहम थी। एक बार बाबा मुझे आल इंडिया रेडियो की रिकाडिंग सिलसिले में साथ ले  गए थे। उन दिनों बचपन के लिहाज से दुनिया की हलचल से अनजान सा था। इंदिरा गांधी की हत्या की खबर लेकिन इस उस बच्चे को भी असर करने वाली थी| क़त्ल की खबर पर अब्बास साहेब के चेहरे की रंगत को बदलते जरूर देखा। 

हमें एक डिनर पर जाना था,लेकिन आपका मन गमगीन फिजा में डिनर की सोंच सकता था? आसपास का माहौल भी नाजुक हो चुका था। घर वापसी के रास्ते में कुछ इंतेहापसंद नौजवानों ने रास्ता रोककर इंदिरा के कातिलों को खत्म करने के लिए मदद मांगी। गाडी रोकर हमलोगों के हुलिए की छानबीन की गयी। उस वक्त उसमें अम्मी व चचीजान के अलावा मर्द की शक्ल में अब्बास साहेब भी सवार थे । इंतेहापसंद लोगों के सरों पर खून सवार था… लेकिन हमारी गाडी को पास कर दिया गया। क्योंकि एक लडके ने बाबा को पहचान लिया था..युवा अपनी धड़कन को भला नुकसान पहुंचा सकते थे ? सब बहिफाजत वापस घर में थे| बहरहाल ... खेलों में  बाबा को क्रिकेट में सबसे ज्यादा  दिलचस्पी थी। हिन्दुस्तान-पाक मुकाबलों के खासे दीवाने रहे। जानते हुए कि आपकी बहन को करांची ब्याहा गया था| यह जानने की कोशिश में कि बाबा किस टीम की हिमायत में? हम आपका पक्ष जानना चाहते थे। बाबा का जवाब दो टूक हुआ करता….कपिल देव का दीवाना हूं।
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(पेशकश सैयद एस.तौहीद)

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सोमवार, 1 दिसंबर 2014

झारखंड को किसने लूटा 14 में 9 साल किया भाजपा ने शासन

 भाजपा नामक ढोल की पोल














मुजाहिद नफ़ीस की क़लम से 

झारखंड में भी चुनाव है। पहले चरण के बाद आज यानी दो दिसंबर को दूसरे चरण के तेहत राज्य के 20 विधानसभा क्षेत्रों में वोट पडेंगे। इनमें से अधिकतर इलाके नक्सल प्रभावित हैं। इसका कारण है, पहाड़ों से घिरे पेड़-पौधे से आच्छादित इन क्षेत्रों में विकास के सूरज का न पहुंच पाना। इधर, बड़ी तेजी से विकास के नाम पर हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति कर सत्ता शिखर पर पहुंची, भाजपा ने विस पर कब्जे की मुहिम शुरू कर दी। प्रधानमंत्री से लेकर पार्टी अध्यक्ष तक चुनाव प्रचार में डगर-नगर हुए। दूसरे दल अपेक्षाकृत प्रचार-प्रसार कम कर रहे हैं। लेकिन इनमें बड़ा अंतर यह है कि भाजपा के हर छोटे-बड़े नेता झूठ बेशर्मी की हद तक बोल रहे हैं। आईये उनकी बातों की सचाई को आंकड़े के आईने में झिलमिल देखें। भारतीय जनता पार्टी के चेहरे द्वारा ये कहा जा रहा है कि जिन्होंने झारखण्ड को लूटा है व विकास नहीं होने दिया, उन्हें बेदखल करना है. स्थायी सरकार ही राज्य का विकास कर सकती है जैसे लोकलुभावन नारे के साथ अपनी सभा की शुरुआत करते हैं। मैं यहाँ आपके सामने कुछ आंकड़े रखना चाहता हूँ जो इन दोनों बातो को ख़ारिज करते हैं। 
लगभग 60 % समय तक भाजपा रही सत्ता में
पहला कि झारखण्ड का गठन 15 नवंबर 2000 को हुआ था। उस वक़्त भाजपा ने सत्ता संभाली थी। तब से लेकर आज तक आचार संहिता लागू होने तक कुल 5121 झारखण्ड में शासन रहा है। अलग-अलग करके देखें तो भाजपा नें कुल 2982 दिन, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा नें 306 दिन, निर्दलीय नें  1212 दिन, व राष्ट्रपति शासन 621 दिन रहा है। कुल का अगर हम प्रतिशत निकालें तो लगभग 60 % समय तक भाजपा का ही शासन रहा है। जितने मुख्य कंपनियों के साथ राज्य की सम्पदा के साथ खिलवाड़ करने वाले समझौते हुए हैं वो सब के सब महान राष्ट्र भक्त भाजपा के शासन काल में हुए हैं। झारखण्ड को तो भाजपा नें ही सबसे ज्यादा लूटा है।  (स्रोत )

स्थायी गुजरात सरकार के विकास का सच
इधर, भाजपा समेत मीडिया ने गुजरात को सबसे विकसित राज्य के मॉडल की तरह पेश किया। हालांकि ईमानदार सर्वे और पत्रकारों की रपटों ने इसकी भी कलई खोल दी। झारखंड में चुनाव प्रचार के दौरान भोपूओं द्वारा शोर किया जा रहा है कि स्थायी सरकार ही राज्य में विकास करा सकती है। अगर मोदी जी के मॉडल गुजरात का उदाहरण लें तो हम पाते हैं की राज्य में गृह विभाग, सूचना जनसम्पर्क विभाग, विधायी कार्य एवं संसदीय कार्य, जलसंसाधन/नर्मदा, राजस्व विभाग एवं जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण विभाग इंचार्ज सेक्रेटरी के भरोसे चल रहे हैं। (स्रोत गुजरात इंडिया)

राज्य मे माननीय उच्च न्यायलय अहमदाबाद के समक्ष 320 जनहित याचिकाएं आज की तिथि तक वर्ष 2014 दाखिल हो चुकी हैं। (स्रोत ) याचिकाएं शिक्षा, नौकरी, मानवाधिकार, जबरन भूमि अधिग्रहण आदि जनहित के व्यापक मुद्दो की हैं। राज्य में मानवाधिकार आयोग के दो सदस्यों में से एक, रजिस्ट्रार, लॉ (विधि) अधिकारी के पद रिक्त है (स्रोत ), राज्य में अलपसंख्यक आयोग नहीं है। (स्रोत टाइम्स ) राज्य के बाल अधिकार आयोग के सदस्यों के अधिकार आज तक वर्णित नहीं हैं।   शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत वर्ष 2013 में 49 बालको व 2014 में 614 के दाखले हुए हैं। (स्रोत ऑउटलुक ) ये साफ़ दिखाता है कि राज्य में कितना विकास स्थाई सरकार नें किया है। 

दरअसल भाजपा के सूरमा नेता जनता को गुमराह कर सत्ता को हथियाने वाले हैं। जनता के मुद्दे बिजली, रोज़गार, पानी, पर्यावरण से भटका कर सुनहरी सपनो की दुनिया को दिखा कर देश का निजीकरण कर अपनी झोली भरने का मामला है। 

(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 11मार्च 1982 को बाराबंकी उत्तर प्रदेश में
शिक्षा: स्नातक
सृजन: छिटपुट इधर-उधर
संप्रति: बाल अधिकार कार्यकर्ता, रांची
संपर्क: nafeesmujahid43@gmail.com )
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गुरुवार, 27 नवंबर 2014

26/05 की अद्भुत शाम

सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है
 











ऋषभ श्रीवास्तव की क़लम से
 
कुछ दिनों पहले से ही जिस्म शल (ठंडा) हो रहा था।  सिर दर्द कर रहा था. कुछ सोच नहीं पा रहा. क्या बोलूंगा उस दिन? 3-4 दिन ही तो बचे हैं! विगत 8-9 महिनों में सब तो बोल ही दिया है. बोल ही तो रहा हूँ यार. उस बन्दे की मैं इज़्ज़त तो करता हूँ भाई, बिना बोले ही दस साल निकाल दिया. बिना बोले ही चला भी गया. है कोई माई का लाल? धन्य है भारत माता! असल शेर तो वही था. एक गिलास पानी ही पी लेता हूँ. यार, चैन नहीं आ रहा. वाइफ को फोन करुंँ क्या? अबे यार, उस बैसाख् नन्दिनी गँवार पशु को क्या पता? रोने लगेगी कि अब तो साथ रख लो. स्त्री का जीवन तो पति के ही चरणों में होता है. जंगल में भी रह लूँगी. बस आपका सान्निध्य चाहिए. 

कैसे होगा? इतने बड़े-बड़े लोग होंगे! बड़े बड़े उद्योगपति,  हीरो हीरोइन , विदेशी लोग होंगे. क्या बताऊँगा? ये मेरी वाइफ है? थेपला अच्छा बनाती है. नही, मैं आजन्म कुंवारा रहूँगा. जो बोल दिया, वही सही है. कोई बहस नही होनी चाहिए. एक पशु के साथ बाँध देने से मैं विवाहित तो नही हो जाता? बस अब कोई बहस नहीं.
आज रात पार्टी ही कर लूँ क्या?  
यार, हिंदू हृदय सम्राटों को पता चलेगा तो बोलेंगे कि आ जाओ मस्ती करते हैं. अनूप भाई का नया भजन आया है. आ जाओ, धमाल होगा. अखंड दीप प्रज्वलित करेंगे. अनवरत आरती होगी. कसम से, बहुत बोर करते हो तुम लोग यार. दर्द सा लग रहा है सीने में. चिकित्सक बुला लूँ क्या? नहीं यार, फिर वही सीने वाली बात हो जायेगी. इतना इंच, उतना इंच. बात का बतंगड बना देते हैं लोग. थरूर को अंग्रेज़ी में धर लिया, मुझे हिन्दी में धर लेते हैं. इन लोगों को एक ही भाषा समझ आती है. रुक जाओ दो चार दिन, सब समझा दूँगा इधर. वन का गीदड़ जायेगा किधर.
ये तो कविता हो गयी. अरे वाह ! किसी कविता से ही शुरू करूँगा उस दिन. लेकिन वो अमेठी वाला लौंडा धर लेगा. रिज़ाला आदमी है. वाजपेयी जी तक को हथियाने लगता है. बोलेगा कि आ गए लाइन पर बेटा. मेरी पार्टी का प्रभाव है. श्री मुख से कविता फूटने लगी. मधुरता का संचार हो रहा है. शेर कोयल की आवाज़ में कूक रहा है. ख़ुद को हिन्दी कविता का छोटा पुत्र बताता है, मुझे तो बिन मांगी मुराद बता देगा. कविताएं सुनी है उसकी, संघी आदमी ही तो लगता है.
 जार्ज वाशिंगटन की tryst with destiny से शुरू करुं क्या? मस्त रहेगा! लेकिन फिर हंगामा हो जाएगा. ग़लत बोल दिया. नेहरु ने बोला था. विवेकानंद ने बोला था. भाइयों और बहनों, नेहरु ने कौन सा सही बोला था? when the whole world sleeps....... कहां भाई , रात तो भारत में ही थी. यहीं लोग सो रहे होंगे. पूरी दुनिया में तो दिन निकल गया था उस बखत. भावनाओं में बह गए थे नेहरू . भूगोल नहीं पता था उनको. मेरा इतिहास गड़बड़ है. भूगोल तो पक्का है मेरा. कश्मीर के भूगोल में भी नेहरू गच्चा खा गए थे. मुझे तो पूरा पता है कश्मीर का भूगोल. एक एक इंच नाप नाप के लूँगा.
 छडडो यार, हटा सावन की घटा़. जय श्री राम से ही शुरू करूँगा. पर यार ये बवाली साले गँवार ! एकदम से उन्मत हो जायेंगे. कही दंगा-फसाद कर दिया तो...... छोडूंगा नही मैं, बता देता हूँ. एक दो बार हो गया, हो गया. बार बार तुम्हारी वही बकैती. तुम्हारे चलते लोग प्रधानमंत्री बनना छोड़ दे अब. फिर मैं भूल जाऊँगा कौन सा देवता किसके सर आता है. मिलिटरी लगाऊँगा़. सारे भूत नक्षत्र उतरवा दूँगा.
 trin....trin....trin...trin....trin...
 हैलो , हाँ भाई बोलो. क्या? क्या? कब? LoL ....अच्छा मैं अभी आता हूँ. एकदम तुरंत. हाँ यार, हेलिकाप्टर यहीं पर है. जून जुलाई के बाद ही दूँगा. माँग भी नहीं रहे वो लोग. एक घंटा लगेगा. जय श्री राम. take care.
तैयार तो हूँ ही. भइया इस चुनाव में कई रंग देख लिए. लो, अब iron man को हार्ट अटैक आ गया. गज़ब नौटंकीबाज आदमी है. भइया तुम निकल ही लेते. जान छूटती. मूर्ति लगवा देते तुम्हारी. बच्चों की तरह करोगे तो अब कौन बरदाश्त करेगा. हिन्दुत्व वादी हो. पढ़े होगे कि जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का हो जायेगा. बात करते हो.पर चलो, थोड़ा टाइम पास हो जायेगा. खिलाड़ी आदमी है. मरेगा नहीं. इतना तो मुझे पता है. चलूँ मैं. देश पुकार रहा है. गिरने नहीं दूँगा मैं . मिटने नहीं दूँगा मैं.

(रचनाकार -परिचय:
जन्म: २१ मई १९८७ को गाजीपुर, उत्तर प्रदेश में
शिक्षा: प्रारंभिक- तराँव, गाजीपुर स्कूल- बक्सर कालेज- नोएडा से मेकेनिकल इंजीनियर
सृजन: फेसबुक पर सक्रिय। कोई प्रकाशित रचना नहीं।
संप्रति: मुंबई में सरकारी नौकरी
संपर्क: axn.micromouse@gmail.com )  

ऋषभ की कविताएं हमज़बान पर पहले  आ चुकी हैं
  
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बुधवार, 26 नवंबर 2014

ख्वाजा अहमद अब्बास और अलीगढ़

 वसुधैव कुटुंबकम के सच्चे पैरोकार 












सैयद एस.तौहीद की क़लम से


ख्वाजा अहमद अब्बास इस सदी के मकबूल पत्रकार,कथाकार एवं फिल्मकार थे। आपको वाकिफ होगा कि अब्बास अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ताल्लुक रखते हैं। अलीगढ से पढकर निकलने वाले महान विद्यार्थियों में आपका एक मुकाम था। अलीगढ को अब्बास सरीखा छात्रों पर नाज है।  अब्बास साहेब के परिवार का अलीगढ से एक पुराना रिश्ता रहा है। आपके परनाना ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली जनाब सर सैयद अहमद के करीबी दोस्त थे। आपके नाना ख्वाजा सज्जाद का ताल्लुक अलीगढ की पहली नस्ल से था। ख्वाजा सज्जाद ने मोहम्मडन एंग्लो इंडियन कालेज से स्नातक किया था। अब्बास के पिता ख्वाजा गुलाम भी विश्वविद्यालय से जुडे रहे। विश्वविद्यालय रिकार्ड अनुसार अब्बास का जन्म हरियाणा के पानीपत में हुआ था। तीस के दशक में आप अलीगढ में शिक्षा ले रहे थे। आपके चचाज़ात भाई ख्वाजा अल सैयद भी अलीगढ के छात्र थे। बाद में जाकर आपके यह भाई वहीं प्रोफेसर भी नियुक्त हुए। 
अलीगढ में अब्बास पहली बार ख्वाजा सज्जाद संग सन पच्चीस के जुबली समारोह में आए । सामारोह में मुसलमानों के सबसे मशहूर नेता व शख्सियतें शामिल थी । इन शख्सियतों में मुहम्मद अली जिन्ना एवं इक़बाल तथा अली इमाम फिर आगा खान का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। मशहूर लीडर अली इमाम से आप पहली मर्तबा इसी सामारोह में मिले। विश्वविद्यालय के जुबली सामारोह व दिलकश फिजा ने अब्बास को बहुत प्रभावित किया। जुबली सामारोह में पेश वाद-विवाद प्रतियोगिता ने दिल जीत लिया था। शानदार इमारतों और जुबली के हंगामों के बीच वाद-विवाद का कार्यक्रम सबसे हटकर था। जुबली डिबेट कंपीटिशन में आपके चचाज़ात भाई हीरो बनकर उभरे। वो  घटना ने जिसने आपकी जिंदगी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यही डिबेट कंपीटिशन था । तकरीबन पांच हजार लोगों की भीड थी । मंच पर मुसलमानों के सबसे मशहूर नेता मौजूद थे। डिबेट का विषय ‘हिन्दुस्तान के मुसलमानों को क़ौमी सियासत में बाक़ी लोगों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, अथवा अलग पार्टी भी बनानी चाहिए’।  पक्ष में  बात आपके भाई ने रखी जिसको वहां आए सभी मशहूर लोगों ने काटने की कोशिश की। आपके चचाज़ात भाई  ख्वाजा अल सैयद की तक़रीर अलीगढ के इतिहास में  यादगार है। इसने आपकी जिंदगी का रुख मोड दिया । तक़रीर खत्म होते ही पंडाल तालियों से गूंज उठा।  विपक्ष में बोलने वाले मिस्टर अली इमाम ने आपके विजेता भाई को गले लगा लिया था। इस पर उनके धडकते हुए दिल ने कहा ‘भाईजान ने बहुत खूबसुरत व काबिले तारीफ तक़रीर पेश की है, एक दिन मैं भी इनकी तरह बनूंगा। बडे भाई की तरह ओजस्वी तकरीरें दूंगा । लेकिन इसके लिए बहुत कुछ पढना-लिखना पढेगा, बडे आदमियों का मुक़ाबला करना पडेगा…सब करूंगा…सब करूंगा’। 
अब्बास अपने एक आलेख में लिखते हैं 
‘कभी इंजन ड्राईवर बनने का ख्वाब था, फिर जज बनना चाहता था, डाक्टर बनकर लोगों की खिदमत करने का दिल आया । डिप्टी कमीशनर होने का भी ख्वाब सजाया। इल्म ताल्लुक इस मंथन उपरांत पत्रकार, नेता व वक्ता बनने का सपना देखने लगा। इनके अलावा वो शख्सियत भी जिनसे मेरी उम्र के करोडों हिन्दुस्तानी प्रभावित हुए । जिनकी छाप हजारों युवाओं की जिंदगी व किरदार पर कायम रही । महात्मा गांधी…इनको पहली बार जब देखा तो उस वक्त मेरी उम्र पांच या छह बरस की थी ,लेकिन उस बचपन में भी उनकी महान शख्सियत ने मुझे प्रभावित किया। भगत सिंह जिनकी शहादत के दिन मैं और मेरे कालेज के बहुत से साथी इस तरह फूट-फूट कर रोए कि हमारा सगा भाई शहीद कर दिया गया है...।

इंटर कालेज के दिनों में एक रोज आप दोस्तों के साथ साइकल पर ताजमहल को चांदनी रात में देखने निकल पड़े । रास्ते में साइकल का टायर फट जाने की वजह से एक गांव में रुके। उस गांव के लोगों की आर्थिक बदहाली ने आपके दिल में पीडा व संवेदना का समुद्र जगा दिया। आप इसे ज़ाहिर  करने का जरिया तलाश करने लगे। इन हालातों ने आपको हांथ बांधे चुपचाप वक्त गुजारने नहीं दिया। तीस दशक में अलीगढ विश्वविद्यालय मुसलमानों की उभरती नस्ल का चिंतन स्थल एवं सांस्कृतिक केंद्र था। प्रगतिशील आंदोलन ने साहित्य को नया भविष्य दिया, अलीगढ आंदोलन का एक मुख्य स्रोत था।  अख्तर रायपुरी, ख्वाजा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, जानिसार अख्तर एवं मजाज तथा अली सरदार जाफरी सब अलीगढ के छात्र थे। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक कुंवर अशरफ उस्तादों में से थे। उस जमाने में अलीगढ में कम्युनिज्म की लहर थी। छात्रों की कोशिश यह थी कि लहर की रफ्तार तेज कर दिया जाए। मुल्क को आज़ाद करने का हर जतन लोग दीवाने कर रहे थे। 
अलीगढ तराना के लेखक मजाज की बहन के अनुसार
 विश्वविद्यालय का हर जमाना प्रकाशवान जमाना था।  इसके क्षितिज पर जगमगाने वाले सितारों की रोशनी देश के हर कोने में पहुंची। शिक्षा साहित्य चिंतन व आंदोलन में अलीगढ के छात्रों का नाम था।  ऐसा मालूम होता था मानो यहां प्रेरणा की रोशनी फूट रही हो। अलीगढ के अहाते से आजादी के दीपक को खुराक मिल रही हो। कोई जोशीला सामाजिक कार्यकर्ता, कोई आजादी का दीवाना…कुछ युं फिजा रही जिसमें सब अपने-अपने शस्त्रों से विदेशी निजाम को जडों से उखाडने पर आमादा थे। एक नया सवेरा…एक नयी जिंदगी जन्म ले रही थी। उस वक्त अलीगढ में जोशीले युवाओं का दल उभर चुका था जिसके कार्यों को विश्वविद्यालय का इतिहास कभी भूला नहीं सकेगा।  पत्रकारिता के माध्यम से आंदोलन की पहल अख्तर रायपुरी ने की । आपने हांथ से लिखा साप्ताहिक अखबार निकाला। हांथ से लिखे इस अखबार की प्रतियों को हरेक हास्टल पर चिपकाया जाता था। इस हफ्तावार की खबरें व आलेख आज़ादी के जददोजहद के सरमाया था। सामग्री अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ तेवर की थी। अख्तर रायपुरी से सीख लेकर ख्वाजा अहमद अब्बास ने भी हांथ से लिखा अखबार ‘अलीगढ मेल’  निकाला। अखबार अब्बास की पत्रकारिता का पहला तेजाब था।  वकालत की पढाई के दरम्यान आपने Aligarh Opinion नामक अखबार भी निकाला। 
शुक्रवार का आधा दिन व रविवार का आधा दिन इन उत्तरदायित्वों को संभालने में गुजर जाता था। इसके अलावे अब्बास विश्वविद्यालय से जुडी खबरों को खुफिया तरीके से Hindustan Times एवं Bombay Chronicle को भेजा करते थे। इन खबरों पर विश्वविद्यालय पर्दा डालने की कोशिश करता था।  खुफिया खबरों को प्रकाश में लाने के लिए प्रशासन की ओर से धमकियां भी मिलती थी। अखबार विश्वविद्यालय प्रशासन व शिक्षकों व अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आम राय को प्रकाश में लाता था। अब्बास प्रशासन द्वारा बाग़ी करार दिए जाने लगे। अली सरदार जाफरी लिखते हैं…अलीगढ में तहरीक-ए-आजादी का तेजाब उठ रही थी। अब्बास ऐसे ही एक तेजाब थे। आप अपने जमाने के बेबाक वक्ता थे। अब्बास व मजाज तथा उनके साथी रात गए रेलवे प्लेटफार्म पर तफरीह करना पसंद था। प्राक्टर आफिस द्वारा लगाई गयी पाबंदियों को तोडने का मजा था ही साथ ही उम्मीद रहती कि हसीन लडकियों का दीदार होगा। जाडों की रातों में स्टेशन की गरम चाय में भी एक खास लुत्फ था। उन दिनों आप बाछु भाई के नाम विख्यात थे। अब्बास के हवाले से अलीगढ से ताल्लुक रखने वाले एक किस्से अनुसार अब्बास अपने जिगरी अंसार भाई को प्लेटफार्म गर्दी के लिए देर रात बुलाने आते थे। दोस्तों में तय था कि वो खिडकी पास आकर भौंकने की आवाज़ निकालेंगे और इस आवाज़ पर अंसार भाई खामोशी साथ बाहर निकलेंगे। एक मर्तबा रात प्लेटफार्म पर किसी रेलवे कर्मचारी से खबर मिली कि रेल से अलगे दिन जवाहर लाल नेहरू देहली से इलाहाबाद जाने वाले हैं। अब्बास और अंसार भाई दोनों ने ही तय किया कि खुर्जा पहुंचा जाए। अलीगढ में मेल दो मिनट के लिए रूकेगी। पुलिस एवं नगर के कांग्रेसियों का हुजूम होगा। पंडित जी का चेहरा भी मुश्किल से देखने को मिलेगी। यह सोंचकर दोनों दोस्त खुर्जा पहुंच गए। वो चलती गाडी में किसी तरह नेहरू जी के पहले दर्जा कंपार्टमेंट तक पहुंचने में सफल रहे। इनकी काली शेरवानियां अलीगढ की खास पहचान थी । आपने पंडित नेहरू से अलीगढ आने का आग्रह किया, जिसे नेहरू जी ने कुबूल किया।
एक मर्तबा डिबेट प्रतियोगिता सिलसिले में बंबई से भी छात्र अलीगढ आए। इन्होंने विश्वविद्यालय स्वीमिंग पूल पास रानी विक्टोरिया की तस्वीर टंगी देखने बाद कुछ युं कहा ‘हमने अपने यहां फाउंटेन पर बनी रानी की प्रतिमा की तोड दी। यहां के छात्र अब भी अंग्रेजपरस्त हैं।  अगली ही रात अब्बास व दोस्तो ने स्वीमिंग पर टंगी रानी की तस्वीर को फ्रेम से निकाल फेंका। प्रशासन ने समझदारी का तकाजा दिखाते हुए मामले को तूल नहीं दिया।  महान शख्सियतों में अब्बास महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रभावित थे। अलीगढ में ग़ांधी जी से अपनी दूसरी मुलाकात के बारे में अब्बास ने लिखा…महात्मा गांधी विश्वविद्यालय छात्र युनियन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में तकरीर देने आए थे।  हाल हाऊसफुल था…लेकिन मैं डायस के फर्श पर गांधी जी के कदमों पास बैठने में कामयाब रहा। युनियन के प्रेसीडेंट के भाषण दौरान मेरा ध्यान गांधी जी तरफ था। बापू बेफिक्री से इधर-उधर देख रहे थे। कुछ युं जैसे यह बातें किसी दूसरे वयक्ति के बारे में कही जा रही हों। एक बार इक नजर मेरी ओर डाली तो उन्होंने शायद देखा कि यह युवा टकटकी बांधे इन्हें देख रहा। मेरा अंदाज देखकर वह मुस्कुराए,पहले तो मैं घबराया जैसे चोर पकडा गया हो। लेकिन शायद मेरे चेहरे पर भी मुस्कुराहट उभर आई । गांधी जी मासूम मुस्कुराहट तो हरेक आदमी के लिए थी। यह अलग बात है कि हरेक यही समझता कि यह मुस्कुराहट…यह मां की ममता समान मुहब्बत सिर्फ उसके लिए है। फिर वो समय भी आया जब जनवरी तीस की शाम को बंबई के मरीन ड्राईव पर टहलते हुए किसी ने बताया कि किसी सिरफिरे ने महात्मा गांधी को गोलियां चलाकर मार डाला है। सुनकर ऐसा लगा कि चलती दुनिया रुक गयी…जिंदगी थम गयी है। अब्बास खुद को वतन एवं कौम की संतान तस्व्वुर करते थे। गांधीजी व पंडित नेहरू के परिवार को अपना परिवार समझते थे। इंसानियत व समाज के नजरिए से पूरी दुनिया को रिश्तेदार मानते थे।

















(रचनाकार-परिचय
 जन्म: 2 अक्टूबर 1983 को पटना( बिहार) में
शिक्षा : जामिया मिल्लिया से उच्च शिक्षा
सृजन : सिनेमा पर अनेक लेख . फ़िल्म रिव्युज
संप्रति : सिनेमा लेखन
संपर्क : passion4pearl@gmail.com )

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