लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का का वाद्य यंत्र
धरती आबा का था पसंदीदा टूहिला
पतला सा बांस। उसके एक छोर पर कद्दू या लौकी का आधा खोखला हिस्सा (तुंबा), दूसरे छोर पर लकड़ी का एक हुक। इसी हुक से निकले रेशम के बारीक धागे, जो तुंबा के बाद बंधे हैं। यह टूहिला है। इसे कुछ लोग केंद्रा भी बोलते हैं। जब संसार में फूलों ने चटखना शुरू किया, तो शाम को शबनमी बनाने की ज़रूरत पड़ी। तब कई राग और साजों का ईजाद किया गया। यह टूहिला भी इतना ही पुराना वाद्य यंत्र है। कहते हैं कि लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का। भगवान बिरसा का यह प्रिय रहा। वो अपने दु:ख को इसके सुर में विराग देते। लेकिन उनकी अन्य विरासत की तरह टूहिला जैसा सुमधुर साज़ भी अंतिम सांस ले रहा है। जिसे रोक कर खड़े हैं रांची के कालीशंकर महली। अगर संस्कृर्ति कर्मियों की मानें तो रांची में टूहिला के वे आखिरी कलाकार बचे हैं।
कालीशंकर टूहिला को सीने से लगा कर नंगे जिस्म बजाते हैं। साथ ही अपनी आवाज़ में उस गीत को स्वर देते हैं, जिसकी धुन टूहिला बाद में सुनाता है। इस बीच उनके चेहरे की रेखाएं कभी सिकुड़ती, कंठ के साथ फूलती रुदन में बदल जाती हैं, पता ही नहीं चलता। फिजा में एक अलौकिक शांति। उसका रंग गीत के दर्द सा ही गहरा कत्थई।
हाय रे दईया भाऽ ई
रेशम के धागे पर नाचती कालीशंकर की उंगलियां। फिर टूहिला से यह गीत जब पहाड़ी सुरंग को भेदकर निकलता तो खेत की फसल उसके दर्द में डोल उठती है। लय, छंद और ताल की मार्मिक बंदिश। वेदना और विरह की गुंजलक। वह कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे महानगरों और अमेरिका में सारंगी और बांसुरी का जलवा भले बिखेर चुके हैं। पर उनका मन तो बस टूहिला में ही बसता है। खेत से लौट कर उनकी थकन को सुकून यह टूहिला ही तो देता है।
सीखने की ललक हो चहक-चहक
चाहत बचाने की: कालीशंकर कहते हैं, 'मैं चाहता हूं यह बचा रहे, सदा बजता रहे। कोई तो आए. मैं सिखाने को तैयार हूं। हर उस संगीतपे्रमी का स्वागत है। मैं नि:शुल्क सिखाने को तैयार हूं।
सामने आए दस युवा: आरयू के जनजातीय भाषा विभाग में वह सप्ताह में दो दिन इसकी क्लास लेते हैं। मदद टाटा का ट्राइबल कल्चरल सेंटर कर रहा है। दस युवा इसे सीख रहे हैं। ये सभी छात्र जमशेदपुर और रांची के आसापास क्षेत्रों के हैं।
क्या है सीखने में दिक्कत:
समय के साथ सारी चीज़ें बदल रही हैं, लेकिन टूहिला अपने ठाठ में है। कहीं इसके न सीखने की यह वजह तो नहीं? कालीशंकर कहते हैं, 'एक कारण इसकी बनावट भी है। वही इसे सीखने और बजाने के लिए बहुत लगन व मेहनत की जरूरत है। यह चीनी का घोल नहीं है कि तुरंत ही पिला दिया जाए। बावजूद इसके वादकों को यथोचित पारिश्रमिक नहीं मिलता। पारिश्रमिक शब्द उच्चारते हुए उनकी आंखें हल्की पनीली हो जाती हैं।
टूहिला के संरक्षण के लिए क्या हो
प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी व आदिवासी मामलों के मर्मज्ञ डॉ. रामदयाल मुंडा ने टूहिला के लिए कहा था कि इसकी वादन शैली अत्यंत पेचीदा है। इसे बचाने के लिए इसमें बदलाव जरूरी है। लौकी और रेशम का विकल्प ढूंढना होगा। आवाज इतनी मृदु है कि अन्य वाद्य यंत्रों में खो जाती है।
लेकिन कालीशंकर का टूहिला सुर इससे सहमत नहीं। कहते हैं, 'ऐसा करने से उसकी मौलिकता नष्ट हो जाएगी। पिता द्रीपनाथ ने कहा था कि रेशम के धागे की जगह किसी तार के इस्तेमाल से इसकी मीठास खत्म हो जाएगी।
टूहिला पर कुछ वर्ष पहले कंबोडिया निवासी युवक जेस डायस अमेरीका से शोध करने आया था। फिलहाल रांची विवि के जनजातीय भाषा विभाग का छात्र स्वर्ण मुंडा कालीशंकर महली के साज और राग पर कर रहा है शोध।
राहत भरे गीत-संगीत
काली टूहिला पर करमा झूमर, प्रथम प्रहर, द्वितीय प्रहर, भिनसरिया, अगनई, डोमकच समेत हर राग-रागिनी को स्वर देते हैं।
राष्ट्रीय गीत जण गण मण जब उनकी टूहिला पर बजता है, तो रोम-रोम सिहर उठता है।
उनके प्रिय गीत हैं:
स्थिति
पहले: कालीशंकर के दादा बालगोविंद महली टूहिला के अच्छे वादक थे। उन्होंने अपने पुत्र द्रीपनाथ महली को यह सिखाया।
अब: कालीशंकर ने अपने पिता द्रीपनाथ महली से यह सीखा। वह आकाशवाणी रांची में सारंगी वादक थे। लेकिन उनका ड्राइवर बेटा इसे सीखना नहीं चाहता।
चुनौतियां
इसे खुले बदन ही बजाया जा सकता है।
इसे समूह में नहीं बजाया जा सकता।
सीखने के लिए काफी रियाज की जरूरत।
राज्य में कला अकादमी नहीं। संरक्षण का अभाव।
पुनर्जीवित करने की जरूरत
: मुकंद नायक, मशहूर लोक गायक व संगीतकार
झारखंड को विशिष्टता प्रदान करने वाला यह अकेला वाद्य यंत्र है और इसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है। हालांकि लोक वाद्य यंत्रों को प्रोत्साहित करने के लिए टाटा स्टील के जमशेदपुर स्थित ट्राइबल कल्चरल सेंटर ने प्रयास किया है। पर सरकारी स्तर पर टूहिला उपेक्षित है। स्कूल व कॉलेजों के कोर्स में लोक गान-वादन को शामिल करने से संस्कृति के विकास के साथ लोगों को रोजगार भी मिलेगा। आदिवासी संस्कृति हमेशा सामूहिकता का बोध कराती है। घड़ी सुख की हो या दुख की, हर क्षण समूह बोध सामने होता है। ऐसे में टूहिला के एकांत वादन की कल्पना निसंदेह नई बात थी। दरअसल यह प्रकृति और मानव मन से जुड़ा हुआ विरह का स्वर है। उसी मन को शांत करने के लिए आदिपुरुषों ने शायद सबसे पहले टूहिला को लौकी, बांस और धागे से बनाया होगा।
~~~~~~
कला-संस्कृति का सच्चा साधक डॉ. रामदयाल मुंडा
दिउड़ी से अमरीका तक गूंजी मांदर की थाप
जंगल व पहाड़ों से घिरा गांव दिउड़ी। लेकिन ब्रिटीश सता के विरुद्ध आक्रोश की लहर से लहलहाता। यहीं डॉ. रामदयाल मुंडा का जन्म एक छोटे किसान के घर हुआ। जब आजादी मिली, तो रामदयाल की उम्र बमुश्किल 6-7 साल रही होगी। वे जानवरों को चराने जाते, तो पेड़-पौधों व नदी--पहाड़ो के संग बातें करते। कभी मुंडा गीत गाते, तो कभी बजाते बांसुरी। उनकी बांसुरी की धुन को सुनकर आसापास के चरवाहे भी जमा हो जाते। बचपन का उल्लास उनका मांदर व बांसुरी के संग बीता। लोग कहते हैं कि उन्हें गायन व वादन का वरदान मानो ईश्वर से मिला हो। जभी वे अंतिम समय तक संगीत व कला के प्रति समर्पित रहे। शुरुआती पढ़ाई लूथर मिशन स्कूल, अमलेसा के बाद खूंटी व रांची से हासिल की। उसके बाद शिकागो विवि से उच्च डिग्री ली। लेकिन कहीं भी रहे उनके साथ बांसुरी व मांदर साथ रहे।
तब रांची विवि के वीसी कुमार सुरेश सिंह थे। उनके आग्रह पर रामदयाल ने विवि में जनजातीय भाषा विभाग का दायित्व संभाला। मुंडा जी से मनोयोग से अपनी भूमिका सार्थक की। वे यही चाहते भी थे। झारखंड व आदिवासियों की कला, संस्कृति का प्रचार व प्रसार। विभाग ने कई सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोजन किए। रांची में करमा व सरहुल तो उनके बिना अधूरा माना जाता था। इस मौके पर उनकी रंगत देखते ही बनती थी। जब गीत को उनकी आवाज़ मिलती और मांदर को उनकी थाप, तो प्रकृति भी मनोहारी हो जाती। पेड़ झूमने लगते तो, पक्षी का कलरव वातावरण को गुंजयमान कर देता। उनकी प्रतिबद्धता व विद्वता को देखते उन्हें 1985 में आरयू का वीसी बनाया गया। वहीं विदेशों में भी आदिवासी कला-संस्कृति पढ़ाने गए।
रूस, चीन, मलयशिया, इंडोनेशिया, नीदरलैंड, यूके, अमरीका और फीलिपिंस समेत कई देशों में उन्होंने अपने फन का इज्हार किया। जब फीलिपिंस गए तो 75 मांदर साथ ले गए। मांदर को अनोखी थाप देने वाले ऐसे ही साधक थे मुंडा जी। बांसुरी की धुन में झारखंड के दर्द या वीरता को राग देने वाले इस वादक को संगीत नाटक अकादमी ने 2007 में सम्मानित किया। जबकि 2010 में वे पद्मश्री से नवाजे गए। उनके मन में कई योजनाएं थीं। अपने लिए नहीं, झारखंड के लिए, झारखंडियों के लिए। हर गांव में हो अखड़ा, यह उनका सपना था। जहां मांदर, बांसुरी और टूहिला समेत तमाम सुर और साज़ का संगम हो। जिससे हर स्त्री-पुरुष और बच्चे-बुज़ुर्ग सराबोर हों। वहीं वे अपने राग-विराग, हर्ष-विषाद और दु:ख-सुख को साझा करें।
उनके निधन से पहले की बात है। जब अखबार में करमा के दूसरे दिन उनकी मार्मिक तस्वीर छपी, तो उन्होंने कहा, 'इस फोटो को मढ़वा कर झारखंड के नेताओं के कमरे में टंगवा देना, ताकि जब वे देखें, उन्हें मेरी याद आती रहे। मेरे सपने याद आते रहे।
जिंदगी के अंतिम दिनों बेहद अशक्त हो गए थे। आंखों की रौशनी धुंधली थी, पर कला-संस्कृति और साहित्य की योजनाओं पर दृष्टि उतना ही तेज़। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर झारखंड की समृद्ध संस्कृति को पहुंचाने वाले डॉ. मुंडा के बुज़ुर्ग हाथ आखिरी समय में भले कांप रहे थे, लेकिन कला को संरक्षित करने के लिए कागजों पर उनकी उंगलियां उतना ही तीव्र वेग से चलती रहीं। चाहते थे कि झारखंड के गीतों के संग्रह का एक संकलन प्रकाशित हो। उन्होंने स्वरचित गीतों-वाद्य यंत्रों के जरिये झारखंड को विश्व में पहुंचाने का अदभुत काम किया। डॉ मुंडा. ने एक ऐसे गीत की रचना की थी, जिसमें झारखंड की हर भाषा के श?द थे। उनकी चाहत थी कि 'हर बोल गीत और हर चाल नृत्य फिर जीवित हो उठे। .
झारखंड में भास्कर ने तीन वर्ष पूरे होने के अवसर पर विशेष अंक में 22 अगस्त 2013 को प्रकाशित
धरती आबा का था पसंदीदा टूहिला
टूहिला वादक के साथ लेखक |
पतला सा बांस। उसके एक छोर पर कद्दू या लौकी का आधा खोखला हिस्सा (तुंबा), दूसरे छोर पर लकड़ी का एक हुक। इसी हुक से निकले रेशम के बारीक धागे, जो तुंबा के बाद बंधे हैं। यह टूहिला है। इसे कुछ लोग केंद्रा भी बोलते हैं। जब संसार में फूलों ने चटखना शुरू किया, तो शाम को शबनमी बनाने की ज़रूरत पड़ी। तब कई राग और साजों का ईजाद किया गया। यह टूहिला भी इतना ही पुराना वाद्य यंत्र है। कहते हैं कि लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का। भगवान बिरसा का यह प्रिय रहा। वो अपने दु:ख को इसके सुर में विराग देते। लेकिन उनकी अन्य विरासत की तरह टूहिला जैसा सुमधुर साज़ भी अंतिम सांस ले रहा है। जिसे रोक कर खड़े हैं रांची के कालीशंकर महली। अगर संस्कृर्ति कर्मियों की मानें तो रांची में टूहिला के वे आखिरी कलाकार बचे हैं।
कालीशंकर टूहिला को सीने से लगा कर नंगे जिस्म बजाते हैं। साथ ही अपनी आवाज़ में उस गीत को स्वर देते हैं, जिसकी धुन टूहिला बाद में सुनाता है। इस बीच उनके चेहरे की रेखाएं कभी सिकुड़ती, कंठ के साथ फूलती रुदन में बदल जाती हैं, पता ही नहीं चलता। फिजा में एक अलौकिक शांति। उसका रंग गीत के दर्द सा ही गहरा कत्थई।
हाय रे दईया भाऽ ई
पापी प्राण छूटे नाही झटिके
कहां हंसा ऽअटिके
माता-पिता तिरया आर
बंधु सुता परिवार
हाय रे दईया भाऽई
रोवत पंकज सेजा धरिके
कहां हंसा ऽअटिके।रेशम के धागे पर नाचती कालीशंकर की उंगलियां। फिर टूहिला से यह गीत जब पहाड़ी सुरंग को भेदकर निकलता तो खेत की फसल उसके दर्द में डोल उठती है। लय, छंद और ताल की मार्मिक बंदिश। वेदना और विरह की गुंजलक। वह कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे महानगरों और अमेरिका में सारंगी और बांसुरी का जलवा भले बिखेर चुके हैं। पर उनका मन तो बस टूहिला में ही बसता है। खेत से लौट कर उनकी थकन को सुकून यह टूहिला ही तो देता है।
सीखने की ललक हो चहक-चहक
चाहत बचाने की: कालीशंकर कहते हैं, 'मैं चाहता हूं यह बचा रहे, सदा बजता रहे। कोई तो आए. मैं सिखाने को तैयार हूं। हर उस संगीतपे्रमी का स्वागत है। मैं नि:शुल्क सिखाने को तैयार हूं।
सामने आए दस युवा: आरयू के जनजातीय भाषा विभाग में वह सप्ताह में दो दिन इसकी क्लास लेते हैं। मदद टाटा का ट्राइबल कल्चरल सेंटर कर रहा है। दस युवा इसे सीख रहे हैं। ये सभी छात्र जमशेदपुर और रांची के आसापास क्षेत्रों के हैं।
क्या है सीखने में दिक्कत:
समय के साथ सारी चीज़ें बदल रही हैं, लेकिन टूहिला अपने ठाठ में है। कहीं इसके न सीखने की यह वजह तो नहीं? कालीशंकर कहते हैं, 'एक कारण इसकी बनावट भी है। वही इसे सीखने और बजाने के लिए बहुत लगन व मेहनत की जरूरत है। यह चीनी का घोल नहीं है कि तुरंत ही पिला दिया जाए। बावजूद इसके वादकों को यथोचित पारिश्रमिक नहीं मिलता। पारिश्रमिक शब्द उच्चारते हुए उनकी आंखें हल्की पनीली हो जाती हैं।
18 वर्ष की आयु में कालीशंकर ने इसे उस्ताद की तरह बजाना सीख लिया।
1984 में पहली बार इसका सार्वजनिक प्रर्दशन किया।
1986 में आकाशवाणी रांची में उनका पहला वादन हुआ।
टूहिला के संरक्षण के लिए क्या हो
प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी व आदिवासी मामलों के मर्मज्ञ डॉ. रामदयाल मुंडा ने टूहिला के लिए कहा था कि इसकी वादन शैली अत्यंत पेचीदा है। इसे बचाने के लिए इसमें बदलाव जरूरी है। लौकी और रेशम का विकल्प ढूंढना होगा। आवाज इतनी मृदु है कि अन्य वाद्य यंत्रों में खो जाती है।
लेकिन कालीशंकर का टूहिला सुर इससे सहमत नहीं। कहते हैं, 'ऐसा करने से उसकी मौलिकता नष्ट हो जाएगी। पिता द्रीपनाथ ने कहा था कि रेशम के धागे की जगह किसी तार के इस्तेमाल से इसकी मीठास खत्म हो जाएगी।
टूहिला पर कुछ वर्ष पहले कंबोडिया निवासी युवक जेस डायस अमेरीका से शोध करने आया था। फिलहाल रांची विवि के जनजातीय भाषा विभाग का छात्र स्वर्ण मुंडा कालीशंकर महली के साज और राग पर कर रहा है शोध।
राहत भरे गीत-संगीत
काली टूहिला पर करमा झूमर, प्रथम प्रहर, द्वितीय प्रहर, भिनसरिया, अगनई, डोमकच समेत हर राग-रागिनी को स्वर देते हैं।
राष्ट्रीय गीत जण गण मण जब उनकी टूहिला पर बजता है, तो रोम-रोम सिहर उठता है।
उनके प्रिय गीत हैं:
जेठ बैसाख मासे-2 ए मन तोयें उदासे-2
ए भाई, जने देखूं तने दिसे
लहलह पात कहूं, केके कहूं बात
कहूं केके कहूं बात..
रैन घोर अति अंधार सूझत नाही एको पैसार
चट चपल चमकावल गोई साऽजे..
ऐ माया पति बिनु बिरहनी
कान्दे झर-झर लेहुं खबर हमर.....स्थिति
पहले: कालीशंकर के दादा बालगोविंद महली टूहिला के अच्छे वादक थे। उन्होंने अपने पुत्र द्रीपनाथ महली को यह सिखाया।
अब: कालीशंकर ने अपने पिता द्रीपनाथ महली से यह सीखा। वह आकाशवाणी रांची में सारंगी वादक थे। लेकिन उनका ड्राइवर बेटा इसे सीखना नहीं चाहता।
चुनौतियां
इसे खुले बदन ही बजाया जा सकता है।
इसे समूह में नहीं बजाया जा सकता।
सीखने के लिए काफी रियाज की जरूरत।
राज्य में कला अकादमी नहीं। संरक्षण का अभाव।
पुनर्जीवित करने की जरूरत
: मुकंद नायक, मशहूर लोक गायक व संगीतकार
झारखंड को विशिष्टता प्रदान करने वाला यह अकेला वाद्य यंत्र है और इसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है। हालांकि लोक वाद्य यंत्रों को प्रोत्साहित करने के लिए टाटा स्टील के जमशेदपुर स्थित ट्राइबल कल्चरल सेंटर ने प्रयास किया है। पर सरकारी स्तर पर टूहिला उपेक्षित है। स्कूल व कॉलेजों के कोर्स में लोक गान-वादन को शामिल करने से संस्कृति के विकास के साथ लोगों को रोजगार भी मिलेगा। आदिवासी संस्कृति हमेशा सामूहिकता का बोध कराती है। घड़ी सुख की हो या दुख की, हर क्षण समूह बोध सामने होता है। ऐसे में टूहिला के एकांत वादन की कल्पना निसंदेह नई बात थी। दरअसल यह प्रकृति और मानव मन से जुड़ा हुआ विरह का स्वर है। उसी मन को शांत करने के लिए आदिपुरुषों ने शायद सबसे पहले टूहिला को लौकी, बांस और धागे से बनाया होगा।
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कला-संस्कृति का सच्चा साधक डॉ. रामदयाल मुंडा
(23 अगस्त 1 939 -30 सितंबर 2011) |
दिउड़ी से अमरीका तक गूंजी मांदर की थाप
जंगल व पहाड़ों से घिरा गांव दिउड़ी। लेकिन ब्रिटीश सता के विरुद्ध आक्रोश की लहर से लहलहाता। यहीं डॉ. रामदयाल मुंडा का जन्म एक छोटे किसान के घर हुआ। जब आजादी मिली, तो रामदयाल की उम्र बमुश्किल 6-7 साल रही होगी। वे जानवरों को चराने जाते, तो पेड़-पौधों व नदी--पहाड़ो के संग बातें करते। कभी मुंडा गीत गाते, तो कभी बजाते बांसुरी। उनकी बांसुरी की धुन को सुनकर आसापास के चरवाहे भी जमा हो जाते। बचपन का उल्लास उनका मांदर व बांसुरी के संग बीता। लोग कहते हैं कि उन्हें गायन व वादन का वरदान मानो ईश्वर से मिला हो। जभी वे अंतिम समय तक संगीत व कला के प्रति समर्पित रहे। शुरुआती पढ़ाई लूथर मिशन स्कूल, अमलेसा के बाद खूंटी व रांची से हासिल की। उसके बाद शिकागो विवि से उच्च डिग्री ली। लेकिन कहीं भी रहे उनके साथ बांसुरी व मांदर साथ रहे।
तब रांची विवि के वीसी कुमार सुरेश सिंह थे। उनके आग्रह पर रामदयाल ने विवि में जनजातीय भाषा विभाग का दायित्व संभाला। मुंडा जी से मनोयोग से अपनी भूमिका सार्थक की। वे यही चाहते भी थे। झारखंड व आदिवासियों की कला, संस्कृति का प्रचार व प्रसार। विभाग ने कई सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोजन किए। रांची में करमा व सरहुल तो उनके बिना अधूरा माना जाता था। इस मौके पर उनकी रंगत देखते ही बनती थी। जब गीत को उनकी आवाज़ मिलती और मांदर को उनकी थाप, तो प्रकृति भी मनोहारी हो जाती। पेड़ झूमने लगते तो, पक्षी का कलरव वातावरण को गुंजयमान कर देता। उनकी प्रतिबद्धता व विद्वता को देखते उन्हें 1985 में आरयू का वीसी बनाया गया। वहीं विदेशों में भी आदिवासी कला-संस्कृति पढ़ाने गए।
रूस, चीन, मलयशिया, इंडोनेशिया, नीदरलैंड, यूके, अमरीका और फीलिपिंस समेत कई देशों में उन्होंने अपने फन का इज्हार किया। जब फीलिपिंस गए तो 75 मांदर साथ ले गए। मांदर को अनोखी थाप देने वाले ऐसे ही साधक थे मुंडा जी। बांसुरी की धुन में झारखंड के दर्द या वीरता को राग देने वाले इस वादक को संगीत नाटक अकादमी ने 2007 में सम्मानित किया। जबकि 2010 में वे पद्मश्री से नवाजे गए। उनके मन में कई योजनाएं थीं। अपने लिए नहीं, झारखंड के लिए, झारखंडियों के लिए। हर गांव में हो अखड़ा, यह उनका सपना था। जहां मांदर, बांसुरी और टूहिला समेत तमाम सुर और साज़ का संगम हो। जिससे हर स्त्री-पुरुष और बच्चे-बुज़ुर्ग सराबोर हों। वहीं वे अपने राग-विराग, हर्ष-विषाद और दु:ख-सुख को साझा करें।
उनके निधन से पहले की बात है। जब अखबार में करमा के दूसरे दिन उनकी मार्मिक तस्वीर छपी, तो उन्होंने कहा, 'इस फोटो को मढ़वा कर झारखंड के नेताओं के कमरे में टंगवा देना, ताकि जब वे देखें, उन्हें मेरी याद आती रहे। मेरे सपने याद आते रहे।
जिंदगी के अंतिम दिनों बेहद अशक्त हो गए थे। आंखों की रौशनी धुंधली थी, पर कला-संस्कृति और साहित्य की योजनाओं पर दृष्टि उतना ही तेज़। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर झारखंड की समृद्ध संस्कृति को पहुंचाने वाले डॉ. मुंडा के बुज़ुर्ग हाथ आखिरी समय में भले कांप रहे थे, लेकिन कला को संरक्षित करने के लिए कागजों पर उनकी उंगलियां उतना ही तीव्र वेग से चलती रहीं। चाहते थे कि झारखंड के गीतों के संग्रह का एक संकलन प्रकाशित हो। उन्होंने स्वरचित गीतों-वाद्य यंत्रों के जरिये झारखंड को विश्व में पहुंचाने का अदभुत काम किया। डॉ मुंडा. ने एक ऐसे गीत की रचना की थी, जिसमें झारखंड की हर भाषा के श?द थे। उनकी चाहत थी कि 'हर बोल गीत और हर चाल नृत्य फिर जीवित हो उठे। .
झारखंड में भास्कर ने तीन वर्ष पूरे होने के अवसर पर विशेष अंक में 22 अगस्त 2013 को प्रकाशित
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी