बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 14 अगस्त 2013

ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शब-गजीदा सहर


 
गूगल से साभार












फैज़ अहमद फैज़ की क़लम से


ये दाग़-दाग़  उजाला, ये शब-गजीदा सहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं

फ़लक के दश्त में तारों कि आखरी मंजिल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल

कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ए-गम-ऐ-दिल
जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से

चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख्‍वाब-गाहों से

पुकारती रहीं बाहें,  बदन बुलाते रहे


बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख-ए-सहर की लगन
बहुत करीं था हसीना-ए-नूर का का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना , दबी दबी थी थकन


सुना है हो भी चुका है फिराक-ए-जुल्मत-ए-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंजिल-ओ-गाम


बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर

निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ए-हिज़र-ऐ-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन


किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा , किधर को गई
अभी चिराग-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं

अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि  वो मंजिल अभी नहीं आई


 फैज़ अहमद फैज़ किसी परिचय के मोहताज नहीं बावजूद यह लिंक 














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- अल्लामा जमील मज़हरी

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