बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

पेड़ न्यूज़ : पुराना खेल, नयी चाल















आशीष कुमार ‘अंशु’ की कलम से


अधिक दिन नहीं हुए, जब दिल्ली के एक राष्ट्रीय अखबार के एमडी पत्रकारों को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि इस बार चुनाव में पेड न्यूज ना छापने के संकल्प की वजह से कंपनी को चालिस लाख रुपए का नुक्सान होगा। यह तो उस समय जब यह राष्ट्रीय कहा जाने वाला अखबार उन राज्यों में बिल्कुल नहीं बिकता या फिर कुछ जगह जाता भी है तो छीट-पुट संख्या में। ऐसे मे उन अखबारों के नुक्सान का हिसाब लगाइए जो इन राज्यों मे खुब बिकती है। ऐसे तीन-चार अखबार जरूर हैं। इसके बाद इनके नुक्सान का भी अंदाजा लगाइए। क्या यह करोड़ो में नहीं बैठेगा?


इस बार कुछ राष्ट्रीय अखबारों ने कुछ नई योजनाओं पर काम करना शुरू किया है। चुनाव आयोग को हमेशा प्रमाण चाहिए। प्रबंधकों ने पेड न्यूज के लिए बिल्कुल नई योजनाओं पर काम करना प्रारंभ कर दिया है। जिससे माल भी आ जाए और पेड न्यूज ना छापने की कसम भी ना टूटे। उतर प्रदेश के बड़े हिस्से में एक राष्ट्रीय अखबार ने दो पृष्ठों में मीडिया इनीसिएटिव के नाम से दो पेज का विज्ञापन छापा। वास्तव में मीडिया इनीसिएटिव ऊपर लिखा हो तो नीचे जो खबर छपी है, वह विज्ञापन बन जाता है, इस बात की समझ क्या इस अखबार ने अपने पाठकों में विकसित की है? वास्तव में विज्ञापन के नाम पर नीचे खबर ही छपी थी। सिर्फ मीडिया इनीसिएटिव लिख देने से अब अखबार पर पेड न्यूज का आरोप नहीं लगा सकते। यह तो प्रबंधन का एक छोटा सा खेल है।

यदि एक एक विधानसभा में खड़े होने वाले बीस प्रत्याशियों में सिर्फ चार या तीन या दो की ही खबरें अखबार में छप रहीं हैं तो इसका मतलब है कि वह अखबार बाकि के प्रत्याशियों को पहले से ही हारा हुआ मान रहा है। एक विधानसभा में अच्छे प्रसार संख्या वाले तीन से चार अखबार होते हैं। चुनाव के समय में विज्ञापन और प्रबंधन वाले छोटी-छोटी बातों के लिए चुनाव में खड़े होने वाले नेताओं से पैसे वसूलते हैं।
इस बार सुनने में आ रहा है कि कुछ बड़े अखबार अपने प्रबंधकों और मीडिया मैनेजरों की मदद से पेड न्यूज की आमदनी को विज्ञापन में तब्दील करने की जुगत में हैं। इसलिए अपनी पॉलिसी के तहत तस्वीरें वे कम से कम छाप रहे हैं। विज्ञापन में भी रसीद का कम का दिया जा रहा है, पैसे अधिक वसूले जा रहे हैं। लेकिन इसकी शिकायत कोई चुनाव आयोग से करे तो करे कैसे? इसके लिए पुख्ता सबूत जुटा पाना मुश्किल है और दूसरा समाज में रहकर कोई भी मीडिया से बैर नहीं लेना चाहता। चुनाव के विधानसभाओं में इस बार पर्चो की भी कीमत अखबार वाले लगा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में चुनाव वाले दिन अखबार में अमुकजी का छपा हुआ पर्चा ही जाएगा। उत्तर प्रदेश के कुछ विधानसभाओं में इसके लिए भी मोटी रकम ली गई है। इसके माने साफ हैं कि मैदान में अखबारों के अपने-अपने प्रतिनिधि होंगे। अ का पर्चा अमुक अखबार में डालकर बंटेगा और ब का पर्चा अमुक अखबार में। अब इसको तो चुनाव आयोग भी पेड न्यूज नहीं कह सकता क्योंकि जिनसे पैसे लिए गए हैं, अखबार उनके खिलाफ तो कम से कम नैतिकता के नाते चुनाव सम्पन्न होने तक कुछ नहीं छापेगा। क्या पैसे लेकर किसी खबर को नहीं छापना पेड न्यूज नहीं है? लेकिन चुनाव आयोग छपे पर सवाल कर सकता है, कि क्यों छापा, यह छापा तो कहीं यह पेड न्यूज तो नहीं है लेकिन जो छपा ही नहीं किसी अखबार में, उसपर आयोग कैसे कार्यवाही करेगा?

एक और उदाहरण, एक विधानसभा क्षेत्र से एबीसीडी ने अपना नामांकन एक ही दिन भरा, चारों महत्वपूर्ण नाम है अपने विधान सभा क्षेत्र के। किसी अखबार में यदि इस खबर का शीर्षक छपता है, ए के साथ तीन अन्य लोगों ने नामांकन दाखिल किया। इसका सीधा सा अर्थ है कि अखबार किसी एक व्यक्ति को प्रमुखता दे रहा है। इस प्रमुखता में पैसों का खेल नहीं है, यह कैसे साबित होगा?
यह सब उत्तर प्रदेश के अखबारों में काम कर रहे लगभग एक दर्जन पत्रकारों से बातचीत के बाद लिख रहा हूं। वे सभी पत्रकार पेड न्यूज के इस नए रंग से खुश नहीं है लेकिन नौकरी के बीच कुछ कर भी नहीं सकते। कमाल यह है कि पेड न्यूज के इस नए खेल को समझने के बाद भी साबित करना चुनाव आयोग के लिए भी टेढा काम होगा। इसका मतलब साफ है, पेड न्यूज का खेल चलता रहेगा, और हमारी भूमिका मूकदर्शक से अधिक कुछ भी नहीं होगी। ऐसे समय में अंतिम भरोसा पाठकों का ही है, वे अखबार की खबर को आंख बंद करके अंतिम सत्य समझ कर ना पढ़े और वह भी जानने की कोशिश करें जो अखबार में छपा नहीं है। उन प्रत्याशियों के नाम पर भी चर्चा करें, जिनका जिक्र अखबारों में नहीं है।

(लेखक परिचय:
जन्म: 24.12.84 को बेतिया पश्चमी चंपारण में
शिक्षा: स्नातकोत्तर डिग्री
सृजन: विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में सरोकारी लेखन
खासियत:
फिलहाल देश के वाहिद घुमंतू युवा पत्रकार
सम्प्रति:
दिल्ली में रहकर दुभाषिया पत्रिका 'सोपान'  से संबद्ध. साथ ही स्कूली छात्रों के साथ मिलकर मीडिया स्कैन भी निकालते हैं
संपर्क: ashishkumaranshu@gmail.com
ब्लॉग: बतकही )

Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

4 comments: on "पेड़ न्यूज़ : पुराना खेल, नयी चाल"

kshama ने कहा…

Paid news ka khel chaltaahee rahega....saaf baat hai!

Gyan Darpan ने कहा…

ये हिन्दुस्तानी कानून है इसमें कई रास्ते निकल ही जाते है

Gyan Darpan
..

कविता रावत ने कहा…

iska bhi koi na koi rasta nikal hi lenge, chup kahan baitha hai koi..janta chune bhi to kise chune..wahi chehre-mohre...

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
http://charchamanch.blogspot.in/2012/02/777.html
चर्चा मंच-777-:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)