मौत तो जीती मगर वो हारा नहीं
शहबाज़ अली खान की क़लम से
यूँ तो घर में (ननिहाल में) जब से आँख खुली तबसे उर्दू के ही शायरों मीर, ग़ालिब, दर्द, सौदा और न जाने कितने उर्दू शायरों/ अदीबों का हीज़िक्र सुन सुन कर बड़ा हुआ... लेकिन एक शायर का नाम और उसकी शख्सियत का ज़िक्र कुछ अलग ही था.. वो नाम था शहरयार साहबका... क्यूंकि वो एक आधुनिक उर्दू कविता के एक अज़ीम शायर होने के साथ साथ नाना के क्लासमेट भी थें.... और मामू के उस्ताद भी थें..नाना अक्सर कहा करते थे कि जब अलीगढ में फर्स्ट डिविजन लाना टेढ़ी खीर साबित हुआ करता था.. तब उन दिनों में एम. ए में सिर्फ दोलोगों, नाना और शहरयार साहब ने ही फर्स्ट डिविजन पाया था.... मामू उनकी एक ग़ज़ल " पहले नहाई ओस में, फिर आंसुओं में रात, यूँ बूँदबूँद उतरी हमारे घरों में रात" को ख़ास तौर पे उर्दू ग़ज़ल में मील का पत्थर कहा करते थे. घर में उन दिनों (नाना के वक्त) के अलीगढ के उनतमाम अदीब हस्तियों मसलन शहरयार, राही, खलीलुर रहमान आज़मी, मो. हसन वगैरह के नाम सुन सुन कर अलीगढ आने का खवाब मैं भीदेखने लगा था.. हालाँकि बचपन से घर पर भले ही मुझे उर्दू पढाई गयी लेकिन नाना ने मुझे हिंदी और संस्कृत कि पारंपरिक शिक्षा दिलवाई..उनका कहना था कि घर में सबने उर्दू इंग्लिश कि तालीम हासिल कि मैं चाहता हूँ कि तुम हिंदी संस्कृत कि तालीम हासिल करो.. इस तरह सेमुझे एक दूसरी लाइन पर डाला गया लेकिन विरासत में उर्दू का मिला मिज़ाज मेरा पीछा छोड़ने को राज़ी न हुआ.. अलीगढ आने के बाद भीमेरी दिलचस्पी खास तौर से उर्दू शायरी में बनी रही..
ज़ाहिर सी बात है यहाँ आकर मेरे इस मिज़ाज को एक भरा पूरा माहौल मिला.. जब मैं यहाँ आया तो तब जिन नामों को मैं सुनता आया थाउनमें शहरयार साहब ही अकेले थें जो बा हयात थें.. और जिनसे मिला मिलाया जा सकता था.. २००६ तक मैं कभी उनसे मिला नहीं, मुशायरोंऔर कुछ एक सेमिनारों में उनको सुना, देखा. लेकिन २००६ में जब मैं आदरणीय गुरुवर प्रो. के.पी.सिंह के सानिध्य में गया तब मैंने पाया किवो अमूमन वहाँ आते रहते थे....एक दिन उन्होनें सर से मेरे बारे में पूछा में तो सर ने कहा कि अपना तआर्रुफ़ करवाओ.. फिर जब में उन्हेंबताया कि मैं आपके क्लासमेट मो. इरशाद खान का नवासा हूँ तो सच कहता हूँ एकदम खिल उठे और तुरंत मुझसे नाना का फोन नंबर माँगाऔर अपने मोबाइल से तुरंत मिलाया.. लगभग ३०- ४० साल बाद उन दोनों सहपाठियों की बातचीत हुयी.. बात करने के बाद बेहद ख़ुशी केसाथ उन्होंने सर से कहा कि के. पी पूरे क्लास में हमीं दो मर्द थें.. हम दोनों की ही फर्स्ट डिविजन आई थी.. उन दिनों को याद करते हुए बेहदखुश हुए.. वो मेरे लिए एक बड़ा दिन था..लेकिन उससे बड़ा दिन अभी आना था..
इस बातचीत और मुलाक़ात हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन गुरुवर ने कहा कि तुम शहरयार साहब के पास जाकर वर्तमान साहित्यके नए अंक के लिए दो नई ग़ज़ल ले आओ.. मैं गया. उन्होंने बिठाया, बात चीत करते रहे.. फैमिली के बारे में पूछते रहे.. और दो नयी ग़ज़लमेरी डायरी पर अपने हाथों से लिखी. फिर मेरे इसरार पर उन्होंने "पहली नहाई ओस में" वाली पूरी ग़ज़ल लिखी... और उसपर लिखा एक पुरानी ग़ज़ल शाहबाज़ के लिए..(फोटो डायरी के उसी पेज का है).. ये मेरे लिए बेशक एक और बेहद बड़ा दिन था... उस लम्बी चौड़ी बेहदसुंदर सी डायरी में कुल तीन पेज ही लिखे हैं आजतक.. वही तीन पेज जो उन्होनें अपने हाथ से लिखे.. बस वही तीन! लेकिन मेरे लिए येकिसी असंख्य पृष्ठों वाली महान ग्रथों से भी बढ़ कर है.. ये मेरी संपत्ति है.. हाँ मेरी संपत्ति है..
उस दिन उनकी और नाना कि वो आखिरी बात थी क्यूंकि इसके दिन के कुछ महीने बाद ही नाना का इंतकाल होगया..... जब ये बात उन्हेंपता चली तो बेहद उदास हुए.. और कुछ नहीं बोले.. नाना के नहीं रहने के बाद मैं भी ज़िन्दगी की कशमकश में फंस गया और गुरुवर कासानिध्य भी छूट सा गया..उनसे रूबरू होने वाली मुलाकातें छूट गयीं..हालाँकि सेमिनारों में मुलाकातें तो होती रहीं. कभी कभी मौक़ा निकलकर सामने पहुँच जाता तो हाल चाल पूछते....
मैं उनकी शायरी का दीवाना हूँ.. बहुत लोग दीवाने हैं.. लेकिन उनकी शायरी पर मैं कुछ कहूं मैं इस लायक नहीं हूँ.. दीवाना कब किसी लायकहुआ है... मैं बस ये कहना चाहता हूँ.. मुझे एक अज़ीम शायर के चले जाने का बेहद अफ़सोस है लेकिन उससे ज़यादा मुझे उस ज़माने के चलेजाने का अफ़सोस है जिस को सुन सुन कर मैं बड़ा हुआ था.. ..एक पूरी परम्परा के चले जाने का अफ़सोस है.. उनके न रहने कि खबर सुनकर बस जुबां पे यही आया कि
कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया
पुकारता है साहिल समंदर चला गया...(कभी किसी ये शेर सुना था... जाने किसका है)
* गुरुवर प्रो. के.पी.सिंह सर की मृत्यु पर लिखी नज़्म की एक पंक्ति...
(लेखक-परिचय :
जन्म:१८ मई १९८४, बहराइच में
शिक्षा: अलीगढ मुस्लिम विवि से राही मासूम रज़ा पर पीएचडी कर रहे हैं
सृजन: छिटपुट पत्र पत्रिकाओं में लेख कवितायें प्रकाशित ,फेसबुक के चहीते लेखक
संपर्क:alikhan.shahbaz@gmai l.com)
दैनिक भास्कर के जमशेदपुर और धनबाद संस्करण में १५ .२.२०१२ को प्रकाशित
शहबाज़ अली खान की क़लम से
यूँ तो घर में (ननिहाल में) जब से आँख खुली तबसे उर्दू के ही शायरों मीर, ग़ालिब, दर्द, सौदा और न जाने कितने उर्दू शायरों/ अदीबों का हीज़िक्र सुन सुन कर बड़ा हुआ... लेकिन एक शायर का नाम और उसकी शख्सियत का ज़िक्र कुछ अलग ही था.. वो नाम था शहरयार साहबका... क्यूंकि वो एक आधुनिक उर्दू कविता के एक अज़ीम शायर होने के साथ साथ नाना के क्लासमेट भी थें.... और मामू के उस्ताद भी थें..नाना अक्सर कहा करते थे कि जब अलीगढ में फर्स्ट डिविजन लाना टेढ़ी खीर साबित हुआ करता था.. तब उन दिनों में एम. ए में सिर्फ दोलोगों, नाना और शहरयार साहब ने ही फर्स्ट डिविजन पाया था.... मामू उनकी एक ग़ज़ल " पहले नहाई ओस में, फिर आंसुओं में रात, यूँ बूँदबूँद उतरी हमारे घरों में रात" को ख़ास तौर पे उर्दू ग़ज़ल में मील का पत्थर कहा करते थे. घर में उन दिनों (नाना के वक्त) के अलीगढ के उनतमाम अदीब हस्तियों मसलन शहरयार, राही, खलीलुर रहमान आज़मी, मो. हसन वगैरह के नाम सुन सुन कर अलीगढ आने का खवाब मैं भीदेखने लगा था.. हालाँकि बचपन से घर पर भले ही मुझे उर्दू पढाई गयी लेकिन नाना ने मुझे हिंदी और संस्कृत कि पारंपरिक शिक्षा दिलवाई..उनका कहना था कि घर में सबने उर्दू इंग्लिश कि तालीम हासिल कि मैं चाहता हूँ कि तुम हिंदी संस्कृत कि तालीम हासिल करो.. इस तरह सेमुझे एक दूसरी लाइन पर डाला गया लेकिन विरासत में उर्दू का मिला मिज़ाज मेरा पीछा छोड़ने को राज़ी न हुआ.. अलीगढ आने के बाद भीमेरी दिलचस्पी खास तौर से उर्दू शायरी में बनी रही..
ज़ाहिर सी बात है यहाँ आकर मेरे इस मिज़ाज को एक भरा पूरा माहौल मिला.. जब मैं यहाँ आया तो तब जिन नामों को मैं सुनता आया थाउनमें शहरयार साहब ही अकेले थें जो बा हयात थें.. और जिनसे मिला मिलाया जा सकता था.. २००६ तक मैं कभी उनसे मिला नहीं, मुशायरोंऔर कुछ एक सेमिनारों में उनको सुना, देखा. लेकिन २००६ में जब मैं आदरणीय गुरुवर प्रो. के.पी.सिंह के सानिध्य में गया तब मैंने पाया किवो अमूमन वहाँ आते रहते थे....एक दिन उन्होनें सर से मेरे बारे में पूछा में तो सर ने कहा कि अपना तआर्रुफ़ करवाओ.. फिर जब में उन्हेंबताया कि मैं आपके क्लासमेट मो. इरशाद खान का नवासा हूँ तो सच कहता हूँ एकदम खिल उठे और तुरंत मुझसे नाना का फोन नंबर माँगाऔर अपने मोबाइल से तुरंत मिलाया.. लगभग ३०- ४० साल बाद उन दोनों सहपाठियों की बातचीत हुयी.. बात करने के बाद बेहद ख़ुशी केसाथ उन्होंने सर से कहा कि के. पी पूरे क्लास में हमीं दो मर्द थें.. हम दोनों की ही फर्स्ट डिविजन आई थी.. उन दिनों को याद करते हुए बेहदखुश हुए.. वो मेरे लिए एक बड़ा दिन था..लेकिन उससे बड़ा दिन अभी आना था..
इस बातचीत और मुलाक़ात हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन गुरुवर ने कहा कि तुम शहरयार साहब के पास जाकर वर्तमान साहित्यके नए अंक के लिए दो नई ग़ज़ल ले आओ.. मैं गया. उन्होंने बिठाया, बात चीत करते रहे.. फैमिली के बारे में पूछते रहे.. और दो नयी ग़ज़लमेरी डायरी पर अपने हाथों से लिखी. फिर मेरे इसरार पर उन्होंने "पहली नहाई ओस में" वाली पूरी ग़ज़ल लिखी... और उसपर लिखा एक पुरानी ग़ज़ल शाहबाज़ के लिए..(फोटो डायरी के उसी पेज का है).. ये मेरे लिए बेशक एक और बेहद बड़ा दिन था... उस लम्बी चौड़ी बेहदसुंदर सी डायरी में कुल तीन पेज ही लिखे हैं आजतक.. वही तीन पेज जो उन्होनें अपने हाथ से लिखे.. बस वही तीन! लेकिन मेरे लिए येकिसी असंख्य पृष्ठों वाली महान ग्रथों से भी बढ़ कर है.. ये मेरी संपत्ति है.. हाँ मेरी संपत्ति है..
उस दिन उनकी और नाना कि वो आखिरी बात थी क्यूंकि इसके दिन के कुछ महीने बाद ही नाना का इंतकाल होगया..... जब ये बात उन्हेंपता चली तो बेहद उदास हुए.. और कुछ नहीं बोले.. नाना के नहीं रहने के बाद मैं भी ज़िन्दगी की कशमकश में फंस गया और गुरुवर कासानिध्य भी छूट सा गया..उनसे रूबरू होने वाली मुलाकातें छूट गयीं..हालाँकि सेमिनारों में मुलाकातें तो होती रहीं. कभी कभी मौक़ा निकलकर सामने पहुँच जाता तो हाल चाल पूछते....
मैं उनकी शायरी का दीवाना हूँ.. बहुत लोग दीवाने हैं.. लेकिन उनकी शायरी पर मैं कुछ कहूं मैं इस लायक नहीं हूँ.. दीवाना कब किसी लायकहुआ है... मैं बस ये कहना चाहता हूँ.. मुझे एक अज़ीम शायर के चले जाने का बेहद अफ़सोस है लेकिन उससे ज़यादा मुझे उस ज़माने के चलेजाने का अफ़सोस है जिस को सुन सुन कर मैं बड़ा हुआ था.. ..एक पूरी परम्परा के चले जाने का अफ़सोस है.. उनके न रहने कि खबर सुनकर बस जुबां पे यही आया कि
कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया
पुकारता है साहिल समंदर चला गया...(कभी किसी ये शेर सुना था... जाने किसका है)
* गुरुवर प्रो. के.पी.सिंह सर की मृत्यु पर लिखी नज़्म की एक पंक्ति...
शहबाज़ की डाइरी में महफूज़ शहरयार की तहरीर में उनकी मशहूर ग़ज़ल |
(लेखक-परिचय :
जन्म:१८ मई १९८४, बहराइच में
शिक्षा: अलीगढ मुस्लिम विवि से राही मासूम रज़ा पर पीएचडी कर रहे हैं
सृजन: छिटपुट पत्र पत्रिकाओं में लेख कवितायें प्रकाशित ,फेसबुक के चहीते लेखक
संपर्क:alikhan.shahbaz@gmai
दैनिक भास्कर के जमशेदपुर और धनबाद संस्करण में १५ .२.२०१२ को प्रकाशित
4 comments: on "भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई........... शहरयार को याद करते हुए"
kada dil kar ke bahut kuchh sahna padta hai ..vahi yaaden jo sukh deti hain ..vahi dukh ka kaaran bhi banti hain ...
सारदा जी की बात से सहमत हूँ।
शहरयार साहब का जाना बहुत दुखद है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती...ऐसे लोग सदियों में पैदा होते हैं...
नीरज
इस शायर की कमी हमेशा खलेगी पर उनकी शायरी जीवित रहेंगी.
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- अल्लामा जमील मज़हरी