बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 16 दिसंबर 2012

ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है.......

एक भी  शे’र अगर हो जाए







 




विजेंद्र शर्मा की क़लम से 
इसमें कोई शक़ नहीं कि अदब की जितनी भी विधाएं हैं, उनमे सबसे मक़बूल ( प्रसिद्ध ) कोई विधा है, तो वो है ग़ज़ल ! दो मिसरों में पूरी सदी की दास्तान बयान करने की सिफ़त ख़ुदा ने सिर्फ़ और सिर्फ़ ग़ज़ल को अता की है ! यही वज्ह है कि जिसे देखो वही ग़ज़ल पे अपने हुनर की आज़माइश कर रहा है ! ऐसा नहीं है कि ग़ज़ल कहने के लिए शाइर को उर्दू रस्मुल-ख़त (लिपि) आना ज़रूरी है मगर ग़ज़ल से सम्बंधित जो बुनियादी बातें है वे तो ग़ज़ल कहने वाले को पता होनी चाहिए ! ऐसे बहुत से शाइर है जो उर्दू रस्मुल-ख़त नहीं जानते पर उन्होंने बेहतरीन ग़ज़लें कही हैं और उनके क़लाम की उर्दू वालों ने भी पज़ीराई की है ! यहाँ एक बात ये भी कहना चाहूँगा कि अगर किसी ने ठान लिया है कि मैंने ग़ज़ल कहनी है तो उसे उर्दू रस्मुल-ख़त ज़रूर सीखना चाहिए क्यूंकि ग़ज़ल से मुतालिक बहुत सी ऐसी नाज़ुक चीज़ें हैं जिनके भीतर तक बिना उर्दू को जाने पहुंचना बड़ा दुश्वारतरीन है !

शाइरी ज़िंदगी जीने का एक सलीक़ा है और शे’र कहने की पहली शर्त है शाइर की तबीयत शाइराना होना ! कुछ ग़ज़लकार अदब के नक़्शे पे अपने होने का ज़बरदस्ती अहसास करवाना चाहते है उनकी ना तो तबीयत शाइराना है ना ही उनके मिज़ाज की सूरत किसी भी ज़ाविये (कोण) से  ग़ज़ल से मिलती है !

शाइरी की ज़ुबान में शे’र लिखे नहीं कहे जाते हैं ! इस तरह के नकली शाइरों की ज़बराना लिखी ग़ज़लें नए लोगों को ग़ज़ल से दूर कर रही है ! इन दिनों अदब के हर हलके में चाटुकारों की तादाद बढती जा रही है और ठीक उसी अनुपात में नए–नए ग़ज़लकार भी!

शकील जमाली की ताज़ा  ग़ज़ल का एक शे’र मुझे बरबस याद आ रहा है .. इस शे’र को सुनने के बाद ही ये मज़मून लिखने का मन हुआ :--

ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है

कई शाइर है बेचारी के पीछे ....

ग़ज़ल का अपना एक अरूज़ (व्याकरण/छंद-शास्त्र  ) होता है ! अरूज़ वो कसौटी है जिस पे ग़ज़ल परखी जाती है ! यहाँ मेरा मक़सद ग़ज़ल का अरूज़ सिखाना नहीं है मगर कुछ बुनियादी चीज़ें है जो ये तथाकथित सुख़नवर ना तो जानते हैं और ना ही जानना चाहतें हैं ! अल्लाह करे ये छोटी–छोटी बाते तो कम से कम शाइरी के साथ खिलवाड़ करने वालों के ज़हन में आ जाए !

ग़ज़ल के पैकर (स्वरुप) को देखें तो ग़ज़ल और नज़्म (कविता ) में बड़ा फर्क ये है कि ग़ज़ल का हर शे’र अपना अलग मफ़हूम (अर्थ) रखता है जबकि कविता शुरू से लेकर हर्फ़े आख़िर (अंतिम शब्द )  तक एक उन्वान (शीर्षक ) के इर्द-गिर्द ही रहती है !

ग़ज़ल कुछ शे’रों के समूह से बनती है ! शे’र लफ़्ज़ का मतलब है जानना  या किसी शै (चीज़ ) से वाकिफ़ होना ! एक शे’र में दो पंक्तियाँ होती हैं ! एक पंक्ति को मिसरा कहते है और  दो मिसरे मिलकर एक शे’र की तामीर (निर्माण )  करते हैं ! किसी शे’र के पहले मिसरे को मिसरा-ए -उला और दूसरे मिसरे को मिसरा ए सानी कहते हैं !किसी भी शे’र के दोनों मिसरों में रब्त (सम्बन्ध ) होना बहुत ज़रूरी है इसके बिना शे’र खारिज माना जाता है !

बहर  वो तराज़ू है जिसपे ग़ज़ल का वज़न तौला जाता है इसे वज़न भी कहते हैं ! बहर में शे’र कहना उतना आसान नहीं है जितना आजकल के कुछ फोटोस्टेट  शाइर समझते हैं ! मोटे तौर पे उन्नीस बहरें प्रचलन में हैं ! बहर को कुछ लोग मीटर भी कहते है ! जो शाइर बहर में शे’र नहीं कहते उन्हें बे-बहरा शाइर कहा जाता है और हमारे अहद का अलमिया (विडंबना ) ये है कि रोज़ ब रोज़ ऐसे शाइर बढ़ते जा रहें हैं ! बहर को समझना एक दिन का काम नहीं है और ना ही सिर्फ़ किताबें पढ़कर बहर की पटरी पे शाइरी की रेल चलाई जा सकती है ! बहर का मुआमला या तो शाइरी के प्रति जुनून से समझ में आता है या फिर बहर की समझ  कुछ शाइरों को ख़ुदा ने बतौर तोहफ़ा अता की है !

रदीफ़ :--शाइरी में हुस्न और ख़यालात में फैलाव के लिए ग़ज़ल में रदीफ़ रखा जाता है ! ग़ज़ल को लय में सजाने में रदीफ़ का अहम् रोल होता है ! मिसाल के तौर पे  मलिकज़ादा “जावेद” साहब का ये मतला और शे’र देखें :--

मुझे सच्चाई की आदत बहुत है !

मगर इस राह में दिक्कत बहुत है !!

किसी फूटपाथ से मुझको ख़रीदो !

मेरी शो रूम में क़ीमत बहुत है !!

इस ग़ज़ल में बहुत है रदीफ़ है जो बाद में ग़ज़ल के हर शे’र के दूसरे मिसरे यानी मिसरा ए सानी में बार – बार आता है

क़ाफ़िया :-- क़ाफ़िया ग़ज़ल का मत्वपूर्ण हिस्सा है बिना क़ाफ़िए के ग़ज़ल मुकम्मल नहीं हो सकती ! शे’र कहने से पहले शाइर के ज़हन में ख़याल आता है और  फिर वो उसे शाइरी बनाने के लिए  रदीफ़,क़ाफ़िए तलाश करता है ! क़ाफ़िए का इंतेखाब (चुनाव )शाइर को बड़ा सोच–समझ कर करना चाहिए ! ग़लत क़ाफ़िए का इस्तेमाल शाइर की मखौल उड़वा देता हैं ! राहत इन्दौरी का ये मतला और  शे’र देखें :--

अपने अहसास को पतवार भी कर सकता है !

हौसला हो तो नदी पार भी कर सकता है !!

जागते रहिये,  की  आवाज़ लगाने वाला !

लूटने वाले को होशियार भी कर सकता है !!

इसमें पतवार,पार,होशियार क़ाफ़िए हैं और “ भी कर सकता है”

रदीफ़ है !जिस शे’र में दोनों मिसरों में क़ाफ़िया आता हो उसे मतला कहते हैं ! किसी ग़ज़ल की आगे की राह मतला ही तय करता है ! मतले में शाइर जो क़ाफ़िए बाँध देता है  फिर उसी के अनुसार उसे आगे के शे’रों में क़ाफ़िए रखने पड़ते हैं ! जैसे किसी शाइर ने मतले में किनारों , बहारों का क़ाफ़िया बांधा है तो वह शाइर पाबन्द हो गया है कि आगे के शे’रों में आरों का ही क़ाफ़िया लगाए ना कि ओ का क़ाफ़िया  जैसे पहाड़ों , ख़यालों का क़ाफ़िया ! हिंदी ग़ज़ल के बड़े शाइर  दुष्यंत कुमार ने भी अपनी ग़ज़लात में ग़लत क़ाफ़िए बांधे और तनक़ीद कारों को बोलने का मौका दिया ! दुष्यंत कुमार की एक बड़ी मशहूर ग़ज़ल है :----

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए !

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए !!

वे मुतमईन है कि पत्थर पिघल नहीं सकता !

मैं बेक़रार हूँ आवाज़  में  असर  के लिए !!

इस ग़ज़ल के मतले में “घर” के साथ “शहर” का क़ाफ़िया जायज़ नहीं है ,दुष्यंत साहब जैसे शाइर ने फिर अगले शे’र में “असर” का क़ाफ़िया लगाया उसके बाद इसी ग़ज़ल में उन्होंने “नज़र” ,”बहर” ,”गुलमोहर” और “सफ़र” के क़ाफ़िए बांधे ! इस पूरी ग़ज़ल में शहर और बहर के क़ाफ़िए का इस्तेमाल दोषपूर्ण है ! दुष्यंत कुमार की इसके लिए बड़ी आलोचना भी हुई !

ग़लत क़ाफ़िए को शे’र में बरतना शाइर की मुआफ नहीं करने वाली ग़लती है ! ये सब बातें यूँ ही नहीं आती हैं इसके लिए अच्छा मुताला (अध्ययन) होना ज़रूरी है मगर लोगों को पढ़ने का तो वक़्त ही नहीं है बस क़लम और काग़ज़ पर कहर बरपा के सिर्फ़ छपने का शौक़ है ! स्वयंभू ग़ज़लकारों के अख़बारात और रिसालों में छपने की  इस हवस ने सबसे ज़ियादा नुक़सान शाइरी का किया है !

वापिस ग़ज़ल  पे आता हूँ .. शाइर अपने जिस उपनाम से जाना जाता है उसे ”तख़ल्लुस” कहते हैं और अपने तख़ल्लुस का जिस शे’र में शाइर इस्तेमाल करता  है वो शे’र  “मक़ता” कहलाता है !

मासूम परिंदों को आता ही नहीं “निकहत” !

आगाज़ से घबराना ,अंजाम से डर जाना !!

ये मक़ता डॉ.नसीम “निकहत” साहिबा का है, शाइरा ने इस शे’र में अपने तख़ल्लुस का इस्तेमाल किया है सो ये मक़ता हुआ !

ग़ज़ल से त-अल्लुक़  रखने वाली  जिन बातों का मैंने ज़िक्र किया, अपने ख़यालात को ग़ज़ल बनाने के लिए सिर्फ इतना जान लेना ही काफ़ी नहीं है ! ग़ज़ल कहने के लायक बनने  के लिए और भी बहुत से क़ायदे-क़ानून /ऐब - हुनर हैं जिन्हें एक शाइर को सीखना चाहिए !

शाइरी में कुछ ऐब है जिन्हें  शुरू – शुरू में हर शाइर नज़रंदाज़ करता है !ये ऐब अच्छे –भले शे’र और शाइर  को तनक़ीद वालों (आलोचकों ) के कटघरे में खड़ा कर देतें हैं !

शतुरगुरबा ऐब ..शतुर माने ऊंट और गुरबा माने बिल्ली यानी ऊंट –बिल्ली को एक साथ ले आना इस ऐब को जन्म देता है! ग़फ़लत में शाइर ये ग़लती कर जाता है ! जैसे पहले मिसरे में “आप” का इस्तेमाल हो और दूसरे में “तुम” का प्रयोग करे या यूँ कहें कि संबोधन में समानता ना हो तो शतुरगुरबा ऐब हो जाता है !

ग़ज़ल में कभी “ना” लफ़्ज़ का इस्तेमाल नहीं होता इसकी जगह सिर्फ़ “न” का ही प्रयोग किया जाता है ,”ना” का इस्तेमाल सिर्फ़ उस जगह किया जाता है जहां “ना“हाँ की सूरत में हो जैसे भाई पवन दीक्षित का ये शे’र :-

पारसाई न काम आई ना !

और कर ले शराब से तौबा !!

ज़म :-- कई बार शाइर ऐसा मिसरा लगा देते है जिसका अर्थ बहुत बेहूदा निकलता है ,या शाइर से  ऐसे लफ़्ज़ का अनजाने में इस्तेमाल हो जाता है  जिसके  मआनी फिर शाइरी की तहज़ीब से  मेल नहीं खाते ! ज़म के ऐब से शाइर को बचना चाहिए !

कई बार शाइर बहर के चक्कर में अब, ये, तो,भी,वो आदि लफ़्ज़ बिना वज्ह शे’र में डाल देता है जबकि कहन में उस लफ़्ज़ की कोई ज़रूरत नहीं होती ! शाइर को भर्ती के लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से भी बचना चाहिए ! जहां तक शाइरी में ऐब का सवाल है और भी बहुत से ऐब है जिन्हें एक शाइर अध्ययन और मश्क़ कर- कर के अपने कहन से दूर कर सकता है !

शाइरी में ऐब इतने ढूंढें जा सकते है कि जिनकी गिनती करना मुश्किल है मगर जहां तक हुनर का सवाल है वो सिर्फ़ एक ही है और वो है “बात कहने का सलीक़ा” ! अपने ख़याल को काग़ज़ पे सलीक़े से उतारना आ जाए तो समझो उस शाइर को शाइरी का सबसे बड़ा हुनर आ गया है ! एक सलीक़ामंद शाइर बेजान मफ़हूम और गिरे पड़े लफ़्ज़ों को भी अपने इसी हुनर से ख़ूबसूरत शे’र में तब्दील कर सकता है ! ज़ोया साहब के ये मिसरे मेरी इस बात की पुरज़ोर वकालत कर सकते हैं :-

कट रही है ज़िंदगी रोते हुए !

और वो भी आपके होते हुए !!

इसी तरह शमीम बीकानेरी साहब का एक मतला और शे’र बतौर मिसाल अपनी बात को और पुख्ता करने के लिए पेश करता हूँ :--

रातों  के  सूनेपन  से  घबरायें क्या !

ख़्वाब आँखों से पूछते हैं, हम आयें क्या !!

बेवा का सा हुस्न है दुनिया का यारों !

मांग इसकी सिन्दूर से हम भर जायें क्या !!


मामूली से नज़र आने वाले लफ़्ज़ों को इस तरह के मेयारी  शे’रों की माला में मोती सा पिरो देने का कमाल एक दिन में नहीं आता इसके लिए बहुत तपस्या करनी पड़ती है,शाइरी की इबादत करनी पड़ती है और अपने बुज़ुर्गों के पाँव दबाने पड़ते हैं ! मुनव्वर राना ने यूँ ही थोड़ी कहा है :-

ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़े-सुख़न आया है !

पाँव दाबे हैं बुज़ुर्गों के तो फ़न आया है !!

ग़ज़ल कहने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है आपके पास एक ख़ूबसूरत ख़याल का होना ! उसके बाद उस ख़याल को मिसरों में ढालने के लिए उसी मेयार के लफ़्ज़ भी होंने चाहिए ! लफ़्ज़ अकेले शाइरी में नहीं ढल सकते इसके लिए एक शाइर के पास अहसासात की दौलत होना बहुत ज़रूरी है !एक शाइर के पास अल्फ़ाज़ का ख़ज़ाना भी  इतना समृद्ध होना चाहिए कि उसके ज़हन में अगर कोई ख़याल आये तो उसे लफ़्ज़ों के अकाल के चलते मायूस ना लौटना पड़े !

ग़ज़ल का एक-एक शे’र शाइर से मश्क़ (मेहनत) माँगता है ! किसी शाइर का सिर्फ़ एक मिसरा सुनकर इस बात को बा-आसानी कहा जा सकता है कि इन साहब को शे’र कहने की सलाहियत है या नहीं !

एक और अहम् चीज़ शाइरी को संवारती है वो है इस्ल्लाह (सलाह-मशविरा ) ! कुछ ऐसे ग़ज़लकार हैं जो अपनी तख़लीक़ को ही सब कुछ समझते हैं ! किसी जानकार से सलाह लेना उन्हें अपनी अना के क़द को छोटा करने जैसा लगता है !  शाइरी में इन दिनों उस्ताद–शागिर्द की रिवायत का कम हो जाना भी शाइरी के मेयार के गिरने की एक बड़ी वज्ह है !

जिस शाइर में आईना देखने का हौसला है ,अपने क़लाम पे  हुई सच्ची तनक़ीद (समीक्षा ) को सुनने का मादा है तो उस शाइर का मुस्तक़बिल यक़ीनन सुनहरा है ! जो तथाकथित शाइर बिना मशकक़त किये बस छपने के फितूर में क़लम घिसे जा रहे हैं वे ग़ज़ल और पाठकों के साथ – साथ ख़ुद को भी धोखा दे रहें हैं !

छपास के शौक़ीनों ने ग़ज़लों के साथ–साथ दोहों पर भी कोई कम ज़ुल्म नहीं ढायें हैं ! दोहे का अरूज़ भी ग़ज़ल जैसा ही है ,ग़ज़ल उन्नीस बहरों में कही जाती है दोहे की बस एक ही बहर होती है ! सरगम सरगम सारगम,सरगम सरगम सार!

 ग़ज़ल कहने के लिए कम से कम आठ – दस क़ाफ़िए आपके ज़हन में होने चाहियें मगर दोहे में तो सिर्फ़ दो ही क़ाफ़ियों की ज़रूरत होती है तो भी अपने आप को मंझा हुआ दोहाकार कहने वाले ऐसे –ऐसे दोहे लिख रहें है जिनके बरते हुए क़ाफ़िए आपस में ही झगड़ते रहते हैं ! ऐसे दोहों से त्रस्त होकर मैंने एक दोहा लिखा था :---

दोहे में दो क़ाफ़िए , दोनों ही बे-मेल !

ना आवे जो खेलना ,क्यूँ खेलो वो खेल !!

ग़ज़ल के शे’र और दोहे छंद की मर्यादा में कहे जाते है! बिना बहर और छंद के इल्म के इन दोनों विधाओं पे हाथ आज़माना सिर्फ़ अपनी हंसी उड़वाना है ! ग़ज़ल के सर से दुपट्टा उतारने वाले ये क्यूँ नहीं समझते कि पाठक इतने बेवकूफ़ नहीं है जितना वे समझते हैं ! एक अलमिया ये भी है कि बहुत से जानकार लोग सब कुछ जानते हुए भी इनकी ग़ज़लों की तारीफ़ कर देते हैं जिससे इन नक़ली सुख़नवरों का हौसला और बढ़ जाता है ! अपने ज़ाती मरासिम (सम्बन्ध) बनाए रखने के लिए कुछ मोतबर शाइर भी ग़ज़ल के श्रंगार से छेड़- छाड़ करने वालों की शान में जब कसीदे पढ़ते है तो ऐसे अदीब (साहित्यकार) भी मुझे  ग़ज़ल के दुश्मन नज़र आते है !

मैं जानता हूँ ये मज़मून बहुत से लोगों के सीने पे सांप की तरह रेंगेगा मगर ये कड़वी बातें मैंने शाइरी के हित में ही लिखी हैं ! ग़ज़ल से बे-इन्तेहा मुहब्बत ने मुझे ये सब लिखने की हिम्मत दी है ! मैं जानता हूँ ज़ाती तौर पे मुझे इसका नुक़सान भी होगा , कुछ अदब के मुहाफ़िज़ नाराज़ भी हो जायेंगे खैर ये सच बोलने के इनआम हैं ! जब पहली मरतबा ये पुरस्कार मुझे मिला तो ये पंक्तियाँ  ख़ुद ब ख़ुद हो गयी थी  :--

इक सच बोला और फिर , देखा ऐसा हाल !

कुछ ने नज़रें फेर लीं , कुछ की आँखें लाल !!

ग़ज़ल का ये बड़प्पन है कि वो उनको भी अपना समझ लेती है जो उसके साथ चलने की तो छोडिये साथ खड़े होने के भी क़ाबिल नहीं हैं ! अपने आपको शाइर समझने वाले ग़ज़ल के ख़िदमतगारों से मेरी गुज़ारिश है कि ग़ज़ल कहने से पहले इसे कहने का हक़ रखने के लायक बने ! ग़ज़ल कहने से पहले उसके तमाम पेचो-ख़म के बारे में जाने ! शाइरों का काम आबरू ए ग़ज़ल की हिफ़ाज़त करना है ना कि ग़ज़ल को बे-लिबास करना ! केवल तुक मिलाने से सुख़नवर होने का सुख नहीं मिलता  जहां तक तुकबंदी का सवाल है तुकबंदी तो लखनऊ ,दिल्ली और लाहौर के तांगे वाले भी इन शाइरों से अच्छी कर लेते है ! ग़ज़ल से बिना मुहब्बत किये उसकी मांग भरने की ख़्वाहिश रखने वाले इन अदीबों से एक और इसरार (निवेदन) कि छपने और झूठी शुहरत के चस्के में ऐसा कुछ ना लिखें  जिससे जन्नत में आराम फरमा रही  मीर ओ ग़ालिब की रूहों का चैन और सुकून छीन जाए और यहाँ ज़मीन पे ग़ज़ल का दामन उनके आंसुओं  से तर हो जाए !

परवरदिगार से ग़ज़ल के हक़ में यही दुआ करता हूँ  कि ख़ुद को शाइर समझने का वहम पालने वाले ग़ज़ल को बेवा ना समझें ,ग़ज़ल कहने से पहले उसे कहने की सलाहियत, अपने जुनून, अपनी मेहनत, अपनी साधना से हासिल करें ताकि ग़ज़ल भी अदब के बाज़ार में इठलाती हुई चल सके और ख़ाकसार को अपने दिल पे ग़ज़ल की पीड़ा का टनों बोझ लेकर किसी शाइर को जो तथाकथित ग़ज़लकार कहना पड़ता है वो फिर से ना कहना पड़े ! आख़िर में तश्ना कानपुरी के इसी मतले के साथ इजाज़त चाहता हूँ ...

एक भी  शे’र अगर हो जाए !

अपने होने की ख़बर हो जाए !!

आमीन..!






(लेखक परिचय 
जन्म: 15 अगस्त 1972, हनुमान गढ़ (राजस्थान)
शिक्षा: विद्युत् इंजीनियरिंग में स्नातक एवं एमबीए
सृजन:
गत पंद्रह  वर्षों से शायरी पर लेखन. दोहा  लेखन भी ...
           विभिन्न अखबारात के लिए साप्ताहिक कॉलम
सम्प्रति:
सीमा सुरक्षा बल में सहायक कमांडेंट ( विद्युत् ), बीकानेर
संपर्क:  vijendra.vijen@gmail.com )



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गुरुवार, 8 नवंबर 2012

रंज से इस कदर याराना हुआ @ QUICK बंदी

 

 

 

 

 

 

कमलेश सिंह की कलम  से 

Fear, Oh Dear!

मैं तो बस आप ही से डरता हूँ.
मैं कहाँ कब किसी से डरता हूँ.

मेरी दुनिया है रोशनाई में,
इसलिए रौशनी से डरता हूँ  

बहर-ए-आंसू हूँ बदौलत तेरी,
तेरी दरियादिली से डरता हूँ.

जब तेरा अक्स याद आता है,
मैं बहुत सादगी से डरता हूँ.

रंज से इस कदर याराना हुआ,
मिले तो अब खुशी से डरता हूँ.

मौत से डर नहीं ज़रा भी मुझे,
हाँ, इस जिंदगी से डरता हूँ.

जाने पहचाने थे हाथ औ खंजर,
कहता था अजनबी से डरता हूँ!

वस्ल की बात पर ख़मोशी भली,
हाँ से भी, और नहीं से डरता हूँ!

वो इक रात की गफ़लत ही थी,
मैं क्यूँ फिर चांदनी से डरता हूँ!

ये क्या किया कि आसमां वाले,
मैं तुम्हारी ज़मीं से डरता हूँ!

ग़म का बारूद छुपा सीने में,
फिर इक शोलाजबीं से डरता हूँ!

तेरे रुखसार पे एक नई गज़ल,
जो लिखी है उसी से डरता हूँ!

साँस गिनती की ही बची है मगर,
घर में तेरी कमी से डरता हूँ.

तुम्हारी याद के सहराओं में,
हर घड़ी तिश्नगी से डरता हूँ!

दिल लगाने का शौक है तुमको,
और मैं दिल्लगी से डरता हूँ!

साक़िया चश्म-ए-करम कायम रख,
होश में भी तुम्हीं से डरता हूँ!

जब से सब हो गए ईमां वाले,
मैं हर एक आदमी से डरता हूँ.
का किसी से कहें, काकिसि खुद ही,
हूँ काकिसि और काकिसि से डरता हूँ! 
रोशनाई: Darkness बहर: Ocean अक्स: Countenance रंज: Sorrow सहरा: Desert तिश्नगी: Thirst ईमां: faith काकिसि: तखल्लुस | کاکسی: تخللس Pen name
| खिर्द: Samajh | तिश्नालबी: parched lips | चारागर: Doctor | आज़ुर्दगी: being unwell
——————————————

Cut it!

हमको तुमने दुश्मन जाना, छोड़ो यार!
तुमको कौनसा था याराना, छोड़ो यार!
हो सकता है होना ही इक सपना हो,
जो था वो था भी या था ना छोड़ो यार!
लाख कहा पर पाल लिया आस्तीनों में,
उन साँपों को दूध पिलाना छोड़ो यार!
किसने कहा था रह-ए-इश्क आसां होगी,
बीच रास्ते स्यापा पाना छोड़ो यार!
अहद-ए-मुहब्बत अहल-ए-वफ़ा की बाते हैं,
भैंस के आगे बीन बजाना छोड़ो यार!
खुद को तो तुम रत्ती भर ना बदल सके,
बदलेगा क्या खाक ज़माना, छोड़ो यार!
कतरे-कतरे से तुम हमरे वाकिफ़ हो,
महफ़िल में हमसे कतराना छोड़ो यार!
रौनक-ए-बज़्म-ए-रिन्दां थी चश्म-ए-साकी,
बिन उसके क्या है मयखाना, छोड़ो यार!
पैंसठ साल से राह तकत है इक बुढ़िया,
वादों से उसको बहलाना छोड़ो यार!
चाहें भी तो कैसे भूलें ज़ख़्म सभी,
तुम तो उनपर नमक लगाना छोड़ो यार!
आँख-लगे को रात जगाना छोड़ो यार,
सपनों में यूं आना जाना छोड़ो यार!
---

Triveni & a postscript

हर एक बात मेरी जिंदगी की तुमसे है
वो एक रात मेरी ज़िंदगी की तुमसे है
बाकी सब दिन तो इंतज़ार के थे 

अब कोई रास्ता बचा ही नहीं
जिधर देखो बस पानी ही पानी
इस तलातुम में खुदा क्या नाखुदा भी नहीं 
तुम थे तो चट्टानों से भी लड़ जाता था
तुम थे तो तूफानों से भी लड़ जाता था
आज खुद से भी सामना नहीं होता 

फिर वही रात तो आने से रही
लगी ये आँख ज़माने से रही
शमा बुझा दो, हमको अब सो जाने दो
_____
अमेरिका में बवंडर आया तो बिजली चली गई,
हमारे गाँव में बिजली आये तो बवंडर आ जाए!
~~

Dussehra. Ten taunts

एक हम नहीं थे काबिल तुम्हारे,
उस पे इतने थे बिस्मिल तुम्हारे!
दो घड़ी और रुकते तो हम भी,
देख लेते हद्द-ए-कामिल तुम्हारे!
तीन हर्फों का जुमला बस सच्चा,
बाकी किस्से हैं बातिल तुम्हारे!
चार दिन की है ये जिंदगानी,
इसमें दो दिन हैं शामिल तुम्हारे!
पांच ऊँगलियाँ डूबी हों घी में,
मुंह में शक्कर हो कातिल तुम्हारे
छः हाथ की ज़मीं ही तो मांगूं,
बाकी सेहरा-ओ-साहिल तुम्हारे!
सात सुर से बनी मौसिकी भी,
कुछ नहीं है मुकाबिल तुम्हारे!
आठ पहरों में रहते हो तुम ही,
रात, दिन भी हैं माइल तुम्हारे!
नौ लखा हार ना दे सके हम,
कर दिया नाम ये दिल तुम्हारे!
दस ये गिनती के हैं मेरे मसले,
बन गए जो मसाइल तुम्हारे!

Raavan


पेट को रोटी,
तन को कपड़ा,
सिर को छत,
बच्चों की शिक्षा अनवरत,
वादे,
यही हैं जो ४७ में हुए,
जो १४ में होंगे!
सबको बिजली,
सबको पानी,
सबको गैस,
गरीबी, बेरोज़गारी हटाओ,
मलेरिया भगाओ,
विदेशी हाथ काटो,
मजदूरों में ज़मीन बांटो,
देश की अखंडता,
संविधान की संप्रभुता,
जय जवान, जय किसान,
और वही पाकिस्तान,
नारे,
यही हैं जो ४७ में लगे,
जो १४ में लगेंगे!
आरक्षण, सुशासन,
शोषण, कुपोषण,
मरता जवान,
मरते किसान,
भ्रष्टाचार, कदाचार,
पूँजीवाद, समाजवाद,
अपराध, उत्पीड़न,
सांप्रदायिक सद्भाव,
चीज़ों के बढ़ते भाव,
मुद्दे,
वही हैं जो ४७ में थे,
यही हैं जो १४ में होंगे
रावण,
४७ में जलाया था,
आज जल रहा है,
१४ में भी जलाएंगे,
रावण वही है,
रावण जलता नहीं है!

(परिचय :
वरिष्ठ पत्रकार . शौक़िया शायरी . हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में
जन्म : बिहार के भितिया, बांका में, 13 जनवरी को, साल 1973
शिक्षा : स्नातक व पत्रकारिता में डिप्लोमा
सृजन : प्रचुर लिखा, प्रकाशन व प्रसारण 
सम्प्रति: दैनिक भास्कर में स्टेट हेड
संपर्क:kamlesh.singh@gmail.com)

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रविवार, 4 नवंबर 2012

अदालत भी उगलदान है....

क़मर सादीपुरी की कलम से 





 














 1.
ये निजाम क्या निजाम है।
न ज़मीन है, न मकान है।

झूठा, चोर, बेईमान है।
कोहराम है, कोहराम है।

सच को मिलती है सज़ा
अदालत भी  उगलदान  है।

दिल किस क़दर है बावफा
तुझे इल्म है, न गुमान है।

तेरा रुख हुआ,  बेसबब
अब रूह ही गुलदान है।

बोझ तो  है  यूँ क़मर
सजदे में हुआ इंसान है।

2.

ज़िंदगी में एक आया है।
लेकिन बेवक्त आया है।

हम उसे कह नहीं सकते,
जो मेरा ही हमसाया है।

रूह की बात लोग करते हैं,
जिस्म क्यों आड़े आया है।

उनके हंसने की अदा है मासूम,
हमें ये ज़ुल्म बहुत भाया है।

उन्हें  बारिश का पता हो शायद,
हमने तो छत भी नहीं ढाला है।

उसके सोने का गुमाँ हो जबकि
उसी ने नींद को चुराया है।

कौन उस्ताद ग़ज़ल कहता है,
ये तो तुकबंदी का सखियारा है।

( फ़ेसबुक पर कमेंट की शक्ल में चीज़ें उतरती गयी हैं।)

चित्र गूगल से साभार


रचनाकार परिचय






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गुरुवार, 13 सितंबर 2012

बदलती रहेगी तो बहती रहेगी हिंदी


हिंदी के संवेदनशील जानकार चाहिए


 




















सैयद शहरोज़ क़मर की कलम से


समय के साथ संस्कृति, समाज और भाषा में बदलाव आता है। परंपरा यही है। लेकिन कुछ लोगों की जिद इन परिवर्तनों पर नाहक  नाक  भौं सिकोड़ लेती है। अपने अनूठे संस्मरणों के लिए मशहूर लेखक  कांति कुमार जैन का लेख -इधर हिंदी नई चाल में ढल रही है- पढ़ा जाना चाहिए। लेख का अंत वह इस पक्ति से करते हैं, हमें आज हिंदी के शुद्धतावादी दीवाने नहीं, हिंदी के संवेदनशील जानकार चाहिए। वह लिखते हैं, अंग्रेजी में हर दस साल बाद शब्द कोशों के  नये संस्करण प्रकाशित करने की परंपरा है। वैयाकरणों, समाजशास्त्रियों, मीडिया विशेषज्ञों, पत्रकारों, मनोवैज्ञानिंको का  एक दल निरंतर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों की टोह लेता रहता है। यही कारण है कि  पंडित, आत्मा, कच्छा, झुग्गी, समोसा, दोसा, योग जैसे शब्द अंग्रेजी के  शब्द कोशों की शोभा बढ़ा रहे हैं। अंग्रेजी में कोई शुद्ध अंग्रेजी की बात नहीं करता। संप्रेषणीय अंग्रेजी की, अच्छी अंग्रेजी की बात करता है। अंग्रेजी भाषा की विश्व व्यापी ग्राह्यता का यही कारण है कि वह निरंतर नये शब्दों का स्वागत करने में संकोच नहीं करती। हाल ही में आक्सफोड एडवांस्ड लर्न्र्स डिक्शनरी का नया संस्करण जारी हुआ है। इसमें विश्व की विभिन्न भाषाओं के  करीब तीन हजार शब्द शामिल ·िकये गये हैं। बंदोबस्त, बनिया, जंगली, गोदाम जैसे ठेठ भारतीय भाषाओं के शब्द हैं, पर वे अंग्रेजी के शब्दकोश में हैं क्योंिक  अंग्रेजी भाषी उनका प्रयोग करते हैं।

दरअसल किसी भाषा का  विकास उसके बोलने या लिखने वालों पर निर्भर करता है। अगर उनका ध्यान रखा जाता है, तो निश्चय ही ऐसी भाषा सरल, सहज और बोधगम्य बनती है। अंग्रेजी में ग्रीक, लैटिन, फ्रांसीसी और अरबी के शब्द मौजूद हैं। अब उसके नए कोश में चीनी, जापानी और हिंदी आदि दूसरे भाषायी समाज के शब्द भी शामिल किए गए हैं। वहीं अरबी वालों ने तुर्की, यूनानी, फारसी और इबरानी आदि के शब्द लिए। ऐसा नहीं कि हिंदी को  दूसरी भाषा से बैर हो। हिंदी और उर्दू का जन्म ही समान स्थितियों और काल की देन है। जाहिर है, बाद में अलग अलग पहचानी गई इन जबानों में तुर्की, अरबी, अंग्रेजी, फारसी, अवधी, बुंदेली, बांग्ला, संस्कृत आदि देशी विदेशी शब्दों की भरमार है। लेकिन बाद में हिंदी के शुद्धतावादियों ने धीरे धीरे बाहरी शब्दों से परहेज करना शुरू किया। तत्सम का प्रयोग आम हुआ। न ही तत्सम और न ही अन्य भाषायी शब्दों का इस्तेमाल गलत है। गलत है, ऐसे शब्दों को प्रचलन में जबरदस्ती लाने की  कोशिश करना। हां! यदि चलन में शब्द हैं, तो उसे आत्मसात करना जरूरी है। लेखक, कवियों और अब टीवी चैनलों व फिल्मों में प्रयुक्त शब्दों को स्वीकार करने में हिंदी का विकास ही है। जैसे, प्रेमचंद ने गोधुली शब्द का इस्तेमाल किया तो लोगों ने सहज लिया। पंजाबी शब्द कुड़माई कहानी उसने कहा था के  कारण कितना खूबसूरत बना। संजय दत्त की  फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस में आया गांधीगीरी शब्द हर की जबान पर चढ़ गया। अरुण कमल ने अपनी कविता में चुक्कू मुक्कू लिखा, तो उसका इस्तेमाल करने में किसी को  कोई गुरेज नहीं हुआ। सुधीश पचौरी जब न्यूज चैनलों के लिए खबरिया लिखने लगे, तो पहले परहेज किया गया। लेकिन बाद में उसकी सहर्ष स्वीकृति मिल गई।
हिंदी और उर्दू के शब्दों को परस्पर जबानों से अलग करने की बहुधा कोशिशें की गईं। लेकिन हुआ उल्टा ही। आम लोगों के बीच गजलों, गानों और फिल्मों से उसे दुगुनी चाल से बढ़त मिली। आदि लेखकों में शुमार भारतेंदु हरिश्चंद्र के बकौल हिंदी नई चाल में ढलती गई। उर्दू और अंग्रेजी के शब्द शर्बत में चीनी की तरह घुल चुके हैं। तभी तो मिठास है। हिंदी में करीब 1 लाख, 37 हजार शब्द दूसरी भाषा के हैं। यह अब हमारी विरासत है।
दूसरी भाषा से आए शब्दों की कुछ मिसालें देखिए:
फल, मिठाई संबंधी: अनार, अंगूर, अंजीर या इंजीर, आलूबुखारा, कद्दू, किशमिश, नाशपाती, खरबूजा, तरबूज, सेब, बादाम, पिस्ता, अखरोट, हलवा, रसगुल्ला, कलाकंद, बिरयानी और कबाब आदि।
शृंगार संबंधी: साबुन, आईना, शीशा, इत्र आदि।
पत्र संबंधी: पता, खत, लिफाफा, डाकिया, मुहर, कलमबंद, कलम, दवात, कागज, पोस्ट ऑफिस, डाक खाना, आदि।
व्यवसाय संबंधी: दुकान, कारोबार, कारीगर, बिजनेस, शेयर, मार्केट, दर्जी, बावर्ची, हलवाई आदि।
धर्म संबंधी: ईमान, बेईमान, कफऩ, जनाज़ा, खुदा, मज़ार आदि।
बीमार संबंधी: बीमार, डॉक्टर, अस्पताल, हॉस्पीटल, नर्स, दवा, हकीम, सर्दी ज़ुकाम, बुखार, पेचीश, हैज़ा आदि
परिधान: पोशाक, कमीज, शर्ट, पैंट, आस्तीन, जेब, दामन, पाजामा, शलवार, जींस, दस्ताना आदि।
कानून व शासन संबंधी: चपरासी, वकील, सरकार, सिपाही, जवान, दारोगा, चौकीदार, जमादार, अदालत, सज़ा, मुजरिम, कैद, जेल आदि।

वहीं हिंदी में आए उर्दू के उपसर्ग व प्रत्यय के कुछ नमूने:

हर, बदनाम, बदसूरत, बदबू, बदमाश, बदरंग, बदहवास। गैरवाजिब, गैरजिम्मेवार, गैरजिम्मेदार, गैर हाजिर। बिलानागा। दादागिरी, गांधीगिरी, उठाईगिरी। आदमख़ोर, घूसखोर, रिश्वतखोर। असरदार, उहदेदार, चौकीदार, थानेदार। घड़ीसाज़, रंगसाज़।
इसके अलावा अनगिनत उर्दू शब्दों ने हिंदी शब्दकोश को समृद्ध बनाया है। आनंद नारायण मुल्ला का शेर बरबस याद आता है:

उर्दू और हिंदी में फर्क सिर्फ़ है इतना
हम देखते हैं ख्वाब, वह देखते हैं सपना।

प्रेमचंद आज भी चाव से पढे जाते हैं। उन्हें क्लासिक का दर्जा हासिल है। वहीं बोधगम्यता की बात चली तो, राजेंद्र यादव का सारा आकाश, श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी, धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता, सुरेंद्र वर्मा का मुझे चांद चाहिए, शानी का कालाजल और अब्दुल बिस्मिल्लाह का झीनी झीनी बिनी चदरिया का तुरंत ही स्मरण होता है। इन उपन्यासों की लाखों प्रतियां अब तक बिक चुकीं। आज भी लोग इसे पढऩा पसंद करते हैं। इसलिए कि इसकी भाषा बहुत ही सहज व सरल है। वहीं नामवर सिंह की किताब दूसरी परंपरा की खोज आलोचना जैसे सूखे विषय के बावजूद भाषायी प्रवाह के  कारण पढ़ी जाती है। रवींद्र कालिया की संस्मरणात्मक  पुस्तक  गालिब छुटी शराब खूब पढ़ी गई। जबकि काशीनाथ सिंह की काशी का अस्सी कम नहीं पढ़ी गई। लेकिन अस्सी में तत्सम अधिक पढऩे को मिला। वहीं गालिब....में ठेठ हिंदुस्तानी का लहजा परवान चढ़ा। इस शब्द पर अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध याद आए। उन्होंने किसी के कहने पर उपन्यास लिखा था, ठेठ हिंदी का ठाट। जिसमें हिंदी के ठाठ को बरकरार रखने का प्रयास किया गया था। लेकिन हरिऔध जी खुद ही असमंजस में थे।  30-3-1899 में उपन्यास की भूमिका में वह लिखते हैं, लखनऊ के प्रसिद्ध कवि इंशा अल्लाह खां की बनाई कहानी ठेठ हिंदी है। जो मेरा यह विचार ठीक है, और मैं भूलता नहीं हूँ, तो कहा जा सकता है कि मेरा ठेठ हिंदी का ठाट नामक  यह उपन्यास ठेठ हिंदी का दूसरा ग्रन्थ है।.........
भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की बनाई हिंदी भाषा नाम की पुस्तिका है, उसमें जो उन्होंने नंबर 3 की शुद्ध हिंदी का नमूना दिया है, वही ठेठ हिंदी है। शुद्ध और ठेठ शब्द का अर्थ लगभग एक ही है। वह नमूना यह है:

पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आये, क्या उस देश में बरसात नहीं होती, या किसी सौत के फंदे में पड़ गये, कि इधर की सुध ही भूल गये। कहां तो वह प्यार की बातें कहां एक संग ऐसा भूल जाना कि चिट्ठी  भी न भिजवाना, हा! मैं कहां जाऊं कैसी करूं, मेरी तो ऐसी कोई मुंहबोली, सहेली भी नहीं कि उससे दुखड़ा रो सुनाऊं, कुछ इधर-उधर की बातों ही से जी बहलाऊं ।

इन कतिपय पंक्तियों पर दृष्टि देने से जान पड़ता है कि जितने शब्द इन में आये हैं, वह सब प्राय: अपभ्रंश संस्कृत शब्द हैं, प्रीतम शब्द भी शुद्ध संस्कृत शब्द प्रियतम का अपभ्रंश है। विदेशी भाषा का कोई शब्द वाक्य भर में नहीं है, हां! कि शब्द फारसी है, जो इस वाक्य में आ गया है, पर यह किसी विवाद के सम्मुख न उपस्थित होने के कारण, असावधानी से प्रयुक्त हो गया है।

करीब डेढ़ सौ साल पहले भारतेंदु हरिश्चंद ने लेख लिखा था, हिंदी नई चाल में ढली । उसका चलना आज भी जारी है। रहना भी चाहिए।



हिंदी दिवस पर 14 सितम्बर 2012,  भास्कर के विशेष अंक में संपादित अंश प्रकाशित
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मंगलवार, 11 सितंबर 2012

रांची फिल्म फेस्टिवल में झारखंडी फिल्मों से सौतेलापन!



झारखंड के लिए नहीं है सुहाना सफ़र 

















 कुंदन कुमार चौधरी की कलम से

झारखंड बनने के 11 साल बाद पहली बार फिल्म फेस्टिवल 'सुहाना सफर का  आयोजन 12 से 15 सितंबर तक  रांची में किया जा रहा है। इस बात से झारखंड ·े फिल्मकार खुश थे और लंबे जद्दोजहद के बाद झारखंड और यहां की  क्षेत्रीय फिल्मों के लिए इसे सुनहरा अवसर मान रहे थे। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी यहां के फिल्मकारों ने बगैर किसी सहायता के अपने बूते तीन राष्ट्रीय और दर्जनों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते। लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में ठेठ झारखंडी मिटटी के सोंधेपन को  पूरी तरह नजरअंदाज किया गया. झारखंड की प्रतिनिधि फिल्में शामिल ही नहीं की गयी हैं. । 21 फिल्मों में मात्र तीन झारखंडी फिल्मों एक नागपुरी, एक  संथाली और एक खोरठा का प्रदर्शन हो रहा है, वह भी मॉर्निंग शो में.  20-25 सालों से यहां काम कर रहे फिल्मकार अपने को उपेक्षित मान रहे हैं।

नागपुरी फिल्मों को उपेक्षित किया गया
झारखंड में सबसे ज्यादा नागपुरी फिल्में बनती हैं। 1992 से अब तक सौ के करीब नागपुरी फिल्में बन चुकी हैं। यहां के तमाम बड़े सिनेमाघर इन फिल्मों को अपने यहां नहीं दिखाते, इसके बावजूद कई फिल्मों ने खूब मुनाफा कमाया। श्रीप्रकाश की नागपुरी फिल्म 'बाहा को बर्लिन में ब्लैक इंटरनेशनल अवार्ड मिला। लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में मात्र एक नागपुरी फिल्म 'सजना अनाड़ी दिखाई जा रही है। फिल्म का समय भी मॉर्निंग शो रखा गया है, जब अमूमन ·म लोग फिल्म देखने घर से आते हैं। रांची में नागपुरी फिल्मों का  बड़ा दर्शक वर्ग है। हिंदी फिल्मों का 1000 सीट वाले सुजाता हॉल में प्रदर्शन हो रहा है, वहीं तीनों क्षेत्रीय फिल्मों का मिनीप्लेक्स में, जिसमें 100 के करीब सीट हैं। नागपुरी फिल्म निर्देशक श्रीप्रकाश कहते हैं,झारखंड की प्रतिनिधि फिल्में इस फिल्म समारोह में दिखाई जानी चाहिए। फीचर फिल्म के साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्में भी दिखानी चाहिए। तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद यहां के फिल्मकारों ने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। दर्जनों नेशनल-इंटरनेशनल अवार्डों पर कब्जा जमाया, लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में एक भी ऐसी फिल्में नहीं दिखाई जा रही है, इससे यहां के फिल्मकार अपने को छला महसूस कर रहे हैं।

तमिल-ओडिय़ा की जगह यहां की फिल्में दिखाई जानी चाहिए
झॉलीवुड में लंबे समय से जुड़े मनोज चंचल कहते हैं कि झारखंड में फिल्म फेस्टिवल हो रहा है, तो यहां की प्रतिनिधि फिल्मों पर फोकस करना चाहिए। तमिल, ओडिय़ा, बंगाली, पंजाबी आदि फिल्में पहले से ही अपने प्रदेशों में अच्छी स्थिति में हैं, उन्हें यहां दिखाकर या बढ़ावा देकर क्या फायदा। आज झॉलीवुड कठिन परिस्थिति से गुजर रहा है। यहां की फिल्मों से जुड़े लोग पलायन कर रहे हैं, इस फेस्टिवल में यहां की फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा दिखाकर यहां के फिल्मकारों में सकारात्मक संदेश दिया जा सकता था। 

डॉक्यूमेंट्री की अहमियत समझनी चाहिए
झारखंड के फिल्मकारों द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंट्री फिल्में नेशनल-इंटरनेशनल स्तर पर न सिर्फ सराही गईं, बल्कि दर्जनों अवार्डों पर भी कब्जा जमाया। प्रसिद्ध फिल्मकार मेघनाथ कहते हैं कि अब लोगों को  डॉक्यूमेंट्री की अहमियत समझनी चाहिए। जितने भी बड़े फिल्म फेस्टिवल होते हैं, सभी में फीचर फिल्मों के साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का प्रदर्शन भी होता है। यहां दर्जनों ऐसी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का  निर्माण हुआ है, जिसमें झारखंड की सोंधी खुशबू नजर आती है। इनका प्रदर्शन फिल्म फेस्टिवल में किया जाना चाहिए।


लेखक-परिचय:
जन्म : 13 फरवरी, 1977
शिक्षा : बीएससी, बीजे
करीब 12 वर्षों से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय.
सम्प्रति: दैनिक  भास्कर, रांची  में फीचर एडिटर
संपर्क: kundankcc @gmail .com
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रविवार, 24 जून 2012

क़लम की मजदूरी करने वाला निपनिया का किसान उर्फ़ अरुण प्रकाश



हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया....




























सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से

सितम्बर की कोई तारीख. साल २००८.रायपुर को मैं अलविदा कर चुका था. देशबंधु के प्रबंधन से ऊब थी, वहीँ दिल्ली आकर कुछ अलग कर गुजरने का ज्वार रह-रह कर उबल रहा था. 'भासा' के राजेश व उसके साथियो की तरह दिल्ली अपन भी फतह करना चाहते थे. दोपहर ढल आई थी. पंडित जी (कथादेश के संपादक हरिनारायण जी) कनाट प्लेस के दफ्तर गए थे. उनके एक अफसर मित्र की पत्नी ज्योतिष की पत्रिका निकालती थीं. जिसका दफ्तर एक बड़ी इमारत में था. वहीँ कथादेश को एक कोना नसीब हो गया था. दोपहर बाद पंडित जी वहीँ चले जाते. पन्त जी (लक्ष्मी प्रसाद पन्त , सम्प्रति भास्कर जयपुर में सम्पादक) ने कथादेश को बाय कर दिया था. विश्वनाथ त्रिपाठी की बदौलत मार्फ़त विष्णु चन्द्र शर्मा  जी उनकी जगह मैंने ले ली थी. खैर! दस्तक हुई दरवाज़े पर!  दिलशाद गार्डेन का सूना पहर. मैंने झांकर देखा. लहीम शहीम एक शख्स  बाहर खडा है. सरों पर हलकी सुफैदी ..बदन पर लंबा सा कुर्ता और पाजामा. भदेस सज्जन जान मैंने दरवाज़ा खोला. नमस्कार किया. शाइस्तगी  से लबरेज़ जवाब पाकर मेरी झुर-झुरी कम हुई.
आप नए आये हैं..
जी.....
कहाँ के हैं...
बिहार..
वहाँ कहाँ के..
..गया.
..अरे वाह! मैं बेगुसराय का एक किसान हूँ. कलम की मजदूरी करता हूँ.
 इस मासूमियत पर कौन न मर मिटे! हिचकते हुए नाम पूछ बैठा...अरुण प्रकाश! सुनते ही मैं खिल उठा. उनकी कुछ कहानियां,  उन जैसे ही किरदारों का कोलाज़ झिलमिलाने लगा. इस अनूठे लेखक से यह हमारा पहला साबका था. बाद में लोगों से उनके आत्मकेंद्रित रहने, बहुत कम खुलने.. की बात मैं आज तक नहीं हज़म कर पाया..उनकी अपनी सी लगती कहानियों का मैं दीवाना तो पहले से ही था. पहली मुलाक़ात ने लव इन फर्स्ट साईट सा जादुई असर किया था. जिसका यथार्थ मेरे लिए कभी कटु न रहा.

पहले अरुण जी, फिर भाई साहब उन्हें कहने लगा.वो कब मेरे भैया बन गए मुझे पता ही न चला. दिल्ली के इस दूसरे प्रवास में करीब दस बारह सालों तक कंक्रीट के जंगलों में मुझे बेतहाशा गुज़ारने पड़े. कभी कहीं ठौर मिली. कहीं चाँद गोद में भी आया. इस अवधि में अरुण जी से मिलना कई बार हुआ. महेश दर्पण जी के बाद मैंने उन्हें सबसे ज्यादा श्रम करते देखा. मुझे लगता है कि वह संभवत चार से पांच घंटे ही विश्राम ले पाते होंगे. सुबह उठ कर टहलने निकल जाते. इस प्रात:भ्रमण में उनके साथ रहते विश्वनाथ त्रिपाठी जी. युवा व्यंग्यकार रवींद्र पाण्डेय, उन्हीं की तरह दूसरे मसिजीवी रमेश आज़ाद आदि. सूरज के ज़रा परदे से निकल आते ही उनका घर आना होता. फिर हलके नाश्ते के बाद जो अपनी स्टडी( तब बालकोनी को ही घेर कर उन्होंने अपना अध्ययन कक्ष बना लिया था) में जाते. फिर लिखना,  लिखना और लिखना. कागजों पर जो उतरता जाता. उसमें किसी अहम किताब का अनुवाद होता. किसी सीरयल की पटकथा होती. संवाद होता..या नई कहानी का पुनर्लेखन.

ग़ज़ल का तगज्जुल

ग़ज़ल गो रामनारायण स्वामी( तब वो अन्क़ा नहीं हुए थे) के पहले ग़ज़ल संग्रह रौशनी की धुंध की चर्चा के लिए सादतपुर में महफ़िल जमी.  वीरेंद्र जी (जैन) के यहाँ हुई उस दोपहरी गोष्ठी में  स्वामी जी की गजलों पर आधार आलेख मैंने ही पढ़ा. सादतपुर के लेखकों के अलावा अरूण जी, जानकी प्रसाद जी, इंडिया टुडे वाले अशोक जी, विश्वनाथ जी, रमेश आज़ाद, कुबेर जी आदि ढेरों लोग थे. लेकिन अरुण जी के बोलने की बारी आई तो उन्होंने कहा, ग़ज़ल पर यदि शहरोज़ जी न कहते तो उसकी तगज्जुल न रहती. या खुदा! इतने बड़े बड़े दक्काक के रहते इन्हें क्या हुआ..जबकि हिंदी समाज में उर्दू के प्रमाणिक शख्स जानकी जी मौजूद हैं. अरूण जी ने जिस सहजता से मेरी बातों को सराहा, असहमति भी जतलाई. ऐसे लोग मुझे दिल्ली में कम ही मिले. बमुश्किल दो-चार नाम ऐसे स्मरण में हैं. सर्दी की एक दोपहर हम सभी कृषक जी की छत पर जमा हुए. यहाँ भी दिलशाद से अरूण जी, विश्वनाथ जी, रमेश आज़ाद पहुंचे.  मेरी 'अकाल और बच्ची' कविता उन्होंने दो बार सुनी. इस कविता में अकाल के इलाके से रोज़गार की तलाश में परिवार दिल्ली आया है. उस परिवार की बच्ची के बचपन को मैंने शब्द देने की कोशिश  की है. ये अकारण नहीं हुआ होगा. दिल्ली हो, कोलकता या मुंबई उनके साथ उनका गाँव निपनिया हर दम साथ रहा. उनकी कहानियों में भी यह ज़मीनी सोंधापन मिलता है. हिंदी में ऐसे कथाकार आज़ादी के बाद कम हुए,  जिन्होंने हाशिये के लोगों को अपना केंद्र बनाया हो. उनकी अधिकाँश कथाओं में घर से बेघर नयी जगह में आसरा तलाश करते लोगों की ज़िंदगी को उन्वान मिला है. भैया एक्सप्रेस हो, या मझदार,विषम राग हो या नहान, भासा आदि कहानियां गौरतलब हैं.

शेरघाटी पर उपन्यास लिखो
कथादेश के पहले युवांक में मेरी पहली कहानी 'पेंडोलम' छपी. मैं राजकमल में था. उनका फोन आया.
यार! कहानी भी लिखते हो..बताया ही नहीं कभी! 
जी..भैया ..
दूसरी लिखो तो बताना. यूँ इस कहानी को विस्तार दो. आप (तुम कहते कहते वो आप बोल जाते..) अपने घर- कस्बे शेरघाटी को केंद्र में रख कर एक उपन्यास प्लान कीजिये. मुस्लिम जीवन अब हिन्दी में न के बराबर आ रहे हैं. आपसे उम्मीदें हैं.
जी! कोशिश करूँगा..
लेकिन ग़म-ए-रोज़गार ने इतनी मोहलत ही न दी कि मैं उपन्यास कलम बंद करता. यूँ उन्होंने एक-दो बार याद भी कराया, 'शहरोज़ जी क्या हुआ..कुछ बात बनी.' मेरे नफी में सर हिलाने पर थोडा तुनक भी जाते..'पहचान सिर्फ एक कहानी से नहीं बनती..'

गया गया मिल गया
प्रेमचंद जी की जयन्ती पर हंस द्वारा सामयिक विषय पर कई सालों से गंभीर विमर्श का आयोजन होता आया है. राजेन्द्र जी जिसके कर्ताधर्ता हों, उस मजमे में भीड़ न जुटे. मैं उन दिनों रमणिका जी की पत्रिका युद्धरत आम आदमी से जुड़ा हुआ था. वहाँ से निकलते निकलते थोड़ा विलम्ब हो गया. जैसे ही राजेन्द्र भवन पहुंचा. संजय सहाय पर नज़र पडी तो मैं उधर ही लपक गया. उन्होंने दोनों हाथ फैला दिए. और हम यूँ मिले जैसे बिछुड़े हुए हों. मुद्दत बाद मिलना भी हो रहा था.
'गया गया मिल गया!' जानी पहचानी आवाज़ से हम अलग हुए. अरुण जी पास मुस्कुरा रहे थे. उनकी यही मुस्कान दूसरों की ज़िंदगी बख्शती रही. उनकी जीवटता से हम उर्जस्वित होते रहे. बाद में उनसे बहुत कम मिलना हुआ. दिनों बाद फोन पर बात हुई. लेकिन उन्होंने एहसास ही न होने दिया की वो बेहद अस्वस्थ हैं. जबकि गौरीनाथ से उनकी दिनों दिन बदतर होती तबियत का मुझे इल्म हो गया था.आज ढेरों कह रहे हैं कि काश  सिगरेट छूट जाती तो शायद उनकी उम्र ....



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सोमवार, 18 जून 2012

....... तो गायक होते सुरजीत पातर


 
 
 
 
 
 
 
सुरजीत पातर मार्फ़त ऋतु कलसी 



पाश के बाद पंजाबी कवि सुरजीत पातर सबसे ज्यादा पढ़े गए हैं. उनके लबो लहजे की ताजगी दायम है आज भी. जालंधर, पंजाब के एक गांव में १४ जनवरी 1944 को उनका जन्म हुआ। उनका पहला कविता संग्रह 1978 में हवा विच लिखे हर्फ है। कविताओं की उनकी  दर्जनों किताबें हैं .साफगोई और बेबाकी के लिए मशहूर पातर की कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। पद्मश्री  के अलावा देस-दुनिया के कई सम्मानों से  उन्हें नवाज़ा जा चुका है.अँधेरे में सुलगती वर्णमाला के लिए 1993 का साहित्य अकादमी और २००९ में लफ़्ज़ों की दरगाह के लिए सरस्वती  सम्मान से वे समादृत हुए. युवा पत्रकार संजीव माथुर से एक संवाद  में उन्होंने  कहा  था : मैं कवि नहीं होता तो गायक होता.उन्हीं की बातें उन्हीं से जानिये:
मैं जिस माहौल में पला-बढ़ा हूं उसकी फिजा में ही गुरुबानी रची-बसी है। इसीलिए मेरी कविता में आपको लोकधारा, गुरुबानी और भक्ति या सूफी धारा का सहज प्रभाव मिलेगा। दरअसल मेरे चिंतन और कर्म दोनों में जो है वह प्रमुखत: मैंने पंजाब की फिजा से ही ग्रहण किया। एक बात और जुड़ी है। वह यह कि मैं जब भी दुखी होता हूं तो लफ्जों की दरगाह में चला जाता हूं। इनकी दरगाह में मेरा दुख शक्ति और ज्ञान में ट्रांसफॉर्म हो जाता है। यह ट्रांसफॉर्ममेंशन मुझे एक बेहतर इंसान बनाने में मददगार होता है। ध्यान रखें कि कविता मानवता में सबसे गहरी आवाज है.मैं अक्सर कहता हूं कि संताप या दुख को गीत बना ले, चूंकि मेरी मुक्ति की एक राह तो है। अगर और नहीं दर कोई ये लफ्जों की दरगाह तो है। इसलिए लफ्जों की दरगाह मेरे लिए एक ऐसा दर है जो मुझे इंसा की मुक्ति की राह दिखता है। और जो दर मुक्ति की राह दिखाए वह उदासी को भी ताकत में तब्दील करने कर देता है। जिंदगी आत्मसजगता में है। शब्दों की गहराई में समा जाओ तो दुख छोटे पड़ जाएंगे। मैं कविता का प्यासा था। मैंने विश्व काव्य से लेकर भारतीय साहित्य तक में सभी को पढ़ा। लोर्का हो या ब्रेख्त। शुरुआत में मुझ पर बाबा बलवंत का खासा प्रभाव पड़ा। इनकी दो किताबों ने खासा बांधा था- बंदरगाह व सुगंधसमीर। मेरी शुरुआती कविताओं पर इनका प्रभाव साफ देखा जा सकता है। पर मुझ पर हरभजन, सोहन सिंह मीशा, गालिब, इकबाल और धर्मवीर भारती का भी खासा प्रभाव रहा है। इसके अलावा शिव कुमार बटालवी और मोहन सिंह ने भी मुझे और मेरे लेखन को प्रेरित किया है। मैं राजनीति में कभी सीधे तौर पर सक्रिय नहीं रहा। जहां तक विचारधारा की बात है तो मैं साफ तौर पर मानता हूं कि लोकराज हो पर कल्याणकारी राज्य भी हो। इसीलिए मैंने लिखा है :
मुझमें से नेहरू भी बोलता है, माओ भी
कृष्ण भी बोलता है, कामू भी
वॉयस ऑफ अमेरिका भी, बीबीसी भी
मुझमें से बहुत कुछ बोलता है
नहीं बोलता तो सिर्फ मैं ही नहीं बोलता।
कविता को खोजते या रचते समय राजनीति, प्रकृति और आदम की बुनियादी इच्छाएं मेरी कविता में बुन जाती हैं। पर कविता में ये सचेतन नहीं आती है सहज-स्वाभविक हो तभी आती हैं। मैं खुद पर कोई विचारधारा लादता नहीं हूं। मैं कविता से विचारधारा नहीं करता हूं। मेरी प्रतिबद्धता इंसा और लोगों के साथ बनती है।

सुरजीत पातर की दो कविता

मेरे शब्दों

मेरे शब्दों
चलो छुट्टी करो, घर जाओ
शब्दकोशों में लौट जाओ

नारों में
भाषणों में
या बयानों मे मिलकर
जाओ, कर लो लीडरी की नौकरी

गर अभी भी बची है कोई नमी
तो माँओं , बहनों व बेटियों के
क्रन्दनों में मिलकर
उनके नयनों में डूबकर
जाओ खुदकुशी कर लो
गर बहुत ही तंग हो
तो और पीछे लौट जाओ
फिर से चीखें, चिंघाड़ें ललकारें बनो

वह जो मैंने एक दिन आपसे कहा था
हम लोग हर अँधेरी गली में
दीपकों की पंक्ति की तरह जगेंगे
हम लोग राहियों के सिरों पर
उड़ती शाखा की तरह रहेंगे
लोरियों में जुड़ेंगे

गीत बन कर मेलों की ओर चलेंगे
दियों की फोज बनकर
रात के वक्त लौटेंगे
तब मुझे क्या पता था
आँसू की धार से
तेज तलवार होगी

तब मुझे क्या पता था
कहने वाले
सुनने वाले
इस तरह पथराएँगे
शब्द निरर्थक से हो जाएँगे

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एक नदी

एक नदी आई
ऋषि के पास
दिशा माँगने

उस नदी को ऋषि की
प्यास ने पी लिया
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पंजाबी की चर्चित युवा कहानीकार ऋतु कलसी पिछले लगभग दस साल से विभिन्न समाचार पत्रों के लिए फ्रीलांसिंग कर रही हैं.आपका संक्षिप्त परिचय है:

शिक्षा : एस एम् डी आर एस डी कालेज, पठानकोट से स्नातक
सृजन:
पंजाबी की लगभग सभी स्तरीय पत्रिकाओं में कहानियां. दो पुस्तकें जल्द ही प्रकाश्य 
रुचि: अध्ययन, लेखन और नृत्य
सम्प्रति:जालंधर से
युवाओं की पत्रिका ‘जी-नैक्स’  का संपादन व प्रकाशन
ब्लॉग: पर्यावरण पर हरिप्रिया
संपर्क:


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रविवार, 10 जून 2012

आओ तनिक नाटक से प्रेम करें

ऐसा नहीं कह सकते कि थिएटर दम तोड़ रहा






 
















विभा रानी
सैयद शहरोज़ कमर से संवाद

लेखक किसी किरदार को जीता है..उसे किसी चित्रकार सा कागज़ ए कैनवास पर उतारता है..लेकिन लेखक ही उस किरदार को अपने अभिनय में डूबती आँखों जीवंत कर दे ...कली सी मुस्कान दे..पहली बारिश सा भिगो दे..प्राय:ऐसे रचनाकार इतिहास में मिलते हैं.लेकिन हिंदी व मैथिली में स्थापित विभा रानी ऐसी ही नाट्यकर्मी और लेखक हैं. एकपात्रीय नाटकों को उन्होंने नई ज़िंदगी अता की है. संजीव कुमार को तो वक्फा मिलता होगा ..कई रीटेक हुआ होगा..लेकिन एक ही मंच पर समानांतर बच्चा, युवा और बुज़ुर्ग की अदायगी.आप विभा के अभिनय को देख कर उंगली दबा लेंगे दांतों में...झारखंडी साहित्य संस्कृति अखडा की दावत पर ६ जून को उन्होंने रांची में बुच्ची दाई का मंचन किया. दूसरी दोपहर अखडा के दफ्तर में उनसे मिलना होता है..बिना किसी औपचारिकता के बात तरतीब पर आती है. आइये उनसे बतियाते हैं.

रंगमंच की शुरुआत
स्कूली दिनों से ही। तब पांचवी या छठवीं में रही होगी। मां स्कूल हेडमास्टर थीं। सन 1969 में महात्मा गांधी की सौवी जयंती मनाई जा रही थी। स्कूल में हो रहे नाटक में मैं हिस्सा लेना चाहती थी। मां ने मना कर दिया। आखिर मेरी जिद के आगे वह मान गईं। जब मैं एक सिपाही की भूमिका में मंच पर आई, तो अपना संवाद ही भूल गई।  मां ने पीछे से कहा, तो हड़बड़ी में अपना डॉयलाग बोल पाई। तब एकांत और और भीड़ में बोलने का अंतर समझ में आया। दर्शकों का सामना इतना आसान नहीं, जितना अपन समझते थे। इस सीख के बल पर इंटर में दस लड़कियों के साथ कई कार्यक्रम किया। जब एमए में आई। दरभंगा रेडियो के लिए कई नाटक किया। कई कार्यक्रम किये। बड़े मंच पर सन 1986 में पहली बार राजाराम मोहन पुस्तकालय, कोलकाता में नाटक का मंचन किया। शिवमूर्ति की कहानी कसाईबाड़ा का यह नाट्य रूपांतर था। खूब पसंद किया लोगों ने। उसके अगले ही वर्ष 1987 में मशहूर नाटककार एमएस विकल के दिल्ली नाट्योत्सव में हिस्सा लिया। दुलारीबाई , सावधान पुरुरवा, पोस्टर, कसाईबाड़ा आदि नाटकों में अभिनय किया। उन्हीं की टेली फिल्म चिट्ठी में काम किया। फिर एक्टिव रंगमंच से पारिवारिक कारणों से किनारे रही। वर्ष 2007 में पुन: एक्टिव थिएटर में आई। मुंबई में मिस्टर जिन्ना नाटक किया। इसमें फातिमा जिन्ना की भूमिका निभाई।

एकपात्रीय नाटक की ओर झुकाव
मुंबई में नाटकों के कई रंग हैं। ज्यादातर कमर्शियल नाटक होते हैं वहां। उसमें कंटेंट नहीं होता। कुछ फिल्मी नाम होते हैं। टिकट बिक जाती है। एकपात्रीय नाटक भी हो रहे हैं, लेकिन अच्छे नहीं। मेनस्ट्रीम में नहीं हैं। मैं इंटर में सबसे पहेल एकपात्रीय नाटक कर चुकी थी। उसकी कहानी एक ऐसी लड़की की थी, जो शादी में अपने घारवालों से दहेज की मांग करती है। मुंबई में मैंने इसे आंदोलन के रूप में शुरू किया। लाइफ ए नॉट अ ड्रीम। यह मेरा पहला मोनो प्ले था। फिनलैंड में इसे करना था। अंग्रेजी में लिखा और वहीं 2007 में अंग्रेजी में मंचन किया। मुंबई में भी चार शो इसके अंग्रेजी में ही किए। हिंदी में इसे रायपुर के फेस्ट में 2008 में किया। उसके बाद सिलसिला चल पड़ा। मुंबई के काला घोड़ा कला मंच के लिए हर साल एक मोनो प्ले कर रही हूं। बालिका भ्रूण हत्या पर 2009 में बालचंदा, 2010 में बिंब-प्रतिबिंब, 2011 में मैं कृष्णा कृष्ण की और इस वर्ष रवींद्र नाथ टैगोर की कहानी पर आधारित भिखारिन का मंचन किया।

रंगमंच की मौजूदा स्थिति
गांव, कस्बे और शहरों में भी लोग सक्रिय हैं। अपने अपने स्तर से रंगमंच कर रहे हैं। आप ऐसा नहीं कह सकते कि थिएटर दम तोड़ रहा है। यह स्थिति संतुष्ट करती है। हां! यह जरूर कह सकते हैं कि रंगमंच को वैसी स्वीकृति अभी नहीं मिली, जैसी और देशों में है। थिएटर को प्रश्रय नहीं दिया जाता है। उसे प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। कई सुविधाएं मिलती भी हैं, तो इसका लाभ महज बड़ लोग ही उठा पाते हैं।

कैदियों के बीच
कई ऐसे कैदी हैं। जिन पर आरोप साबित नहीं हुआ है। वे जेल में बंद इसलिए हैं कि कोई उनका केस लडऩे वाला नहीं होता। कई महिलाएं हैं अपने छोटे बच्चों के साथ। मेंने 2003 से उनके बीच काम करना शुरू किया। बेहद सकारात्मक असर मिला। उनके बीच साहित्य, कला और रंगमंच की बातें की। उन्हीं के साथ मिलकर नाटक किए। उनसे कहानी कविता लिखवाई। पेंटिग्स करवाई। मुंबई के कल्याण, थाणे, भायखला और पुणे के यरवदा आदि जेलों में वर्कशाप भी किया। बहुत अच्छा अनुभव मिला।

सामाजिक बदलाव में रंगमंच
रंगमंच ऐसा टूल है जो व्यक्ति को बदलता है। व्यक्ति समाजिक प्राणी ही है। वह बदलता है, तो समाज में उसका असर होता है। दूसरे लोग भी बदलने का प्रयास करते हैं। यह परिवर्ततन सकारात्मक है, तो स्वाभाविक है, उसका व्यापक असर पड़ता है।

पहला नाटक कब लिखा
सन 1996 97 का सन रहा होगा। दूसरा आदमी, दूसरी औरत। इसका मंचन मुंबई में किया।

संतोष कहां, साहित्य या रंगमंच ?
दोनों का सुख अलग है। लेकिन सच कहूं तो निश्चित ही रंगमंच में मुझे अधिक तसल्ली मिलती है। यहां आप हजारों लोगों से एक ही समय रूबरू होते हैं। अपनी बात पहुंचाते हैं। उसकी प्रतिक्रिया भी तुरंत ही मिल जाती है। इसका सामाजिक प्रभाव पड़ता है।

लेखन पहले मैथिली में या हिंदी में
कहानी हो या नाटक। दोनो भाषाओं में अलग अलग लिखती हूं। बुच्चीदाई पहले मैथिली  में ही लिखा। अंतिका में छपा था। बाद में
इसका हिंदी रूपांतरण नवनीत में प्रकाशित हुआ।

नया नाटक
'आओ तनिक प्रेम करें' लिखा है। इसका मंचन अगस्त में हिसार में करने जा रही हूं। इसकी कहानी दो ऐसे पति पत्नी की है, जिनकी उम्र अब साठ पर पहुंची है। पति को अब सालता आता है कि प्रेम का अनुभव उसे तो हुआ ही नहीं।

नई किताब
'कर्फ्यू में दंगा' नामक कथा संग्रह अभी रेमाधव से छपकर आया है।

यह बातचीत भास्कर के लिए की गयी


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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)