बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

रांची फिल्म फेस्टिवल में झारखंडी फिल्मों से सौतेलापन!



झारखंड के लिए नहीं है सुहाना सफ़र 

















 कुंदन कुमार चौधरी की कलम से

झारखंड बनने के 11 साल बाद पहली बार फिल्म फेस्टिवल 'सुहाना सफर का  आयोजन 12 से 15 सितंबर तक  रांची में किया जा रहा है। इस बात से झारखंड ·े फिल्मकार खुश थे और लंबे जद्दोजहद के बाद झारखंड और यहां की  क्षेत्रीय फिल्मों के लिए इसे सुनहरा अवसर मान रहे थे। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी यहां के फिल्मकारों ने बगैर किसी सहायता के अपने बूते तीन राष्ट्रीय और दर्जनों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते। लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में ठेठ झारखंडी मिटटी के सोंधेपन को  पूरी तरह नजरअंदाज किया गया. झारखंड की प्रतिनिधि फिल्में शामिल ही नहीं की गयी हैं. । 21 फिल्मों में मात्र तीन झारखंडी फिल्मों एक नागपुरी, एक  संथाली और एक खोरठा का प्रदर्शन हो रहा है, वह भी मॉर्निंग शो में.  20-25 सालों से यहां काम कर रहे फिल्मकार अपने को उपेक्षित मान रहे हैं।

नागपुरी फिल्मों को उपेक्षित किया गया
झारखंड में सबसे ज्यादा नागपुरी फिल्में बनती हैं। 1992 से अब तक सौ के करीब नागपुरी फिल्में बन चुकी हैं। यहां के तमाम बड़े सिनेमाघर इन फिल्मों को अपने यहां नहीं दिखाते, इसके बावजूद कई फिल्मों ने खूब मुनाफा कमाया। श्रीप्रकाश की नागपुरी फिल्म 'बाहा को बर्लिन में ब्लैक इंटरनेशनल अवार्ड मिला। लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में मात्र एक नागपुरी फिल्म 'सजना अनाड़ी दिखाई जा रही है। फिल्म का समय भी मॉर्निंग शो रखा गया है, जब अमूमन ·म लोग फिल्म देखने घर से आते हैं। रांची में नागपुरी फिल्मों का  बड़ा दर्शक वर्ग है। हिंदी फिल्मों का 1000 सीट वाले सुजाता हॉल में प्रदर्शन हो रहा है, वहीं तीनों क्षेत्रीय फिल्मों का मिनीप्लेक्स में, जिसमें 100 के करीब सीट हैं। नागपुरी फिल्म निर्देशक श्रीप्रकाश कहते हैं,झारखंड की प्रतिनिधि फिल्में इस फिल्म समारोह में दिखाई जानी चाहिए। फीचर फिल्म के साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्में भी दिखानी चाहिए। तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद यहां के फिल्मकारों ने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। दर्जनों नेशनल-इंटरनेशनल अवार्डों पर कब्जा जमाया, लेकिन इस फिल्म फेस्टिवल में एक भी ऐसी फिल्में नहीं दिखाई जा रही है, इससे यहां के फिल्मकार अपने को छला महसूस कर रहे हैं।

तमिल-ओडिय़ा की जगह यहां की फिल्में दिखाई जानी चाहिए
झॉलीवुड में लंबे समय से जुड़े मनोज चंचल कहते हैं कि झारखंड में फिल्म फेस्टिवल हो रहा है, तो यहां की प्रतिनिधि फिल्मों पर फोकस करना चाहिए। तमिल, ओडिय़ा, बंगाली, पंजाबी आदि फिल्में पहले से ही अपने प्रदेशों में अच्छी स्थिति में हैं, उन्हें यहां दिखाकर या बढ़ावा देकर क्या फायदा। आज झॉलीवुड कठिन परिस्थिति से गुजर रहा है। यहां की फिल्मों से जुड़े लोग पलायन कर रहे हैं, इस फेस्टिवल में यहां की फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा दिखाकर यहां के फिल्मकारों में सकारात्मक संदेश दिया जा सकता था। 

डॉक्यूमेंट्री की अहमियत समझनी चाहिए
झारखंड के फिल्मकारों द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंट्री फिल्में नेशनल-इंटरनेशनल स्तर पर न सिर्फ सराही गईं, बल्कि दर्जनों अवार्डों पर भी कब्जा जमाया। प्रसिद्ध फिल्मकार मेघनाथ कहते हैं कि अब लोगों को  डॉक्यूमेंट्री की अहमियत समझनी चाहिए। जितने भी बड़े फिल्म फेस्टिवल होते हैं, सभी में फीचर फिल्मों के साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का प्रदर्शन भी होता है। यहां दर्जनों ऐसी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का  निर्माण हुआ है, जिसमें झारखंड की सोंधी खुशबू नजर आती है। इनका प्रदर्शन फिल्म फेस्टिवल में किया जाना चाहिए।


लेखक-परिचय:
जन्म : 13 फरवरी, 1977
शिक्षा : बीएससी, बीजे
करीब 12 वर्षों से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय.
सम्प्रति: दैनिक  भास्कर, रांची  में फीचर एडिटर
संपर्क: kundankcc @gmail .com

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2 comments: on "रांची फिल्म फेस्टिवल में झारखंडी फिल्मों से सौतेलापन!"

रश्मि शर्मा ने कहा…

सही कहा आपने...क्षेत्रीय फि‍ल्‍मों को प्रमोट करने का सुनहरा अवसर था यह.....मगर दि‍या तले अंधेरा वाली बात हो रही है यहां...

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