बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 16 दिसंबर 2012

ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है.......

एक भी  शे’र अगर हो जाए







 




विजेंद्र शर्मा की क़लम से 
इसमें कोई शक़ नहीं कि अदब की जितनी भी विधाएं हैं, उनमे सबसे मक़बूल ( प्रसिद्ध ) कोई विधा है, तो वो है ग़ज़ल ! दो मिसरों में पूरी सदी की दास्तान बयान करने की सिफ़त ख़ुदा ने सिर्फ़ और सिर्फ़ ग़ज़ल को अता की है ! यही वज्ह है कि जिसे देखो वही ग़ज़ल पे अपने हुनर की आज़माइश कर रहा है ! ऐसा नहीं है कि ग़ज़ल कहने के लिए शाइर को उर्दू रस्मुल-ख़त (लिपि) आना ज़रूरी है मगर ग़ज़ल से सम्बंधित जो बुनियादी बातें है वे तो ग़ज़ल कहने वाले को पता होनी चाहिए ! ऐसे बहुत से शाइर है जो उर्दू रस्मुल-ख़त नहीं जानते पर उन्होंने बेहतरीन ग़ज़लें कही हैं और उनके क़लाम की उर्दू वालों ने भी पज़ीराई की है ! यहाँ एक बात ये भी कहना चाहूँगा कि अगर किसी ने ठान लिया है कि मैंने ग़ज़ल कहनी है तो उसे उर्दू रस्मुल-ख़त ज़रूर सीखना चाहिए क्यूंकि ग़ज़ल से मुतालिक बहुत सी ऐसी नाज़ुक चीज़ें हैं जिनके भीतर तक बिना उर्दू को जाने पहुंचना बड़ा दुश्वारतरीन है !

शाइरी ज़िंदगी जीने का एक सलीक़ा है और शे’र कहने की पहली शर्त है शाइर की तबीयत शाइराना होना ! कुछ ग़ज़लकार अदब के नक़्शे पे अपने होने का ज़बरदस्ती अहसास करवाना चाहते है उनकी ना तो तबीयत शाइराना है ना ही उनके मिज़ाज की सूरत किसी भी ज़ाविये (कोण) से  ग़ज़ल से मिलती है !

शाइरी की ज़ुबान में शे’र लिखे नहीं कहे जाते हैं ! इस तरह के नकली शाइरों की ज़बराना लिखी ग़ज़लें नए लोगों को ग़ज़ल से दूर कर रही है ! इन दिनों अदब के हर हलके में चाटुकारों की तादाद बढती जा रही है और ठीक उसी अनुपात में नए–नए ग़ज़लकार भी!

शकील जमाली की ताज़ा  ग़ज़ल का एक शे’र मुझे बरबस याद आ रहा है .. इस शे’र को सुनने के बाद ही ये मज़मून लिखने का मन हुआ :--

ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है

कई शाइर है बेचारी के पीछे ....

ग़ज़ल का अपना एक अरूज़ (व्याकरण/छंद-शास्त्र  ) होता है ! अरूज़ वो कसौटी है जिस पे ग़ज़ल परखी जाती है ! यहाँ मेरा मक़सद ग़ज़ल का अरूज़ सिखाना नहीं है मगर कुछ बुनियादी चीज़ें है जो ये तथाकथित सुख़नवर ना तो जानते हैं और ना ही जानना चाहतें हैं ! अल्लाह करे ये छोटी–छोटी बाते तो कम से कम शाइरी के साथ खिलवाड़ करने वालों के ज़हन में आ जाए !

ग़ज़ल के पैकर (स्वरुप) को देखें तो ग़ज़ल और नज़्म (कविता ) में बड़ा फर्क ये है कि ग़ज़ल का हर शे’र अपना अलग मफ़हूम (अर्थ) रखता है जबकि कविता शुरू से लेकर हर्फ़े आख़िर (अंतिम शब्द )  तक एक उन्वान (शीर्षक ) के इर्द-गिर्द ही रहती है !

ग़ज़ल कुछ शे’रों के समूह से बनती है ! शे’र लफ़्ज़ का मतलब है जानना  या किसी शै (चीज़ ) से वाकिफ़ होना ! एक शे’र में दो पंक्तियाँ होती हैं ! एक पंक्ति को मिसरा कहते है और  दो मिसरे मिलकर एक शे’र की तामीर (निर्माण )  करते हैं ! किसी शे’र के पहले मिसरे को मिसरा-ए -उला और दूसरे मिसरे को मिसरा ए सानी कहते हैं !किसी भी शे’र के दोनों मिसरों में रब्त (सम्बन्ध ) होना बहुत ज़रूरी है इसके बिना शे’र खारिज माना जाता है !

बहर  वो तराज़ू है जिसपे ग़ज़ल का वज़न तौला जाता है इसे वज़न भी कहते हैं ! बहर में शे’र कहना उतना आसान नहीं है जितना आजकल के कुछ फोटोस्टेट  शाइर समझते हैं ! मोटे तौर पे उन्नीस बहरें प्रचलन में हैं ! बहर को कुछ लोग मीटर भी कहते है ! जो शाइर बहर में शे’र नहीं कहते उन्हें बे-बहरा शाइर कहा जाता है और हमारे अहद का अलमिया (विडंबना ) ये है कि रोज़ ब रोज़ ऐसे शाइर बढ़ते जा रहें हैं ! बहर को समझना एक दिन का काम नहीं है और ना ही सिर्फ़ किताबें पढ़कर बहर की पटरी पे शाइरी की रेल चलाई जा सकती है ! बहर का मुआमला या तो शाइरी के प्रति जुनून से समझ में आता है या फिर बहर की समझ  कुछ शाइरों को ख़ुदा ने बतौर तोहफ़ा अता की है !

रदीफ़ :--शाइरी में हुस्न और ख़यालात में फैलाव के लिए ग़ज़ल में रदीफ़ रखा जाता है ! ग़ज़ल को लय में सजाने में रदीफ़ का अहम् रोल होता है ! मिसाल के तौर पे  मलिकज़ादा “जावेद” साहब का ये मतला और शे’र देखें :--

मुझे सच्चाई की आदत बहुत है !

मगर इस राह में दिक्कत बहुत है !!

किसी फूटपाथ से मुझको ख़रीदो !

मेरी शो रूम में क़ीमत बहुत है !!

इस ग़ज़ल में बहुत है रदीफ़ है जो बाद में ग़ज़ल के हर शे’र के दूसरे मिसरे यानी मिसरा ए सानी में बार – बार आता है

क़ाफ़िया :-- क़ाफ़िया ग़ज़ल का मत्वपूर्ण हिस्सा है बिना क़ाफ़िए के ग़ज़ल मुकम्मल नहीं हो सकती ! शे’र कहने से पहले शाइर के ज़हन में ख़याल आता है और  फिर वो उसे शाइरी बनाने के लिए  रदीफ़,क़ाफ़िए तलाश करता है ! क़ाफ़िए का इंतेखाब (चुनाव )शाइर को बड़ा सोच–समझ कर करना चाहिए ! ग़लत क़ाफ़िए का इस्तेमाल शाइर की मखौल उड़वा देता हैं ! राहत इन्दौरी का ये मतला और  शे’र देखें :--

अपने अहसास को पतवार भी कर सकता है !

हौसला हो तो नदी पार भी कर सकता है !!

जागते रहिये,  की  आवाज़ लगाने वाला !

लूटने वाले को होशियार भी कर सकता है !!

इसमें पतवार,पार,होशियार क़ाफ़िए हैं और “ भी कर सकता है”

रदीफ़ है !जिस शे’र में दोनों मिसरों में क़ाफ़िया आता हो उसे मतला कहते हैं ! किसी ग़ज़ल की आगे की राह मतला ही तय करता है ! मतले में शाइर जो क़ाफ़िए बाँध देता है  फिर उसी के अनुसार उसे आगे के शे’रों में क़ाफ़िए रखने पड़ते हैं ! जैसे किसी शाइर ने मतले में किनारों , बहारों का क़ाफ़िया बांधा है तो वह शाइर पाबन्द हो गया है कि आगे के शे’रों में आरों का ही क़ाफ़िया लगाए ना कि ओ का क़ाफ़िया  जैसे पहाड़ों , ख़यालों का क़ाफ़िया ! हिंदी ग़ज़ल के बड़े शाइर  दुष्यंत कुमार ने भी अपनी ग़ज़लात में ग़लत क़ाफ़िए बांधे और तनक़ीद कारों को बोलने का मौका दिया ! दुष्यंत कुमार की एक बड़ी मशहूर ग़ज़ल है :----

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए !

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए !!

वे मुतमईन है कि पत्थर पिघल नहीं सकता !

मैं बेक़रार हूँ आवाज़  में  असर  के लिए !!

इस ग़ज़ल के मतले में “घर” के साथ “शहर” का क़ाफ़िया जायज़ नहीं है ,दुष्यंत साहब जैसे शाइर ने फिर अगले शे’र में “असर” का क़ाफ़िया लगाया उसके बाद इसी ग़ज़ल में उन्होंने “नज़र” ,”बहर” ,”गुलमोहर” और “सफ़र” के क़ाफ़िए बांधे ! इस पूरी ग़ज़ल में शहर और बहर के क़ाफ़िए का इस्तेमाल दोषपूर्ण है ! दुष्यंत कुमार की इसके लिए बड़ी आलोचना भी हुई !

ग़लत क़ाफ़िए को शे’र में बरतना शाइर की मुआफ नहीं करने वाली ग़लती है ! ये सब बातें यूँ ही नहीं आती हैं इसके लिए अच्छा मुताला (अध्ययन) होना ज़रूरी है मगर लोगों को पढ़ने का तो वक़्त ही नहीं है बस क़लम और काग़ज़ पर कहर बरपा के सिर्फ़ छपने का शौक़ है ! स्वयंभू ग़ज़लकारों के अख़बारात और रिसालों में छपने की  इस हवस ने सबसे ज़ियादा नुक़सान शाइरी का किया है !

वापिस ग़ज़ल  पे आता हूँ .. शाइर अपने जिस उपनाम से जाना जाता है उसे ”तख़ल्लुस” कहते हैं और अपने तख़ल्लुस का जिस शे’र में शाइर इस्तेमाल करता  है वो शे’र  “मक़ता” कहलाता है !

मासूम परिंदों को आता ही नहीं “निकहत” !

आगाज़ से घबराना ,अंजाम से डर जाना !!

ये मक़ता डॉ.नसीम “निकहत” साहिबा का है, शाइरा ने इस शे’र में अपने तख़ल्लुस का इस्तेमाल किया है सो ये मक़ता हुआ !

ग़ज़ल से त-अल्लुक़  रखने वाली  जिन बातों का मैंने ज़िक्र किया, अपने ख़यालात को ग़ज़ल बनाने के लिए सिर्फ इतना जान लेना ही काफ़ी नहीं है ! ग़ज़ल कहने के लायक बनने  के लिए और भी बहुत से क़ायदे-क़ानून /ऐब - हुनर हैं जिन्हें एक शाइर को सीखना चाहिए !

शाइरी में कुछ ऐब है जिन्हें  शुरू – शुरू में हर शाइर नज़रंदाज़ करता है !ये ऐब अच्छे –भले शे’र और शाइर  को तनक़ीद वालों (आलोचकों ) के कटघरे में खड़ा कर देतें हैं !

शतुरगुरबा ऐब ..शतुर माने ऊंट और गुरबा माने बिल्ली यानी ऊंट –बिल्ली को एक साथ ले आना इस ऐब को जन्म देता है! ग़फ़लत में शाइर ये ग़लती कर जाता है ! जैसे पहले मिसरे में “आप” का इस्तेमाल हो और दूसरे में “तुम” का प्रयोग करे या यूँ कहें कि संबोधन में समानता ना हो तो शतुरगुरबा ऐब हो जाता है !

ग़ज़ल में कभी “ना” लफ़्ज़ का इस्तेमाल नहीं होता इसकी जगह सिर्फ़ “न” का ही प्रयोग किया जाता है ,”ना” का इस्तेमाल सिर्फ़ उस जगह किया जाता है जहां “ना“हाँ की सूरत में हो जैसे भाई पवन दीक्षित का ये शे’र :-

पारसाई न काम आई ना !

और कर ले शराब से तौबा !!

ज़म :-- कई बार शाइर ऐसा मिसरा लगा देते है जिसका अर्थ बहुत बेहूदा निकलता है ,या शाइर से  ऐसे लफ़्ज़ का अनजाने में इस्तेमाल हो जाता है  जिसके  मआनी फिर शाइरी की तहज़ीब से  मेल नहीं खाते ! ज़म के ऐब से शाइर को बचना चाहिए !

कई बार शाइर बहर के चक्कर में अब, ये, तो,भी,वो आदि लफ़्ज़ बिना वज्ह शे’र में डाल देता है जबकि कहन में उस लफ़्ज़ की कोई ज़रूरत नहीं होती ! शाइर को भर्ती के लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से भी बचना चाहिए ! जहां तक शाइरी में ऐब का सवाल है और भी बहुत से ऐब है जिन्हें एक शाइर अध्ययन और मश्क़ कर- कर के अपने कहन से दूर कर सकता है !

शाइरी में ऐब इतने ढूंढें जा सकते है कि जिनकी गिनती करना मुश्किल है मगर जहां तक हुनर का सवाल है वो सिर्फ़ एक ही है और वो है “बात कहने का सलीक़ा” ! अपने ख़याल को काग़ज़ पे सलीक़े से उतारना आ जाए तो समझो उस शाइर को शाइरी का सबसे बड़ा हुनर आ गया है ! एक सलीक़ामंद शाइर बेजान मफ़हूम और गिरे पड़े लफ़्ज़ों को भी अपने इसी हुनर से ख़ूबसूरत शे’र में तब्दील कर सकता है ! ज़ोया साहब के ये मिसरे मेरी इस बात की पुरज़ोर वकालत कर सकते हैं :-

कट रही है ज़िंदगी रोते हुए !

और वो भी आपके होते हुए !!

इसी तरह शमीम बीकानेरी साहब का एक मतला और शे’र बतौर मिसाल अपनी बात को और पुख्ता करने के लिए पेश करता हूँ :--

रातों  के  सूनेपन  से  घबरायें क्या !

ख़्वाब आँखों से पूछते हैं, हम आयें क्या !!

बेवा का सा हुस्न है दुनिया का यारों !

मांग इसकी सिन्दूर से हम भर जायें क्या !!


मामूली से नज़र आने वाले लफ़्ज़ों को इस तरह के मेयारी  शे’रों की माला में मोती सा पिरो देने का कमाल एक दिन में नहीं आता इसके लिए बहुत तपस्या करनी पड़ती है,शाइरी की इबादत करनी पड़ती है और अपने बुज़ुर्गों के पाँव दबाने पड़ते हैं ! मुनव्वर राना ने यूँ ही थोड़ी कहा है :-

ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़े-सुख़न आया है !

पाँव दाबे हैं बुज़ुर्गों के तो फ़न आया है !!

ग़ज़ल कहने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है आपके पास एक ख़ूबसूरत ख़याल का होना ! उसके बाद उस ख़याल को मिसरों में ढालने के लिए उसी मेयार के लफ़्ज़ भी होंने चाहिए ! लफ़्ज़ अकेले शाइरी में नहीं ढल सकते इसके लिए एक शाइर के पास अहसासात की दौलत होना बहुत ज़रूरी है !एक शाइर के पास अल्फ़ाज़ का ख़ज़ाना भी  इतना समृद्ध होना चाहिए कि उसके ज़हन में अगर कोई ख़याल आये तो उसे लफ़्ज़ों के अकाल के चलते मायूस ना लौटना पड़े !

ग़ज़ल का एक-एक शे’र शाइर से मश्क़ (मेहनत) माँगता है ! किसी शाइर का सिर्फ़ एक मिसरा सुनकर इस बात को बा-आसानी कहा जा सकता है कि इन साहब को शे’र कहने की सलाहियत है या नहीं !

एक और अहम् चीज़ शाइरी को संवारती है वो है इस्ल्लाह (सलाह-मशविरा ) ! कुछ ऐसे ग़ज़लकार हैं जो अपनी तख़लीक़ को ही सब कुछ समझते हैं ! किसी जानकार से सलाह लेना उन्हें अपनी अना के क़द को छोटा करने जैसा लगता है !  शाइरी में इन दिनों उस्ताद–शागिर्द की रिवायत का कम हो जाना भी शाइरी के मेयार के गिरने की एक बड़ी वज्ह है !

जिस शाइर में आईना देखने का हौसला है ,अपने क़लाम पे  हुई सच्ची तनक़ीद (समीक्षा ) को सुनने का मादा है तो उस शाइर का मुस्तक़बिल यक़ीनन सुनहरा है ! जो तथाकथित शाइर बिना मशकक़त किये बस छपने के फितूर में क़लम घिसे जा रहे हैं वे ग़ज़ल और पाठकों के साथ – साथ ख़ुद को भी धोखा दे रहें हैं !

छपास के शौक़ीनों ने ग़ज़लों के साथ–साथ दोहों पर भी कोई कम ज़ुल्म नहीं ढायें हैं ! दोहे का अरूज़ भी ग़ज़ल जैसा ही है ,ग़ज़ल उन्नीस बहरों में कही जाती है दोहे की बस एक ही बहर होती है ! सरगम सरगम सारगम,सरगम सरगम सार!

 ग़ज़ल कहने के लिए कम से कम आठ – दस क़ाफ़िए आपके ज़हन में होने चाहियें मगर दोहे में तो सिर्फ़ दो ही क़ाफ़ियों की ज़रूरत होती है तो भी अपने आप को मंझा हुआ दोहाकार कहने वाले ऐसे –ऐसे दोहे लिख रहें है जिनके बरते हुए क़ाफ़िए आपस में ही झगड़ते रहते हैं ! ऐसे दोहों से त्रस्त होकर मैंने एक दोहा लिखा था :---

दोहे में दो क़ाफ़िए , दोनों ही बे-मेल !

ना आवे जो खेलना ,क्यूँ खेलो वो खेल !!

ग़ज़ल के शे’र और दोहे छंद की मर्यादा में कहे जाते है! बिना बहर और छंद के इल्म के इन दोनों विधाओं पे हाथ आज़माना सिर्फ़ अपनी हंसी उड़वाना है ! ग़ज़ल के सर से दुपट्टा उतारने वाले ये क्यूँ नहीं समझते कि पाठक इतने बेवकूफ़ नहीं है जितना वे समझते हैं ! एक अलमिया ये भी है कि बहुत से जानकार लोग सब कुछ जानते हुए भी इनकी ग़ज़लों की तारीफ़ कर देते हैं जिससे इन नक़ली सुख़नवरों का हौसला और बढ़ जाता है ! अपने ज़ाती मरासिम (सम्बन्ध) बनाए रखने के लिए कुछ मोतबर शाइर भी ग़ज़ल के श्रंगार से छेड़- छाड़ करने वालों की शान में जब कसीदे पढ़ते है तो ऐसे अदीब (साहित्यकार) भी मुझे  ग़ज़ल के दुश्मन नज़र आते है !

मैं जानता हूँ ये मज़मून बहुत से लोगों के सीने पे सांप की तरह रेंगेगा मगर ये कड़वी बातें मैंने शाइरी के हित में ही लिखी हैं ! ग़ज़ल से बे-इन्तेहा मुहब्बत ने मुझे ये सब लिखने की हिम्मत दी है ! मैं जानता हूँ ज़ाती तौर पे मुझे इसका नुक़सान भी होगा , कुछ अदब के मुहाफ़िज़ नाराज़ भी हो जायेंगे खैर ये सच बोलने के इनआम हैं ! जब पहली मरतबा ये पुरस्कार मुझे मिला तो ये पंक्तियाँ  ख़ुद ब ख़ुद हो गयी थी  :--

इक सच बोला और फिर , देखा ऐसा हाल !

कुछ ने नज़रें फेर लीं , कुछ की आँखें लाल !!

ग़ज़ल का ये बड़प्पन है कि वो उनको भी अपना समझ लेती है जो उसके साथ चलने की तो छोडिये साथ खड़े होने के भी क़ाबिल नहीं हैं ! अपने आपको शाइर समझने वाले ग़ज़ल के ख़िदमतगारों से मेरी गुज़ारिश है कि ग़ज़ल कहने से पहले इसे कहने का हक़ रखने के लायक बने ! ग़ज़ल कहने से पहले उसके तमाम पेचो-ख़म के बारे में जाने ! शाइरों का काम आबरू ए ग़ज़ल की हिफ़ाज़त करना है ना कि ग़ज़ल को बे-लिबास करना ! केवल तुक मिलाने से सुख़नवर होने का सुख नहीं मिलता  जहां तक तुकबंदी का सवाल है तुकबंदी तो लखनऊ ,दिल्ली और लाहौर के तांगे वाले भी इन शाइरों से अच्छी कर लेते है ! ग़ज़ल से बिना मुहब्बत किये उसकी मांग भरने की ख़्वाहिश रखने वाले इन अदीबों से एक और इसरार (निवेदन) कि छपने और झूठी शुहरत के चस्के में ऐसा कुछ ना लिखें  जिससे जन्नत में आराम फरमा रही  मीर ओ ग़ालिब की रूहों का चैन और सुकून छीन जाए और यहाँ ज़मीन पे ग़ज़ल का दामन उनके आंसुओं  से तर हो जाए !

परवरदिगार से ग़ज़ल के हक़ में यही दुआ करता हूँ  कि ख़ुद को शाइर समझने का वहम पालने वाले ग़ज़ल को बेवा ना समझें ,ग़ज़ल कहने से पहले उसे कहने की सलाहियत, अपने जुनून, अपनी मेहनत, अपनी साधना से हासिल करें ताकि ग़ज़ल भी अदब के बाज़ार में इठलाती हुई चल सके और ख़ाकसार को अपने दिल पे ग़ज़ल की पीड़ा का टनों बोझ लेकर किसी शाइर को जो तथाकथित ग़ज़लकार कहना पड़ता है वो फिर से ना कहना पड़े ! आख़िर में तश्ना कानपुरी के इसी मतले के साथ इजाज़त चाहता हूँ ...

एक भी  शे’र अगर हो जाए !

अपने होने की ख़बर हो जाए !!

आमीन..!






(लेखक परिचय 
जन्म: 15 अगस्त 1972, हनुमान गढ़ (राजस्थान)
शिक्षा: विद्युत् इंजीनियरिंग में स्नातक एवं एमबीए
सृजन:
गत पंद्रह  वर्षों से शायरी पर लेखन. दोहा  लेखन भी ...
           विभिन्न अखबारात के लिए साप्ताहिक कॉलम
सम्प्रति:
सीमा सुरक्षा बल में सहायक कमांडेंट ( विद्युत् ), बीकानेर
संपर्क:  vijendra.vijen@gmail.com )




Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

3 comments: on "ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है......."

Unknown ने कहा…

बहुत खूब. हमारे जैसे पिद्दियों के लिए बहुत रौशनी.

सुनीता शानू ने कहा…

वाह भैया पढ़ने के लिये बहुत कुछ है यहाँ

sushil ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी। शुक्रिया।

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)