ऐसा नहीं कह सकते कि थिएटर दम तोड़ रहा
विभा रानी
सैयद शहरोज़ कमर से संवाद
लेखक किसी किरदार को जीता है..उसे किसी चित्रकार सा कागज़ ए कैनवास पर उतारता है..लेकिन लेखक ही उस किरदार को अपने अभिनय में डूबती आँखों जीवंत कर दे ...कली सी मुस्कान दे..पहली बारिश सा भिगो दे..प्राय:ऐसे रचनाकार इतिहास में मिलते हैं.लेकिन हिंदी व मैथिली में स्थापित विभा रानी ऐसी ही नाट्यकर्मी और लेखक हैं. एकपात्रीय नाटकों को उन्होंने नई ज़िंदगी अता की है. संजीव कुमार को तो वक्फा मिलता होगा ..कई रीटेक हुआ होगा..लेकिन एक ही मंच पर समानांतर बच्चा, युवा और बुज़ुर्ग की अदायगी.आप विभा के अभिनय को देख कर उंगली दबा लेंगे दांतों में...झारखंडी साहित्य संस्कृति अखडा की दावत पर ६ जून को उन्होंने रांची में बुच्ची दाई का मंचन किया. दूसरी दोपहर अखडा के दफ्तर में उनसे मिलना होता है..बिना किसी औपचारिकता के बात तरतीब पर आती है. आइये उनसे बतियाते हैं.
रंगमंच की शुरुआत
स्कूली दिनों से ही। तब पांचवी या छठवीं में रही होगी। मां स्कूल हेडमास्टर थीं। सन 1969 में महात्मा गांधी की सौवी जयंती मनाई जा रही थी। स्कूल में हो रहे नाटक में मैं हिस्सा लेना चाहती थी। मां ने मना कर दिया। आखिर मेरी जिद के आगे वह मान गईं। जब मैं एक सिपाही की भूमिका में मंच पर आई, तो अपना संवाद ही भूल गई। मां ने पीछे से कहा, तो हड़बड़ी में अपना डॉयलाग बोल पाई। तब एकांत और और भीड़ में बोलने का अंतर समझ में आया। दर्शकों का सामना इतना आसान नहीं, जितना अपन समझते थे। इस सीख के बल पर इंटर में दस लड़कियों के साथ कई कार्यक्रम किया। जब एमए में आई। दरभंगा रेडियो के लिए कई नाटक किया। कई कार्यक्रम किये। बड़े मंच पर सन 1986 में पहली बार राजाराम मोहन पुस्तकालय, कोलकाता में नाटक का मंचन किया। शिवमूर्ति की कहानी कसाईबाड़ा का यह नाट्य रूपांतर था। खूब पसंद किया लोगों ने। उसके अगले ही वर्ष 1987 में मशहूर नाटककार एमएस विकल के दिल्ली नाट्योत्सव में हिस्सा लिया। दुलारीबाई , सावधान पुरुरवा, पोस्टर, कसाईबाड़ा आदि नाटकों में अभिनय किया। उन्हीं की टेली फिल्म चिट्ठी में काम किया। फिर एक्टिव रंगमंच से पारिवारिक कारणों से किनारे रही। वर्ष 2007 में पुन: एक्टिव थिएटर में आई। मुंबई में मिस्टर जिन्ना नाटक किया। इसमें फातिमा जिन्ना की भूमिका निभाई।
एकपात्रीय नाटक की ओर झुकाव
मुंबई में नाटकों के कई रंग हैं। ज्यादातर कमर्शियल नाटक होते हैं वहां। उसमें कंटेंट नहीं होता। कुछ फिल्मी नाम होते हैं। टिकट बिक जाती है। एकपात्रीय नाटक भी हो रहे हैं, लेकिन अच्छे नहीं। मेनस्ट्रीम में नहीं हैं। मैं इंटर में सबसे पहेल एकपात्रीय नाटक कर चुकी थी। उसकी कहानी एक ऐसी लड़की की थी, जो शादी में अपने घारवालों से दहेज की मांग करती है। मुंबई में मैंने इसे आंदोलन के रूप में शुरू किया। लाइफ ए नॉट अ ड्रीम। यह मेरा पहला मोनो प्ले था। फिनलैंड में इसे करना था। अंग्रेजी में लिखा और वहीं 2007 में अंग्रेजी में मंचन किया। मुंबई में भी चार शो इसके अंग्रेजी में ही किए। हिंदी में इसे रायपुर के फेस्ट में 2008 में किया। उसके बाद सिलसिला चल पड़ा। मुंबई के काला घोड़ा कला मंच के लिए हर साल एक मोनो प्ले कर रही हूं। बालिका भ्रूण हत्या पर 2009 में बालचंदा, 2010 में बिंब-प्रतिबिंब, 2011 में मैं कृष्णा कृष्ण की और इस वर्ष रवींद्र नाथ टैगोर की कहानी पर आधारित भिखारिन का मंचन किया।
रंगमंच की मौजूदा स्थिति
गांव, कस्बे और शहरों में भी लोग सक्रिय हैं। अपने अपने स्तर से रंगमंच कर रहे हैं। आप ऐसा नहीं कह सकते कि थिएटर दम तोड़ रहा है। यह स्थिति संतुष्ट करती है। हां! यह जरूर कह सकते हैं कि रंगमंच को वैसी स्वीकृति अभी नहीं मिली, जैसी और देशों में है। थिएटर को प्रश्रय नहीं दिया जाता है। उसे प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। कई सुविधाएं मिलती भी हैं, तो इसका लाभ महज बड़ लोग ही उठा पाते हैं।
कैदियों के बीच
कई ऐसे कैदी हैं। जिन पर आरोप साबित नहीं हुआ है। वे जेल में बंद इसलिए हैं कि कोई उनका केस लडऩे वाला नहीं होता। कई महिलाएं हैं अपने छोटे बच्चों के साथ। मेंने 2003 से उनके बीच काम करना शुरू किया। बेहद सकारात्मक असर मिला। उनके बीच साहित्य, कला और रंगमंच की बातें की। उन्हीं के साथ मिलकर नाटक किए। उनसे कहानी कविता लिखवाई। पेंटिग्स करवाई। मुंबई के कल्याण, थाणे, भायखला और पुणे के यरवदा आदि जेलों में वर्कशाप भी किया। बहुत अच्छा अनुभव मिला।
सामाजिक बदलाव में रंगमंच
रंगमंच ऐसा टूल है जो व्यक्ति को बदलता है। व्यक्ति समाजिक प्राणी ही है। वह बदलता है, तो समाज में उसका असर होता है। दूसरे लोग भी बदलने का प्रयास करते हैं। यह परिवर्ततन सकारात्मक है, तो स्वाभाविक है, उसका व्यापक असर पड़ता है।
पहला नाटक कब लिखा
सन 1996 97 का सन रहा होगा। दूसरा आदमी, दूसरी औरत। इसका मंचन मुंबई में किया।
संतोष कहां, साहित्य या रंगमंच ?
दोनों का सुख अलग है। लेकिन सच कहूं तो निश्चित ही रंगमंच में मुझे अधिक तसल्ली मिलती है। यहां आप हजारों लोगों से एक ही समय रूबरू होते हैं। अपनी बात पहुंचाते हैं। उसकी प्रतिक्रिया भी तुरंत ही मिल जाती है। इसका सामाजिक प्रभाव पड़ता है।
लेखन पहले मैथिली में या हिंदी में
कहानी हो या नाटक। दोनो भाषाओं में अलग अलग लिखती हूं। बुच्चीदाई पहले मैथिली में ही लिखा। अंतिका में छपा था। बाद में
इसका हिंदी रूपांतरण नवनीत में प्रकाशित हुआ।
नया नाटक
'आओ तनिक प्रेम करें' लिखा है। इसका मंचन अगस्त में हिसार में करने जा रही हूं। इसकी कहानी दो ऐसे पति पत्नी की है, जिनकी उम्र अब साठ पर पहुंची है। पति को अब सालता आता है कि प्रेम का अनुभव उसे तो हुआ ही नहीं।
नई किताब
'कर्फ्यू में दंगा' नामक कथा संग्रह अभी रेमाधव से छपकर आया है।
यह बातचीत भास्कर के लिए की गयी
विभा रानी
सैयद शहरोज़ कमर से संवाद
लेखक किसी किरदार को जीता है..उसे किसी चित्रकार सा कागज़ ए कैनवास पर उतारता है..लेकिन लेखक ही उस किरदार को अपने अभिनय में डूबती आँखों जीवंत कर दे ...कली सी मुस्कान दे..पहली बारिश सा भिगो दे..प्राय:ऐसे रचनाकार इतिहास में मिलते हैं.लेकिन हिंदी व मैथिली में स्थापित विभा रानी ऐसी ही नाट्यकर्मी और लेखक हैं. एकपात्रीय नाटकों को उन्होंने नई ज़िंदगी अता की है. संजीव कुमार को तो वक्फा मिलता होगा ..कई रीटेक हुआ होगा..लेकिन एक ही मंच पर समानांतर बच्चा, युवा और बुज़ुर्ग की अदायगी.आप विभा के अभिनय को देख कर उंगली दबा लेंगे दांतों में...झारखंडी साहित्य संस्कृति अखडा की दावत पर ६ जून को उन्होंने रांची में बुच्ची दाई का मंचन किया. दूसरी दोपहर अखडा के दफ्तर में उनसे मिलना होता है..बिना किसी औपचारिकता के बात तरतीब पर आती है. आइये उनसे बतियाते हैं.
रंगमंच की शुरुआत
स्कूली दिनों से ही। तब पांचवी या छठवीं में रही होगी। मां स्कूल हेडमास्टर थीं। सन 1969 में महात्मा गांधी की सौवी जयंती मनाई जा रही थी। स्कूल में हो रहे नाटक में मैं हिस्सा लेना चाहती थी। मां ने मना कर दिया। आखिर मेरी जिद के आगे वह मान गईं। जब मैं एक सिपाही की भूमिका में मंच पर आई, तो अपना संवाद ही भूल गई। मां ने पीछे से कहा, तो हड़बड़ी में अपना डॉयलाग बोल पाई। तब एकांत और और भीड़ में बोलने का अंतर समझ में आया। दर्शकों का सामना इतना आसान नहीं, जितना अपन समझते थे। इस सीख के बल पर इंटर में दस लड़कियों के साथ कई कार्यक्रम किया। जब एमए में आई। दरभंगा रेडियो के लिए कई नाटक किया। कई कार्यक्रम किये। बड़े मंच पर सन 1986 में पहली बार राजाराम मोहन पुस्तकालय, कोलकाता में नाटक का मंचन किया। शिवमूर्ति की कहानी कसाईबाड़ा का यह नाट्य रूपांतर था। खूब पसंद किया लोगों ने। उसके अगले ही वर्ष 1987 में मशहूर नाटककार एमएस विकल के दिल्ली नाट्योत्सव में हिस्सा लिया। दुलारीबाई , सावधान पुरुरवा, पोस्टर, कसाईबाड़ा आदि नाटकों में अभिनय किया। उन्हीं की टेली फिल्म चिट्ठी में काम किया। फिर एक्टिव रंगमंच से पारिवारिक कारणों से किनारे रही। वर्ष 2007 में पुन: एक्टिव थिएटर में आई। मुंबई में मिस्टर जिन्ना नाटक किया। इसमें फातिमा जिन्ना की भूमिका निभाई।
एकपात्रीय नाटक की ओर झुकाव
मुंबई में नाटकों के कई रंग हैं। ज्यादातर कमर्शियल नाटक होते हैं वहां। उसमें कंटेंट नहीं होता। कुछ फिल्मी नाम होते हैं। टिकट बिक जाती है। एकपात्रीय नाटक भी हो रहे हैं, लेकिन अच्छे नहीं। मेनस्ट्रीम में नहीं हैं। मैं इंटर में सबसे पहेल एकपात्रीय नाटक कर चुकी थी। उसकी कहानी एक ऐसी लड़की की थी, जो शादी में अपने घारवालों से दहेज की मांग करती है। मुंबई में मैंने इसे आंदोलन के रूप में शुरू किया। लाइफ ए नॉट अ ड्रीम। यह मेरा पहला मोनो प्ले था। फिनलैंड में इसे करना था। अंग्रेजी में लिखा और वहीं 2007 में अंग्रेजी में मंचन किया। मुंबई में भी चार शो इसके अंग्रेजी में ही किए। हिंदी में इसे रायपुर के फेस्ट में 2008 में किया। उसके बाद सिलसिला चल पड़ा। मुंबई के काला घोड़ा कला मंच के लिए हर साल एक मोनो प्ले कर रही हूं। बालिका भ्रूण हत्या पर 2009 में बालचंदा, 2010 में बिंब-प्रतिबिंब, 2011 में मैं कृष्णा कृष्ण की और इस वर्ष रवींद्र नाथ टैगोर की कहानी पर आधारित भिखारिन का मंचन किया।
रंगमंच की मौजूदा स्थिति
गांव, कस्बे और शहरों में भी लोग सक्रिय हैं। अपने अपने स्तर से रंगमंच कर रहे हैं। आप ऐसा नहीं कह सकते कि थिएटर दम तोड़ रहा है। यह स्थिति संतुष्ट करती है। हां! यह जरूर कह सकते हैं कि रंगमंच को वैसी स्वीकृति अभी नहीं मिली, जैसी और देशों में है। थिएटर को प्रश्रय नहीं दिया जाता है। उसे प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। कई सुविधाएं मिलती भी हैं, तो इसका लाभ महज बड़ लोग ही उठा पाते हैं।
कैदियों के बीच
कई ऐसे कैदी हैं। जिन पर आरोप साबित नहीं हुआ है। वे जेल में बंद इसलिए हैं कि कोई उनका केस लडऩे वाला नहीं होता। कई महिलाएं हैं अपने छोटे बच्चों के साथ। मेंने 2003 से उनके बीच काम करना शुरू किया। बेहद सकारात्मक असर मिला। उनके बीच साहित्य, कला और रंगमंच की बातें की। उन्हीं के साथ मिलकर नाटक किए। उनसे कहानी कविता लिखवाई। पेंटिग्स करवाई। मुंबई के कल्याण, थाणे, भायखला और पुणे के यरवदा आदि जेलों में वर्कशाप भी किया। बहुत अच्छा अनुभव मिला।
सामाजिक बदलाव में रंगमंच
रंगमंच ऐसा टूल है जो व्यक्ति को बदलता है। व्यक्ति समाजिक प्राणी ही है। वह बदलता है, तो समाज में उसका असर होता है। दूसरे लोग भी बदलने का प्रयास करते हैं। यह परिवर्ततन सकारात्मक है, तो स्वाभाविक है, उसका व्यापक असर पड़ता है।
पहला नाटक कब लिखा
सन 1996 97 का सन रहा होगा। दूसरा आदमी, दूसरी औरत। इसका मंचन मुंबई में किया।
संतोष कहां, साहित्य या रंगमंच ?
दोनों का सुख अलग है। लेकिन सच कहूं तो निश्चित ही रंगमंच में मुझे अधिक तसल्ली मिलती है। यहां आप हजारों लोगों से एक ही समय रूबरू होते हैं। अपनी बात पहुंचाते हैं। उसकी प्रतिक्रिया भी तुरंत ही मिल जाती है। इसका सामाजिक प्रभाव पड़ता है।
लेखन पहले मैथिली में या हिंदी में
कहानी हो या नाटक। दोनो भाषाओं में अलग अलग लिखती हूं। बुच्चीदाई पहले मैथिली में ही लिखा। अंतिका में छपा था। बाद में
इसका हिंदी रूपांतरण नवनीत में प्रकाशित हुआ।
नया नाटक
'आओ तनिक प्रेम करें' लिखा है। इसका मंचन अगस्त में हिसार में करने जा रही हूं। इसकी कहानी दो ऐसे पति पत्नी की है, जिनकी उम्र अब साठ पर पहुंची है। पति को अब सालता आता है कि प्रेम का अनुभव उसे तो हुआ ही नहीं।
नई किताब
'कर्फ्यू में दंगा' नामक कथा संग्रह अभी रेमाधव से छपकर आया है।
यह बातचीत भास्कर के लिए की गयी
4 comments: on "आओ तनिक नाटक से प्रेम करें"
बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति शहरोज़ भाई... विभा जी के बारे में जानकार अच्छा लगा...
badhai..achchha sakshatkar liyaa hai...
बहुत बहुत धन्यवाद।
अति सुन्दर और उत्साहवर्धक सैयद शहरोज़ कमर साहब,विभा रानी जी जैसी अज़ीम अदाकारा के साथ आपकी ये बातचीत उन लोगों के लिए काफ़ी काम की साबित होगी जो नाटक विशेष रूप से एकपात्रीय नाटक के बारे में रूचि रखते हैं.
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- अल्लामा जमील मज़हरी