बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 4 नवंबर 2012

अदालत भी उगलदान है....

क़मर सादीपुरी की कलम से 





 














 1.
ये निजाम क्या निजाम है।
न ज़मीन है, न मकान है।

झूठा, चोर, बेईमान है।
कोहराम है, कोहराम है।

सच को मिलती है सज़ा
अदालत भी  उगलदान  है।

दिल किस क़दर है बावफा
तुझे इल्म है, न गुमान है।

तेरा रुख हुआ,  बेसबब
अब रूह ही गुलदान है।

बोझ तो  है  यूँ क़मर
सजदे में हुआ इंसान है।

2.

ज़िंदगी में एक आया है।
लेकिन बेवक्त आया है।

हम उसे कह नहीं सकते,
जो मेरा ही हमसाया है।

रूह की बात लोग करते हैं,
जिस्म क्यों आड़े आया है।

उनके हंसने की अदा है मासूम,
हमें ये ज़ुल्म बहुत भाया है।

उन्हें  बारिश का पता हो शायद,
हमने तो छत भी नहीं ढाला है।

उसके सोने का गुमाँ हो जबकि
उसी ने नींद को चुराया है।

कौन उस्ताद ग़ज़ल कहता है,
ये तो तुकबंदी का सखियारा है।

( फ़ेसबुक पर कमेंट की शक्ल में चीज़ें उतरती गयी हैं।)

चित्र गूगल से साभार


रचनाकार परिचय







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1 comments: on "अदालत भी उगलदान है...."

अजय कुमार झा ने कहा…

वाह कमाल है । दोनों ही टुकडे अनमोल नगीने सरीखे लगे मुझे , हर पंक्ति प्रभावित करने वाली ।

कुछ बिखरा ,बेसाख्ता , बेलौस , बेखौफ़ ,बिंदास सा

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
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- अल्लामा जमील मज़हरी

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