क़मर सादीपुरी की कलम से
1.
ये निजाम क्या निजाम है।
न ज़मीन है, न मकान है।
झूठा, चोर, बेईमान है।
कोहराम है, कोहराम है।
सच को मिलती है सज़ा
अदालत भी उगलदान है।
दिल किस क़दर है बावफा
तुझे इल्म है, न गुमान है।
तेरा रुख हुआ, बेसबब
अब रूह ही गुलदान है।
बोझ तो है यूँ क़मर
सजदे में हुआ इंसान है।
2.
ज़िंदगी में एक आया है।
लेकिन बेवक्त आया है।
हम उसे कह नहीं सकते,
जो मेरा ही हमसाया है।
रूह की बात लोग करते हैं,
जिस्म क्यों आड़े आया है।
उनके हंसने की अदा है मासूम,
हमें ये ज़ुल्म बहुत भाया है।
उन्हें बारिश का पता हो शायद,
हमने तो छत भी नहीं ढाला है।
उसके सोने का गुमाँ हो जबकि
उसी ने नींद को चुराया है।
कौन उस्ताद ग़ज़ल कहता है,
ये तो तुकबंदी का सखियारा है।
( फ़ेसबुक पर कमेंट की शक्ल में चीज़ें उतरती गयी हैं।)
चित्र गूगल से साभार
रचनाकार परिचय
1.
ये निजाम क्या निजाम है।
न ज़मीन है, न मकान है।
झूठा, चोर, बेईमान है।
कोहराम है, कोहराम है।
सच को मिलती है सज़ा
अदालत भी उगलदान है।
दिल किस क़दर है बावफा
तुझे इल्म है, न गुमान है।
तेरा रुख हुआ, बेसबब
अब रूह ही गुलदान है।
बोझ तो है यूँ क़मर
सजदे में हुआ इंसान है।
2.
ज़िंदगी में एक आया है।
लेकिन बेवक्त आया है।
हम उसे कह नहीं सकते,
जो मेरा ही हमसाया है।
रूह की बात लोग करते हैं,
जिस्म क्यों आड़े आया है।
उनके हंसने की अदा है मासूम,
हमें ये ज़ुल्म बहुत भाया है।
उन्हें बारिश का पता हो शायद,
हमने तो छत भी नहीं ढाला है।
उसके सोने का गुमाँ हो जबकि
उसी ने नींद को चुराया है।
कौन उस्ताद ग़ज़ल कहता है,
ये तो तुकबंदी का सखियारा है।
( फ़ेसबुक पर कमेंट की शक्ल में चीज़ें उतरती गयी हैं।)
चित्र गूगल से साभार
रचनाकार परिचय
1 comments: on "अदालत भी उगलदान है...."
वाह कमाल है । दोनों ही टुकडे अनमोल नगीने सरीखे लगे मुझे , हर पंक्ति प्रभावित करने वाली ।
कुछ बिखरा ,बेसाख्ता , बेलौस , बेखौफ़ ,बिंदास सा
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी