कॅंवल भारती की क़लम से
गीता पर ख़तरनाक राजनीति
तवलीन सिंह वह पत्रकार हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग अन्धविश्वासी पत्रकारिता की थी। लेकिन अब वे भी मानती हैं कि ‘मोदी सरकार ने जब से सत्ता सॅंभाली है, एक भूमिगत कट्टरपंथी हिन्दुत्व की लहर चल पड़ी है।’ उनकी यह टिप्पणी साध्वी निरंजन ज्योति के ‘रामजादे-हरामजादे’ बयान पर आई है। लेकिन इससे कोई सबक लेने के बजाए यह भूमिगत हिन्दू एजेण्डा अब ‘गीता’ के बहाने और भी खतरनाक साम्प्रदायिक लहर पैदा करने जा रहा है।
मोदी सरकार की विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग की है। उन्होंने गीता की वकालत में यह भी कहा है कि मनोचिकित्सकों अपने मरीजों का तनाव दूर करने के लिए उन्हें दवाई की जगह गीता पढ़ने का परामर्श देना चाहिए। इससे भी खतरनाक बयान हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खटटर का है, जिन्होंने यह मांग की है कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। इसका साफ मतलब है कि खटटर भारतीय संविधान की जगह गीता को भारत का संविधान बनाना चाहते हैं।
दरअसल, मोदी के प्रधानमन्त्री बनते ही संघपरिवार का हिन्दुत्व ऐसी कुलांचे मार रहा है, जैसे उसके लिए भारत हिन्दू देश बन गया है और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत में पेशवा राज लौट आया है। शायद इसीलिए गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग करके संघपरिवार और भाजपा के नेता भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं। जिस तरह पाकिस्तान में कटटर पंथियों के दबाव में ईश-निन्दा कानून बनाया गया है, और उसके तहत अल्लाह और कुरान की निन्दा करने वालों के विरुद्ध फांसी तक की सजा का प्राविधान है, जिसके तहत न जाने कितने बेगुनाहों को वहां अब तक मारा जा चुका है। ठीक वही स्थिति भारत में भी पैदा हो सकती है, यदि कटटर हिन्दुत्व के दबाव में गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है। शायद कटटरपंथी हिन्दू पाकस्तिान जैसे ही खतरनाक हालात भारत में भी पैदा करना चाहते हैं, क्योंकि गीता के राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने का मतलब है, जो भी गीता की निन्दा करेगा, वह राष्ट्र द्रोह करेगा और जेल जाएगा। इस साजिश के आसान शिकार सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी होंगे, क्योंकि ये दोनों समुदाय गीता के समर्थक नहीं हैं। इसके तहत अन्य अल्पसंख्यक, जैसे मुस्लिम, ईसाई और सिख समुदाय भी हिन्दू कटटरपंथियों के निशाने पर रहेंगे। वैसे इस खतरनाक मुहिम की शुरुआत नरेन्द्र मोदी ने ही जापान के प्रधानमन्त्री को गीता की प्रति भेंट करके की थी।
सवाल यह भी गौरतलब है कि गीता में ऐसा क्या है, जिस पर आरएसएस और भाजपा के नेता इतने फिदा हैं कि उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करना चाहते हैं? सुषमा जी कहती हैं कि उससे मानसिक तनाव दूर होता है। मानसिक तनाव तो हर धर्मग्रन्थ से दूर होता है। ईसाई और मुस्लिम धर्मगुरुओं की मानें, तो बाइबिल और कुरान से भी तनाव दूर होता है। सिखों के अनुसार ‘गुरु ग्रन्थ साहेब’ के पाठ से भी तनाव दूर होता है। अगर तनाव दूर करने की विशेषता से ही गीता राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने योग्य है, तो बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब को भी राष्ट्रीय ग्रन्थ क्यों नहीं घोषित किया जाना चाहिए। लेकिन, यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब में सामाजिक समानता का जो क्रान्तिकारी दर्शन है, क्या वैसा क्रन्तिकारी दर्शन गीता में है? क्या गीता के पैरोकार यह नहीं जानते हैं कि गीता में वर्णव्यवस्था और जातिभेद का समर्थन किया गया है और उसे ईश्वरीय व्यवस्था कहा गया है? यदि गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाया जाता है, तो क्या वर्णव्यवस्था और जातिभेद भी भारत की स्वतः ही राष्ट्रीय व्यवस्था नहीं हो जाएगी? क्या आरएसएस और भाजपा के नेता इसी हिन्दू राष्ट्र को साकार करना चाहते हैं, तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि भारत में लोकतन्त्र है और जनता ऐसा हरगिज नहीं होने देगी।
यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा के नेताओं का गीता-शिगूफा यादव समाज को, जो अपने को कृष्ण का वंशज मानता है, भाजपा के पक्ष में धु्रवीकृत करने की सुनियोजित राजनीति है। उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों की काफी बड़ी संख्या है, जो वर्तमान राजनीति में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के वोट बैंक बने हुए हैं। लेकिन आरएसएस और भाजपा के नेता प्रतीकों की जिस राजनीति में अभी भी जी रहे हैं, उसका युग कब का विदा हो चुका है। आज की हिन्दू जनता 1990 के समय की नहीं है, जो थी भी, उसमें भी समय के साथ काफी परिवर्तन आया है। कुछ मुट्ठीभर कटटरपंथियों को छोड़ दें, तो आज के समाज की मुख्य समस्या शिक्षा, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं की है, मन्दिर और गीता-रामायण की नहीं है। अतः यदि भाजपा गीता के सहारे यादव समाज को लक्ष्य बना रही है, तो उसे सफलता मिलने वाली नहीं है। (8 दिसम्बर 2014)
गीता, कृष्ण और भाजपा
ऐसा लगता है कि आरएसएस और भाजपा ने उत्तर भारत
के यादवों को पार्टी से जोड़ने के लिए ‘गीता’ का कार्ड खेला है। इसमें
उन्हें सफलता तो मिलनी नहीं है, पर इस बहाने गीता,
कृष्ण और यादव बहस के केन्द्र में जरूर आ गए
हैं।
1.
पूर्ण बहुमत की सत्ता में आते ही आरएसएस और भाजपा के नेताओं को लगने लगा कि ‘गीता’ को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित किया जाना चाहिए। इससे पहले ऐसी आवाज न उठी थी और न
उठाने की उन्होंने हिम्मत की थी। चूँकि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इस
अलोकतान्त्रिक मांग का विरोध नहीं किया है, इसलिए यह मानना होगा कि उनकी स्वीकृति भी इस खेल में है,
अन्यथा क्या मजाल कि सुषमा स्वराज गीता को राष्ट्रीय
ग्रन्थ घोषित करने की मांग करें और मरीजों को गीता पढ़ाने का परामर्श देने के लिए
मनोचिकित्सकों को कहें। और, क्या मजाल
हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खटटर की कि वे यह बेहूदा वक्तव्य दें कि गीता
का स्थान भारत के संविधान से ऊपर होना चाहिए। यह दो नेताऔं का खेल नहीं है,
वरन् इसके पीछे एक सोची-समझी योजना काम कर रही
है। कोई खटटर से पूछे कि क्यों होना चाहिए संविधान से ऊपर गीता का स्थान? इसका कोई तार्किक जवाब है उनके पास? अगर होगा भी, तो वही रटटू तोता वाला घिसा-पिटा जवाब कि यह आस्था का सवाल
है, कि आस्था संविधान से ऊपर
होती है, और यह कि गीता पर करोड़ों
हिन्दुओं की आस्था है। अब आस्था है, तो क्या उसे संविधान से ऊपर कर दोगे? संविधान में आस्था का कोई महत्व नहीं है क्या? जब इसी आस्था का तर्क देकर कोई कटटरपंथी मुसलमान अपने कुरान
को संविधान से ऊपर बताता है, तो आरएसएस और
भाजपा के लोग ही ज्यादा हाय-हाय करते हैं।
2.
सुषमा स्वराज के भी तर्क देखिए, कितने हास्यास्पद हैं! वे कहती हैं कि गीता को पढ़ने से मानसिक तनाव दूर होता
है, शान्ति मिलती है। तनाव से
मुक्ति और शान्ति तो कुरान को पढ़ने से भी मिलती है, बाइबिल को पढ़ने से भी मिलती है और गुरुग्रन्थ साहेब का पाठ
करने से भी मिलती है। इस बात की तस्दीक मुसलमानों, ईसाईयों और सिक्खों से की जा सकती है। अगर वे इसकी तस्दीक
कर दें, तो सुषमा जी गीता के साथ
ही कुरान, बाइबिल और गुरुग्रन्थ
साहेब को भी राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दीजिए। क्या कर सकेंगी ऐसा?
3.
एक सवाल मेरे जहन में यह पैदा हो रहा है कि अगर मोदी सरकार ने गीता को
राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया, हालांकि ऐसा होना
सम्भव नहीं है, तो क्या हो सकता
है? मेरा जवाब यह है कि अगर
ऐसा हुआ, तो भारत में पाकिस्तान
जैसे फासीवादी हालात पैदा हो जाएंगे । जिस तरह वहाँ कटटरपंथियों के दबाव में
ईश-निन्दा कानून बना है, जिसकी आड़ में वहाँ
के मौलवी अपने विरोधियों पर ईश-निन्दा करने का इलजाम लगाकर उन्हें ठिकाने लगवा
देते हैं, उसी तरह की स्थिति भारत
में हो भी जाएगी। यहाँ भी गीता की निन्दा करने वाले को राष्ट्र-द्रोह के अपराध में
जेल में डाल दिया जाएगा। इसकी आड़ में कटटरपंथी हिन्दू अपने विरोधियों को ही
ठिकाने लगाने का काम करेंगे और उनकी हिंसा के आसान शिकार दलित और आदिवासी ही
ज्यादा होंगे, क्योंकि वे स्वयं
को हिन्दू फोल्ड में नहीं मानते हैं। उनकी हिंसा की जद में मुसलमान और ईसाई तो
पहले से ही हैं, तब वे और भी उनके
निशाने पर आ जाएंगे।
4.
चूँकि ब्राह्मणों ने कृष्ण की असुर-विरोधी छवि पहले ही बनाई हुई है, इसलिए आरएसएस उसी का लाभ उठा रही है। उसके सारे
कथावाचक आजकल इसी अभियान में लगे हुए हैं। कल ही मेरे शहर के एक ग्रामीण अंचल में
कथावाचिका मंजू शास्त्री प्रचार कर रही थीं कि असुरों ने पृथ्वी पर देवताओं का जीना
मुश्किल कर दिया था, जिनके विनाश के
लिए कृष्ण को जन्म लेना पड़ा था। यह एक ऐसा मिथ्या प्रचार है, जिसका कृष्ण के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है।
ब्राह्मणों ने कंस के संहारक के रूप में जिस कृष्ण को पुराणों में गढ़ा है,
वे वास्तविक नहीं हैं। वास्तविक कृष्ण इन्द्र
विरोधी, आर्य विरोधी, देवता विरोधी और उनकी पशुबलि तथा यज्ञ-संस्कृति
के विरोधी थे। कृष्ण का जिस इन्द्र से भयानक संघर्ष चला था, उसका वर्णन कोई कथावाचक नहीं करता। आरएसएस के इतिहासकार भी
इसे बताना नहीं चाहते। अगर वे उसे बता देंगे, तो कृष्ण के नाम से जो मिथकीय लीलाधाम उन्होंने खड़ा किया
है, वह ताश के पत्तों की तरह
बिखर जाएगा और उसी के साथ उनका भोगेश्वर भी समाप्त हो जाएगा।
कृष्ण पाण्डवों का समकालीन समझे जाते हैं, पर यह भूल है। धर्म-दर्शन और इतिहास के महाविद्वान
धर्मानन्द कोसम्बी ने अपने ग्रन्थ ‘भारतीय संस्कृति
और अहिंसा’ (1948) में लिखा है कि
कुरु देश में कौरवों और पाण्डवों का साम्राज्य होना और उसी के पड़ोस में, उसी समय, कंस का साम्राज्य होना सम्भव ही नहीं है। उनके अनुसार,
महाभारत में कंस और कौरवों का कोई भी सम्बन्ध
नहीं दिखाया गया है। पौराणिक काल में कृष्ण की और पाण्डवों की कथाओं का मिश्रण
किया गया, पर उसे विश्वसनीय मानने
के लिए कोई आधार नहीं है। कोसम्बी लिखते हैं कि कृष्ण गोरक्षक थे, जबकि इन्द्र के यज्ञों में गोहत्या होती थी।
इसी गोहत्या को रोकने के लिए कृष्ण ने इन्द्र के साथ युद्ध किया था, जिसमें इन्द्र की पराजय हुई थी। कोसम्बी ने
लिखा है कि यदि कृष्ण ने इन्द्र की अधीनता स्वीकार करके उसके नाम से यज्ञ-याग
आरम्भ कर दिए होते, तो कृष्ण भी
दिवोदास की तरह ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध व्यक्ति होते। पर, गायें मारकर यज्ञ करना कृष्ण को पसन्द नहीं था, इसलिए इन्द्र ने उन्हें शत्रु माना और उनकी
गणना असुर-राक्षसों में की गई। लेकिन कोसम्बी कहते हैं कि मध्य हिन्दुस्तान में
कृष्ण की पूजा बराबर जारी थी। इसीलिए ब्राह्मण उन्हें अवतार बनाने पर मजबूर हुए,
पर उनका विकृतीकरण करके। कोसम्बी के अनुसार,
दास और आर्यों के संघर्ष से उत्पन्न बलिपूर्वक
यज्ञ करने की प्रथा का एकमात्र विरोधी देवकीनन्दन कृष्ण ही था।
कोसम्बी के अन्य विवरण से पता चलता है कि सप्तसिंधु प्रदेश पर कब्जा करने के
बाद जब इन्द्र पूर्व की ओर बढ़ा, तो उसका सामना
कृष्ण से ही हुआ था। कृष्ण ने दस हजार सेना के साथ अंशुमति नदी के समीप, जहाँ उनकी छावनी थी, इन्द्र से मुकाबला किया था। इसका उल्लेख ऋग्वेद के आठवें
मण्डल में सूक्त 85 में मिलता है। यहाँ
कृष्ण को ‘तेज चलने वाला असुर’
कहा गया है। कृष्ण की व्यूह रचना जबरदस्त थी,
जिससे इन्द्र को पराजय का सामना करना पड़ा था।
इससे बौखला कर इन्द्र ने कृष्ण के देश में एक प्रसूतिगृह में घुसकर वहाँ सभी
गर्भवती स्त्रियों को मार डाला था। भागवत के दशवें स्कन्ध से यह भी पता चलता है कि
इन्द्र ने कृष्ण समर्थक कुछ अन्य स्त्रियों पर तेज पानी की बारिश करके (धार
छोड़कर) उन्हें मारने की कोशिश की थी, तब कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर (स्त्रियों को किसी पर्वत की आड़ में ले
जाकर) उनकी रक्षा की थी। ये वर्णन बताते हैं कि जो कृष्ण स्वयं असुर या अनार्य थे,
वह असुरों का वध कैसे कर सकते थे?
5.
यह भी देख लेना चाहिए कि क्या गीता से कृष्ण का कोई सम्बन्ध बनता है? गीता गुप्तकाल में किसी समय लिखी गई रचना है,
जिसे बाद में महाभारत में जोड़ा गया होगा। गीता
की रचना से कृष्ण का कोई भी सम्बन्ध नहीं है। कृष्ण का समय ऋग्वेद का समय है,
जबकि गीता के अध्याय 13 के चैथे श्लोक में ‘ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमöिर्विनिश्चितैः’ में ‘ब्रह्मसूत्र’ का उल्लेख स्वयं बताता है कि गीता की रचना ‘ब्रह्मसूत्र’ के बाद हुई थी। ‘ब्रह्मसूत्र’ के रचयिता
वादरायण माने जाते हैं, जिनका समय 300 ई. था। वह जैमिनी के समकालीन थे। पौराणिक
परम्परा वादरायण और वेदव्यास को एक मानती है और पांच हजार साल पहले के महाभारत काल
में ले जाती है, पर राहुल
सांकृत्यायन कहते हैं कि इसका खण्डन स्वयं वेदान्त सूत्रकार के सूत्र करते हैं,
जिनमें सिर्फ बुद्ध के दर्शन का ही नहीं,
बल्कि उनकी मृत्यु (483 ई.पू.) से छह-सात सदियों से भी पीछे अस्तित्व में आने वाले
बौद्ध दार्शनिक सम्प्रदायों- वैभाषिक, योगाचार, माध्यमिक- का
खण्डन है। बुद्धवचनों में, जो ऐतिहासिक माने
जाते हैं, कहीं भी राम-रावण और
कृष्ण-कंस का जिक्र नहीं है, पर पांचवी
शताब्दी में लिखी गईं अट्ठकथाओं में जरूर उनका उल्लेख मिलता है। इस प्रकार गीता चैथी या पांचवी सदी की रचना होनी चाहिए,
जिसका देवकीनन्दन कृष्ण से कोई ऐतिहासिक मेल
नहीं बैठता है।
6.
गीता का धर्म वर्णव्यवस्था और जातिभेद का धर्म है। गीता में कृष्ण के मुॅंह से
अध्याय 4 के श्लोक 13 में कहलवाया गया है कि ‘चातुर्वर्ण व्यवस्था का कर्ता मैं ही हूॅं, यह मेरे द्वारा ही रचा गया है।’ दूसरे शब्दों में गीता में वर्णव्यवस्था
ईश्वरीय व्यवस्था है। ऐसे ग्रन्थ को अगर राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है
तो वर्णव्यवस्था भी स्वतः ईश्वरीय व्यवस्था घोषित हो जाएगी, जबकि कृष्ण की वर्णव्यवस्था में कोई आस्था नहीं थी। (9 दिसम्बर 2014)