सुचित की क़लम से
मेरा प्रेम, मेरी भावनाएं, मेरी अभिव्यक्ति
1.
क्यों लिखूं मैं क्रांति भला?
अपनी नर्म गर्म रजाई में प्रेम के कुनकुने स्वप्नों के बीच
मेरी दुनिया तो झील सी आँखों से नर्म होठों तक है
फुटपाथ वालों की ठण्ड मुझ तक नहीं पहुँचती
मेरे पास होता है मतलब भर पैसा हर पहली तारीख
मेरी दुनिया पीवीआर की फिल्मों और डोमिनोज के पिज़्ज़ा तक है
मैंने किसी का कुछ नहीं छीना
मुझे सड़क पर कूड़ा बीनते बच्चे नहीं दिखते
मेरी दुनिया मेरे बच्चों के मंहगे स्कूलों तक है.
क्यों लिखूं मैं क्रांति भला?
मेरी जिदगी हाई वे पर है.
मेरा प्रेम, मेरी भावनाएं, मेरी अभिव्यक्ति
क्यूँ लिखूं मैं क्रांति भला ??
2.
उन प्यासे पलों में गूंजती तुम्हारी साँसों की सरगम..
मेरी रूह..क़तरा -क़तरा पीती है
ह्रदय और आत्मा के साथ.
जब सम्पूर्ण देह प्रेम की भाषा बोलने लगती है
बहुत पास आ कर हम
प्रेम में बहुत दूर निकल जाते हैं
‘मैं’ और ‘तुम’ हटा कर
सिर्फ ‘हम’ बचते हैं
लयबद्ध..निर्वाण को प्राप्त करते हम
धीरे-धीरे किसी और आयाम में चले जाते हैं
जीवन अपनी तीव्रतम गति में आ कर ही ठहर जाता है
उफ़..
उलझी साँसों में सब कितना उलझा उलझा है.
भाव भी,शब्द भी..शायद जीवन भी..
लेकिन यही उलझन सब सुलझा देगी.
शायद..
3.
वर्ण माला ..
उन्हें ‘क’ से ‘कलम’ पढने दो,
कहीं उन्होंने ’क’ से ‘क्रांति’ पढ़ ली..
तो वो ‘ख’ से ‘खरगोश’, ‘ख’ से ‘खतरा’ बन जायेंगे..
उनके ‘ग’ से ‘गर्दिश’ रहने दो..
कहीं वो ‘ग’ से ‘गरिमा’ पढ़ बैठे तो..
फरियादों के ‘घ’ से ‘घंटे’..जन चेतना के ‘घोष’ में न बदल जाएँ..
‘च’ से ‘चंचल’ रहने दो,कहीं ‘च’ से ‘चयन’ सीख लिया तो..
कहीं ‘छ’ की ‘छतरी’ तुम्हारी मान्यतायों को ‘छल’ न ले..
‘ज’ से ‘जड़’ रहने दो..
कहीं ‘ज’ से ‘जलना’ सीख लिया तो..
तुम्हारे ‘झ’ से ‘झूठ’..
हिल न जाएँ उनके ‘झंझावात’ से..
‘ट’ से ‘टलते’ रहने दो उन्हें..
कहीं ‘ट’ से ‘टक्कर’ सीख ली तो..
कहीं ‘ठ’ से तुम्हारे ‘ठहाके’,’ठ’ से ‘’ठहर’ न जाएँ..
बदलने मत देना यह वर्ण माला..
कहीं यह बदल गयी तो सब बदल न जाये..
4.
ऐसे थोड़े होता है..
प्यार कोई फेसबुकिया बहस थोड़े है..
मूड मौका देख कर..
हुयी हुयी न हुयी..
मैं, किसी प्रियजन द्वारा जबरदस्ती tag की तस्वीर नहीं..
जिसे खीझे मन से like करो..
न मैं बहुमत समर्थित पोस्ट पर असहमति का comment..
जिसे लोकतान्त्रिक मूल्यों के नाम पर..
अनमने भाव से appreciate करना पड़े तुम्हे..
मैं नहीं तुम्हारी profile pic या cover photo..
जो वक़्त के साथ बदल जाये..
मैं तो बस रहना चाहता हूँ..
तुम्हारे फेसबुक login का email..
छुपा..और अपरिहार्य..
तुम्हारे लिए..जब तुम्हे जरूरत हो मेरी..
बस इतना करना..log in id change मत करना ..
5.
प्रेम..
मैंने कब रचा था तुम्हें..
इस स्थूल में सूक्ष्म का संचार तो तुम ही कर गए थे..
मेरी प्राण प्रतिष्ठा तुमने ही की थी..
मैंने नहीं दिए कभी कोई शब्द विन्यास..
नहीं रची कभी कोई कविता तुम पर..
अनुभूतियों के वाहक..
सब भावों के प्रणेता तुम ही तो तो थे..
सब शब्द तुम्हारे ही थे..
अपूर्ण स्वप्नों और अतृप्त इच्छायों के बीच..
अकल्पनीय,मधुरतम क्षणों के बीच..
तुम ही तो ..
यत्र तत्र सर्वत्र..
मैं हूँ ही कहाँ ..प्रेम..
संभवतः एक वाहक मात्र..
आभार तुम्हारा..
मेरे अस्तित्व में जीवन के संचार के लिए..
6.
एक टुकड़ा चांद..एक टुकड़ा नदी..
और कुछ चांदनी की बात..
एक टुकड़ा ख़ुशी..एक टुकड़ा गम..
और कुछ जिन्दगी की बात..
एक टुकड़ा मैं..एक टुकड़ा तुम..
और कुछ आशिकी की बात..
एक टुकड़ा वक़्त..एक टुकड़ा तकदीर..
और कुछ आवारगी की बात..
एक टुकड़ा वफ़ा..एक टुकड़ा तन्हाई..
और कुछ दीवानगी की बात..
एक टुकड़ा जमीं..एक टुकड़ा आसमाँ..
और कुछ तिश्नगी की बात..
7.
हाँ,दर्द होता है मुझे अभी भी..
और मानने में कोई शर्म भी नहीं..
दिल करता है तो थोडा रो लेता हूँ..
अधूरे सपनों में खो लेता हूँ..
मुझे इस दर्द को बहलाना नहीं है..
न सिद्धांतों के पीछे छुपाना है..
न दिव्य प्रेम का आवरण देना है..
न ही मैं इसे रचना की शक्ति बनाना चाहता हूँ..
मैं चाहता हूँ इसको स्वीकार करना..
इस से गुजरना ही सही लगता है..
मैं साधारण मानव हूँ और..
साधारण प्रेम करना चाहता हूँ..
अलौकिक प्रेम की चाह नहीं है मुझे..
मैं तुम्हे चाहता हूँ..
तुम्हारा साथ चाहता हूँ..
तुम्हारा स्पर्श भी..
तुम्हारी बातें सुननी हैं मुझे..
तुम्हारे हाथों को हाथ में लेना है..
तुम्हारी गोद में सर रख कर सोना भी चाहता हूँ..
तुम्हें बार बार परेशान करती उस एक लट को..
बार बार हटाना है मुझे..
मुझे चाहिए तुम्हारी हर रोक टोक..
तुम्हारा गुस्सा तुम्हारा रूठना..
और तुम्हे मनाना भी चाहता हूँ मैं..
चाहे बेसुरा गाना गा कर ही सही..
मुझे नहीं करना है कोई त्याग..
मुझे नहीं बनना है महान..
मैं साधारण मानव हूँ..
साधारण प्रेम चाहता हूँ..
8.
आओ कुछ बदलाव लाये
सूरज की तपिश कुछ कम करें
चाँद की चांदनी कुछ बढ़ाएं
आओ..कुछ बदलाव लायें.
हाथ बढ़ाएं तो पहुँच में हो
आसमां को इतना नजदीक लायें
हर आंसू पोंछ दें..हर चेहरे पे मुस्कान सजाएँ
आओ कुछ बदलाव लायें.
हर खेत में हरियाली हो
हर मेहनत में बरकत हो
छोटी छोटी खुशियों से हर जिन्दगी सजाएँ
आओ कुछ बदलाव लायें.
अन्याय का नाम मिटा दें
एक नयी दुनिया बनायें
फूलों के रंग संवारें ..चिड़ियों के साथ गायें
आओ कुछ बदलाव लायें
कुछ कुछ बचपना करें
कुछ कुछ बड़प्पन भुलाएँ
इन्सान से इन्सान के बीच का भेद मिटायें
आओ कुछ बदलाव लायें..
(कवि-परिचय:
जन्म: 7 दिसंबर 1981 को इलाहाबाद में
शिक्षा: 'आंग्ल भाषा' और 'राजनीती शास्त्र ' से कला स्नातक, रूहेलखंड विश्विद्यालय से
सृजन : 'स्त्री मुक्ति' की पत्रिका में दो कवितायेँ प्रकाशित
संप्रति : इलाहाबाद में ही एक फार्मास्यूटिकल कम्पनी में रीजनल मैनेजर
अन्य: 'स्त्री मुक्ति संगठन' के सदस्य के रूप में विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय
संपर्क:suchhitkapoor@gmail.com )
12 comments: on "क्यों लिखूं मैं क्रांति भला? "
एक टुकड़ा वक़्त..एक टुकड़ा तकदीर..
और कुछ आवारगी की बात..wahhhhhh
शुक्रिया कल्याणी जी ।
कवि के उसके उत्कृष्ट सोच और अद्भुत लेखनी के लिए ढेरों बधाई। वर्णमाला में पूरे संसार की बातें यू कह दी जैसे एक शिक्षक ।कभी चांदनी की अलोकिक बातें तो कभी प्यार की अपूर्व मनुहार। इन्हें खूब खूब शुभकामनाएँ
बहुत बहुत धन्यवाद राकेश पाठक जी,आभार
बढ़िया कविताएँ हैं।
शाहनाज़ इमरानी .....
कविता महज शब्दों की उठा-पठक से परे भावों जुगलबंदी भी है। और सुचित की उपरोक्त सभी कविताओं में ये जुगलबन्दी सहज ही भावविभोर कर जाती है। कवि को बधाई।
बधाई सूचित...उतर गए हो मैदान में अब जमें रहना :)
Beautiful Poems
शुक्रिया !
ज़ाकिर जी, धन्यवाद । आप ने हौसला दिया ।
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- अल्लामा जमील मज़हरी