बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 2 मई 2014

न रह ख़ामोश ऐ औरत तू कुछ कहती तो अच्छा था



 









कल्याणी कबीर की क़लम से

क़लम  पहले  तो  मेरी  ही  ज़ुबानी  लिखना

क़लम  पहले  तो  मेरी  ही  ज़ुबानी  लिखना
फिर कभी और ज़माने  की  कहानी लिखना

जलन सीने  में अगर हो तो  आग लिख  देना
सुकून  दिल को मयस्सर हो तो पानी लिखना
.
जिसकी अस्मत को किया दाग़दार दुनिया ने
कफ़न मज़लूम का जैसा भी था धानी लिखना

आजमाईश में  मेरे ज़ब्त के चलेँ  खंज़र  
आज इसको भी वफ़ाओं की निशानी लिखना

 जिन्हें  रोटी की  तलब  थी, बारूद ले आये
राह भटकी कहाँ  जंगल में जवानी लिखना

बेबसी में जहाँ दम तोड़ रही उम्मीदें 
वहीं  आँखों में उजालों  की रवानी लिखना



2. 


मेरे अंदर की औरत डर न जाए कहीं
हौसलों से लिखा मज़मूं बदल न जाए कहीं 

परदे से सही पर बोलती तो हैं इस सरज़मीं की बुतें
राहों पे चीखता कारवाँ ठहर न जाए कहीं

कहाँ रुकते हैं रावण अब बड़ी होने तक सीता के
नन्हीं परियों के कानों तक खबर न जाये कहीं

ख्वाब देखना पर नींद से तुम प्यार मत करना
पहुँच के पाँव मंज़िल पर फिसल न जाए कहीं

बर्फ की सिल्लियों से हैं मेरे माँझी के गहरे ज़ख़्म
छुपा के रक्खा है एक दर्द , पिघल न जाए कहीं


3.

न रह खामोश ऐ औरत तू कुछ कहती तो अच्छा था
वतन के आधे नक़शे पे तू भी रहती तो अच्छा था

नहीं उम्मीद रख गैरों से तेरे अश्क़ पोछेंगे
तू अपने दर्द का मरहम खुद ही बनती तो अच्छा था

नज़र आती नहीं फ़सलें ज़मीं पे अब मुहब्बत की
तू बन के पावनी गंगा , यहाँ बहती तो अच्छा था

जो देते हैं सज़ा तुझको तेरे मासूम होने की
उनके शातिर गुनाहों को नहीं सहती तो अच्छा था

तुम्हें बाज़ार में बिकता खिलौना मानते हैं जो
ऐसे बीमार लोगों से नहीं डरती तो अच्छा था

अगर महफूज़ रखना है तुम्हें नामों-निशां अपना
थके-हारे हुए कदमों से भी चलती तो अच्छा था

4.

मेरी चूड़ी, मेरी बिंदी मेरी पहचान है साहिब
रहे आँचल सदा सर पे यही अरमान है साहिब

ना कह जंजीर तू इसको, ये है चाँदी की एक डोरी
मेरे पायल की रुनझुन पे, मुझे गुमान है साहिब

हमीं से जन्म लेते हैं जमीन पे रिश्तों के सरगम
मेरी ममता के आँचल मॆं शिशु का गान है साहिब

मिटा पाना नहीं आसां विदा कर के भी यादों को
अपने बाबुल की बगिया की हम ऐसी शान हैं साहिब

सभी सर को झुकाते हैं , सभी माता बुलाते हैं
वही दुर्गा , वही काली की हम संतान हैं साहिब

मेरे हाथों में है चाबी तुम्हारे दिल के ताले की
तुम्हारी नींद भी हम हैं , तुम्हारी जान हैं साहिब


5. मेरे हिस्से की थोड़ी सी ज़मीं

कब तक नहीं सीखोगे मेरे रुतबे का एहतराम करना
कब तक मेरी पहचान पर अपने नाम का मुहर लगाकर
लेते रहोगे मालिकाना हक़ सिरफिरे ज़मींदार की तरह

मत रौंदों हमारे ख्वाबों को अड़ियल घोड़े बनकर
कि दुखते हैं लब मेरे दर्द का बोझ ढ़ोते-ढ़ोते
मत भटको महज़ बदन की तंग गलियों के भूगोल में
मेरे ज़ज्बात के गणित को भी जरा गुनगुनाओ तुम
निकलो अब हवस की गंध युक्त झाड़ियों के जंगल से

लगाओ एक तुलसी इंसानियत के महक वाली
ताकि बदनाम न हो आदम और हव्वा का ये आदिम रिश्ता
मत मानो तुम हमें अपना मुकम्मल आसमाँ
पर दे दो मुझे मेरे हिस्से की थोड़ी सी ज़मीं
कि अब एक महफूज़ वतन में जीने को जी चाहता है


6. औरत का दिल पीर की कुटिया

धूप की बूँदें चुनकर-चुनकर
मैं चलती हूँ रूककर-गिरकर
ये जीवन है नदी की लहरें
बहती रहती छलछल-कलकल
औरत का दिल पीर की कुटिया
फेंको न तुम कंकड़-पत्थर
देते धोखा बनकर अपने
चलना उनसे बचकर-बचकर
उड़ने के हैं अपने खतरे
ज़मीं पे रहना डटकर-डटकर
जिन पन्नों में छिपे हैं आँसू
उनकी बातें मतकर, बंदकर

7. मेरा अस्त्तित्व


महज कुछ शब्दों की गठरी नहीं है
मेरा अस्त्तित्व
न ही ये हो हल्ला मचाने का एक जरिया भर है
ये है मेरी सोच का हस्ताक्षर
मेरे होने का प्रमाण -पत्र
मेरी जीवन राह् है ये, जो हलचल से नहीं डरती
न ही घबराती है अनवरत जगती रातों से
ये एक रोशनी है
जिसकी छांव मॆं सांस ले रही है सृष्टि सारी
मेरा वजूद मेरे गर्भ मॆं पल रहे शिशु की तरह है
जो पहचान है मेरे स्त्रीत्व की
और
जिसका जीवित रहना
मेरे जीवित रहने से भी ज्यादा जरूरी है

8. औरत ही नहीं गंगा भी हूँ

मैं तुम्हारे हिस्से की औरत ही नहीं गंगा भी हूँ
बैठो किनारे
बतियाओ मेरी छलछलाती लहरों से
रख दो मेरी सीप में अपने सारे ज़ख़्म
बदल दूँगी मैं जिन्हें मुस्कान की मोती में
पाओगे एक अहसास सुकून भरा
डूबोगे पूरे ईमान के साथ मेरे वजूद में


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कवयित्री की और रचनाएं हमज़बान पर
       




(रचनाकार परिचय:
 जन्म: बिहार  के  मोकामा, बिहार में  ५ जनवरी  को जन्म
शिक्षा: रांची विश्विद्यालय से स्नातकोत्तर 
सृजन:   हिन्दुस्तान,  दैनिक जागरण,  दैनिक  भास्कऱ, प्रभात  खबर,  इस्पात मेल  आदि  में  रचनाएं। काव्य-संग्रह  गीली धूप  प्रकाशित 
संप्रति:  जमशेदपुर के एक स्कूल में  अध्यापिका के अलावा आकाशवाणी  में  आकस्मिक उद्घोषिका
ब्लॉग: kalyani@kabir
संपर्क: kalyani.kabir@gmail.com)



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5 comments: on "न रह ख़ामोश ऐ औरत तू कुछ कहती तो अच्छा था"

editor.cginfo ने कहा…

sabhi rachanayen dil ko chhu leti hain hain, lekhika ko badhai,
sahroj ji bhawnayen silp ka pichha nahin kartin,unhe vaisa hi rahne den angad,tarash me sabda bhi chhil jate hain--dr nirmal sahu

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

अच्छी कविताएँ और ग़ज़ल आस-पास होते बदलावों पर निघा रखती है।और उसे अपने तरीके से विश्लेषित करने, समझने व उससे टकराने की कोशिश करती हैं।

chetna ने कहा…

achhi kavitayein.

ज़ाकिर हुसैन ने कहा…

अगर लेखिका से कुछ शब्द उधार ले लूँ तो
ये खामोश औरत जब कुछ कहती है तो
तो उसमें भी वो अपना स्त्रीत्व ही उंडेल देतीं है।
वो स्त्रीत्व.... जो हम सदियों से अपनी माँ दादी मैन देखते आएं हैं
या बीवियों में।
जिसे अधिकार या बराबरी के नाम पर सबसे ज्यादा अपनी पहचान ही चाहिए
चूड़ी, बिंदी, आँचल वो इन्हेँ अपणी पहचान मानकर भी कहीँ से पुरानी पीढ़ी की नहीं
अपितु समय साथ चलने वाली महिला ही हैं. और यही उनकी रचनाओं क विस्तार है
यही उनकी ताकत , जो यक़ीनन उन्हे और आगे ले जाएगा।

लेखिका को मेरी शुभकामनाएं

amitraja ने कहा…

बहुत अच्छी कविताएं। मन प्रसन्न हो गया।

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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